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गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

फैसला कहानी लेखिका मैत्रेई पुष्पा के प्रमुख बिंदु

फैसला कहानी लेखिका मैत्रेई पुष्पा के प्रमुख बिंदु
फैसला कहानी हिंदी की प्रसिद्ध कहानीकार मैत्रेई पुष्पा की प्रसिद्ध कहानी है इसके प्रमुख पात्र वसुमति ,ईसुरिया, रणवीर है जिनकी निम्नलिखित विशेषताएं हैं।
वसुमति की चारित्रिक विशेषताएं
1. परंपरागत ग्राम वधू-हालांकि बसंती ग्राम प्रधान सुनी जाती है परंतु अपने रुतबे और दायित्वों का प्रयोग न करके एक घरेलू श्री पत्नी से अधिक नहीं बन पाती है क्योंकि उसके पद का रुतबा दायित्व तो उसका पति रणवीर ही निभाता है वह किसी रबड़ स्टैंप की तरह अपने पति द्वारा बताई गई जगह पर ही दस्तखत करती है वह अपने घरेलू दायित्वों को परंपरागत ग्राम वधू की बात ही निभाती है
2 पति से भयभीत-वसुमति पत्नी के रूप में अपने पति से डरती है यही कारण है कि जब उसका पति उसे पंचायत से ले आता तो चुपचाप चली आती हैं तथा फिर उसे पंचायत में न जाने को कहता है तो वह उसका विरोध भी नहीं करती।
3. ग्रामीण स्त्रियों के रोष का शिकार-ग्राम की स्त्रियों ने उसे इसलिए वोट दी थी कि वह एक स्त्री होकर स्त्री सशक्तिकरण पर काम करेगी परंतु उसके पति रणवीर ने उसको यह पद ढंग से संभालन नहीं दिया इसलिए गांव की औरतें उस पर ताना लगाती थी बली तुम प्रधान आपके द्वार पर तो पक्का खरंजा करा लिया अपनी गलती तो पत्रों से बनवा ली
 हमसे क्या बता बहन की कीचड़ में ही छोड़ दिए।
4.न्याय प्रिय बेशक वसुमति ग्रामीण स्त्रियों की उपेक्षा पर खरी नहीं उतरती और उनके ताने सुनती है परंतु वह न्याय प्रिय है वह पंचायत में हरदोई को उसके पति के साथ भेजने का न्याय पूर्ण निर्णय करती है इस अन्याय के लिए दोषी अपने पति को अपना ही वोट नहीं देती वह 1 वोट से ही चुनाव हार जाता है लेकिन मैं क्या करती अपने भीतर की ईसुरिया को नहीं मार सकती क्षमा करना।

ईसुरिया की चारित्रिक विशेषताएं-वसुमति के बाद फैसला कहानी की महत्वपूर्ण पात्र यह एक युवती आडंबर से मुक्त स्त्री पुरुष को समानता की दृष्टि से देखने वाली न्याय प्रिय वसुमति को सही रास्ता दिखाने वाली गडरिया की बहू स्पष्ट वादी व्यवहार कुशल निश्चल लेखिका को प्रभावित करने वाली स्त्री पात्र है।
रणबीर की चारित्रिक विशेषताएं-रणवीर फैसला कहानी का प्रमुख पात्र है कथानायका वसुमति के पति अपने कृत्यों के कारण कहानी का खलनायक कुशल राजनीतिज्ञ पुरुष प्रधान समाज पाई माहिती भ्रष्टाचारी षड्यंत्रकारी कुर्सी बचाने के लिए रिश्तो को ताक पर रखने वाला एक सच्चा राजनेता दिखाई पड़ता है।
निष्कर्ष- वसुमति चीर बंदिनी की मुख सभी को तोड़कर फैसले में निर्णायक भूमिका निभाने वाली तो वहीं इस रवया के माध्यम से लेखिका की प्रेरणा शक्ति बनने वाली स्त्री पात्र तथा आज की स्वतंत्र विचारधारा का नेतृत्व करने वाली नारी रणवीर के माध्यम से लेखिका ने राजनेताओं की षड्यंत्रकारी प्रवृत्ति के बारे में बताने की कोशिश की है कहानी की तत्वों के माध्यम से फैसला कहानी एक उद्देश्य पूर्ण तथा सक्षम कहानी है।

