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शुक्रवार, 15 मई 2020

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध उत्साह का सार

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध उत्साह का सार
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध
रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय
**आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के प्रमुख निबंधकार और आलोचक थे उनका जन्म सन 18 84 में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगौना नामक गांव में हुआ।
 इनके पिता का नाम श्री चंद्रावली शुक्ल उर्दू फारसी के विद्वानऔर मुसलमानी व अंग्रेजी सभ्यता के समर्थक थे ।

***किंतु उनकी माता गाना उस पवित्र और महान वंश की पुत्री थी जिसमें सदियों पूर्व गोस्वामी तुलसीदास ने जन्म लिया था।
 ***।शुक्ल जी को विरासत में ही महान साहित्यिकता प्राप्त हुई थी। शुक्ल जी की आरंभिक शिक्षा उर्दू फारसी में हुई।
 किंतु हिंदी के प्रति उन्हें सहज ही प्रेम था।
 नौवीं कक्षा में पढ़ते हुए एडिशन के एस्से ऑफ इमैजिनेशन कल्पना का आनंद शीर्षक से अनुवाद किया था। 

***अध्ययन समाप्त होने के पश्चात उन्होंने नायब तहसीलदार ई के लिए नामजद किया गया था। किंतु नौकरी में आत्मसम्मान की रक्षा कठिन हो जाती है। समझ कर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया।
 हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में हिंदी विभाग के अध्यक्ष के रूप में वह सुशोभित हुए ।

***स्वभाव से गंभीर सामाजिक व्यवहार में आते उन्हें भीड़ भाड़ और अधिक लोगों से मिलना जुलना पसंद नहीं था ।
एकांत साधना प्रिय थे ।
हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन करते समय उन्होंने विश्वविद्यालय की उत्तम कक्षाओं के लिए समर्थ प्रयास किए। सन 1941 में उनका देहांत हो गया। 
प्रमुख रचनाएं-

**आचार्य रामचंद्र शुक्ल एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे ।
उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचना की जो निम्नलिखित हैं।
 काव्य में रहस्यवाद
 तुलसी ग्रंथावली
 कल्पना का आनंद अनुवाद।
 भ्रमरगीत सार 
जायसी ग्रंथावली
 आलोचना सूरदास 
अभिमन्यु वध
 रस मीमांसा
 बुद्ध चरित्र
 हिंदी साहित्य का इतिहास 
 चिंतामणि भाग 3 
साहित्यिक विशेषताएं 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी प्राय: सभी निबंध विचारात्मक निबंध गंभीरता पाई जाती है।
 चिंतामणि के प्रथम भाग में मनोविकार एवं साहित्य सिद्धांत संबंधित निबंध लिखें।
 उनमें से कुछ निबंध इस प्रकार है
 करुणा
 श्रद्धा 
श्रद्धा और भक्ति 
ईर्ष्या 
कविता क्या है 
उत्साह 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कीर्तिमान स्थापित किए हैं ।

