भूमिका
कविता केवल भावों की अभिव्यक्ति नहीं होती, वह अपने समय, समाज, संस्कृति और भाषा का जीवंत दस्तावेज़ होती है। किसी भी युग की कविता को समझने के लिए उसकी भाषा को समझना आवश्यक है, क्योंकि भाषा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा कवि अपनी संवेदना को व्यक्त करता है।
समकालीन हिंदी कविता अपने रूप, शिल्प, विषय और अभिव्यक्ति के स्तर पर व्यापक परिवर्तन का परिचायक है। यह परिवर्तन हिंदी भाषा के रूपांतरण से गहराई से जुड़ा हुआ है। आज की कविता की भाषा पहले की तुलना में अधिक जनोन्मुख, लोकसंवेदनशील, विविधतापूर्ण और संवादशील हो गई है।
भाषा और कविता का संबंध आत्मा और शरीर के समान है — दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। समकालीन हिंदी कविता इस सत्य को गहराई से प्रमाणित करती है।
समकालीन हिंदी कविता का परिप्रेक्ष्य
समकालीन हिंदी कविता का उद्भव स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के काल से माना जाता है। आज़ादी के बाद देश सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा था। यह समय था जब कवि की दृष्टि केवल प्रकृति या प्रेम तक सीमित नहीं रही, बल्कि सामाजिक विसंगतियों, आर्थिक विषमता, राजनीतिक भ्रष्टाचार और मनुष्य के अकेलेपन की ओर मुड़ी।
इस नए यथार्थ को व्यक्त करने के लिए कवि को नई भाषा की आवश्यकता पड़ी — ऐसी भाषा जो न केवल विचारशील हो, बल्कि लोक की नब्ज़ से जुड़ी हो। यही वह दौर था जब कविता में हिंदी भाषा ने अपने जनभाषिक और संवादात्मक स्वरूप को प्राप्त किया।
भाषा की भूमिका : अभिव्यक्ति से सृजन तक
भाषा कविता के लिए केवल माध्यम नहीं, बल्कि उसका सृजनात्मक आधार है।
अज्ञेय के शब्दों में —
> “कविता शब्दों में नहीं, शब्दों के पार घटित होती है।”
इस कथन का तात्पर्य यह है कि भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं, बल्कि अनुभव को अर्थ देने की प्रक्रिया है।
समकालीन हिंदी कविता में भाषा ने विचार, संवेदना और यथार्थ — तीनों को जोड़ने का कार्य किया है।
अब कविता की भाषा केवल साहित्यिक नहीं रही, बल्कि वह जीवन की भाषा बन गई है — जो खेतों, कारखानों, सड़कों, विश्वविद्यालयों, झुग्गियों और घरों की आवाज़ को व्यक्त करती है।
नई कविता आंदोलन और भाषा
नई कविता (1950–1970) ने हिंदी कविता की भाषा को नई दिशा दी।
छायावाद की कल्पनाशील, सांकेतिक और अलंकृत भाषा के स्थान पर यहाँ यथार्थ और अनुभूति की भाषा आई।
नई कविता का उद्देश्य था — “कविता को व्यक्ति के भीतर के अनुभवों से जोड़ना।”
अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि कवियों ने भाषा को आत्म-अनुभव का उपकरण बनाया।
अज्ञेय की कविता में भाषा सूक्ष्म, बौद्धिक और आत्मान्वेषी है—
> “मैं अपनी भाषा में अपनी तलाश करता हूँ।”
शमशेर की भाषा संगीतात्मक, लयात्मक और सौंदर्यपूर्ण है—
> “इतना नीला आसमान,
जैसे कोई शब्द खुल गया हो।”