समझणिए की मर का संक्षिप्त परिचय

समझणिए की मर उपन्यास का संक्षिप्त परिचय
समझाने की मर - 
भूमिका-
यह उपन्यास डॉ श्याम सखा श्याम द्वारा रचित है डॉ श्याम सखा श्याम का जन्म 1948 में रोहतक के श्री रतिराम शास्त्री के यहां हुआ उन्होंने एम बी बी एस सी एलएलबी की उपाधि प्राप्त की यह हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित होने वाली पत्रिका हरी गंदा के मुख्य संपादक हैं वक्त उपन्यास के तरीके अब तक इनके एक टुकड़ा दर्द काव्य संकलन तथा एक कहानी संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।
उपन्यास स्वार्थ केंद्रित राजनीति को अभिव्यक्त करता है 
उपन्यास का कथानक दो वक्ताओं द्वारा दो श्रोताओं को सुनाई गई बातचीत पर आधारित है।
 उपन्यास में संवादों की अद्भुत योजना है ।
संपूर्ण उपन्यास में हरियाणा की संस्कृति की झलक दिखाई देती है ।
लेखक व स्वार्थ पूर्ण राजनीति वह खुश होती जा रही पंचायत न्याय प्रणाली का यथार्थ एवं मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है।
 डॉ हरीश चंद्र वर्मा ने उपन्यास की आलोचना करते हुए लिखा है कि राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना से प्रेरित उपन्यासकार की दृष्टि से सबसे अधिक चिंताजनक पक्ष है भारत की राष्ट्रीयता से विमुख स्वार्थ केंद्रित राजनीति उपन्यास की कथा स्वार्थ केंद्रित राजनीति उपन्यास की कथा में समाहित कारगिल का युद्ध ऐसी ही स्वार्थ केंद्रित राजनीति का परिणाम था इसमें अनेक निर्दोष सैनिकों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी ।
पारिवारिक और सामाजिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार भी कथानक की चिंता का मुख्य विषय है कारगिल के युद्ध में शहीद हुए नफे सिंह की विधवा अमृता को मिलने वाली 10 लाख की राशि को हड़पने के लिए अमृता का ससुर रणसिंह अनेक प्रपंच रचता है किंतु अंत में सत्य की चीजें जीत होती है विधवा अमृता 10 लाख की राशि से कन्याओं के लिए एक तकनीकी स्कूल की स्थापना करती है ।
इस प्रकार उपन्यासकार ने नफे सिंह से उत्सर्ग और अमृता के त्याग और सेवा भाव के उधर उदाहरणों के माध्यम से देश भक्ति का उज्जवल आदर्श प्रस्तुत किया है।

