नाथ संप्रदाय सिद्धू और संतों के बीच की एक कड़ी है।
नाथ लोग बौद्धों की सहजयान शाखा से पल्लवित हुए हैं।
सिद्धों की वाममार्गी योग प्रधान योग साधना की प्रतिक्रिया के रूप में यह धर्म विकसित हुआ है।
राहुल सांकृत्यायन ने नाथ पंथ को सिद्धों की परंपरा का विकसित रूप माना है ।
यह पंथ का प्रवर्तन मछंदर नाथ तथा गोरखनाथ ने किया है
12वीं से चौदहवी शताब्दी तक का काल नाथ पंथ के उत्कर्ष का काल कहा जाता है ।
जहां
सिद्ध नारी योग में विश्वास करते थे ,वहां नाथपंथी ब्रम्हचर्य में विश्वास करने पर बल देते थे ।
नाथों की संख्या 9 है ।
गोरखनाथ ,गोपीचंद तथा भरथरी प्रसिद्ध नाथ योगी थे।
सब दी
पद प्राण संकली
आत्मबोध
महेंद्र गोरखनाथ बौद्ध
गोरखनाथ की प्रसिद्ध रचनाएं हैं।
नाथ योगियों ने पूजा पद्धति से संबंधित सभी प्रकार की रूढ़ियों तथा आडंबर का विरोध किया।
गोरखनाथ ने अपनी कृति गोरख वाणी में ब्राह्मणों की उपेक्षा की है ।
उन्होंने वेद -पुराण ,मंदिर मस्जिद आदि को व्यर्थ माना है ।
निर्गुण निराकार ईश्वर की उपासना के पक्षधर थे ।
नाथू न गुरु की महिमा को स्वीकारते हुए ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु को आवश्यक माना है।
गोरख वाणी में गोरखनाथ जी कहते हैं-
नाथ निरंजन आरती गाउ।
गुरुदयाल आज्ञा जो पाऊं।।
नाथ साहित्य में कर्मों को ही प्रमुख माना गया है।
उनका तो स्पष्ट कहना है कि पुनर्जन्म के कर्मों का फल मनुष्य को इस जन्म में भोगना पड़ता है ।
इसलिए मानव को यथासंभव सद कर्म ही करनी चाहिए।
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