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बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

हिंदी की संस्कृति का केंद्र :दिल्ली

हिंदी की संस्कृति का केंद्र : दिल्ली
प्रस्तावना

भारत की राष्ट्रीय अस्मिता और सांस्कृतिक विविधता की भाषा के रूप में हिंदी आज जिस ऊँचाई पर पहुँच चुकी है, उसके पीछे अनेक नगरों और केंद्रों का योगदान है। इन केंद्रों में दिल्ली का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा है। दिल्ली केवल भारत की राजधानी नहीं, बल्कि हिंदी की संस्कृति, राजनीति, पत्रकारिता, रंगमंच और साहित्यिक चेतना का केंद्र भी है।
यह वह भूमि है जहाँ से हिंदी ने राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठा पाई, जहाँ साहित्यकारों ने हिंदी को आधुनिक विचारों से जोड़ा और जहाँ मीडिया, सिनेमा और रंगकला ने हिंदी को जनभाषा के रूप में स्थापित किया।


दिल्ली का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य

दिल्ली का इतिहास लगभग दो हजार वर्षों से अधिक पुराना है। यह नगर कभी इंद्रप्रस्थ कहलाया, फिर दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य की राजधानी बना, और आज आधुनिक भारत की राजनीतिक व सांस्कृतिक राजधानी है।
यहाँ विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों का संगम रहा — फ़ारसी, उर्दू, पंजाबी, हरियाणवी, ब्रज, अवधी आदि — इन सबके मेल से दिल्ली हिंदी की प्रयोगशाला बन गई।
दिल्ली का सामाजिक वातावरण बहुभाषिक होते हुए भी हिंदी की ओर झुकता गया, और यहीं से हिंदी ने राष्ट्रभाषा बनने की दिशा में अपनी यात्रा आरंभ की।



हिंदी साहित्य के विकास में दिल्ली की भूमिका

दिल्ली ने हिंदी साहित्य को अनेक रूपों में समृद्ध किया — यहाँ से पत्र-पत्रिकाएँ निकलीं, साहित्यिक संस्थाएँ बनीं, विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग स्थापित हुए और हिंदी के लेखकों, आलोचकों, कवियों तथा नाटककारों ने यहाँ रहकर हिंदी को राष्ट्रीय पहचान दी।

1. प्रारंभिक हिंदी और दिल्ली सल्तनत काल

दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली खड़ी बोली ही आगे चलकर आधुनिक हिंदी का आधार बनी।
खड़ी बोली का विकास दिल्ली और मेरठ क्षेत्र में हुआ और इसी क्षेत्र की बोली को आधुनिक हिंदी की मानक बोली माना गया।
इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि दिल्ली हिंदी की जन्मभूमि है।
यहाँ अमीर खुसरो जैसे कवियों ने फ़ारसी और स्थानीय बोली के मेल से हिंदी को लोकप्रिय बनाया।

2. आधुनिक हिंदी का केंद्र

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के आरंभ में जब हिंदी का पुनर्जागरण हुआ, तब दिल्ली ने इसे आधुनिक शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के माध्यम से नई दिशा दी।
ब्रिटिश काल में हिंदी को सरकारी कार्यों की भाषा के रूप में स्वीकार करवाने के आंदोलन में दिल्ली केंद्र में रही।
यहाँ से अनेक हिंदी संगठन और लेखक उभरे जिन्होंने हिंदी को एक सशक्त माध्यम बनाया।


दिल्ली की साहित्यिक संस्थाएँ और आंदोलन

(1) हिंदी साहित्य सम्मेलन

1910 में स्थापित हिंदी साहित्य सम्मेलन की शाखाएँ बाद में इलाहाबाद, बनारस और दिल्ली में सक्रिय रहीं, पर स्वतंत्रता के बाद इसका मुख्यालय दिल्ली में स्थापित हुआ।
यह संस्था आज भी हिंदी साहित्य, भाषा और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत है।
सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन, कवि सम्मेलन और पुरस्कृत रचनाएँ हिंदी साहित्य के विकास में मील का पत्थर रही हैं।

(2) साहित्य अकादमी

1954 में दिल्ली में साहित्य अकादमी की स्थापना हुई, जिसने हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं को संस्थागत समर्थन दिया।
साहित्य अकादमी पुरस्कार आज भी हिंदी साहित्य का सर्वोच्च सम्मान माना जाता है।
दिल्ली में स्थित इस अकादमी ने हिंदी लेखकों को मंच, पहचान और प्रोत्साहन दिया।

