भक्तिकाल-
*हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग *
हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग ‘भक्तिकाल’ का समय संवत् 1375 से 1700 संवत् तक माना जाता है । भक्तिकाल हिंदी साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण काल है जिसे ‘स्वर्णयुग’ विशेषण से विभूषित किया जाता है ।राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अंतर्विरोधों से परिपूर्ण होते हुए भी इस काल में भक्ति की ऐसी धारा प्रवाहित हुयी कि विद्वानों ने एकमत से इसे हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल कहा ।
भक्तिकाल ही स्वर्ण युग क्यों?
1 आत्मचेतना के प्रेरक कवियों और समाज सुधारकों का उदय-
इसे स्वर्णकाल या स्वर्ण युग कहने का बहुत बड़ा अर्थ और अभिप्राय है। इस काल में ही शताब्दियों से चली आती हुई दासता को तोड़ने के लिए आत्मचेतना के प्रेरक कवियों और समाज सुधारकों का उदय हुआ। रामानंद, बल्लभाचार्य, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, दादूदयाल, रैदास, रसखान, रहीम आदि ने देशभक्ति की लहरों को जगाते हुए मानवतावाद का दिव्य सन्देश दिया।
2 राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक जागृति:
इस काल में ही राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक जागृति की अभूतपूर्व आँधी आयी। उसने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ना व उनको झुकाना शुरू कर दिया। समग्र राष्ट्र का स्वतंत्र रूप सामने आने लगा। एक प्रकार से वैचारिक क्रान्ति की ध्वनि गूँजित होने लगी और समाज स्वावलम्बन की दिशा में आगे बढ़ने लगे।
3 धर्म, जात-पात के भेदों से अलग मानवतावादी कवियों का काव्य:
भक्तिकाल में धार्मिक भावनाओं से उत्प्रेरित विभिन्न मतवादी काव्य साधनाओं को जन्म हुआ। इस प्रकार मतवादों का प्रवाह दक्षिण भारत में आलवार भक्तों के द्वारा प्रवाहित हुआ था। आलवारों के बाद दक्षिण में आचार्यों की परम्परा में विशिष्टाद्वैव, अद्वैत, द्वैत और अद्वैताद्वैत वाद का प्रतिपादन हुआ। विशिष्टाद्वैत के प्रतिपादक रामानुजाचार्य हुए। रामानुजाचार्य की ही परम्परा में रामानन्द जी हुए थे। रामानन्द की लम्बी शिष्य श्रृंखला थी। उसमें कबीरदास जुलाहा, भवानन्द ब्राहमण, पीपा राजपूत धन्ना जाट, सेना नाई, रैदास चमार तथा सदना कसाई थे। इस प्रकार रामानन्द ने जात पात के भेदों को दूर करके मानवतावाद के स्थापना की थी। रामानन्द के शिष्यों में कबीर सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय हुए थे।
4 सगुण एवं निर्गुण दोनों भक्ति भावनाओं का विकास-
भक्तिकाल मे भक्ति भावना निर्गुण अैर सगुण दोनों ही रूपों में प्रस्फुटित हुई थी । इस काल मे सगुण एवं निर्गुण दोनों भक्ति भावनाओं का विकास साथ साथ निर्विरोध चलता रहा। निर्गुण धारा में कबीर, रैदास, दादूदयाल, पीपा, धन्ना आदि प्रवाहित हुए थे। तुलसीदास व सूरदास मीरा आदि कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सगुण मत का प्रचार प्रसार से सगुण भक्ति को पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया था ।
5 गुरू महिमा- भक्तिकाल में सबसे सगुण और निर्गुण दोनों ही मतों के सभी कवियों ने अधिक गुरू महत्व पर प्रकाश डाला गया है। कबीरदास में अपनी साखी रचना में कहा है-
गुरू गोबिन्द दोऊ, खड़े, काके लागो पाय।
बलिहारी गुरू आपने, गोबिन्द दियो बताय।।
इसी तरह तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई जायसी आदि ने गुरू महत्व को बतलाया है।
6. इष्टदेव का महत्व-
भक्तिकाल के सभी कवियों ने अपने अपने इष्टदेव के महत्व को अंकित किया है। तुलसीदास ने अपनी महाकाव्य कृति रामचरितमानस में स्पष्ट लिखा है-
रामहिं केवल मोहिं पियारा।
जान लेहु जो जाननिहारा।
7 अपार भक्तिधारा-
भक्ति का आग्रह या भक्ति की अपार धारा इस काल में कहीं भी देखी जा सकती है। इसकी प्रधानता के कारण ही इस काल का नाम भक्तिकाल रखना सर्वथा उचित और न्यायसंगत लगता है।
8. सत्संगति का महत्व का उल्लेख- सज्जनों की प्रशंसा और दुर्जनों की निन्दा करके समाज में इसकी आवश्यकता पर बल दिया-
कबीरा संगति साधु की, हरै और व्याधि।
संगति बुरी असाधु, की बढ़ै कोटि अपराधि।।
9 आडम्बरों का खण्डन विरोध- भक्तिकाल में सभी प्रकार के आडम्बरों का खंडन करते हुए मानवतावाद की स्थापना की गयी। कबीरदास ने मूर्ति पूजा के विरोध में कहा-
कंकर पत्थर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता मुल्ला चढ़ि बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।
10 सर्व साधारण हित एवं उत्थान का काव्य:
भक्तिकाल का काव्य सर्व साधारण हित एवं उत्थान का काव्य है एक दूसरा तथ्य यह भी है कि भक्ति काल में सबको समानता का दर्जा देते हुए, प्रत्येक व्यक्ति विशेष के लिए मंदिर के द्वार खोल दिए गए थे। प्राचीन काल में जबकि यह प्रथा थी कि निम्न जाति के लोगों का मंदिर में प्रवेश वर्जित था। ऐसी स्थिति में जब भक्ति के द्वार सब के लिए खोल दिए गए, तो सब तरफ़ एक समानता का माहौल बनना लाजमी था और ऐसी स्थिति में भक्ति काल को स्वर्ण युग कहा जाना ही उचित है ।
11: ब्रज एवम अवधी भाषा का चर्मोत्कर्ष:
भक्तिकाल की रचनाओं में ब्रज एवम अवधी भाषा का चर्मोत्कर्ष देखने को मिलता है कृष्ण भक्त कवियों मुख्यतः सूरदास ने ब्रज भाषा को व तुलसीदास ने अवधी भाषा को उसके चर्मोत्कर्ष तक पहुँचाने का सराहनीय कार्य किया है ।
12 काव्य के आवश्यक अंगों का सुंदर प्रयोग:
इस काल की रचनाओं में काव्य के आवश्यक अंगों जैसे रस, छंद, अलंकार, बिम्ब प्रतीक, योजना, रूपक, भाव आदि का सुन्दर चित्रण हुआ है। इस प्रकार से भक्तिकाल का महत्व साहित्य और भक्ति भावना दोनों ही दृष्टियों से बहुत अधिक है ।
13 सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना का उद्धबोधन:-
इस काल सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना को अपेक्षित दिशाबोध प्राप्त हुआ।
इसी कारण इस काल को स्वर्ण युग कहा जाता है।