हिंदी उपन्यास उद्भव और विकास

हिंदी उपन्यास उद्भव व विकास
भूमिका आधुनिक हिंदी साहित्य में उपन्यास नामक विद्या का जो रूप प्राप्त हुआ है वह प्राचीन संस्कृत साहित्य से किसी भी प्रकार से संबंधित नहीं माना जाता विधा का उपन्यास उद्भव और विकास यूरोप से हुआ है हिंदी का प्रथम उपन्यास इसे स्वीकार किया गया है इस संदर्भ में लाला श्रीनिवास द्वारा रचित परीक्षा गुरु इंशा अल्लाह का रचित रानी केतकी की कहानी और श्रद्धा राम फिल्लौरी कृत्य भागवती आदि आरंभिक उपन्यास है आजकल यह गद्य विधा काफी लोकप्रिय हो चुकी है सुविधा की दृष्टि से उपन्यास साहित्य को चार भागों में बांटा गया है।
1प्रेमचंद पूर्व .युग भारतेंदु से पूर्व शरदाराम सिलोरी ने भाग्यवंती नामक उपन्यास लिखा जिसमें बीज रूप से न्यास के सभी गुण दिखाई दिए हिंदी में बांग्ला उपन्यासों किया अनुकरण पर श्रीनिवास दास ने परीक्षा गुरु नामक उपन्यास लिखा आगे चलकर राधा कृष्ण दास ने निशा हिंदू बालकृष्ण भट्ट ने नूतन ब्रह्मचारी , एक अनजान एक सुजान उपन्यास लिखा लेकिन इस काल में अनुवाद की ओर अधिक ध्यान दिया गया द्विवेदी युग में उपन्यास लेखन जोर पकड़ने लगा अनुवाद की प्रवृत्ति तो अभी भी विद्यमान थी विशेषकर देवकीनंदन खत्री द्वारा रचित उपन्यास चंद्रकांता काफी लोकप्रिय हुआ लोगों ने इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हिंदी कोशिका किशोरी लाल गोस्वामी ने तो इस प्रकार की जासूसी और पुलिस में उपन्यासों का ढेर लगा दिया अयोध्या सिंह उपाध्याय के दो उपन्यास हिंदी का ठाठ तथा अधिक लाभ फूल उपन्यास लिखें।
2.प्रेमचंद युग उपन्यास जगत में प्रेम प्रेमचंद का आगमन एक विशेष उपलब्धि मानी जाती है उन्होंने कि लक्ष्मी और जासूसी की पिटारी को बंद कर हिंदी उपन्यासों को मुक्त किया और सामान्य जनजीवन से उपन्यास को जोड़ा प्रेमचंद ने उपेक्षित नारी जाति तथा मजदूरों और किसानों की व्यथा कथा को यथार्थ रूप में वर्णन किया अब उपन्यासों की स्वस्थ परंपरा का प्रचलन होने लगा कथानक पात्र चरित्र चित्रण देशकाल भाषा की दृष्टि से उपन्यास लिखे जाने लगी सेवा सदन ,निर्मला ,प्रेमाश्रय, रंगभूमि, गवन ,कायाकल्प कर्मभूमि, गोदान आदि प्रेमचंद के उपन्यास हैं दहेज प्रथा ,वेश्यावृत्ति ,रिश्वतखोरी ,असहयोग आंदोलन ,किसानों पर भी प्रेमचंद ने अनेक उपन्यास। गोदान प्रेमचंद का ही नहीं अपितु हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है ।उपन्यासकार ने ग्राम जीवन के संदर्भ में जमीदारी प्रथा पर प्रकाश डाला है गोदान का होरी भारतीय किसान का प्रतिनिधि पात्र है उसी के द्वारा प्रेमचंद ने किसानों की स्थिति को दर्शाया है और उपन्यासकार विशंभर नाथ शर्मा ,,जयशंकर प्रसाद वृंदावनलाल वर्मा ,सिया शरण गुप्त आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं मां, करणी इरावती, कंकाल ,तितली, विराटा की पद्मिनी झांसी की रानी मृगनैनी इस समय की और उपन्यास है वर्मा जी ने सामाजिक उपन्यास लिखे हैं जयशंकर प्रसाद जी ने ऐतिहासिक उपन्यास लिखें।