नई कविता ने यह सिद्ध किया कि हिंदी भाषा केवल भावुकता नहीं, बल्कि विचार की भी भाषा हो सकती है।
प्रगतिवाद और सामाजिक भाषा
प्रगतिवादी कवियों ने हिंदी कविता की भाषा को जनता के करीब लाने का कार्य किया।
नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह आदि कवियों ने लोकभाषा, मुहावरों, कहावतों और बोलियों का व्यापक प्रयोग किया।
नागार्जुन की कविता में ठेठ लोकभाषा का सौंदर्य है—
> “सुख है कि भूख नहीं मरी,
दुख है कि काम नहीं मिला।”
त्रिलोचन ने लिखा—
> “भाषा वह चुनो जिसमें जनता बोलती है।”
प्रगतिवाद ने हिंदी भाषा को अभिजात्य सीमाओं से मुक्त किया और उसे जनमानस की संवेदना से जोड़ा। यही वह प्रक्रिया थी जिसने हिंदी कविता को लोकधर्मी पहचान दी।
भाषा का जनतंत्रीकरण
समकालीन हिंदी कविता की सबसे बड़ी विशेषता है — भाषा का जनतंत्रीकरण।
अब कविता की भाषा केवल उच्च वर्ग की नहीं, बल्कि आम आदमी की बन गई है। इसमें मजदूर, किसान, स्त्री, दलित, आदिवासी, विद्यार्थी, बेरोजगार—सबकी आवाज़ शामिल है।
राजेश जोशी, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, विष्णु खरे, आलोक धन्वा आदि कवियों ने भाषा को आम जन की बोली और अनुभव से जोड़ा।
मंगलेश डबराल की भाषा में पहाड़ों और गाँवों की गंध है —
> “मेरी भाषा में वे शब्द हैं
जो बर्फ पिघलने के साथ बह जाते हैं।”
आलोक धन्वा की कविता में भाषा प्रतिरोध की बन जाती है—
> “जो औरतें लड़ रही हैं,
वे ही कविता की भाषा बदल रही हैं।”
यहाँ भाषा यथार्थ का प्रतिबिंब नहीं, बल्कि परिवर्तन का उपकरण है।
उत्तर आधुनिक कविता और भाषा की विविधता
उत्तर आधुनिक कविता ने हिंदी भाषा को बहुलता और विविधता का स्वर दिया।
अब कविता में केवल मानक हिंदी ही नहीं, बल्कि अंग्रेज़ी, उर्दू, पंजाबी, भोजपुरी, राजस्थानी आदि के शब्दों का सम्मिश्रण दिखाई देता है।
यह मिश्रण न केवल भाषाई प्रयोग है, बल्कि समकालीन समाज की विविधता का प्रतीक है।
इस भाषा में परंपरा और आधुनिकता दोनों साथ-साथ चलते हैं।
विष्णु खरे की भाषा तर्कसंगत और विश्लेषणात्मक है, जबकि केदारनाथ सिंह की भाषा में ग्रामीणता और आत्मीयता दोनों हैं।
> “भाषा के भीतर एक गाँव है,
और गाँव के भीतर एक बच्चा बोलता है।” — केदारनाथ सिंह
इस प्रकार समकालीन हिंदी कविता की भाषा न केवल विचारशील है, बल्कि संवेदनशील और बहुआयामी भी है।
लोकभाषा और बोली की पुनर्स्थापना
समकालीन कवि यह समझता है कि हिंदी का वास्तविक सौंदर्य उसकी बोलियों में निहित है।
इसलिए कविता में अब अवधी, भोजपुरी, ब्रज, बुंदेलखंडी, हरियाणवी, राजस्थानी, मैथिली जैसी बोलियों का प्रयोग बढ़ा है।
लोकभाषा के प्रयोग से कविता में एक जीवंतता और आत्मीयता आती है।
त्रिलोचन, नागार्जुन, वीरेन डंगवाल, राजकमल चौधरी, और नरेश सक्सेना ने लोकभाषा के माध्यम से कविता को जमीन से जोड़ा।
यह हिंदी भाषा का विस्तार ही है कि उसमें अब शहरी और ग्रामीण दोनों संस्कृतियाँ समान रूप से बोलती हैं।
भाषा में यथार्थ और प्रतिरोध
