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शनिवार, 11 अप्रैल 2020

कृष्ण काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियां

कृष्ण काव्य की प्रमुख प्रवृतियां
कृष्णभक्ति काव्य परम्परा-

 इस काव्य परम्परा की प्रवृत्तियाँ इस प्रकार से हैं :-

1 विषय-वस्तु की मौलिकता :
 हिंदी साहित्य में कृष्ण काव्य की सृष्टि से पूर्व संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य में कृष्ण भक्ति की पर्याप्त रचनाएँ मिलती हैं । यद्यपि इस सारे कृष्णकाव्य का आधारग्रंथ श्रीमद भागवत है, परंतु उसे मात्र भागवत का अनुवाद नहीं कहा जा सकता । कृष्ण चरित्र के वर्णन में इस धारा के कवियों ने मौलिकता का परिचय दिया है । भागवत में कृष्ण के लोकरक्षक रूप पर अधिक बल दिया है, जबकि भक्त कवियों ने उसके लोक रंजक रूप को ही अधिक उभारा है । इसके अतिरिक्त भागवत में राधा का उल्लेख नहीं है, जबकि इस साहित्य में राधा की कल्पना करके प्रणय में अलौकिक भव्यता का संचार हुआ है । विद्यापति और जयदेव का आधार लेते हुए भी इन कवियों के प्रणय-प्रसंग में स्थूलता का सर्वथा अभाव है । अपने युग और परिस्थितियों के अनुसार कई नए प्रसंगों की उद्भावना हुई है ।

2 कृष्ण का ब्रह्म रूप में चित्रण:
कृष्ण काव्य परम्परा के कवियों ने अपने काव्य में अनेक प्रसंगों में कृष्ण के ब्रह्म रूप को चित्रित किया है ।

3 कृष्ण की बाल लीलाओं का गान:
श्रीकृष्ण-साहित्य का मुख्य विषय कृष्ण की लीलाओं का गान करना है। वल्लभाचार्य के सिद्धांतो से प्रभावित होकर इस शाखा के कवियों ने कृष्ण की बाल-लीलाओं का ही अधिक वर्ण किया है। सूरदास इसमें प्रमुख है।

4 सगुण भक्ति पर बल :
कृष्णभक्त कवियों ने ब्रह्म के साकार और सगुण रूप को ही भक्ति का आधार माना है, कृष्ण-काव्य के माध्यम से उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप का खंडन कर सगुण की प्रतिष्ठा की है । सब विधि अगम विचारहिं, तातें सूर सगुन लीला पद गावै ।

5 भक्ति-भावना : 
वात्सल्य, सख्य, माधुर्य एवं दास्य भाव की भक्ति का प्राधान्य इस काव्य में मिलता है । वात्सल्य भाव के अंतर्गत कृष्ण की बाल-लीलाओं, चेष्टाओं एवं मां यशोदा के ह्रदय की सुंदर झांकी मिलती है । सख्य भाव के अंतर्गत कृष्ण और ग्वालों की जीवन संबंधी सरस लीलाएँ हैं और माधुर्य भाव के अंतर्गत गोपी-लीला प्रमुख है । इन कवियों ने दास्यभाव के विनय पद भी लिखे हैं ; किंतु अधिकतर सख्य अथवा कांताभाव को ही अपनाया है । कांताभाव में परकीया प्रेम को अधिक महत्व दिया है । इसके अलावा नवधा भक्ति के अंगों का भी वर्णन है ।

6 वात्सल्य और बाल-मनोविज्ञान का सजीव चित्रण : 
वात्सल्य रस का अनुपम चित्रण हुआ है । बालकृष्ण की चेष्टाओं का सूक्ष्म और सजीव चित्रण जैसा इन कवियों ने किया है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता । - मैया, कबहुँ बढ़ेगी चोटी । किती बार मोहिं दूध पियत भई अजहूँ है यह छोटी ।