प्रेमचंद्र उत्तर युग-इस युग में हिंदी उपन्यास का अत्यधिक विकसित विकास हुआ इसमें सामाजिक ऐतिहासिक मनोवैज्ञानिक आंचलिक उपन्यास काफी संख्या में लिखे गए आचार्य चतुरसेन शास्त्री इस युग के उल्लेखनीय उपन्यासकार हैं हृदय की प्यास दिल्ली का दलाल बुधवा की बेटी उनके प्रसिद्ध उपन्यास भगवतीचरण वर्मा ने चित्रलेखा उपन्यास लिख कर हिंदी उपन्यास साहित्य को एक नई दिशा प्रदान किए रास्ते भूले बिसरे चित्र सभी रावत राम गोसाई आदि इनके ऐतिहासिक उपन्यास है अब उपन्यासकार व्यक्ति विशेष के बारे में भी रुचि लेने लगे परिणाम स्वरुप मनोविश्लेषणात्मक की परंपरा का श्री गणेश हुआ।जोशी ने सन्यासी प्रेत और छाया ,की रानी निर्वाचित आदि उपन्यास लिखे इसी परंपरा को आगे बढ़ाकर जैनेंद्र कुमार ने भी सुनीता ,सुखदा, त्याग पत्र आदि उपन्यास लिखे इन के बाद में सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन द्वारा रचित शेखर एक जीवनी मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास है मार्क्सवादी चिंतन से प्रभावित लेखक यशपाल है।राहुल सांकृत्यायन के नाम गिनाए जा सकते हैं दादा कामरेड ,पार्टी कामरेड ,देशद्रोही, दिव्या यशपाल जी के प्रगतिवादी उपन्यास हैं। जिन पर मार्क्सवाद के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है ।वहीं यशपाल के उपन्यास झूठा सच ,स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता पश्चात के भारत का वर्णन करता है कहा जाए तो देश विभाजन की कथा इसके अंदर है राहुल जी के उपन्यास योद्धा सिंह, सेनापति, मधुर, स्वप्न, विस्मृत यात्री आदि उल्लेखनीय उपन्यास के अलावा उपेंद्र नाथ अश्क, राघव राय उपन्यासों के नाम गिनाए जा सकते हैं हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित बाणभट्ट की आत्मकथा और चा इन चंद्रलेखा ,2 सप्ताह से चंद हसीनों के ,बुधवा की बेटी घंटा ,सरकार तुम्हारी आंखों में आदि उपन्यास पंडित बेचन शर्मा उग्र के हैं इसके बाद आंचलिक उपन्यासों की परंपरा शुरू हुई । इस क्षेत्र में फणीश्वर नाथ रेणु ,नागार्जुन ,राघव उदय शंकर भट्ट अमृतलाल नागर देवेंद्र सत्यार्थी आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं मैला आंचल ,परी कथा आदि रेनू के प्रसिद्ध उपन्यास हैं वरुण के बेटे तथा बाबा बटेश्वर नाथ आदि आंचलिक उपन्यास में आधुनिक युग स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 
हिंदी उपन्यास लेखन में आशातीत वृद्धि हुई इस युग में नई पीढ़ी के उपन्यासकार सामने आए आधुनिक पीढ़ी के उपन्यास कारों में मोहन राकेश राजेंद्र यादव कमलेश्वर धर्मवीर भारती निर्मल वर्मा श्रीकांत श्री राम शुक्ला श्रीमती मन्नू भंडारी लक्ष्मीनारायण लाल आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं अंधेरे बंद कमरे में आधे अधूरे राकेश जी के उल्लेखनीय उपन्यास पढ़े हुए लोग काली आंधी कमलेश्वर के गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का सुप्रसिद्ध उपन्यास है राग दरबारी श्रीलाल शुक्ल आपका बंटी मन्नू भंडारी का
 प्रसिद्ध उपन्यास है हिंदी का वर्तमान उपन्यास साहित्य अनेक दिशाओं में अग्रसर है उपन्यास और कहानी पढ़ने में अधिक रुचि लेते हैं लेकिन कुछ उपन्यासकार अति यथार्थवादी तथा प्रयोग शीलता के नाम पर अश्लील और कामुक उपन्यास लिखने लगे हैं जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहे जा सकते फिर भी हम कह सकते हैं कि उपन्यासों का भविष्य काफी उज्जवल है।

