प्रेमचंद की भाषा-शैली का विवेचन
हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद (1880–1936) का नाम कथा-साहित्य के इतिहास में एक अमिट स्थान रखता है। वे ऐसे लेखक हैं जिन्होंने साहित्य को समाज से जोड़ा, यथार्थ को जीवन का हिस्सा बनाया और भाषा को जनता के स्तर तक पहुँचाया। प्रेमचंद ने कहा था —
> “साहित्यकार समाज का अभियंता होता है, जो उसके हृदय में मानवता और न्याय की भावना का निर्माण करता है।”
इस दृष्टि से प्रेमचंद की भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रही, बल्कि वह समाज परिवर्तन की भाषा बनी। उनकी भाषा और शैली ने हिंदी कथा-साहित्य को नई दिशा दी।
1. प्रेमचंद की भाषा का स्वरूप
प्रेमचंद का साहित्य उस समय लिखा गया जब हिंदी और उर्दू दो धाराएँ समानांतर रूप से प्रवाहित थीं। उनकी प्रारंभिक रचनाएँ (जैसे — सोज़े-वतन) उर्दू में थीं, पर बाद में उन्होंने हिंदी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
उनकी भाषा हिंदी और उर्दू का सुंदर समन्वय है। इसे हम “हिंदुस्तानी भाषा” भी कह सकते हैं — जो लोकभाषा से निकट, सहज, सरस और जनसुलभ है।
प्रेमचंद ने अपनी भाषा में किसी भी कृत्रिमता को स्थान नहीं दिया। उनकी भाषा में लोक की गंध है, जीवन का स्पंदन है, और जनमानस की आत्मा बोलती है।
2. भाषा की विशेषताएँ
(क) सरलता और सहजता
प्रेमचंद की भाषा सहज और सरल है। वे कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्दों या फारसी-उर्दू की जटिलता से दूर रहते हैं।
उनका उद्देश्य पाठक को प्रभावित करना नहीं, बल्कि उसकी आत्मा तक पहुँचना था।
उदाहरण के लिए, ‘ईदगाह’ की पंक्तियाँ देखिए —
> “हामिद की आँखों में आँसू थे, लेकिन खुशी भी थी। उसने अपने लिए कुछ नहीं लिया, दादी के लिए चिमटा लिया।”
यह भाषा सीधी, भावनात्मक और जनसुलभ है। कोई अलंकरण नहीं, पर प्रभाव अत्यंत गहरा है।
(ख) लोकभाषा और आंचलिकता का प्रयोग
प्रेमचंद ने लोकजीवन को केंद्र में रखा, इसलिए उन्होंने ग्रामीण बोली, मुहावरों और कहावतों का प्रयोग बड़ी कुशलता से किया।
‘गोदान’, ‘कफन’, ‘पूस की रात’ जैसी रचनाओं में गाँवों की मिट्टी की सोंधी गंध उनकी भाषा में महसूस होती है।
जैसे ‘गोदान’ में —
> “होरी ने कहा – बख्श दो मालिक, अबकी भूल न होगी।”
यहाँ ‘अबकी’ शब्द अवधी-भोजपुरी का है, जो पात्र की वास्तविकता और वातावरण को सजीव बना देता है।
उनकी भाषा में लोकसंवाद और ग्रामीण भावभूमि की सजीवता झलकती है।
(ग) भावानुकूलता
प्रेमचंद की भाषा का सबसे बड़ा गुण उसकी भावानुकूलता है।
वे पात्र, परिस्थिति और भाव के अनुसार भाषा का चयन करते हैं।
उदाहरण के लिए, किसी किसान की पीड़ा का वर्णन करते समय भाषा करुण और सरल हो जाती है, जबकि किसी सामाजिक या राजनीतिक प्रसंग में वह तर्कपूर्ण और गंभीर बन जाती है।
‘गबन’ में रोमानी भावों के लिए भाषा में कोमलता है, जबकि ‘कर्मभूमि’ में गांधीवादी विचारों की अभिव्यक्ति के लिए गंभीरता।
(घ) संवाद शैली की सजीवता
प्रेमचंद के संवाद स्वाभाविक, जीवन्त और पात्रों के चरित्र के अनुरूप होते हैं।
उनके संवादों में नाटकीयता नहीं, बल्कि जीवन की सच्चाई होती है।
जैसे ‘कफन’ में घीसू और माधव का संवाद —
> “माधव ने कहा – बापू, अब क्या होगा?”
