5955758281021487 Hindi sahitya : रश्मिरथी तृतीय सर्ग: सारांश, मुख्य बिंदु

सोमवार, 10 नवंबर 2025

रश्मिरथी तृतीय सर्ग: सारांश, मुख्य बिंदु

तृतीय सर्ग – सारांश, रश्मिरथी ,रामधारी सिंह दिनकर 

काव्य “रश्मिरथी” में तृतीय सर्ग उस विराट मोर्चे को प्रस्तुत करता है जहाँ युद्ध के दूत और चेतावनी के स्वर दिखाई देते हैं। इस सर्ग में मुख्य रूप से यह दृश्य उभरता है कि युद्ध और विनाश का भय स्पष्ट रूप से उपस्थित है, और कर्ण तथा दुर्योधन-कौरव पक्ष के समक्ष शांतिपूर्ण विकल्प अब लगभग समाप्त हो चुके हैं। साथ ही, कृष्ण दूत के रूप में हस्तिनापुर जाते हैं ताकि युद्ध को टाला जा सके लेकिन हठी दुर्योधन उसे स्वीकार नहीं करता। 

सर्ग की शुरुआत में कवि ने भौतिक तथा आध्यात्मिक अशांति का भाव प्रकट किया है — भाई पर भाई टूटने की संभावना, विषबाणों की बूँद-बूँद छलकने की भयावहता, ऋतुओं के उल्लंघन का दृश्य प्रस्तुत किया गया है। 

फिर यह दृश्य आता है कि सभा सन्न हो जाती है, सब लोग डरे हुए हैं, चुप या बेहोश पड़े हैं; केवल दो ही पुरुष — धृतराष्ट्र व विदुर — शांत खड़े हैं। इस बीच कृष्ण दूत के रूप में कर्ण-दुर्योधन संवाद का मंच तैयार करते हैं। 

कृष्ण, मित्र-शांति-न्याय के चितेरे रूप में, दुर्योधन से कहते हैं कि अब विकल्प कम हैं, युद्ध अवांछित लेकिन अनिवार्य है:

> “याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा।” 
वे स्पष्ट करते हैं कि उन्होंने पहले कितनी बातें कही, कितनी अपीलें कीं — लेकिन अब उनका धैर्य समाप्त हो गया है। 


कृष्ण आगे बताते हैं कि दुर्योधन का दमन-भाव, मैत्री का मूल्य न समझना, मित्र के मर्म को न पहचानना — इन सब कारणों से अब संकट घिरने वाला है। 

वे युद्ध का भयावह वर्णन करते हैं — बाहर से लावा-वृष्टि, भीतर विधवाओं की पुकार, अनाथ बच्चों की चीखें, यह सब सामने आने वाला है। 

फिर कृष्ण दुर्योधन को बताते हैं कि यदि तुम पाँच ग्राम-भूमि भी दे देते (यानी न्यूनतम समझौता कर लेते), तो इस विनाश को रोका जा सकता था। पर दुर्योधन ने ऐसा नहीं किया — इसलिए अब समय निकल गया है। 

कृष्ण यह भी कह देते हैं कि कर्ण के साथ मिलकर चलो, पांच भाइयों के पीछे जा सकते हो, फिर मिलकर आनंद मनाएंगे, तेरा अभिषेक करेंगे — दिखावे में यह मित्रभाव है, पर वह दुर्योधन को चेतावनी देता है कि यह सौभाग्य जब मिलेगा तभी जब तू रण को छोड़ेगा। 

अंत में यह भाव है कि यदि दुर्योधन ने शांतिपूर्वक समझौता कर लिया होता, तो यह रण नहीं होता — पर अब रण अनायास नहीं रुकेगा, धरती को मरणकारी अग्नि छूने जा रही है। 