ध्रुवस्वामिनी नाटक का उद्देश्य व समस्याएं

   ध्रुवस्वामिनी नाटक का उद्देश्य व समस्याएं
भूमिका- ध्रुवस्वामिनी एक उद्देश्य पूर्ण नाटक है जिसमें जयशंकर प्रसाद जी ने ऐतिहासिक कथानक लेते हुए अपने उद्देश्य को स्पष्ट किया है उसके अनुसार, मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकांड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने से जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को पद दिलाने में बहुत प्रयत्न किया है। 
ध्रुवस्वामिनी नाटक का उद्देश्य -
1.साहसी राष्ट्राध्यक्ष 
2.नारी समस्या को उजागर करना
3. विवाह की समस्या 
4.त्याग और उदारता की भावना को बल 
5.प्रेम भावना का विस्तार 
6.अत्याचार एवं दुष्ट प्रवृत्तियों की समाप्ति
7. प्राचीन इतिहास की जानकारी
8. देशभक्ति की भावना जागृत करना।
1 प्रसाद जी ने इस नाटक के माध्यम से भारत देश में एक शक्तिशाली राष्ट्र अध्यक्ष की स्थापना करना चाहते थे इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने एक ऐतिहासिक कथा को नाटक रूप में पिरोया है नाटककार जिस प्रकार इस कथा में कायर मदद विलासी अयोग्य वनीत शासक रामगु प्चंद्रगुप्त जैसे साहसी वीर तथा योग्य व्यक्ति के हाथों में देश की बागडोर सौंप सकता है उसी प्रकार वह अपने समकालीन परिपेक्ष्य में अंग्रेजों के शासन को समाप्त कर चंद्रगुप्त के सम्मान शक्तिशाली तथा वीर भारतीय राष्ट्र अध्यक्ष की स्थापना करना चाहते हैं ।
नारी समस्या को उजागर करना- जयशंकर प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी नाटक में लेखक ने तत्कालीन नारी समस्या को उजागर किया है लेखक के अनुसार भारतीय समाज एक पुरुष प्रधान समाज है जिसमें स्त्री अपनी सुरक्षा के लिए हमेशा पुरुषों पर आश्रित रही हैं पुरुष स्त्रियों को पुरुषों से अधिक कुछ नहीं समझता है वह स्त्रियों पर तरह तरह के अत्याचार करता तथा मनमाना शोषण करता है इस लेखक के माध्यम से ध्रुवस्वामिनी का सशक्त चरित्र का लेखक ने नारी की गरिमा को दिखाया है।
 नंबर 3- विवाह की समस्या लेखक ने नाटक के माध्यम से होने वाले विवाह के समय युवक-युवतियों की आपसी सहमति न होने की समस्या को उठाया है ध्रुवस्वामिनी कविता सम्राट समुद्रगुप्त को वीर शक्तिशाली जानकर उन्हें अपनी पुत्री को उल्लू बनाने के लिए समर्पित कर देते हैं राजा समुद्रगुप्त स्वामी का विवाह योग्य पुत्र करना चाहते हैं समुंदर गुप्त की मृत्यु के पश्चात परिवर्तन आता है तथा महामंत्री स्वामी कथा राम गुप्त की छल कपट के कारण राम गुप्त राजा नहीं बनता है प्रेम भी नहीं करती तब भी उसे उसकी पत्नी बनी स्वीकार करने पर समाज मजबूर करता है इस प्रकार से लेखक ने विवाह की समस्या को भी रूप से उठाया है ।
त्याग और उदारता की भावना को बैठक क माध्यम से लेखक लोगों को अपने त्याग और उदारता की भावना को विकसित करने की प्रेरणा देता हैइस नाटक में चंद्रगुप्त के त्याग और उसकी उदारता का परिचय देकर लेखक भी समाज में यही भावना बनना चाहता है प्रेम भावना का विस्तार लेखक नाटक के माध्यम से प्रेम भावना का विस्तार करना चाहता है लेखक के अनुसार मनुष्य का जीवन बहुत छोटा होता है उसमें भी युवावस्था तो और भी छोटी होती है लेखक ने मनुष्य को यह छोटा सा जीवन प्रेम में होने के लिए प्रेरित किया है ।
अत्याचार एवं दुष्ट प्रवृत्तियों की समाप्ति इस नाटक का उद्देश्य नाटक के माध्यम से तत्कालीन भारतीय समाज में फैले अत्याचारों एवं समाप्त करना चाहता है राम गुप्त व स्वामी के अत्याचार एवं बुराइयों को चंद्रगुप्त द्वारा समाप्त करवा कर एक शांतिप्रिय समाज की स्थापना पर बल दिया है वह वर्तमान भारतीय समाज को एक ऐसे समाज के रूप में देखना चाहते हैं जिसमें भाई का भाई से प्रेम हो और समाज में किसी प्रकार का कोई भी अत्याचार ना हो ।
प्राचीन इतिहास की जानकारी इस नाटक के माध्यम से लेखक प्राचीन इतिहास की जानकारी देना चाहता है इतिहास का वर्णन करता है इतिहास के स्वर्ण काल कहे जाने वाले गुप्त साम्राज्य की जानकारी इसमें देता है नाटक के रूप में लिखकर प्रस्तुत करता है और इससे समाज को सीख देने की कोशिश करता है ।
देशभक्ति की भावना जागृत करना इस नाटक का एक एक ऐतिहासिक और है भारतीय इतिहास की एक घटना को लेकर के भारतीय लोगों को जगाने की कोशिश की है देशभक्ति की कोशिश चंद्रगुप्त के माध्यम से की है ।
निष्कर्ष-
जिस प्रकार हम कह सकते हैं कि यह नाटक है प्राचीन इतिहास के नवीन प्रस्तुतीकरण के माध्यम से देशभक्त देशभक्ति राष्ट्रीयता नारी सम्मान तथा सामाजिक बुराइयों का अंत करने का संदेश दिया है।
 धन्यवाद