(3) राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत

दिल्ली में स्थापित नेशनल बुक ट्रस्ट (NBT) और भारत सरकार का प्रकाशन विभाग हिंदी पुस्तकों के प्रकाशन और प्रसार में अग्रणी हैं।
इन संस्थाओं ने हिंदी साहित्य को गाँव-गाँव तक पहुँचाने का कार्य किया।



दिल्ली के प्रमुख हिंदी साहित्यकार

दिल्ली के साहित्यिक परिवेश ने अनेक महान लेखकों और कवियों को जन्म दिया या उन्हें प्रेरित किया।

(1) रामधारी सिंह ‘दिनकर’

दिनकर जी ने दिल्ली में रहते हुए अनेक राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विषयों पर लेखन किया। उनकी कविताएँ हिंदी की राष्ट्रीयता और वीर रस की पहचान बन गईं।

(2) हरिवंश राय बच्चन

हालाँकि मूल रूप से इलाहाबाद से थे, पर दिल्ली में रहकर उन्होंने हिंदी को प्रशासनिक और सांस्कृतिक स्तर पर प्रतिष्ठित किया।
उनकी “मधुशाला” और आत्मकथाएँ आज भी हिंदी के गौरव का प्रतीक हैं।

(3) नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

इन कवियों ने दिल्ली के सांस्कृतिक परिवेश में नई कविता, प्रयोगवाद और सामाजिक यथार्थ के स्वर को मजबूत किया।
दिल्ली की गोष्ठियों और साहित्यिक सभाओं में इनकी रचनाएँ हिंदी समाज की चेतना को झकझोरती रहीं।

(4) राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश

ये तीनों लेखक दिल्ली के नयी कहानी आंदोलन के त्रिदेव कहलाए।
इन्होंने हिंदी कथा साहित्य को आधुनिक समाज की जटिलताओं और शहरी जीवन के संघर्ष से जोड़ा।
दिल्ली के ही वातावरण में नई कहानी, नई कविता और नयी आलोचना की धाराएँ फली-फूलीं।

दिल्ली और हिंदी पत्रकारिता

दिल्ली हिंदी पत्रकारिता का सबसे बड़ा केंद्र रहा है।
यहाँ से प्रकाशित होने वाले अख़बारों और पत्रिकाओं ने हिंदी को राष्ट्रीय अभिव्यक्ति दी।
“हिंदुस्तान”, “नवभारत टाइम्स”, “दैनिक जागरण”, “राष्ट्रीय सहारा”, “जनसत्ता” आदि समाचार पत्रों ने हिंदी पत्रकारिता को नई पहचान दी।
इन अखबारों से जुड़े संपादक और लेखक — गिरिराज किशोर, प्रभाष जोशी, राजेन्द्र माथुर, शंभुनाथ शुक्ल — ने पत्रकारिता को साहित्यिकता और नैतिकता से जोड़ा।
दिल्ली में स्थित प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और पत्रकार संघ आज भी हिंदी मीडिया के सशक्त केंद्र हैं।

दिल्ली में हिंदी रंगमंच और सिनेमा

दिल्ली का रंगमंच हिंदी संस्कृति का जीवंत अंग रहा है।
यहाँ नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) की स्थापना 1959 में हुई, जिसने हिंदी नाट्यकला को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी।
ईब्राहिम अल्काज़ी, हबीब तनवीर, मनोज जोशी, पंकज त्रिपाठी, सीमा बिस्वास जैसे कलाकारों ने हिंदी रंगमंच से अपना सफर शुरू किया।
कमानी ऑडिटोरियम, श्रीराम सेंटर, LTG हॉल जैसे मंच हिंदी नाट्यकला के केंद्र बने।
दिल्ली के थिएटर ने हिंदी नाटकों में सामाजिक सरोकार, आधुनिकता और यथार्थ का सम्मिश्रण किया।

राजभाषा के रूप में हिंदी और दिल्ली की भूमिका

1949 में जब संविधान सभा में हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया, तो दिल्ली इस ऐतिहासिक निर्णय का केंद्र थी।
यहाँ से भारत सरकार का राजभाषा विभाग कार्य करता है जो हिंदी को प्रशासन, शिक्षा और तकनीकी क्षेत्रों में लागू करने का प्रयास करता है।
विश्व हिंदी सम्मेलन, हिंदी दिवस समारोह, और राजभाषा पुरस्कार जैसे आयोजन दिल्ली से ही संचालित होते हैं।
इससे दिल्ली न केवल सांस्कृतिक बल्कि राजभाषिक आंदोलन का नेतृत्वकर्ता शहर बन गया।

