भूमिका
हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद का नाम उस लेखक के रूप में लिया जाता है, जिसने भारतीय समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में जीवंत रूप दिया। उन्होंने साहित्य को समाज से जोड़ा और साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाया। प्रेमचंद ने जिस युग में लेखन किया, वह भारतीय समाज में परंपरा, रूढ़िवाद, वर्गभेद और स्त्री शोषण से ग्रसित था। ऐसे समय में उन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से स्त्री के प्रश्न को गंभीरता से उठाया।
उनका स्त्री विमर्श किसी आंदोलन का परिणाम नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना का विस्तार है। प्रेमचंद की दृष्टि में स्त्री केवल सौंदर्य की प्रतीक नहीं, बल्कि संघर्षशील, संवेदनशील और समाज को दिशा देने वाली शक्ति है।
स्त्री विमर्श का आशय
“स्त्री विमर्श” का अर्थ है— स्त्री के जीवन, उसकी समस्याओं, अधिकारों, सामाजिक स्थिति और अस्तित्व से संबंधित विमर्श। यह केवल पुरुष समाज की आलोचना नहीं, बल्कि स्त्री की चेतना, आत्मसम्मान और समान अधिकारों की मांग का साहित्यिक रूप है। हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श की जड़ें प्रेमचंद के यथार्थवादी लेखन से ही पल्लवित हुईं।
प्रेमचंद ने पहली बार ग्रामीण और निम्नवर्गीय स्त्रियों के जीवन को साहित्य में स्थान दिया। उन्होंने स्त्री को ‘देवी’ या ‘विलासिनी’ के रूप में नहीं, बल्कि ‘मानव’ के रूप में प्रस्तुत किया।
प्रेमचंद का युग और स्त्री की स्थिति
प्रेमचंद के समय (1880–1936) भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। बाल विवाह, पर्दा प्रथा, अशिक्षा, विधवा-जीवन, दहेज, स्त्री-स्वतंत्रता का अभाव— ये सब उनके जीवन का हिस्सा थे। स्त्री केवल पुरुष के अधीन मानी जाती थी।
ऐसे समय में प्रेमचंद ने अपने साहित्य में स्त्री को आत्मसम्मान, शिक्षा, श्रम और सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा। उन्होंने यह सिद्ध किया कि स्त्री केवल गृहस्थी की धुरी नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन की वाहक भी हो सकती है।
प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श
1. गोदान की धनिया – श्रमशीलता और स्वाभिमान का प्रतीक
‘गोदान’ प्रेमचंद का अंतिम और सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। इसकी नायिका धनिया भारतीय ग्रामीण स्त्री का आदर्श रूप है। वह निरक्षर है, परंतु जीवन की गहरी समझ रखती है।
धनिया पति होरी की कमजोरियों को समझती है और हर कठिन परिस्थिति में परिवार की रीढ़ बनकर खड़ी रहती है। जब समाज होरी को अपमानित करता है, तब धनिया ही न्याय की आवाज बनती है—
> “किसान की औरत को कौन झुका सकता है, जब तक वह खुद न झुके।”
धनिया प्रेमचंद की उस स्त्री का प्रतीक है, जो सहनशील तो है, पर अन्याय के विरुद्ध खड़ी होने का साहस भी रखती है।
2. सेवासदन की सुमन – परंपरा और आधुनिकता का संघर्ष
‘सेवासदन’ की नायिका सुमन स्त्री विमर्श की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति है। वह एक मध्यवर्गीय महिला है, जो विवाह संस्था की विषमता और समाज की नैतिकता के दोहरे मापदंडों से जूझती है।
सुमन पति के अत्याचार और उपेक्षा से त्रस्त होकर स्वतंत्र जीवन जीना चाहती है। उसकी यात्रा पतन से उत्थान तक की यात्रा है। वह अंततः एक सेवा संस्था से जुड़कर समाज-सेवा का मार्ग अपनाती है।
प्रेमचंद ने सुमन के माध्यम से यह दिखाया कि स्त्री की मुक्ति केवल विवाह या पुरुष पर निर्भर नहीं, बल्कि उसकी आत्मचेतना और कर्मशीलता पर निर्भर है।
3. निर्मला – दहेज और स्त्री के दुःख की करुण कथा
‘निर्मला’ प्रेमचंद की एक मार्मिक कृति है, जिसमें दहेज प्रथा के कारण स्त्री का जीवन किस तरह नष्ट हो जाता है, यह चित्रित किया गया है।
निर्मला का विवाह एक अधेड़ पुरुष से केवल दहेज के कारण किया जाता है। इस असमान विवाह का परिणाम त्रासदी के रूप में सामने आता है।