“कुछ न होगा बेटा, जो होना था हो गया।”
इन दो वाक्यों में ही पूरे जीवन का दर्शन समाया है — निर्धनता, असहायता और नियति पर विश्वास।
यही संवाद शैली प्रेमचंद को आम आदमी का लेखक बनाती है।
(ङ) मुहावरों और कहावतों का प्रयोग
प्रेमचंद की भाषा में लोकजीवन के मुहावरों और लोकोक्तियों का अद्भुत प्रयोग है, जो भाषा को जीवन्तता और देशज रंग प्रदान करता है।
जैसे — “जिसके पास कुछ नहीं, उसके पास भगवान भी नहीं।”
या “धन गया तो कुछ न गया, ईमान गया तो सब गया।”
ऐसे वाक्य लोक की चेतना को व्यक्त करते हैं और पात्रों को वास्तविक बनाते हैं।
(च) मिश्रित शब्दावली (हिंदुस्तानी भाषा)
प्रेमचंद की भाषा में न तो पूरी तरह संस्कृतनिष्ठता है और न ही फारसीपन।
उन्होंने दोनों भाषाओं के शब्दों को इस तरह मिलाया कि वह सहज रूप से बोलचाल की भाषा बन गई।
उदाहरण — “कफन”, “गबन”, “जमानत”, “अदालत”, “मालिक” आदि।
उनकी भाषा में हिंदी की आत्मा और उर्दू की मिठास दोनों हैं — यही कारण है कि वे हिंदुस्तान के सभी वर्गों के पाठकों के प्रिय बने।
3. प्रेमचंद की शैली के प्रकार
प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में विविध शैलियों का प्रयोग किया। उनकी शैली स्थिति, विषय और भाव के अनुसार बदलती है। आइए, उनके प्रमुख शैलीगत रूपों पर दृष्टि डालें
(क) वर्णनात्मक शैली
प्रेमचंद के उपन्यासों में वर्णनात्मक शैली का विशेष महत्व है। वे पात्रों, परिस्थितियों और वातावरण का इतना जीवंत चित्रण करते हैं कि पाठक को दृश्य आँखों के सामने सजीव प्रतीत होता है।
उदाहरण — ‘गोदान’ में गाँव का वर्णन :
> “सूरज निकल आया था, गाँव की पगडंडियाँ जीवन से भर उठी थीं, खेतों में हल चलने लगे थे, और होरी की आँखों में सपनों की लहरें तैर रही थीं।”
यह शैली दृश्य को मूर्त रूप देती है और पाठक को भावनात्मक रूप से जोड़ लेती है।
(ख) संवादात्मक शैली
संवादों के माध्यम से उन्होंने पात्रों की मनोवृत्तियों, विचारों और संघर्षों को व्यक्त किया।
उनकी संवाद-शैली इतनी स्वाभाविक है कि वह कथा के साथ सहज रूप से प्रवाहित होती है।
‘नमक का दारोगा’ का उदाहरण लें —
> “मैं तो यह नमक इसलिए नहीं लाया कि तुम मुझे रिश्वत दो, बल्कि इसलिए कि तुम जानो, ईमानदारी भी कोई चीज़ होती है।”
यहाँ संवाद न केवल कथा को आगे बढ़ाता है, बल्कि चरित्र का नैतिक स्वरूप भी उजागर करता है।
(ग) व्यंग्यात्मक शैली
प्रेमचंद के व्यंग्य में करुणा का तत्व है। वे किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि व्यवस्था का व्यंग्य करते हैं।
‘पंच परमेश्वर’, ‘ठाकुर का कुआँ’ जैसी कहानियों में उन्होंने सामाजिक अन्याय पर करारा व्यंग्य किया है।
उनका व्यंग्य सौम्य होते हुए भी अत्यंत प्रभावशाली है।
जैसे —
> “गाँव के ठाकुर ने धर्म की रक्षा करते-करते धर्म को ही मार डाला।”
यह वाक्य व्यवस्था पर तीखा प्रहार करता है, लेकिन भाषा में मर्यादा बनी रहती है।
(घ) दार्शनिक शैली
प्रेमचंद के साहित्य में मानवता, करुणा और जीवन-दर्शन का गहरा भाव है।
‘कफन’ या ‘सद्गति’ जैसे कथानकों में उनकी शैली दार्शनिक हो जाती है, जहाँ वे जीवन की विडंबना और नियति पर विचार करते हैं।
वे कहते हैं —
> “गरीबी केवल रोटी की कमी नहीं, आत्मा की भूख भी है।”
