5955758281021487 Hindi sahitya : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का निबंध देवदारू के मुख्य बिंदु
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बुधवार, 13 मई 2020

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कृत निबंध देवदारु का सार

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कृत निबंध देवदारू का सार
देवदारु निबंध का प्रतिपाद्य
देवदारु निबंध का उद्देश्य
देवदारु निबंध का सार
देवदारु निबंध आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कृत एक भावात्मक निबंध है।

**द्विवेदी जी के निबंध संग्रह कुटज में संकलित निबंध में लेखक ने   देवदारू वृक्ष की महिमा का परिचय दिया है ।

**देवदारू वृक्ष होते हुए भी पर्वतीय पर्यावरण संरक्षक है।

*** यह महादेव का प्रियतम है यही कारण है देवदारू वृक्ष कहा जाता है।
 **यह वृक्ष नाम और अस्तित्व से महाभारत से भी प्राचीन है ।

**ललित निबंधकार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस वृक्ष की प्रशंसा की है और संदेश देने का प्रयास किया है कि एक सिद्धांत वादी वृक्ष श्रम को समाज से जोड़कर किस प्रकार आम आदमी का पथ प्रदर्शक बन सकता है।

**देवदारू वृक्ष वास्तव में सुंदर है ।
**वह एक आकर्षक वृक्ष भी है ।
**वह धरती से रसाग्रहण करके आकाश को छू लेना चाहता है ।
**हवा के झोंके में जब मिलता है तो वह मस्त होकर झूम उठता है। उसके झूमने में एक अजीब तरह की अनुभूति है जो युग युगांतर की संचित अनुभूति सी प्रतीत होती है। युगों के परिवर्तन को उसने देखा है।

 वहां खूब फल-फूल सके इसलिए देवदारू पर्वतों के नीचे नहीं उतरता है।
 समझौते के रास्ते पर ही नहीं और ना ही उसने अपनी खानदानी चाल से झूमता हुआ ।वह ऐसा मुस्कुराता है मानो कह रहा हो कि मैं सब समझ सकता हूं ।
देवदारू समय के उतार-चढ़ाव का दुर्लभ है निर्मल साथी है ऐसा साथ ही मिलना दुर्लभ है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि यह भगवान शिव काा भी प्रिय वृक्ष हैै किि देवदारू वृक्ष कालिदास और महाभारत से भी पुराना है यह निरंतर आकाश कीी ओर उड़ता चला जाताा है। इसकीी शाखाएं इस मृत्यु लोगों कोो अभयदान देेेेेेने के लिए फैलती चलीी जाती है।

**ऐसा कहा जाता है कि शिव ने प्रसन्न होकर उधम नर्तन किया था ।उस समय उनके शिष्य तांडू मुनि ने उन्हें याद किया उन्होंने जिस नृत्य का प्रवर्तन किया उसी को तांडव नृत्य कहा गया ।
तांडव नृत्य कार तांडू मुनि द्वारा प्रवर्तित भाव नृत्य रस का अर्थ है, और भाव का भी अर्थ है परंतु तांडव ऐसा नाच है जिसमें कोई अभाव नहीं होता लेखक स्वीकार करता है कि तांडव एक प्रकार की समाधि है जिसमें ध्यान धारणा और समाधि तीनों का योग है।
 देवदारू भी क्लासिक तथा उल्लास का सूचक है उसे देवदारू कहना अधिक उचित है देव होकर भी पसंद है तथा तरु होकर भी उसका अर्थ है जिस प्रकार कविता में छंद और अलंकार होते हैं तथा उसका अर्थ होता है और दोनों के कारण ही कविता बनती है इसी प्रकार देव देवता भी और तरू भी।