17th century scientific revolution

To what extent were the scientific discoveries, inventions and formulations in the social, economic, political and intellectual realities of the 17th century Europe.
Introduction-The scientific revolution was the emergence of modern science during the early modern period, when developments in mathematics, physics, astronomy, biology, and chemistry transformed societal views about nature. The scientific revolution began in Europe toward the end of the Renaissance period, and continued through the late 18th century, influencing the intellectual social movement known as the Enlightenment. While its dates are disputed, the publication in 1543 of Nicolaus Copernicus ‘s De revolutionibus orbium coelestium (On the Revolutions of the Heavenly Spheres) is often cited as marking the beginning of the scientific revolution. The term ¨Scientific Revolution¨ was first given wide significance through Herbert Butterfield´s series of lectures on "The Origins of Modern Science" delivered for the History of Science Committee in Cambridge in 1948. The Scientific Revolution is traditionally assumed to start with the Copernican Revolution (initiated in 1543) and to be complete in the "grand synthesis" of Isaac Newton's 1687 Principia. Much of the change of attitude came from Francis Bacon whose "confident and emphatic announcement" in the modern progress of science inspired the creation of scientific societies such as the Royal Society, and Galileo who championed Copernicus and developed the science of motion.
Science and Enlightenment- Science came to play a leading role in Enlightenment discourse and thought. Many Enlightenment writers and thinkers had backgrounds in the sciences, and associated scientific advancement with the overthrow of religion and traditional authority in favor of the development of free speech and thought. Broadly speaking, Enlightenment science greatly valued empiricism and rational thought, and was embedded with the Enlightenment ideal of advancement and progress. At the time, science was dominated by scientific societies and academies, which had largely replaced universities as centers of scientific research and development. Societies and academies were also the backbone of the maturation of the scientific profession. Another important development was the popularization of science among an increasingly literate population. The century saw significant advancements in the practice of medicine, mathematics, and physics; the development of biological taxonomy; a new understanding of magnetism and electricity; and the maturation of chemistry as a discipline, which established the foundations of modern chemistry.
Inventions- Nicolaus Copernicus (1473–1543) published On the Revolutions of the Heavenly Spheres in 1543, which advanced the heliocentric theory of cosmology. Andreas Vesalius (1514–1564) published De Humani Corporis Fabrica (On the Structure of the Human Body) (1543), which discredited Galen's views. He found that the circulation of blood resolved from pumping of the heart. He also assembled the first human skeleton from cutting open cadavers. The French mathematician François Viète (1540–1603) published In Artem Analycitem Isagoge (1591), which gave the first symbolic notation of parameters in literal algebra. William Gilbert (1544–1603) published On the Magnet and Magnetic Bodies, and on the Great Magnet the Earth in 1600, which laid the foundations of a theory of magnetism and electricity. Tycho Brahe (1546–1601) made extensive and more accurate naked eye observations of the planets in the late 16th century. These became the basic data for Kepler's studies. Sir Francis Bacon (1561–1626) published Novum Organum in 1620, which outlined a new system of logic based on the process of reduction, which he offered as an improvement over Aristotle's philosophical process of syllogism. This contributed to the development of what became known as the scientific method. Galileo Galilei (1564–1642) improved the telescope, with which he made several important astronomical observations, including the four largest moons of Jupiter (1610), the phases of Venus (1610 – proving Copernicus correct), the rings of Saturn (1610), and made detailed observations of sunspots. He developed the laws for falling bodies based on pioneering quantitative experiments which he analyzed mathematically. Johannes Kepler (1571–1630) published the first two of his three laws of planetary motion in 1609. William Harvey (1578–1657) demonstrated that blood circulates, using dissections and other experimental techniques. René Descartes (1596–1650) published his Discourse on the Method in 1637, which helped to establish the scientific method. Antonie van Leeuwenhoek (1632–1723) constructed powerful single lens microscopes and made extensive observations that he published around 1660, opening up the micro-world of biology. Christiaan Huygens (1629–1695) published major studies of mechanics (he was the first one to correctly formulate laws concerning centrifugal force and discovered the theory of the pendulum) and optics (being one of the most influential proponents of the wave theory of light). Isaac Newton (1643–1727) built upon the work of Kepler, Galileo and Huygens. He showed that an inverse square law for gravity explained the elliptical orbits of the planets, and advanced the law of universal gravitation. His development of infinitesimal calculus (along with Leibniz) opened up new applications of the methods of mathematics to science. Newton taught that scientific theory should be coupled with rigorous experimentation, which became the keystone of modern science.
