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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

किसी समाचार पत्र के संपादक को कोरोनावायरस के प्रति जनसाधारण को सचेत करते हुए पत्र लिखे लोगों को इस महामारी से बचने के उपाय बताएं।

पत्र लेखन
किसी समाचार पत्र के संपादक को कोरोनावायरस के प्रति जनसाधारण को सचेत करते हुए पत्र लिखे लोगों को इस महामारी से बचने के उपाय बताएं।
प्रेषक
मकान नंबर 57- 58
एसडीएम कॉलोनी
आजाद नगर, हिसार
हरियाणा
सेवा में
संपादक महोदय जी
दैनिक भास्कर
हिसार
विषय कोरोना वायरस के प्रति जनसाधारण को सचेत करने हेतु पत्र
मैं आज आपके समाचार पत्र के माध्यम से जनसाधारण को सचेत करना चाहता चाहती /चाहता हूं। जैसा कि आप सब जानते हैं कि कोरोनावायरस से अब एक वैश्विक महामारी फैल चुकी है ।विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे एक वैश्विक महामारी माना है। जिसने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि हालात को हल्के में नहीं लिया जा सकता क्योंकि इस वायरस का अब तक कोई पुख्ता इलाज नहीं किया जा सका है ।इसलिए सावधानी ही बचाव है। कोरोना से हारे नहीं ,रोकथाम व बचाव ही जरूरी है ।कोरोना को लेकर कई अफवाहें फैलाई जा रही है जोकि निदान की बजाय डर अधिक पैदा कर रही है। अफवाहों पर ध्यान देने की बजाय रोकथाम पर कार्य करना शुरू करना होगा ।
भारत सरकार द्वारा रोकथाम को लेकर कुछ सुझाव दिए गए हैं जो कि इस प्रकार से हैं।---
 ऐसे पहचाने लक्षण
***संक्रमण होने पर पहले बुखार और फिर सिर दर्द होता है   फिर सूखी खांसी होती है एक हफ्ते के बाद सांस लेने में      परेशानी होने लगती है और मांसपेशियों में दर्द होता है         इस दौरान मरीज को अस्पताल में भर्ती करना पड़            सकता है।
क्या करें
1.निजी सफाई का ध्यान रखें।
2.श्वास लेने संबंधी शिष्टाचार का पालन करें । खांसते व छींकते समय मुंह को ढके।
3 .जब हाथ गंदे दिखे यह बार-बार साबुन या सेनीटइजर से 20 सेकंड तक अपने हाथों को धोएं।

4.बिना हाथ धोए। अपनी आंखें व नाक और मुंह हाथ न लगाएं।

5.नैपकिन व टिशु को इस्तेमाल करने के बाद कूड़ा दान में ही डालें इस्तेमाल किए गए नैपकिन या टिशू या मास्क को इधर-उधर न सकें।
6.टिशू नहीं है तो खास है या सीखते वक्त अपनी बाजू का     इस्तेमाल करें।
7.विटामिन सी युक्त फल खाएं साथ ही शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन करें।
8. तबीयत नासाज लगे तो डॉक्टर से तुरंत संपर्क करें।
9.लॉक डाउन का सही में पालन करें।
10.जब तक जरूरी ना हो तब तक बाहर ना निकले।
11.सार्वजनिक जगहों या खुली जगह पर न थूकें।
12.मांस का सेवन ना करें।
13.घर के बच्चों व बुजुर्गों का ध्यान रखें।
14.घर में रहकर ही सृजनात्मक कार्य करें।
15.घर में रहकर ही हम अपने आप को अपने देश अपने        राज्य को अपने शहर को बता सकते हैं।
16. मजदूर व जरूरतमंदों की मदद करें।
17. हो सके तो कोरोना रिलीफ फंड में आर्थिक योगदान भी दें।

मुझे उम्मीद है आप मेरे द्वारा दी गई सलाह को अपने समाचार पत्र में स्थान देंगे ‌।
 धन्यवाद
भवदीय
देश का एक सजग नागरिक

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

हिंदी एकांकी का उद्भव व विकास

हिंदी एकांकी का उद्भव और विकास -एकांकी आधुनिक हिंदी गद्य की एक स्वतंत्र विधा है।

एकांकी और नाटक में अंतर

** कुछ लोग एकांकी को नाटक का लघु रूप मानते हैं लेकिन यह उचित नहीं है क्योंकि नाटक और एकांकी दो अलग-अलग विधाओं,सिद्धांत रूप में जिस नाटक की कथावस्तु एक ही अंक में वर्णित होती है उसे एकांकी या एकांकी नाटक कहते हैं ।

**नाटक का यह रूप आजकल अत्यधिक लोकप्रिय हो चुका है और उसका स्वतंत्र अस्तित्व बन चुका है ।

एक विद्वान आलोचक के शब्दों में इसके विधायक तत्वों की रचना विधि की स्वतंत्र रूप से विवेचना की जाती है एकांकी के तत्व नाटक के सदृश होते हैं परंतु उनके विनियोग वृद्धि में पर्याप्त अंतर रहता है ।
इसमें विषय की एकता प्रभाव की एकता तथा वातावरण की एकता रहती है ।