7 रस-वर्णन : 
अधिकतर शांत रस का प्रयोग हुआ है। कृष्ण की विस्मयकारी अलौकिक लीलाओं के कारण अद्भूत -रस का भी निरुपण हुआ है । मुख्य रस भक्ति ही ठहरता है जिसमें वत्सल, श्रृंगार और शांत रसों का मिश्रण है । यत्र -तत्र निर्वेद का भी चित्रण विशेषत: सूर और मीरा के काव्य में मिलता है। माधुर्य भाव का चित्रण अद्वितीय रूप से हुआ है ।शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का अत्यंत मनोहारी वर्णन हुआ है । राधा-कृष्ण के रूप-चित्रण में नख-शिख वर्णन और श्रृंगारिक संबंध -चित्रण में नायक-नायिका भेद के वर्णन का भी विकास हुआ है । वियोग श्रृंगार के लिए भ्रमरगीत प्रसंग अत्यंत महत्वपूर्ण है । संयोग वर्णन : तुम पै कौन दुहावै गैया ? इत चितवन उत धार चलावत, यहै सिखायो मैया ? वियोग वर्णन : कहा परदेशी को पतिआरो? प्रीति बढ़ाय चले मधुबन को, बिछुरि दियो दु:ख भारो ।

8 संगीतात्मकता : 
कृष्ण काव्य संगीतात्मक है । संगीत की राग-रागिनियों का प्रयोग प्राय: सभी कवियों ने किया है । आज भी संगीत के क्षेत्र में इन पदों का महत्व अमिट है । सूर , मीरा, हितहरिवंश, हरिदास आदि कवियों के पदों में संगीत की पूर्व छटा है ।

9 प्रकृति चित्रण : 
भाव-प्रधान काव्य होने के कारण इसमें प्रकृति चित्रण उद्दीपन रूप में अर्थात पृष्ठभूमि रूप में हुआ है । फिर भी प्रकृति के कोमल और कठोर, मनोरम और भयानक दोनों रूपों का समावेश हुआ है । जहां संसार का सौंदर्य इनकी आंखों से छूट नहीं सका है वहीं मानव ह्रदय के अमूर्त सौंदर्य-चित्रण में कल्पना और भाव अपूर्व वर्णन हुआ है ।

10 सामाजिक पक्ष : 
यद्यपि भगवान की लीलाओं का ही चित्रण अधिक हुआ है, लेकिन इसके साथ-साथ लोक-मंगल की भावना भी स्वत: समाविष्ट हो गई । उद्धव-गोपी संवाद में उद्धव को लक्षित करके अलखवादी, स्वाभिमानी, निष्फल कायाकष्ट को ही सर्वश्रेष्ठ साधन मानने वाले योगियों की अच्छी खबर ली है । उपदेशात्मकता का अभाव है । संपूर्ण काव्य सरस और रमणीय है ।

11 काव्य-रूप : 
संपूर्ण साहित्य मुक्तक शैली में ही है । अधिकांश रचना गेय पदों में के रूप में हुई है । कुछ कवियों ने सवैया, घनाक्षरी अथवा अन्य छंदों का भी प्रयोग किया है ।

12 शैली : 
गेय शैली का प्रयोग हुआ है । गीति-काव्य के सभी तत्त्व यथा भावप्रणता, आत्माभिव्यक्ति, संगीतात्मकता, संक्षिप्तता, भाषा की कोमलता आदि मिलते हैं ।

13 छंद : 
गीति-पद, चौपाई, सार और सरसी । दोहा, कवित्त, सवैया, छप्पय, गीतिका, हरिगीतिका आदि छंदों का प्रयोग ।

14 ब्रज भाषा का चर्मोत्कर्ष: 
कृष्णभक्ति काव्य में अत्यंत ललित और प्रांजल ब्रजभाषा के दर्शन होते हैं । भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से कृष्ण काव्य सम्पन्न है ।

15 अलंकार:
इस काव्य-धारा में उपमा, रूपक तथा उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया गया है।

16 लोकोक्तियों व मुहावरों का प्रचुर प्रयोग:- कृष्ण काव्य परम्परा में लोकोक्तियों व मुहावरों का प्रचुर प्रयोग भी  खूब देखने को मिलता है ।

17 प्रकृति चित्रण:
प्रकृति-वर्णन भी इस काव्य धारा में मिलता है। इस काव्यधारा के कवियों ने ग्राम्य-प्रकृति के सुंदर चित्र उकेरे हैं।

18 व्यंग्यात्मकता:
कृष्ण-काव्य व्यंग्यात्मक है। इसमें उपालंभ की प्रधानता है। सूर का भ्रमरगीत इसका सुंदर उदाहरण है।

19 ज्ञान और कर्म के स्थान पर भक्ति को प्रधानता:
श्री कृष्ण-काव्य-धारा में ज्ञान और कर्म के स्थान पर भक्ति को प्रधानता दी गई है। इसमें आत्म-चिंतन की अपेक्षा आत्म-समर्पण का महत्व है।