मुख्य बिंदु

1. युद्ध-दूत का आगमन और शांति-प्रयास

इस सर्ग का प्रमुख बिंदु यह है कि युद्ध को टालने के लिए कृष्ण हस्तिनापुर आते हैं — यह दिखाता है कि पाण्डव पक्ष ने संवाद का द्वार खोला है। लेकिन दुर्योधन की जिद और अहंकार ने संवाद को निष्फल कर दिया है। यह दूत-कथा और चेतावनी-कला का प्रतीक बन जाता है।
(उदहारणतः “भगवान सभा को छोड़ चले … करके रण गर्जन घोर चले” ) 

2. चेतावनी का स्वर — “याचना नहीं, अब रण होगा”

कृष्ण का यह वक्तव्य दर्शाता है कि अब रास्ते लगभग बंद हो चुके हैं। शांति की संभावना कम-से-कम प्रतीकात्मक ही रह गई है। युद्ध विकल्प के रूप में सामने आ गया है — या विजय या मृत्यु। यह इस सर्ग की मनोवैज्ञानिक तीव्रता को बढ़ाता है।

3. दुर्योधन का हठ एवं दृढ़ता

दुर्योधन यहाँ सिर्फ एक राजनैतिक पात्र नहीं रह गया है, बल्कि अहं-बल का प्रतीक है। वह मित्र-प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता, पाँच ग्राम भूमि का न्यूनतम प्रस्ताव भी नहीं लेता। इस हठ ने उसकी स्थिति को विकराल बना दिया है।

4. कर्ण की भूमिका — चयन का जाल

हालाँकि इस सर्ग में मुख्य संवाद दुर्योधन-कृष्ण के बीच है, पर इसमें कर्ण की भूमिका निस्संदेह उपस्थित है। कर्ण, मित्रता, वफादारी व पद-अपमान की समस्या से गुजर रहा है। द्रष्टव्य है कि कर्ण का इस वार्ता में विकल्प कम हैं — मित्र के साथ या धर्म के साथ। यह द्वंद्व उसे आगे आने वाले सर्गों में और गहरा मिलेगा।

5. विनाश का पूर्वाभास

सर्ग में विनाश की तीव्र कलाएँ दिखाई गयी हैं — “भय-विधान”, “विष-बाण बूँद-से छूटेंगे”, “विधवाओं की पुकार”, “अनाथ बच्चों की चीखें” इत्यादि। ये सभी काव्य-चित्र युद्ध के परिणामस्वरूप सामाजिक एवं मानवीय पतन को इंगित करते हैं। यह महाकाव्य के नाटकीय प्रभाव को बढ़ाते हैं।

6. नैतिक-दर्शनात्मक आयाम

दिनकर यहाँ सिर्फ कथा नहीं कह रहे हैं, बल्कि यह दर्शा रहे हैं कि शक्ति, मित्रता, न्याय, अहंकार आदि मूल्य किस तरह संघर्ष के पार आते हैं। “नहीं पुरुषार्थ केवल जाति में है, विभा का सार शील पुनीत में है” जैसे विचार सामने आते हैं। 

7. संवाद-शैली द्वारा प्रभाव

इस सर्ग की भाषा में चेतावनी, गंभीरता और माधुर्य का संयोजन है। कृष्ण का वचन, सभा का सन्नाटा, दुर्योधन का अहंकार — सब दृश्य एक-एक करके पाठक को उस समयावस्था में खींच लेते हैं।


विश्लेषणात्मक टिप्पणी

काव्ययात्रा की दृष्टि से: इस सर्ग में कथावृत्त गति बढ़ जाती है। श्रीकृष्ण दूत बनकर संवादों के माध्यम से शांति-प्रयास करते हैं, पर भूल नहीं सकते कि यह शांति-क्षेत्र भी सामाजिक-भावनात्मक और राजनीतिक स्तर पर जटिल है।

कर्ण-दुर्योधन-कृष्ण त्रिकोण: यहाँ तीसरे सर्ग में विशेष रूप से यह त्रिकोण (कर्ण-दुर्योधन-कृष्ण) दिखाई पड़ता है। कर्ण अभी उस मोड़ पर है जहाँ वह निर्णय लेने वाला है — मित्रता के मार्ग पर या धर्म के मार्ग पर। दुर्योधन के बल-प्रस्ताव उसे चुनने पर प्रेरित करते हैं।