समकालीन कविता में भाषा केवल सुंदरता का माध्यम नहीं, बल्कि यथार्थ और प्रतिरोध का स्वर भी बन गई है।
धूमिल, रघुवीर सहाय और आलोक धन्वा जैसे कवियों ने हिंदी को अन्याय और असमानता के विरुद्ध एक शक्तिशाली औजार बनाया।
धूमिल लिखते हैं—
> “कविता बनता हूँ, आदमी नहीं बन पाता।
यह पंक्ति भाषा की सीमाओं और उसकी शक्ति — दोनों को उजागर करती है।
रघुवीर सहाय की भाषा में राजनीतिक विडंबनाओं का तीखा व्यंग्य है—
> “लोग भूल गए हैं बोलना,
वे अब केवल ताली बजाना जानते हैं।”
यहाँ भाषा एक नैतिक हस्तक्षेप बन जाती है।
स्त्री कविताओं की भाषा
समकालीन स्त्री कवयित्रियों ने हिंदी कविता की भाषा को नया रूप दिया।
महादेवी वर्मा की भाषा जहाँ करुणा और आध्यात्मिकता से भरी है, वहीं आधुनिक कवयित्रियाँ—कात्यायनी, अनामिका, गगन गिल, रंजना जायसवाल—भाषा को आत्म-अभिव्यक्ति और प्रतिरोध का माध्यम बनाती हैं।
अनामिका की कविता कहती है—
> “मेरे शब्द तुम्हारे आदेश नहीं मानते,
वे मेरे शरीर से निकले हैं।”
यहाँ भाषा स्वतंत्रता और अस्मिता का प्रतीक बन जाती है।
इस प्रकार समकालीन हिंदी कविता में भाषा अब स्त्री अनुभवों की वाहक भी है।
भाषा का सौंदर्यबोध
समकालीन हिंदी कविता की भाषा में अब केवल अर्थ नहीं, बल्कि अनुभूति का सौंदर्य भी है।
केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, शमशेर बहादुर सिंह जैसे कवियों ने भाषा में संगीत, लय, बिंब और प्रतीक का नया संसार रचा है।
केदारनाथ सिंह की कविता “बाघ” में भाषा की शक्ति देखें—
> “बाघ अब केवल जंगल में नहीं,
हमारे भीतर भी घूमता है।”
यहाँ भाषा विचार को चित्र में बदल देती है, और यही कविता की सच्ची भाषा है।
समकालीन कविता की भाषाई विशेषताएँ
1. मुक्त छंद का प्रयोग – लय और ताल की स्वतंत्रता से भाषा अधिक सहज और प्रवाहमयी बनी।
2. लोक शब्दों का प्रयोग – कविता जनजीवन से जुड़ी।
3. संवादात्मक शैली – भाषा में आत्मीयता और समीपता का अनुभव।
4. व्यंग्य और विडंबना – भाषा का सामाजिक और राजनीतिक प्रयोग।
5. बिंबात्मकता – भाषा में दृश्यात्मक शक्ति का विकास।
6. विविध भाषिक स्तर – मानक हिंदी के साथ उर्दू, अंग्रेज़ी, क्षेत्रीय शब्दों का प्रयोग।
इन सब विशेषताओं ने हिंदी कविता की भाषा को विचार, भावना और जीवन के एकीकृत रूप में स्थापित किया है।
निष्कर्ष
समकालीन हिंदी कविता की भाषा अपने समय की सच्ची अभिव्यक्ति है।
यह भाषा केवल साहित्यिक सौंदर्य तक सीमित नहीं, बल्कि सामाजिक यथार्थ, मानवीय करुणा, प्रतिरोध और चेतना की वाहक है।
इस भाषा में शहर भी बोलता है, गाँव भी; स्त्री भी बोलती है, श्रमिक भी; प्रेम भी झलकता है, विद्रोह भी।
कविता की यही भाषा हिंदी को जीवंत, प्रासंगिक और मानव-केंद्रित बनाती है।
आज की हिंदी कविता भाषा के माध्यम से समाज की आत्मा को छूती है और यह बताती है कि—
> “भाषा ही कविता है, और कविता ही भाषा का हृदय।”
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