उन्होंने हिंदी समालोचना को शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया है।
 उनके काव्य संबंधी विचार भारतीय हैं और सैद्धांतिक उपयोग किया है।
 क्रोचे के वक्रोक्ति तक की तुलना करते हुए उन्होंने पाश्चात्य अभिव्यंजनावाद को वक्रोक्ति का विलायती उत्थान माना है ।
जायसी ,तुलसी ,सूर की काव्यगत विशेषताओं का उन्होंने सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
 रस मीमांसा में इन्होंने रस के शास्त्रीय विवेचन की मौलिक व्याख्या प्रस्तुत की है।
 भाषा शैली 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध साहित्य में प्रौढ़ एवं प्रांजल भाषा का प्रयोग किया है।
 शब्द चयन वाक्य रचना आदर्श विधान व्यंजना शक्ति आदि में इनकी भाषा निपुणता का बोध कराती है।
 चिंतन तथा भाषा के उत्कर्ष में उनके निबंध विरल है।
 शुक्ला जी की निबंध शैली उनके प्रखर व्यक्तित्व की परिचायक है
 उनके निबंधों में आवश्यकता अनुसार 
समास शैली 
व्यास शैली
निष्कर्ष 
आगमन शैली
 निगमन शैली आदि का प्रयोग मिलता है।
 लोकोक्तियां, मुहावरे अंग्रेजी ,अरबी ,फारसी, आंचलिक शब्दावली का भी प्रयोग मिलता है।
 निष्कर्ष 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य की की अनुपम निधि है इनमें गंभीर विवेचन के साथ-साथ अन्वेषण चिंतन का भी मणिकांचन सहयोग मिलता है ।
स्पष्ट अनुभूति के साथ-साथ अभिव्यंजना का अपूर्व सा मिश्रण मिलता है ।
आचार्य शुक्ल जी के गंभीर व्यक्तित्व उनके निबंधों में विषय गंभीर  है।
 आचार्य शुक्ल जी के गंभीर व्यक्तित्व के अनुकूल ही उनके निबंधों के विषय भी अत्यंत गंभीर हैं ।
व्यवहारिक समीक्षा की नई पद्धति के साथ-साथ सैद्धांतिक तर्क वितर्क, पूर्ण संविधान की अनुपम योजना का चीर स्तरीय मिलता है ।
विचारात्मक निबंधों की अद्भुत कसावट, पूर्ण विचार संकला के साथ-साथ पाठकों की बुद्धि को उत्तेजित करने वाली ।
भाषा की पूर्णता शक्ति प्रदान करने की प्रमुखता भी मिलती है ।
यही कारण है कि शुक्ला जी के निबंध आज भी निबंध साहित्य में अपना श्रेष्ठ स्थान बनाए हुए हैं। उत्साह निबंध आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का हिंदी साहित्य आजीवन ऋणी रहेगा।
धन्यवाद।
उत्साह निबंध
उत्साह आचार्य शुक्ल प्रत्येक मनोवैज्ञानिक निबंध है ।

**इसमें लेखक ने उत्साह नामक भाव की सरल व्याख्या की है।
 मानव मन में उत्पन्न होने वाली साहसपूर्ण आनंद की उमंग को उत्साह की संज्ञा दी है ।
लेखक के अनुसार   दुःख को सहन करने के साथ-साथ आनंद पूर्वक निष्ठा भाव से मानव को उत्साही बनाती है।

 उत्साही वीर को प्राप्त होने वाले उत्साह की मात्रा के आधार पर उत्साह के दो भेद माने जाते हैं।
1. युद्धवीर
2. दया वीर और दानवीरता
 उत्साह 
उत्साह दया दान के प्रति उत्साह किंतु इन सभी प्रकार के उत्सव में कष्ट और हानि के साथ आनंद प्राप्त करने का प्रयत्न अपेक्षित है।

*** बिना बेहोश में फोड़ा चिरना साहस तथा कठिन से कठिन प्रहार सहकर भी अपने स्थान से ना हटना धीरज कहलाएगा और इस साहस तथा धीरज को उत्साह तभी कहा जाएगा ।
जब कर्ता को इन कर्मों में आनंद की अनुभूति हो, उत्साह में धीरज और साहस दोनों का ही योग रहता है।

 परंतु इसकी मूल अनुभूति आनंद की ही रहती है ।

***दान वीरता में धन त्याग का संघर्ष करते हुए शहर से दान देने का साहस अपेक्षित होता है ।
**दानवीर तक यथार्थता इसी में है कि दानी को दान देने के कारण जीवन निर्वाह में कष्ट झेलना पड़े तो वह उसे भी स्वीकार कर ले।
 इसी प्रकार लेखक ने उत्साह के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
उद्धरण

1.सहारा के मरुस्थल की यात्रा 
2.अनुसंधान हेतु दुर्गम पर्वतों की चढ़ाई 
3.भयंकर जातियों के बीच प्रवेश

 आदि की गणना की है ।

***लेखक की धारणा है कि मानसिक कष्ट के साथ-साथ शारीरिक कष्ट भी सहन करना उत्साह माना जाएगा।

***** उत्साह का शुभ या अशुभ भाव होना इसके परिणाम के द्वारा जाना जाता है परिणाम शुरू होने से उसकी गिनती अच्छे भाव में तथा परिणाम अशुभ होने से उसको बुरा समझा जाता है।
 यह आवश्यक नहीं ,उत्साह केवल साहस पूर्ण कार्यों में ही हो ,अपितु किसी भी कार्य में आनंद पूर्ण तत्परता भी उत्साह कहलाएगा।।