यह उपन्यास दर्शाता है कि समाज की अन्यायपूर्ण प्रथाएँ स्त्री की कोमल भावनाओं को कैसे कुचल देती हैं। प्रेमचंद का यह स्त्री विमर्श करुणा और सामाजिक आलोचना दोनों का संगम है।
4. गबन की जालपा – आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ती स्त्री
‘गबन’ की नायिका जालपा आधुनिक चेतना से युक्त है। वह भौतिक सुख-सुविधाओं की आकांक्षी है, पर अंततः जीवन के वास्तविक मूल्यों को पहचानती है।
जब उसका पति जेल चला जाता है, तो जालपा आत्मनिर्भर होकर जीवन जीना सीखती है।
प्रेमचंद ने यहाँ स्त्री के भीतर के आत्म-संघर्ष और उसकी परिपक्वता को बड़ी गहराई से उकेरा है।
जालपा प्रेमचंद की उस नई स्त्री का प्रतीक है जो अपनी गलतियों से सीखती है और आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर होती है।
5. रंगभूमि की सोफिया – करुणा और मानवता का प्रतीक
‘रंगभूमि’ में सोफिया पश्चिमी शिक्षित और धार्मिक चेतना से संपन्न स्त्री है। वह भारतीय सामाजिक समस्याओं को समझने और सुलझाने का प्रयास करती है।
सोफिया का चरित्र प्रेमचंद की मानवतावादी दृष्टि को प्रकट करता है— वह धर्म, वर्ग और जाति की सीमाओं से परे जाकर मानवता को सर्वोच्च मानती है।
प्रेमचंद की कहानियों में स्त्री विमर्श
1. कफन – शोषित स्त्री की मौन व्यथा
‘कफन’ में बुधिया का चरित्र अत्यंत मर्मस्पर्शी है। वह मरते दम तक चुप रहती है, क्योंकि उसकी आवाज़ का कोई मूल्य नहीं। यह मौन स्त्री के दमन का प्रतीक है।
प्रेमचंद ने यहाँ यह दिखाया कि समाज में स्त्री की पीड़ा को कितनी सहजता से नजरअंदाज किया जाता है।
2. दूध का दाम – श्रम और मातृत्व का सम्मान
इस कहानी की नायिका अपनी मेहनत का पूरा मूल्य चाहती है। प्रेमचंद यहाँ स्त्री को केवल ‘त्यागमूर्ति’ नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से आत्मसम्मान की मांग करने वाली इकाई के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
3. बड़ी बहन, मिस पद्मा, घासवाली, और मंदरिया
इन सभी कहानियों में प्रेमचंद ने स्त्री के विविध रूपों को चित्रित किया—
कहीं वह परिवार की धुरी है, कहीं समाज की आलोचना का केंद्र, तो कहीं संघर्ष की प्रेरणा।
उनकी नायिकाएँ किसी आदर्श कल्पना से नहीं, बल्कि वास्तविक जीवन से प्रेरित हैं।
प्रेमचंद की दृष्टि में स्त्री का आदर्श
प्रेमचंद ने स्त्री को न तो केवल गृहलक्ष्मी के रूप में प्रस्तुत किया और न ही मात्र विद्रोहिणी के रूप में।
उनकी दृष्टि संतुलित थी—
> “स्त्री समाज की आत्मा है, यदि वह शिक्षित, स्वतंत्र और संवेदनशील नहीं होगी तो समाज का उद्धार असंभव है।”
उनके अनुसार, स्त्री की मुक्ति शिक्षा, श्रम, आत्मनिर्भरता और सामाजिक सहयोग से संभव है।
प्रेमचंद की नायिकाएँ यह संदेश देती हैं कि स्त्री पुरुष की परछाई नहीं, बल्कि उसकी समान भागीदार है।
प्रेमचंद का स्त्री विमर्श और आधुनिक संदर्भ
आज जब स्त्री विमर्श वैश्विक साहित्यिक आंदोलन का रूप ले चुका है, तब प्रेमचंद का स्त्री दृष्टिकोण और भी प्रासंगिक हो जाता है।
उन्होंने जो प्रश्न एक शताब्दी पहले उठाए—
शिक्षा, विवाह, दहेज, रोजगार, मातृत्व, लैंगिक समानता— वही आज भी हमारे समाज की चुनौतियाँ हैं।
प्रेमचंद का साहित्य इस दृष्टि से अग्रगामी है कि उन्होंने स्त्री को केवल पीड़िता नहीं, बल्कि संघर्षशील नायिका के रूप में प्रस्तुत किया।
निष्कर्ष
प्रेमचंद का स्त्री विमर्श भारतीय समाज में स्त्री की यथार्थ स्थिति का दर्पण है। उन्होंने न केवल स्त्री के दुःख को व्यक्त किया, बल्कि उसके भीतर छिपी शक्ति और चेतना को भी उजागर किया।
उनकी स्त्रियाँ करुणा की प्रतीक होते हुए भी विद्रोह का स्वर रखती हैं। वे आत्मबल, श्रम और मानवता की मूर्तियाँ हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि—
प्रेमचंद का स्त्री विमर्श किसी आंदोलन की देन नहीं, बल्कि संवेदना, न्याय और समानता की गूंज है।
उनकी रचनाएँ आज भी हमें यह सोचने पर विवश करती हैं कि जब तक समाज स्त्री को समान दर्जा नहीं देता, तब तक कोई भी प्रगति अधूरी है।