**आधुनिक एकांकी का उद्भव प्राचीन भारत में नाट्य साहित्य में एकांकी नाटक भी मिल जाते हैं लेकिन आधुनिक नाटक एकांकी का स्वरूप संस्कृत की एकांकी ओं की अनुकरण पर आधारित नहीं है ।

**इस पर अंग्रेजी साहित्य की एकांकी का प्रभाव देखा जा सकता है अंग्रेजी एकांकी साहित्य का जन्म 10 वीं शताब्दी के लगभग हुआ अंग्रेजी प्राणी बांग्ला एकांकी को प्रभावित किया और बांग्ला के माध्यम से यह प्रभाव हिंदी साहित्य में पहुंचा ।

***आधुनिक हिंदी का प्रथम एकांकी जयशंकर प्रसाद एक घूंट प्रथम एकांकी मानी जाती है भारतेंदु हरिश्चंद्र ,बलकृष्ण भट्ट द्वारा रचित शिक्षा दान ,जैसा काम वैसा परिणाम 
**प्रताप नारायण मिश्र द्वारा रचित ज्वारी ख्वारी, 

**देवकीनंदन तिवारी द्वारा रचित 11 के तीन कल योगी जनेऊ ,राधाचरण गोस्वामी के द्वारा रचित तन मन धन गोसाई जीके अपूर्ण बूढ़े मुहासे आदि प्रसिद्ध एकांकी हैं ।
पाश्चात्य स्वरूप को अपनाकर एकांकी हिंदी साहित्य में 1930 से आई डॉ नगेंद्र ने स्वीकार किया है कि पश्चिमी ढंग से एकांकी का शुभारंभ डॉ रामकुमार वर्मा द्वारा रचित बादल की मृत्यु सन 1930 से हुआ है इसके बाद भुनेश्वर प्रसाद का कारवां 1935 सफल एकांकी संग्रह कहा जा सकता है हिंदी एकांकी का इतिहास लगभग 90 साल पुराना है।

*** हम इसको समझने के लिए तीन भागों में बांट सकते हैं ।
प्रथम चरण में एकांकी के उद्भव की चर्चा की जा रही है प्रथम चरण हिंदी एकांकी साहित्य को विकास उन मुक्ता पदान करने वाले एकांकी कारों में भुनेश्वर प्रसाद ,डॉ रामकुमार वर्मा ,गोविंद बल्लभ पंत ,सेठ गोविंद दास ,नरेश प्रसाद तिवारी ,पांडे बेचन शर्मा ,सतगुरु शरण अवस्थी आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं।

 **वार्ड नंबर 2 भुनेश्वर भुनेश्वर के कारवां एकांकी संग्रह में एकांकी हैं तथा इनका प्रतिपाद्य प्रेम है यह वर्णन 100 से प्रभावित दिखते हैं भुनेश्वर के अंखियों में बौद्धिकता की प्रधानता है कठपुतलियां आदि इनकी प्रतीकात्मक एकांकी भी है डॉ रामकुमार वर्मा ने लगभग 100 से अधिक लिखी ।

बादल की मृत्यु की पहली एकांकी है इनके प्रसिद्ध की प्रसिद्ध एकांकी संग्रह में पृथ्वीराज की आंखें सुमित्रा रेशमी टाई सप्त किरण विभूति दीप सा दीप दान रूप रंग इंद्रधनुष 2 तारीख का डॉक्टर वर्मा ने ऐतिहासिक सामाजिक पौराणिक रहस्य 4 वर्गों में विभाजित विषय लिखें
 द्वितीय चरण -
**उदय शंकर भट्ट हिंदी के एक अन्य उल्लेखनीय एकांकिका रहे हैं जिन्होंने हिंदी एक अंग की कला को काफी प्रसिद्धि दिलाई उनका प्रथम एकांकी संग्रह अभिनव एकांकी के नाम से सन 1940 में प्रकाशित हुआ इन्होंने पराए सामाजिक और पुरानी एकांकी लिखी कालिदास तथा आदम युग में पौराणिक एकांकी संकलित है श्री का हृदय तथा समस्या का अंत एकांकी संग्रह में सामाजिक एकांकी संकलित है ।

**सेठ गोविंद दास ने राजनीतिक ,ऐतिहासिक ,पौराणिक तथा सामाजिक एकांकी लिखी हैं स्पर्धा सप्त रश्मि ,पंचभूत ,अष्टदल आदि इनके प्रमुख कहानी संग्रह शराब और वर्क तथा अलबेला इनके प्रसिद्ध मनोरमा है ।सेठ गोविंद दास ने अपनी एकांकी संग्रह में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं को उठाया है ।