मूल्य-संघर्ष: इस सर्ग में अहंकार बनाम मैत्री, तू मेरा मेरा तू, युद्ध बनाम संवाद — ये सभी मूल्य-संघर्ष रूप में उभरते हैं। विशेष रूप से यह देखना महत्वपूर्ण है कि यहाँ शूरवीरता-बल कितना भी हो, यदि मूल्य-आधार कमजोर हो जाएँ, तो युद्ध अवश्य आता है।

सामाजिक-मानव-दर्शिता: कवि ने युद्ध को केवल योद्धाओं का संघर्ष नहीं बनाया है, बल्कि उस युद्ध के सामाजिक परिणामों को भी दिखाया है — विधवाएँ, अनाथ बच्चे, ध्वस्त व्यवस्थित समाज। यह मानव-मूल्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

भविष्य-सूचना-तत्त्व: सर्ग भविष्य-घटनाओं का संकेत देता है। इसे एक प्रकार की ‘प्रस्तावना’ माना जा सकता है कि आगे क्या होगा — युद्ध अवश्य होगा। यह पाठक में आशंका और उत्कंठा दोनों जगाता है।



इस सर्ग के लिए उपयोगी उद्धरण

“याचना नहीं अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा।” – यह वाक्य उस निर्णायक मोड़ को व्यक्त करता है जहाँ शांति मार्ग बंद हो चुका है। 

“दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम…” – यह प्रस्ताव शांति की आखिरी कली की तरह है। 

“भइ पर भइ टूटेंगे, विष-बाण बूँद-से छूटेंगे…” – युद्ध-विनाश की भयावहता का काव्यात्मक चित्र। 

अध्ययन-केन्द्रित बिंदु

1. प्रस्तावित शांति-विकल्प: पाँच ग्राम भूमि का प्रस्ताव — यह प्रतीक है कि बहुत कम में भी समझौता संभव था।

2. दूत-मिशन: कृष्ण का हस्तिनापुर आना, दुर्योधन को समझाना — यह सामाजिक तथा राजनीतिक शक्ति-प्रयोग को दर्शाता है।

3. मनोवैज्ञानिक तनाव: दुर्योधन का अहंकार, कर्ण का द्वंद्व, सभा का सन्नाटा — ये पाठक को उस तनाव के बीच छोड़ते हैं जो आगे मनोवैज्ञानिक रूप से विकास करेगा।

4. सामाजिक विनाश की झलक: युद्ध सिर्फ योद्धाओं का नहीं, समाज का विनाश है — कवि ने इसे प्रमुखता से दिखाया है।

5. नायक-धुर नायिका नहीं: इस सर्ग में कर्ण अभी पूर्ण रूप से नहीं उभरता, पर उसकी भूमिका निर्णायक होती जा रही है।

6. काव्य-शैली: भाषा में उद्घोषणात्मक वाणी, संवाद-शैली, भावगोल — पाठक के मनोभाव को शक्तिशाली बनाती है।

निष्कर्ष

तृतीय सर्ग में कवि ने केवल कथा नहीं आगे बढ़ाई है, बल्कि उस शिखर-बिंदु को प्रस्तुत किया है जहाँ संवाद से युद्ध तक की दूरी न के बराबर रह जाती है। शांति-प्रयास, चेतावनी, अहंकार, मित्रता, निष्ठा — ये सभी तत्व इस सर्ग में समाहित हैं। यह सर्ग आगे आने वाले युद्ध-भाग की प्रस्तावना है, पाठक के मन में हृदयस्पर्शी प्रश्न उठाता है: क्या विजय महत्त्वपूर्ण है, क्या मित्रता का मूल्य क्या है, किसका पथ सही है — शक्ति का या धर्म-मानवता का? इस सर्ग में यह प्रश्न चुपचाप गूंजते हैं।

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