दिल्ली में शिक्षा और हिंदी का प्रसार

दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU), जामिया मिल्लिया इस्लामिया, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU), गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय आदि में हिंदी विभाग स्थापित हैं।
इन संस्थानों में हिंदी साहित्य, अनुवाद, पत्रकारिता, जनसंचार और भाषाविज्ञान के पाठ्यक्रम संचालित होते हैं।
इन विश्वविद्यालयों से निकलने वाले विद्यार्थी आज देश-विदेश में हिंदी के प्रचारक के रूप में कार्यरत हैं।
इस प्रकार दिल्ली शिक्षा के माध्यम से हिंदी संस्कृति का निरंतर प्रसार करती रही है।

दिल्ली और आधुनिक माध्यमों में हिंदी

आज के डिजिटल युग में भी दिल्ली हिंदी के नवाचार का केंद्र बनी हुई है।
यहाँ से चलने वाले हिंदी ब्लॉग, वेबसाइट, यूट्यूब चैनल, पॉडकास्ट और ई-पत्रिकाएँ वैश्विक स्तर पर हिंदी के नए रूप प्रस्तुत कर रही हैं।
सरकारी संस्थाएँ जैसे प्रसार भारती, दूरदर्शन, आकाशवाणी भी दिल्ली से ही संचालित हैं, जो हिंदी को करोड़ों लोगों तक पहुँचाती हैं।
दिल्ली में हर वर्ष विश्व पुस्तक मेला और विश्व हिंदी सम्मेलन जैसे आयोजन होते हैं, जो हिंदी की अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति को सशक्त बनाते हैं।

दिल्ली की बहुभाषिकता और हिंदी का प्रभाव

दिल्ली में उत्तर भारत के लगभग सभी प्रांतों के लोग रहते हैं — उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश आदि।
इन सभी भाषाई समूहों का आपसी संवाद हिंदी में ही होता है।
इस प्रकार हिंदी यहाँ संवाद की भाषा और संस्कृति की आधारभूमि बन चुकी है।
दिल्ली का जन-जीवन, उसका बाज़ार, उसका मीडिया — सब हिंदी की सुगंध से भरे हैं।

उपसंहार

दिल्ली में हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि जीवन का हिस्सा है।
यहाँ की हवा में हिंदी की सहजता, राजनीति में उसकी शक्ति, और संस्कृति में उसकी गहराई है।
दिल्ली ने हिंदी को राजभाषा का सम्मान, साहित्य का मंच, पत्रकारिता की दिशा और नाट्यकला की पहचान दी।
यही कारण है कि कहा जाता है —

> “दिल्ली की गलियों में बोलती है हिंदी, और हिंदी के शब्दों में बसती है दिल्ली।”

हिंदी की संस्कृति का केंद्र :इलाहाबाद

हिंदी की संस्कृति का केंद्र :इलाहाबाद
प्रस्तावना

भारत की सांस्कृतिक धारा सदियों से विविधता और एकता का अद्भुत संगम रही है। इस विशाल धारा में कुछ नगर ऐसे हैं जिन्होंने देश की भाषा, साहित्य और संस्कृति को दिशा दी। इन नगरों में इलाहाबाद (अब प्रयागराज) का नाम सर्वोपरि है। गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम तट पर बसा यह नगर केवल धार्मिक या ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि हिंदी की सांस्कृतिक और साहित्यिक चेतना का केंद्र भी रहा है। यहाँ से हिंदी भाषा ने न केवल अपनी शुद्धता और समृद्धि पाई, बल्कि राष्ट्रीय अभिव्यक्ति के रूप में भी स्थापित हुई।


इलाहाबाद का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य

इलाहाबाद का इतिहास बहुत प्राचीन है। वैदिक युग में इसे प्रयाग कहा गया, जहाँ यज्ञों और धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन होता था। मुग़ल काल में इसका नाम इलाहाबाद पड़ा। यह नगर भारत के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर हिंदी पुनर्जागरण तक का साक्षी रहा है।
यहाँ की भूमि पर एक ओर धर्म और अध्यात्म की गहराई है, तो दूसरी ओर आधुनिकता और राष्ट्रीयता की चेतना भी प्रवाहित होती रही है। यही कारण है कि यह नगर साहित्यकारों, स्वतंत्रता सेनानियों, पत्रकारों और चिंतकों की कर्मभूमि बना।



