प्रेमचंद और आदर्शोन्मुख यथार्थवाद
हिंदी साहित्य में प्रेमचंद का नाम यथार्थवादी कथा साहित्य के शिखर पर विराजमान है। उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में न केवल भारतीय समाज के यथार्थ को अभिव्यक्त किया, बल्कि उस यथार्थ में छिपे हुए आदर्शों और मानवीय मूल्यों को भी उभारकर प्रस्तुत किया। यही कारण है कि उनके साहित्य को ‘आदर्श-उन्मुख यथार्थवाद’ की संज्ञा दी जाती है।
1. प्रस्तावना
प्रेमचंद (1880–1936) हिंदी कथा साहित्य के ऐसे अग्रदूत हैं जिन्होंने भारतीय समाज की गहन समस्याओं को अपनी रचनाओं में चित्रित किया। उन्होंने किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों और उपेक्षित वर्गों के जीवन की पीड़ा को सजीव किया। किन्तु उनका यथार्थ केवल नंगी वास्तविकता नहीं है; उसमें एक सकारात्मक दिशा, आदर्श की प्रेरणा और परिवर्तन का संदेश भी मिलता है।
प्रेमचंद के साहित्य का मूल स्वर यही है कि समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण और विषमता को बदलकर समानता, सहयोग और मानवता पर आधारित समाज की स्थापना की जाए। इसलिए उनका यथार्थवादी दृष्टिकोण मात्र सामाजिक यथार्थ का वर्णन न होकर आदर्शोन्मुख है।
2. यथार्थवाद की अवधारणा
यथार्थवाद का अर्थ है – वस्तु, व्यक्ति और समाज का चित्रण जैसा वह है। इसमें जीवन की सच्चाइयों का बिना किसी अलंकरण या कल्पना के यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया जाता है। साहित्य में यथार्थवादी प्रवृत्ति का विकास उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में हुआ, जब औपनिवेशिक शोषण और सामाजिक अन्याय के प्रति जन-जागरूकता बढ़ी।
किन्तु यदि यथार्थ केवल दुःख, दरिद्रता और कुरूपता का चित्रण करके ही रुक जाए, तो वह निराशावादी हो जाता है। प्रेमचंद ने इसी स्थिति से साहित्य को उबारते हुए यथार्थ को आदर्श की दिशा दी।
3 आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की परिभाषा
आदर्श-उन्मुख यथार्थवाद वह है जिसमें लेखक समाज की सच्चाइयों को ज्यों का त्यों चित्रित करता है, परंतु उसके साथ एक ऊँचे लक्ष्य और सकारात्मक परिवर्तन की आकांक्षा भी जोड़ता है। यह साहित्य केवल स्थिति का दर्पण नहीं है, बल्कि समाज को दिशा देने वाला दीपक भी है।
प्रेमचंद ने स्वयं कहा था—
“साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं, वह पथ-प्रदर्शक भी है।”
4. प्रेमचंद का यथार्थवादी दृष्टिकोण
प्रेमचंद के साहित्य में भारतीय समाज की गरीबी, किसानों का शोषण, सामंती अत्याचार, स्त्रियों की दुर्दशा, जातिगत विषमता, शिक्षा का अभाव और औपनिवेशिक दमन आदि का सजीव चित्रण है। उनकी कहानियाँ और उपन्यास हमें बीसवीं शताब्दी के आरंभिक भारतीय गाँवों और कस्बों का वास्तविक दृश्य प्रस्तुत करते हैं।
उदाहरण:
‘गोदान’ में किसान होरी के माध्यम से किसानों की त्रासदी का यथार्थवादी चित्रण मिलता है।
‘निर्मला’ में दहेज प्रथा और स्त्री-जीवन की पीड़ा दिखाई देती है।
‘कफन’ में गरीबी और असहायता की चरम स्थिति का चित्रण है।
5. प्रेमचंद का आदर्शवादी दृष्टिकोण
प्रेमचंद केवल यथार्थ का उद्घाटन ही नहीं करते, बल्कि उसमें सुधार और परिवर्तन की संभावना भी तलाशते हैं। उनके नायक सामान्य किसान, स्त्रियाँ, मजदूर और आम जन हैं, जो संघर्षशील और नैतिक मूल्यों से प्रेरित होते हैं।
उदाहरण:
‘गोदान’ में होरी शोषण का शिकार होकर भी अपने परिवार और समाज के प्रति कर्तव्य निभाने की कोशिश करता है।
‘सेवासदन’ की नायिका स्त्री-सम्मान और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करती है।
‘पूस की रात’ में हल्कू अपने दुखों के बावजूद हास्य और आशा का सहारा ढूँढता है।
यहाँ यथार्थ के साथ एक आदर्श की झलक भी मिलती है—समानता, सहानुभूति और संघर्षशीलता का आदर्श।
6. सामाजिक यथार्थ और आदर्श का समन्वय
प्रेमचंद का साहित्य इस तथ्य का साक्षी है कि वे केवल यथार्थवादी लेखक नहीं, बल्कि समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपने साहित्य को समाज की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करने और जनचेतना जगाने का माध्यम बनाया।
उनके साहित्य में हमें तीन मुख्य आयाम दिखाई देते हैं—
1. समस्याओं का यथार्थवादी चित्रण
2. संघर्ष और पीड़ा का प्रदर्शन
3. समाधान और आदर्श की ओर संकेत
इस प्रकार उनका साहित्य संतुलित यथार्थवाद है।
7. आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के प्रमुख पहलू
1. किसान जीवन – प्रेमचंद ने किसानों के जीवन की यथार्थ समस्याओं का चित्रण किया और उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाई।
2. स्त्री विमर्श – दहेज, पराधीनता और उपेक्षा के बावजूद उन्होंने स्त्री की स्वतंत्रता और सम्मान का आदर्श प्रस्तुत किया।
3. जातीय समस्या – दलितों की पीड़ा का यथार्थवादी चित्रण किया और सामाजिक समानता का आदर्श रखा।
4. नैतिकता और मानवता – उनके नायक जीवन में नैतिक आदर्श और मानवीय संवेदना को महत्त्व देते हैं।
5. राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता चेतना – उनके साहित्य में स्वदेश-प्रेम और स्वतंत्रता का आदर्श भी प्रकट होता है।
8. आलोचकों की दृष्टि
साहित्यकार और आलोचक प्रेमचंद को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवादी’ मानते हैं।
नामवर सिंह के अनुसार – “प्रेमचंद ने यथार्थ को आदर्श की ओर मोड़कर साहित्य को जन-संघर्ष का साधन बनाया।”
रामविलास शर्मा ने लिखा – “प्रेमचंद का यथार्थ किसानों और मजदूरों का यथार्थ है, जो समाज में परिवर्तन की प्रेरणा देता है।”
उपसंहार
प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को जीवन और समाज की सच्चाइयों से जोड़ा। उन्होंने न तो जीवन की कुरूपताओं से मुँह मोड़ा, न ही केवल आदर्शवादी कल्पना में खोए। बल्कि उन्होंने दोनों का अद्भुत समन्वय करके यथार्थ को आदर्श की दिशा दी।
इस प्रकार, प्रेमचंद का साहित्य हमें यह सिखाता है कि साहित्यकार का दायित्व केवल वास्तविकता का चित्रण करना नहीं, बल्कि उस वास्तविकता को बेहतर बनाने की राह दिखाना भी है। यही कारण है कि उनके साहित्य को आदर्श-उन्मुख यथार्थवाद की संज्ञा दी जाती है।