Social context- There are alternative ning the origins of modern sciences. Scholars, who discount the relationship between social needs and the rise of science, include A.Koyre, Arthur Koestler, etc. A.Koyre gives credit to the unparalleled insights of individuals. He thought that scientific developments were more accidental and considered the Scientific Revolution as almost the personal creation of a single man- Galileo. marxist writers have provided social interpretation to explain the development of modern science. Boris Hessen links the scientific development to the needs of the bourgeois class. Marxist scholars argue that the rise of modern science should be seen in context to the contrmporary social change. Edgard Zilsel is one of the important contributors to the idea that modern science was the product of the changing society.
Economical context-Mathematics and astronomy were the branches of science that pushed forward the Scientific Revolution. The main reason for that was the economy. Trade was the principal source of income at the time and patrons were interested in obtaining new tools to ensure safer navigation and in having precise charts of the sky to read the stars. New navigational devices such as mariner's astrolabes, quadrants, compasses and nocturnals were designed and produced [Macpherson 1805]. To make observations and to record the exact position of the stars in the sky, astronomers used new and improved armillary spheres and celestial globes. The use of new tools to obtain exact observations reached its zenith with the invention of the telescope, improved by Galileo who, turning it to the skies, observed and described the Moon, the Sun, Jupiter and the Milky Way and whose optical mechanism was described by Kepler.
Political context- Another source of patronage during the 17th century were the princely courts. The courts provided support to the sciences, not only securing a livelihood for the natural philosopher, but giving him a forum where his ideas could be heard and discussed. Emperors and courtesans surrounded themselves with mathematicians, natural philosophers and, above all, astrologers that, knowing the position of stars and planets, would predict the outcome of battles, the fate of new-born children or the fortune of marriages. This was the case of the astronomer Tycho Brahe and the mathematician Johannes Kepler, both employed in the court of the Holy Roman Emperor Rudolf II, who used their knowledge of astrology to obtain the favour of the emperor so that they could pursue their true interest in obtaining precise astronomical observations and understanding the motion of the planets and their orbits.
Religious context- The natural philosophers of the 17th century aspired to grasp the laws of nature with the aim of understanding God's mind. They described their discoveries with a desire to glorify the Creator, placing their findings and deductions within the context of the religious systems and philosophical doctrines of the times. Similarly, philosophers had the need to follow the new system in science, to adapt their discourses to the new discoveries. It was different for the religious establishment; Christian authorities reacted to the new science rejecting its discoveries and accusing some natural philosophers of heresy. For centuries the Catholic Church had worked to 'Christianise' ancient philosophies, for instance to accept the teachings of Aristotle, Ptolemy and Galen, shaping them so that their writings were compatible with the Scriptures and could be read according to the doctrines of the Church. The new system of science and philosophy questioned the authority of these thinkers of the past, debated their ideas, and refused some of their claims. To some branches of the church, this challenge to the traditional science was taken as an attack on Christianity. Some orders applauded the new concepts in natural philosophy, admitted the benefits that experimentation provided, played with telescopes and other new inventions such microscopes and barometers, but worked hard to give an Aristotelian patina to the role of experience in natural philosophy. Many members of the Society of Jesus (usually called the Jesuits) pursued mathematical and scientific research and, although historically their teachings have been considered as obscurantist and conservative, putting a stick in the spokes of the new science, recent evidence based on an examination of the archives of the Order, have shown that several Jesuits made significant contributions to the scientific culture of the 17th century.
Impacts- The use of the Scientific Method resulted in discoveries in medicine, physics, and biology. The Enlightenment changed the way people lived as political and social scholars began to question the workings of society and government. Rene Descartes said that human reason was capable of discovering and explaining the laws of nature and man. Thomas Hobbes based his theories on government on his belief that man was basically greedy, selfish, and cruel. John Locke's theories were that all men have natural rights of life, liberty, and property. Baron de Montesquieu states that government should divide itself according to its powers, creating a judicial, legislative, and executive branch. Voltaire believed that freedom of speech was the best weapon against bad government. Jean Jacques Rousseau stated that people were basically good, and that society, and its unequal distribution of wealth, were the cause of most problems. People began to question religion and looked to math and science to explain the universe. Women became more involved with the new science. Scientific colleges were created. Christopher Hill elaborates his argument by citing the examples of Gresham College.