हिंदी साहित्य के विकास में इलाहाबाद का योगदान

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के आरंभ में हिंदी भाषा अपने पुनर्जागरण काल से गुजर रही थी। इस समय इलाहाबाद ने हिंदी के केंद्र के रूप में भूमिका निभाई।
यहाँ से निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं, संस्थाओं और विश्वविद्यालयों ने हिंदी साहित्य को संगठित और आधुनिक रूप प्रदान किया।

1. पत्र-पत्रिकाओं का योगदान

इलाहाबाद से अनेक महत्वपूर्ण हिंदी पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हुईं जिन्होंने हिंदी के प्रचार-प्रसार में ऐतिहासिक भूमिका निभाई—

“सरस्वती” पत्रिका (1900 ई.) का प्रकाशन इलाहाबाद से हुआ, जिसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। इस पत्रिका ने आधुनिक हिंदी गद्य को दिशा दी और अनेक लेखकों को मंच प्रदान किया।

प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद जैसे रचनाकार इसी पत्रिका से जुड़कर आगे बढ़े।

बाद में “गंगा”, “अभ्युदय”, “हंस” (प्रेमचंद संपादित) जैसी पत्रिकाओं ने भी इलाहाबाद को हिंदी जगत का केंद्र बना दिया।


2. इलाहाबाद विश्वविद्यालय की भूमिका

स्थापना वर्ष 1887 में हुआ इलाहाबाद विश्वविद्यालय भारत का “ऑक्सफोर्ड ऑफ द ईस्ट” कहलाया। यहाँ हिंदी विभाग की स्थापना से हिंदी भाषा को शैक्षणिक सम्मान प्राप्त हुआ।
डॉ. अम्बिकादत्त शर्मा, डॉ. नागेंद्र, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. नामवर सिंह जैसे विद्वानों ने यहाँ से हिंदी आलोचना, निबंध, काव्य और नाटक की परंपरा को समृद्ध किया।
यह विश्वविद्यालय न केवल शिक्षा का केंद्र था, बल्कि विचार-विमर्श और वैचारिक स्वतंत्रता का भी प्रतीक बना।

इलाहाबाद और हिंदी के महान साहित्यकार

इलाहाबाद हिंदी के असंख्य साहित्यिक नक्षत्रों की कर्मभूमि रहा है। यहाँ से अनेक रचनाकारों ने हिंदी को नई ऊँचाइयाँ दीं।

(1) महादेवी वर्मा

इलाहाबाद महिला विद्यालय (बाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ) से जुड़ी महादेवी वर्मा को आधुनिक मीरा कहा जाता है। उनकी कोमल संवेदनाओं और नारी चेतना ने हिंदी कविता को नया आयाम दिया।
उनकी कविताओं में प्रयाग की गंगा-यमुना की पवित्रता और गहराई झलकती है।

(2) सुमित्रानंदन पंत

इलाहाबाद में रहकर पंत ने छायावाद के काव्य को ऊँचाई दी। प्रकृति और सौंदर्य के प्रति उनका दृष्टिकोण प्रयागराज के परिवेश से ही प्रभावित था।

(3) जयशंकर प्रसाद

प्रसादजी यद्यपि काशी के थे, पर उनके नाट्य साहित्य और चिंतन की गूँज इलाहाबाद के साहित्यिक मंचों तक पहुँची।
उनकी कृतियों “कामायनी”, “ध्रुवस्वामिनी”, “चंद्रगुप्त” आदि पर प्रयागराज के साहित्यिक वातावरण का प्रभाव देखा जा सकता है।

(4) रामकुमार वर्मा, इलाचंद जोशी, अज्ञेय

बीसवीं सदी के मध्य में इलाहाबाद प्रयोगवाद और नई कविता का केंद्र बना। अज्ञेय के नेतृत्व में यहाँ एक नया साहित्यिक आंदोलन चला जिसने हिंदी में आधुनिक चेतना का संचार किया।
इलाहाबाद में “तरुण भारत”, “प्रतीक” जैसी पत्रिकाएँ चलीं जिन्होंने हिंदी साहित्य की नई धाराओं को जन्म दिया।

(5) हरिवंश राय बच्चन

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे बच्चन जी ने “मधुशाला” जैसी कालजयी रचना दी। उन्होंने हिंदी कविता को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठित किया।
उनका घर ‘बच्चन निवास’ इलाहाबाद के साहित्यिक जीवन का प्रतीक बना।

