5955758281021487 Hindi sahitya : हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय
हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 2 मई 2020

हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय

हजारीप्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय

हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक परिचय
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जीवन-परिचय-

आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त, 1907(श्रावण, शुक्ल पक्ष, एकादशी, संवत 1964) में बलिया ज़िले के 'आरत दुबे का छपरा' गाँव के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके पिता 'पण्डित अनमोल द्विवेदी' संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित थे। द्विवेदी जी के प्रपितामह ने काशी में कई वर्षों तक रहकर ज्योतिष का गम्भीर अध्ययन किया था। द्विवेदी जी की माता ज्योतिकली भी प्रसिद्ध पण्डित कुल की कन्या थीं। इस तरह बालक द्विवेदी को संस्कृत के अध्ययन का संस्कार विरासत में ही मिल गया था।

शिक्षा-
 इनकी शिक्षा का प्रारम्‍भ संस्‍कृत से हुआ।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में बसरिकापुर के मिडिल स्कूल से प्रथम श्रेणी में मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने गाँव के निकट ही पराशर ब्रह्मचर्य आश्रम में संस्कृत का अध्ययन प्रारंभ किया। सन् 1923 में वे विद्याध्ययन के लिए काशी चले गए, वहाँ रणवीर संस्कृत पाठशाला, कमच्छा से प्रवेशिका परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण की।1927 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी वर्ष भगवती देवी से उनका विवाह सम्पन्न हुआ। 1929 में उन्होंने इंटरमीडिएट और संस्कृत साहित्य में शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1930 में ज्योतिष विषय में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। शास्त्री तथा आचार्य दोनों ही परीक्षाओं में उन्हें प्रथम श्रेणी प्राप्त हुई।  इन्‍होंने काशी हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय (जो आज हम बनारस हिन्‍दू विश्‍वाविद्यालय के नाम से जानते है।) से ज्‍योतिष तथा साहित्‍य में आचार्य की उपधि प्राप्‍त की। सन् 1940 ई. में हिन्‍दी एवं संस्‍कृत के आध्‍यापक के रूप में शान्ति-निकेतन चले गये। यहीं इन्‍हें विश्‍वकवि रवीन्‍द्रनााथ टेैगोर का सान्निध्‍य मिला और साहित्‍य-सृजन की ओर अभिमुख हो गये । सन् 1956 ई. में काशी हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय के हिनदी विभाग में अध्‍यक्ष नियुक्‍त हुए। कुछ समय तक पंजाब विश्‍वविद्यालय, चण्‍डीगढ़ में हिन्‍दी विभागाध्‍यक्ष के रूप में भी कार्य किया। 19 मई 1979 ई. को इनका देहावसान हो गया। 

सम्मान- 
सन् 1949 ई. में लखनऊ विश्‍वविद्यालय ने इन्‍हें 'डी.लिट्.' तथा सन् 1957 ई. में भारत सरकार ने 'पद्मभूषण' की उपाधि से विभूषित किया। 

व्यवसाय-
इन्होंने शान्ति निकेतन में एक हिन्दी प्राध्यापक के रुप में 18 नम्वबर 1930 को अपने कैरियर की शुरुआत की। इन्होंने 1940 में विश्वभारती भवन के कार्यालय में निदेशक के रुप में पदोन्नति प्रदान की। अपने इसी कार्यकारी जीवन में इनकी मुलाकात रबिन्द्रनाथ टैगोर से शान्ति निकेतन में हुई। इन्होंने 1950 में शान्ति निकेतन को छोड़ दिया और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रमुख और अध्यापक के रुप में जुड़ गए। इसी दौरान, ये 1955 में भारत सरकार के द्वारा गठित किए गए प्रथम राजभाषा आयोग के सदस्य के रुप में भी चुने गए। कुछ समय बाद, 1960 में वह पंजाब विश्व विद्यालय, चंडीगढ़ से जुड़ गए। इन्हें पंजाब विश्व विद्यालय में हिन्दी विभाग का प्रमुख और प्रोफेसर चुना गया।

साहित्यिक परिचय- 

द्विवेदी जी ने बाल्‍यकाल से ही श्री व्‍योमकेश शास्‍त्री से कविता लिखने की कला सीखनी आरम्‍भ कर दी थी। शान्ति-निकेतन पहँचकर इनकी प्रतिभा और अधिक निखरने लगी। कवीन्‍द्र रवीन्‍द्र का इन पर विशेष प्रभाव पड़ा। बँगला साहित्‍य से भी ये बहुत प्रभावित थे। ये उच्‍चकोटि के शोधकर्त्‍ता, निबन्‍धकार, उपन्‍यासकार एवं आलोचक थे। सिद्ध साहित्‍य, जैन साहित्‍य एवं अपभ्रंश साहित्‍य को प्रकाश में लाकर तथा भक्ति-साहित्‍य पर उच्‍चस्‍तरीय समीक्षात्‍मक ग्रन्‍थें की रचना करनके इन्‍होंने हिन्‍दी साहित्‍य की महान् सेवा की। बैसे तो द्विवेदी जी ने अनेक विषयों पर उत्‍कृष्‍ट कोटि के निबन्‍धों एवं नवीन शैली पर आधरित उपन्‍यासों की रचना की है1 पर विशेष रूप से वैयक्तिक एवं भावात्‍मक निबन्‍धें की रचना करने में ये अद्वितीय रहे। द्विवेदी जी 'उत्‍तर प्रदेश ग्रन्‍थ अकादमी' के अध्‍यक्ष और 'हिन्‍दी संस्‍थान' के उपाध्‍यक्ष भी रहे। कबीर पर उत्‍कृष्‍ट आलोचनात्‍मक कार्य करने के कारण इन्‍हें 'मंगलाप्रसाद' पारितोषिक प्राप्‍त हुआ। इसके साथ ही 'सूर-साहित्‍य' पर 'इन्‍दौर साहित्‍य समिति' ने 'स्‍वर्ण पदक' प्रदान किया।