यह शैली उनके विचारों की गंभीरता को प्रकट करती है।
(ङ) भावनात्मक शैली
प्रेमचंद भावों के उत्कृष्ट चित्रकार थे। वे आँसू या करुणा को कृत्रिम ढंग से नहीं दिखाते, बल्कि उसे पात्र के अनुभव से प्रकट करते हैं।
‘ईदगाह’ का हामिद, ‘कफन’ का माधव या ‘गोदान’ का होरी — सभी पात्र भावनात्मक रूप से पाठक के मन में बस जाते हैं।
उनकी भावनात्मक शैली में करुणा, सहानुभूति और मानवता का अद्भुत संगम मिलता है।
(च) आदर्शवादी शैली
प्रेमचंद के साहित्य में नैतिकता और आदर्शवाद की झलक भी गहराई से मिलती है।
उनके नायक केवल यथार्थ के प्रतीक नहीं, बल्कि आदर्श मानवता के संवाहक हैं।
‘नमक का दारोगा’ का नायक भ्रष्टाचार से लड़ता है, ‘सेवासदन’ की नायिका अपने जीवन को पुनः स्थापित करती है।
इस आदर्शवाद की भाषा में गाम्भीर्य और प्रेरणा दोनों हैं।
4. रूपक, उपमा और प्रतीक प्रयोग
प्रेमचंद ने अपनी भाषा को साहित्यिक सौंदर्य देने के लिए रूपकों और उपमाओं का प्रयोग संयमपूर्वक किया।
उनका सौंदर्यबोध सजावट नहीं, बल्कि भावों का विस्तार है।
जैसे —
> “गरीबी मनुष्य की आत्मा को भी निचोड़ लेती है।”
“उसका चेहरा जैसे बुझा हुआ दीपक।”
ऐसे प्रयोग भाषा को काव्यात्मक बनाते हैं, परन्तु कृत्रिम नहीं।
5. भाषा में राष्ट्रीयता और समाजवाद की भावना
प्रेमचंद की भाषा में भारतीयता और राष्ट्रप्रेम का अद्भुत संगम है।
उन्होंने विदेशी शब्दावली से बचते हुए अपनी भाषा को भारतीय समाज और संस्कृति से जोड़ा।
‘कर्मभूमि’ और ‘रंगभूमि’ जैसे उपन्यासों में गांधीवादी विचारधारा, आत्मनिर्भरता और स्वदेशी भावना उनकी भाषा में प्रकट होती है।
उनकी भाषा का उद्देश्य केवल कहानी कहना नहीं, बल्कि समाज को जागरूक करना था।
6. शैली की प्रमुख विशेषताएँ (संक्षेप में)
क्रमांक विशेषता विवरण
1 सरलता व स्वाभाविकता बिना अलंकारों के भावों की सीधी अभिव्यक्ति
2 लोकभाषा का प्रयोग ग्रामीण बोली, मुहावरे, कहावतें
3 संवाद की जीवंतता पात्रों के अनुकूल स्वाभाविक संवाद
4 व्यंग्य और हास्य व्यवस्था पर सौम्य प्रहार
5 भावानुकूलता परिस्थिति के अनुसार भाषा-भंगिमा
6 मिश्रित शब्दावली हिंदी-उर्दू का सामंजस्य
7 मानवीय संवेदना भाषा में करुणा और सहानुभूति का भाव
7. प्रेमचंद की भाषा की सीमाएँ
यद्यपि प्रेमचंद की भाषा जनसामान्य की भाषा है, फिर भी कुछ आलोचकों ने कहा है कि उनकी हिंदी में कभी-कभी उर्दू प्रभाव अधिक दिखाई देता है।
इसके अतिरिक्त, प्रारंभिक रचनाओं में वाक्य-रचना में कुछ असमानताएँ देखी गईं।
किन्तु यह भी सत्य है कि वही “असमानता” उनकी भाषा को जीवन्त और स्वाभाविक बनाती है।
8. निष्कर्ष
प्रेमचंद की भाषा केवल साहित्यिक उपकरण नहीं, बल्कि समाज की आत्मा है। उन्होंने भाषा को जनमानस से जोड़ा और यह सिद्ध किया कि सच्चा साहित्य वही है जो जनता की भाषा में जनता के लिए लिखा जाए।
उनकी भाषा में —
सरलता में सौंदर्य,
सादगी में शक्ति,
सहानुभूति में प्रभाव,
और मानवता में गहराई निहित है।
इसलिए कहा जा सकता है —
> “प्रेमचंद की भाषा न केवल हिंदी साहित्य की रीढ़ है, बल्कि वह भारतीय समाज के हृदय की भाषा है।”
उनकी भाषा-शैली आज भी हमारे लिए आदर्श है क्योंकि उसमें जीवन की सच्चाई, मानवता की गर्माहट और समाज सुधार की चेतना आज भी समान रूप से प्रवाहित होती है।