पत्रकारिता और आलोचना का केंद्र

इलाहाबाद केवल साहित्य नहीं, बल्कि हिंदी पत्रकारिता और आलोचना का भी केंद्र रहा है।
“अभ्युदय”, “कर्मवीर”, “भारत”, “सुधा”, “आज” जैसे पत्र यहाँ से निकले जिनसे हिंदी समाज की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का विकास हुआ।
हिंदी आलोचना के क्षेत्र में डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नागेंद्र, डॉ. नामवर सिंह जैसे विद्वानों ने इलाहाबाद को विचार का केंद्र बना दिया।

इलाहाबाद की साहित्यिक संस्थाएँ और आयोजन

प्रयागराज में समय-समय पर साहित्यिक संस्थाओं का गठन हुआ जिन्होंने हिंदी संस्कृति को पोषित किया।

हिंदी साहित्य सम्मेलन (1910) की स्थापना यहीं हुई, जिसने हिंदी को राजभाषा बनाने की माँग उठाई।

यहाँ वार्षिक साहित्य सम्मेलन में देशभर के साहित्यकार एकत्र होते थे।

अखिल भारतीय कवि सम्मेलन, हिंदी विभागीय गोष्ठियाँ, सांस्कृतिक महोत्सव जैसे आयोजन इलाहाबाद की पहचान बन गए।


स्वतंत्रता आंदोलन और राष्ट्रीय चेतना में भूमिका

इलाहाबाद ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी राष्ट्रीयता और हिंदी को साथ लेकर चलने का कार्य किया।
यहाँ से निकलने वाले अनेक नेताओं — पं. मोतीलाल नेहरू, पं. जवाहरलाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन — ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का कार्य किया।
पुरुषोत्तम दास टंडन ने स्पष्ट कहा था —

> “हिंदी ही भारत की आत्मा की भाषा है, और इलाहाबाद उसका तीर्थस्थल।”



सांस्कृतिक विविधता और आधुनिकता का संगम

इलाहाबाद की विशेषता यह है कि यहाँ परंपरा और आधुनिकता का संतुलन बना रहा।
यहाँ का वातावरण साहित्य, संगीत, कला, रंगमंच और दर्शन के मेल से परिपूर्ण रहा।
“प्रयाग संगीत समिति” जैसी संस्थाएँ और “अकादमिक मंच” जैसी संस्थाओं ने हिंदी सांस्कृतिक परंपरा को जीवित रखा।
यहाँ के कवि सम्मेलन, नाटक मंचन, साहित्यिक वाद-विवाद, और कला प्रदर्शनियाँ आज भी इसकी जीवंतता का प्रमाण हैं।

समकालीन युग में इलाहाबाद की भूमिका

आज जब तकनीकी और डिजिटल युग में हिंदी नए माध्यमों से आगे बढ़ रही है, इलाहाबाद (प्रयागराज) ने भी इस बदलाव को अपनाया है।
यहाँ के विश्वविद्यालयों, लेखकों और युवा रचनाकारों ने ब्लॉग, ई-साहित्य, यूट्यूब चैनल आदि माध्यमों के जरिए हिंदी संस्कृति को विश्व तक पहुँचाया है।
साहित्यिक मेले और ऑनलाइन गोष्ठियाँ इलाहाबाद की नई पहचान बन रही हैं।

उपसंहार

इलाहाबाद केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि हिंदी की आत्मा का केंद्र है।
यह वह भूमि है जहाँ भक्ति आंदोलन की गूंज, राष्ट्रवाद की पुकार और साहित्यिक चेतना की धारा एक साथ प्रवाहित होती रही।
यहाँ से हिंदी ने केवल भाषा के रूप में नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और वैचारिक आंदोलन के रूप में जन्म लिया।
आज भी जब हिंदी की चर्चा होती है, तो इलाहाबाद का नाम श्रद्धा और गौरव के साथ लिया जाता है।

> “प्रयागराज नदियों का नहीं, विचारों का संगम है — जहाँ से हिंदी संस्कृति की गंगा सदा प्रवाहित होती रही है।”


निष्कर्ष

इस प्रकार कहा जा सकता है कि इलाहाबाद ने हिंदी भाषा और साहित्य को एक सशक्त आधार प्रदान किया।
यहाँ से न केवल कवियों और लेखकों की पीढ़ियाँ निकलीं, बल्कि हिंदी के माध्यम से भारतीय अस्मिता को नई चेतना मिली।
प्रयागराज का महत्व केवल अतीत में नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य में भी हिंदी के सांस्कृतिक मार्गदर्शक के रूप में रहेगा।