कृतियॉं-

 आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली और उनका स्वभाव बड़ा सरल और उदार था। द्विवेदी जी हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और बांग्ला भाषाओं के विद्वान थे। उनका हिंदी निबंध और आलोचनात्मक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। वे उच्च कोटि के निबंधकार और सफल आलोचक थे। उन्होंने सूर, कबीर, तुलसी आदि पर जो विद्वत्तापूर्ण आलोचनाएं लिखी हैं, वे हिंदी में पहले नहीं लिखी गईं। उनका निबंध-साहित्य हिंदी की स्थाई निधि है।
द्विवेदी जी की प्रमुख कृतियॉं है-
निबन्‍ध-
 विचार और वितर्क,
 कल्‍पना, 
अशोक के फूल
कुटज
साहित्य के साथी
 कल्‍पलता
 विचार-प्रवाह 
आलोक-पर्व

उपन्यास

पुनर्पवा
बाणभट्ट की आत्‍मकथा, 
चारु चन्‍द्रलेख , 
अनामदास का पोथा
 
आलोचना साहित्‍य- 
सूर-साहित्‍य,
 कबीर
, सूरदास और उनका काव्‍य,
 हमारी साहित्यिक समस्‍याऍं, 
हिन्‍दी साहित्‍य की भुमिका, 
साहित्‍य का साथी
, साहित्‍य का धर्म, हिन्‍दी-साहित्‍य,
 समीक्षा-साहित्‍य नख-दपर्ण में हिन्‍दी-कविता,
 साहित्‍य का मर्म, 
भारतीय वाड्मय, 
कालिदास की लालित्‍य-योजना  

शोध-साहित्‍य- 
प्राचीन भारत का कला विकास, नाथ सम्‍प्रदास, मध्‍यकालीन धर्म साधना, हिन्‍ीद-साहित्‍य का अदिकाल आदि। 

अनूदित साहित्‍य - 
प्रबन्‍ध्‍ाा चिन्‍तामधि, पुरातन-प्रबन्‍ध-संग्रह प्रबन्‍धकोश, विश्‍व परिचय, मेरा बचपन, लाल कनेर आदि। 

सम्‍पादित साहित्‍य- 
नाथ-सिद्धों की बानियॉं, संक्षिप्‍त पृथ्‍वीराज रासो, सन्‍देश-रासक अ‍ादि।

भाषा-शैली- 
द्विवेदी जी भाषा के प्रकाण्‍ड पण्डित थे। उन्होंने शुद्ध संस्‍कृतनिष्‍ठ साहित्यिक खड़ी-बोली का प्रयोग किया है । इसके साथ-साथ आपने निबन्‍धों में उर्दू फारसी, अंग्रेजी एवं देशज शब्‍दों का भी प्रयोग किया है। इनकी भाषा प्रौढ़ होते हुए भी सरल, संयत तथा बोधगम्‍य है। मुहावरेदार भाषा का प्रयोग भी इन्‍होंने किया है। विशेष रूप से इनकी भाषा शुद्ध संस्‍कृतनिष्‍ठ साहित्यिक खड़ीबोली है। इन्होंने अनेक शैलियों का प्रयोग विषयानुसार किया है, जिनमें प्रमुख हैं- 
गवेषणात्‍मक शैली
आलोचनात्‍मक शैली 
भावात्‍मक शैली 
हास्‍य-व्‍यंग्‍यत्‍मक शैली
उद्धरण शैली
निष्कर्ष
शोध के गंभीर विषयों के प्रतिपादन में द्विवेदीजी की भाषा संस्कृतनिष्ठ हैं । 
आलोचना में उनकी भाषा साहित्यिक हैं । उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता हैं। ऐसे शब्दोंं के साथ उर्र्दू-फारसी तथा देशज शब्दों के बहुतेरे बोलचाल के शब्द और मुहावरे भी मिलते हैं । उनकी भाषा व्याकरण परक, सजीव, सुगठित और प्रवाह युक्त होती हैं। 
शब्द चित्रों के अंकन में भी वे कुशल हैं । द्विवेदीजी हिन्दी के प्रौढ़ शैलीकार हैं । 
विषय प्रतिपादन की दृष्टि से उन्होंने कहीं आगमन शैली का और कही पर निगमन शैली का भी प्रयोग किया हैं । 
उनके शोध संबंधी निबंध और लेख आगमन शैली में मिलते हैं। ऐसे निबंधों की शैली गवेषणात्मक हैं। भावना के उत्कर्ष से संबंधित निबंधों की शैली भावनात्मक हैं।