Persian sources

Persian sources
Three important chronicles were written in this period – Abul Fazl’s Akbarnamah, Abdul Qadir Badauni’s Muntakhab-ut-Tawarikh and the Tabaqat-i Akbari of Nizam-ud-din Ahmad. While the Tabaqat-i Akbari is a mundane recounting of events if compared with the other two chronicles, the works of Abul Fazl and Badauni are much more complex, interesting and mark a definite advancement in medieval historiographical traditions. Both provide contrary viewpoints to Akbar and his policies. While, Fazl adopts a more positive outlook towards the emperor whereas, Badauni goes to the extent of portraying Akbar as a destroyer of Islam in India. The reason for such a stark contrast in their opinions can be attributed to their personal lives, education and conception of history. 
Badauni was born in 1540 in an orthodox Sunni family, which was remotely connected with the lower ladder of the imperial nobility. He was well-versed in both traditional and rational sciences. Although, he was associated with Shaikh Mubarak’s liberal environment free of fanaticism for nearly 40 years, he considered his education and subsequent leanings to be orthodox. It is this inclination, which shaped his resentful attitude against Akbar and his policies. Badauni gained prominence in the Mughal court because of his literary ability and his success in arguments against the ulama in the Ibadat Khana at a time when Akbar was trying to undermine the ulama. At that time he did not know that he was striking at the very root of the order he would try to defend at a later stage. Once the ulema had been successfully defeated with the signing of the Mazhar Akbar no longer required his service and he himself was feeling disillusioned with the existing situation at the court, which came to be dominated by a large number of “liberals” and non-Muslims. This coupled with the drastic rise of Abu’l Fazl in Akbar’s favour added to Badauni’s discontentment as he believed Fazl to be a dishonest and hypocritical man not worthy of the status he was receiving in court at that time. For Badauni, Islam was naïve and personal. He was over-confident in the correctness of his own notion of what Islam stood for and so he rejected those with a different conception as misguided heretics and infidels. He criticized the ulama, accusing them of creating doubt in people’s minds regarding the Prophet and imams; at the same time, he also hated Abul Fazl and Faizi. He also held Sufism in utter contempt and hated the Shias and Hindus. According to Harbans Mukhia, Badauni shared great scorn for the Ulema; and with the Ulema he shared the hatred for Abul Fazl. He saw the sharia as the final criterion of judgment and opposed all those who deviated from it. Further, he did not want to adapt it to the level of the state. Instead, he wanted the creation of a strong central government, headed by a monarch of unimpeachable Sunni orthodoxy, energetic in his attempts to suppress the Shias, heretics and Hindus and who would neutralize the old orthodox thinking and the new scholars who were hell bent on radicalizing and liberalizing Islam. which would suppress heretics and infidels. This conception was totally different from that of Akbar’s and with the existing conditions, which were marked by a shift towards a new flexibility and more liberal thinking. Badauni, gradually realized that his intense zeal for faith and the consequent adoption of rigid and orthodox attitudes were a complete mismatch in the emerging setup. Thus, while outwardly, by carrying out the emperor’s orders- like participating in the translation of Hindu and secular texts into Persian- it may appear that he tried to compromise with the new situation, but according to Harbans Mukhia in the “inner recesses of his heart he refused to compromise”. 
On Akbar’s orders he undertook the translation of a number of existing works such as the Ramayana, Mahabharata, Atharva Veda etc. His first original work was “Kitab-ul-Ahadis” which spoke about the advantages of waging holy wars and archery. Nothing much, however, is known about it. The second was the Najat-ul-Rashid, a socio-ethical treatise interspersed with anecdotes and discussions. In it, he boldly expressed his views and theoretically discussed the problems of Akbar’s reign, without naming the Emperor or any of his supporters. This was a disguised attempt to attack and condemn Akbar’s ‘un-Islamic’ practices. The book serves as an adjunct to Badauni’s third and main work, the Muntakhab-ut-Tawarikh. While the Najat-ul-Rashid reiterated the principles on which orthodox Sunnism could be revived, the Muntakhab was an attempt to destroy the faith of the Sunnis in Akbar. Thus these two works supplement and complement each other.
The Muntakhab-ut-Tawarikh (‘Selections from Histories’) was written in secret. Badauni himself says that his disgust with the changes taking place during Akbar’s reign, against which he could openly register only limited protest, compelled him to resort to the writing of this book secretly to record the “true” version of the events of the time. Distressed by what he thought was an organized undermining of Islam by Akbar, he wrote the Muntakhab as an alternative to the contemporary histories. At another place, however, Badauni states that he wrote the Muntakhab as a penance for the translation of the “infidels’ works” which he had been compelled to undertake. 
The work is divided into three volumes. The first volume deals with the narrative history of the Muslims rulers up to Humayun, which provides neither a background nor a contrast to Akbar’s period. The selection of events, though mostly in a chronological order, is random and haphazard. Also, he makes no formal assessment of the reign of a Sultan or a dynasty as a whole. However, individual events, acts or persons are frequently the subject of his succinct and crisp remarks. In fact, the value of this work lies in his private comments, as well as the epigrams and chronograms written by him, some of which were even nasty. For instance, on the death of Muhammad bin Tughlaq he writes that “The Sultan was relieved of the people and the people were relieved of the Sultan”. Although, Badauni himself may not have acknowledged all his sources it is quite evident that this volume is well researched and he made use of the prominent source material dating back to the early medieval period. 

The second volume of the Muntakhab deals with the reign of Akbar and is the most important work of Badauni. It is an annual chronicle where events have been narrated under the head of the year of their occurrence. However, he recorded only “events of a general importance” and omitted “the minor ones.” Mukhia suggests that this was because while Badauni wished to give a “true” account of Akbar’s reign, his response to the contemporary circumstances was “negative”, i.e., he condemned Akbar’s “heresies”, but does not suggest any alternative, not even a return to the past. This object also determined his use of the sources and his attitude towards them. As such, for his account, particularly in the second volume of the Muntakhab, Badauni depends more on his personal testimony than on any documentary research. Badauni’s originality in this work lies in the way in which he evaluates the personalities of the time. He also often intertwines biographical notes with the narrative of events, for example, when he mentions the capture of Nagarkot, he gives a short account of Birbal’s life.

The third volume is in form of a Tazkira in which he gives biographies sketches of the mashaikh and ulama of Akbar’s age, as well as the physicians and poets of Akbar’s court. However, Badauni excludes from this list of “fallen men” like “obscure muslims” and “accursed” Hindus. Further, Badauni passes judgment on the life, art, views, morals, piety and nature of his subjects. But as he himself admits, this judgment is based on their attitude or influence on Islam.

Badauni’s style is naturally informal and unaffected. He writes in a clear and simple language, interspersing his narrative with numerous anecdotes, couplets and elegies, at times misplaced. His chronograms are valuable both for identifying the dates of the occurrence of events as well as for ascertaining his judgment regarding persons and events. For aesthetic expression, Badauni uses poetry. Harbans Mukhia is of the opinion that his verses were a mere formality.