** हम अपने मित्रों या बंधुओं के स्वागत में भाग कर खड़े हो जाते हैं तो उत्साही कहलाएंगे ।
उत्साही को कर्मवीर कहा जाता है या बुद्धि भी इसके लिए यह देखा जाना चाहिए कि उत्साह की अभिव्यक्ति बुद्धि व्यापार और अवसर पर होती है या बुद्धि द्वारा निश्चित उद्योग में तत्पर होने की दशा पर परंतु साधारण उत्साह की अभिव्यक्ति उद्योग की तत्परता पर ही होती है।

** इसलिए उत्साही को कर्मवीर कहना ज्यादा उपयुक्त होगा।
 कर्म करने की भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है जिसमें साहस और आनंद का सामंजस्य रहता है ।

वीर रस के आलंबन का स्वरूप इतना स्पष्ट नहीं होता जितना की अन्य रसों का।
*** हनुमान द्वारा समुंदर पार लगने का कारण समुंदर नहीं अपितु समुंदर लाने का करम है।

 उषा की गणना एक अच्छे गुणों से होती है किसी कार्य को अच्छा या बुरा होना उसके करने के ढंग अथवा परिणाम में निहित होता है।
 लेकिन शुभ कार्यों में आत्मरक्षा पर रक्षा, देश रक्षा की गणना की है।
 उत्साह में कुछ योगदान बुद्धि का भी आवश्यक है ।
**बुद्धि और शरीर की तत्परता का संबंध में है  कर्मवीर में देखा जाता है।

*** आचार्य शुक्ल ने यह प्रश्न उठाया है कि उत्साह में ध्यान कर्म पर उसके फल पर या व्यक्ति या वस्तु पर रहता है।

 *** उत्तर देते हुए उन्होंने कहा है कि उत्साही मनुष्य का ध्यान पूर्ण रूप से कर्म परंपरा पर होता हुआ।
 उसकी समाप्ति होने की सीमा तक जाता है।

 देखना है जो श्रद्धा या दया से प्रेरित होकर साहस और आनंद के साथ जैसे दूस्साध्य एवं कठिन कार्य में प्रवृत्त होता है।
लेखक ने कर्म अनुष्ठान में प्राप्त होने वाले आनंद का वर्गीकरण किया है ।

कर्म भावना से उत्पन्न 
फल भावना से उत्पन्न 
और विषय अंतर से उत्पन्न 
इनमें से सच्चे कर्म वीरों का आनंद कर्म भावना से उत्पन्न होता है क्योंकि इसमें साहस का योग अपेक्षाकृत कम ना होकर बहुत अधिक होता है।

 उनकी दृष्टि में कर्म और फल में कोई विशेष अंतर नहीं होता है।

** सफल होने पर भी वे हतोत्साहित नहीं होते फल फल भावना का आनंद फल की प्राप्ति अथवा प्राप्ति के अनुसार कम या ज्यादा रहता है ।

कर्म भावना का उत्साह ही सच्चा उत्साह होता है जो प्राप्त होता है।

कर्म की अपेक्षा फल में अधिकार सकती होने पर मनुष्य के मन में यह विचार उत्पन्न होता है कि कर्म भी ना करना पड़े और फल भी अधिक मिले इस धारणा से कर्म करते हुए जो आनंद मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता ।उत्साही व्यक्ति को कर्म करते हुए भी यदि अंतिम फल की प्राप्ति ना हो तो वह एक रमणी व्यक्ति की अपेक्षा अनेक अवस्थाओं में अच्छा रहता है।
**
 **कर्म काल में उसे संतोष का आनंद तो मिलता ही है।
 इसके बाद फल की प्राप्ति पर उसे यह पछतावा नहीं रहता कि उसने प्रयत्न नहीं किया। साधारणतया देखा जाता है कि व्यक्ति में आनंद का कारण तो कुछ और होता है परंतु उससे व्यक्ति में एक ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि अन्य बहुत सी कर्म भी वह सहर्ष कर लेता है।
 निष्कर्ष 
सच्ची लगन एवं कर्तव्य, बुद्धि द्वारा कर्म करने वाला व्यक्ति आनंद पूर्ण साहस का प्रदर्शन करता है ।वास्तव में वही उत्साह है ।
उसकी परिभाषा के आधार पर युद्धवीर ,दानवीर कर्मवीर, बुद्धि वीर आदि उत्साही व्यक्ति के भेद किए जा सकते हैं ।
धन्यवाद