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शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

राष्ट्रीय परिदृश्य और प्रेमचंद

राष्ट्रीय परिदृश्य और प्रेमचंद

प्रस्तावना

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम केवल राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जागरण का युग भी था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत अंग्रेज़ी दासता की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। पराधीनता, गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, जातिवाद, धार्मिक कट्टरता, किसान और मजदूरों का शोषण समाज में व्याप्त था। इसी दौर में प्रेमचंद का साहित्य सामने आया, जिसने इस राष्ट्रीय परिदृश्य को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया और परिवर्तन की चेतना को स्वर दिया।

राष्ट्रीय परिदृश्य : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

प्रेमचंद का जन्म 1880 में हुआ और 1936 में उनका निधन हुआ। यह वही काल था जब भारत में—

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की स्मृति ताज़ा थी।

कांग्रेस की स्थापना (1885) के बाद स्वाधीनता आंदोलन संगठित रूप ले रहा था।

बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल जैसे नेता उग्र राष्ट्रवाद का स्वर बुलंद कर रहे थे।

महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग, सत्याग्रह और स्वदेशी आंदोलन तेज़ हो रहे थे।

किसान, मजदूर और आम जनता ब्रिटिश शासन और पूँजीवादी ताक़तों से पीड़ित थी।


ऐसे सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में प्रेमचंद ने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानकर राष्ट्रीय चेतना का वाहक बनाया।

प्रेमचंद और राष्ट्रीय चेतना

प्रेमचंद का लेखन राष्ट्रीय परिदृश्य को सीधे छूता है। उनके साहित्य में—

औपनिवेशिक शोषण का चित्रण है।

किसानों और मजदूरों की दयनीय दशा का यथार्थ रूप मिलता है।

सामाजिक सुधार (स्त्री शिक्षा, छुआछूत, साम्प्रदायिकता विरोध) का संदेश है।

गांधीवादी विचारधारा (सत्य, अहिंसा, स्वदेशी) की छाप स्पष्ट है।


राष्ट्रीय परिदृश्य का प्रतिबिंब उपन्यासों में

1. गोदान (1936) – किसानों के शोषण, जमींदारों और महाजनों की कुटिलता और औपनिवेशिक आर्थिक ढाँचे का यथार्थ चित्रण। यह स्वतंत्र भारत की आवश्यकता की ओर संकेत करता है।


2. रंगभूमि (1924) – सूरदास नामक अंधे पात्र के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता और पूँजीवाद के खिलाफ संघर्ष। यहाँ भारतीय जनता के अस्मिता-बोध और संघर्षशीलता का परिचय मिलता है।


3. कर्मभूमि (1932) – गांधीवाद से प्रभावित उपन्यास, जिसमें असहयोग आंदोलन और सत्याग्रह की गूँज है। यह राष्ट्रीय आंदोलन का प्रत्यक्ष चित्रण करता है।


4. सेवासदन (1919) – स्त्री शिक्षा, वेश्यावृत्ति और सामाजिक सुधार के प्रश्न को उठाकर राष्ट्रीय परिदृश्य में सामाजिक जागृति का चित्रण।


कहानियों में राष्ट्रीय परिदृश्य

प्रेमचंद की कहानियाँ भी राष्ट्रीय चेतना की वाहक बनीं।

नमक का दरोगा – अंग्रेज़ी शासन के भ्रष्टाचार और नैतिक पतन पर प्रहार।

शतरंज के खिलाड़ी – लखनऊ के नवाबों की विलासिता और अंग्रेजों की राजनीतिक चालों का यथार्थ चित्रण।

पंच परमेश्वर – न्याय और निष्पक्षता की भावना, जो राष्ट्रीय आदर्शों का अंग है।

कफन – किसानों और गरीबों की विवशता, जो राष्ट्रीय परिदृश्य में सामाजिक यथार्थ की सच्चाई है।

प्रेमचंद और गांधीवादी विचारधारा

महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलनों का गहरा प्रभाव प्रेमचंद पर पड़ा। उनके साहित्य में सत्य, अहिंसा, स्वदेशी और त्याग के मूल्य बार-बार दिखाई देते हैं। कर्मभूमि इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहाँ गांधीवादी आंदोलनों का प्रभावशाली रूप मिलता है।


सामाजिक परिदृश्य और प्रेमचंद

राष्ट्रीय परिदृश्य केवल राजनीतिक ही नहीं था, उसमें सामाजिक विषमताएँ भी थीं। जातिवाद, अस्पृश्यता, स्त्री-असमानता और धार्मिक कट्टरता समाज को खोखला कर रही थी। प्रेमचंद ने अपने साहित्य में—

स्त्री शिक्षा और स्वतंत्रता का समर्थन किया।

साम्प्रदायिक सौहार्द्र की आवश्यकता बताई।

जातिवादी संकीर्णताओं पर चोट की।

समानता, सहयोग और मानवता को राष्ट्रीय उन्नति का आधार माना।

प्रेमचंद का साहित्य : राष्ट्रीय प्रदर्शन का मंच

प्रेमचंद का साहित्य राष्ट्रीय परिदृश्य में निम्न प्रकार से योगदान देता है—

जनता को अपनी दुर्दशा का बोध कराया।

शोषण और अन्याय के खिलाफ़ स्वर उठाया।

स्वाधीनता आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया।

साहित्य को समाज और राष्ट्र की सेवा का साधन बनाया।


उपसंहार

प्रेमचंद केवल कथाकार या उपन्यासकार नहीं थे, वे अपने समय के राष्ट्रकवि और समाज-द्रष्टा भी थे। उन्होंने साहित्य को राष्ट्रीय परिदृश्य का दर्पण बनाया। उनके लेखन ने दिखाया कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक परिवर्तन नहीं है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्रांति भी है। राष्ट्रीय परिदृश्य को समझने और बदलने में प्रेमचंद का योगदान अमूल्य है।

यथार्थपरक चित्रण, किसानों और मजदूरों की आवाज़, स्त्रियों की पीड़ा, जातिगत विषमता और औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ़ संघर्ष – इन सबको प्रेमचंद ने अपने साहित्य में समेटकर राष्ट्रीय चेतना का सशक्त मंच प्रदान किया।

इसलिए कहा जा सकता है—
“प्रेमचंद का साहित्य राष्ट्रीय परिदृश्य का सबसे जीवंत और यथार्थवादी दस्तावेज़ है।”