**उसे देवताओं का कार्ड भी कहा गया है तो उसे पता चलता है कि उसमें मैं तो दया है ,ना माया और ना मोहन ऐसे लगता है कि देवतरू हमेशा सावधान और जागृत रहता है, देवताओं की आंखें हमेशा खुली रहती है कभी बंद नहीं होती।
देवदारु का चमत्कारिक महत्व भी है।

*** लेखक ने अपने गांव के एक महान भूत भगवान ओझा को देवदारू की लकड़ी से भूत भगाते भी देखा है। इसी वजह न लेकर को चमत्कारी कहानी भी सुनाई।
पंडित जी ने जूता उतारा और मुंह से गायत्री मंत्र का उच्चारण कर देवदारू की लकड़ी से भूत को भगा दिया देवदारू की भंय कर
 मार से पराजित होकर भूत ने माफी मांगी और उसकी गुलामी स्वीकार कर ली।
 देवदारू के माध्यम से लेखक हमें बताना चाह रहा है कि भूत का माथा ही नहीं होता ,मस्तिष्क कहां से होगा।।
** भूत प्रेत कोई चीज नहीं होती यह सिर्फ काल्पनिक ता होती है सिर्फ हमारे दिमाग की उपज होती है।

** लेखक समझाना चाहता है कि सब विवेक का प्रयोग करके कल्पनिक बातों से दूर रहना चाहिए।

*"**लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी का देवदारु निबंध के माध्यम से पाठक वर्ग को कुछ उपदेश या संदेश दिए हैं।

1 देवदारू कोई वृक्ष ही नहीं देव और तरु दोनों की विशेषताएं इसकी हैं।
2.देवदारू के माध्यम से लेखक संदेश देता है कि विभिन्न परिस्थितियों आएगी, हर परिस्थिति में समान बने रहना जरूरी है ।देवदारु की तरह अटल और स्थिर रहना ही जीवन का उद्देश्य है।

3.देवदारु निबंध के माध्यम से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बताना चाहते हैं कि परिस्थितियों से समझौता ना करके उनमें समन्वय करने का भाव होना चाहिए।

4.मानव की जाति के आधार पर नहीं उसकी पहचान उसके गुणों के आधार पर होनी चाहिए ।उदाहरण स्वरूप इंदिरा गांधी अपनी राजनीति और कूटनीति के बल से जानी जाती हैं ,ना कि नेहरु की पुत्री के रूप में।


5. स्व विवेक का प्रयोग करने की प्रेरणा दी है।

6, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दी है और भूत-प्रेत जैसी भ्रांतियां  ना फैलाने के लिए कहा है कि भूत कुछ नहीं होते। लेखक का विचार है कि देवदारू मन की भ्रांति को दूर करने वाला वृक्ष है इसे देखकर मन में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है वह भूत भगा वन है, वह विपत्ति मिटा वन है और भ्रांति नाशावन है ।
देवदारु देवता के दुलारे और महादेव के प्यारे वृक्ष है।

7. लेखक ने बताया है कि देवदारु का जैसे अपना अस्तित्व है उसी प्रकार हर एक व्यक्ति का अपना अलग अस्तित्व है उसमें अलग गुण हैं।

 स्व को पहचानने की बात कही है तथा अहम को ठुकराने की बात भी उन्होंने कही है।

देवदारू की भाषा शैली

भले ही दिवेदी जी संस्कृत भाषा के विद्वान थे परंतु वे हिंदी के भी अच्छे ज्ञाता थे।

 उन्होंने देवदारू में तत्सम प्रधान 
शब्दावली का प्रयोग किया है।
भाषा को सहज और सरल बना दिया है।
 इस निबंध में उन्होंने विचारात्मक ,आलोचनात्मक तथा भावात्मक तीनों का सुंदर प्रयोग किया है।

मुख्य बिंदु
हजारी प्रसाद द्विवेदी
कुटज निबंध
ललित निबंधकार
कालिदास और महाभारत से भी प्राचीन
तांडव नृत्य
ध्यान धारणा और समाधि
अचल ,स्थिर