उपेंद्र इस चरण के एक अन्य एकांकी कार है देवताओं की छाया में, चरवाहे, तूफान से पहले ,कैद और उड़ान इन की प्रसिद्ध एकांकी संग्रह हैं ।
हर्ष जी ने अपनी एकांकी में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए पाखंड का सजीव चित्रण किया है ।
**हरि कृष्ण प्रेमी नेम मध्यकालीन भारतीय कथाकार को अपनाकर कुछ एकांकी लिखी हैं इनकी एक एकांकी का स्वर राष्ट्रीय एकता से परिपूर्ण है।
 तृतीय चरण 
**आधुनिक एकांकी कारों में विष्णु प्रभाकर का नाम महत्वपूर्ण है उन्होंने सामाजिक ,राजनीतिक ,हास्य-व्यग्य प्रधान मनोवैज्ञानिक सभी प्रकार की एकांकी लिखी। मां ,भाई ,रहमान का बेटा, नया कश्मीर ,मीना कहां है इत्यादि इनक प्रसिद्ध एकांकी हैं।

इस युग के एकांकी कारों में जगदीश चंद्र माथुर ,लक्ष्मीनारायण मिश्र ,वृंदावन लाल वर्मा तथा भगवतीचरण आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं माथुर जी एक प्रतिभा संपन्न एकांकी कार हैं वे एकांकी कला तथा रंगमंच के पूर्ण ज्ञाता थे।
 मोर का तारा
 रीड की हड्डी आदि की प्रसिद्ध एकांकी हैं। 

**लक्ष्मीनारायण मिश्र ने सेक्स समस्या तथा भारतीय संस्कृति के उज्जवल पक्षों में एकांकी लिखी ।

**भगवती चरण वर्मा ने अपनी एकांकी साहित्य में सामाजिक विसंगतियों और विकृतियों पर प्रभाव करते हुए दिखाई देते हैं परंतु लक्ष्मी नारायण लाल की एक आंसुओं में बुद्धि वाद तथा भारतीय संस्कृति का उन्मुक्त वर्णन है ।

**वृंदावनलाल वर्मा ने अपने एकांकी साहित्य में यथार्थ और आदर्श का समन्वय किया है ।
निष्कर्ष 
हिंदी साहित्य एकांकी को समृद्ध करने में असंख्य विद्वानों का सहयोग है इनमें से सद्गुरु शरण अवस्थी ,गोविंद बल्लभ पंत ,विनोद रस्तोगी ,भारत भूषण अग्रवाल, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता ,चिरंजीत मोहन राकेश प्रभाकर, मच्वे ,देवराज ,दिनेश ,रेवती शरण शर्मा ज्ञानदेव अग्निहोत्री ,राजेश शर्मा आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं। इधर कुछ काव्यात्मक एकांकी भी लिखी गई हैं पदबंध एकांकी लिखने वालों में हरि कृष्ण प्रेमी ,सियारामशरण गुप्त, केदारनाथ मिश्र ,भगवती चरण वर्मा, सुमित्रानंदन पंत के नाम गिनाए जा सकते हैं ।आज तो मोनो ,ड्रामा, रेडियो ,रूपक ,फैंटसी आदि एकांकी के अनेक रूपों में लिखी जा रही है एकांकी साहित्य में भरपूर संभावनाएं नजर आती हैं।

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

सूरदास के पद के प्रश्न उत्तर, भाषा शैली व भ्रमरगीत

सूरदास के पद, भाषा शैली ,भ्रमरगीत
सूरदास हिंदी साहित्य के अनुपम प्रदीप नक्षत्र थे श्री कृष्ण के बाल्यकाल का सजीव वर्णन करने वाले वाले सम्राट के नाम से प्रसिद्ध सूरदास का जन्म 1478 में रेणुका क्षेत्र में हुआ।
जीवन भर श्री कृष्ण संबंधी पदों का गायन करने वाले सूरदास ने 105 वर्ष का लंबा जीवन जिया।

काव्यगत विशेषताएं---
** सूर के काव्य में भक्ति की पराकाष्ठा देखने को मिलती है।
 ***सूरदास जी कृष्ण के प्रति सत् भाव रखते हैं फिर भी इनके काव्य में वात्सल्य सुख की अनुभूति है।
** काव्य में श्रृंगार और वियोग की पीड़ा है।
*** श्रृंगार के वर्णन में सूरदास ने अन्य सभी कवियों को  पीछे छोड़ दिया है।
सूरदास की भाषा शैली की विशेषताएं***
***सूर के काव्य की भाषा ब्रिज है ।
****उसमें सहजता सरलता इतनी है कि गायक इसे अपनी ही रचना मानकर इसकी मिठास में खो जाता है ***काव्य में कहीं उलाहना है तो कहीं अपनत्व भाव ।
**उपमा अलंकार की छटा ऐसी है कि उसमें स्वयं उपमान बन जाता है ऊपर में सर्वोपरि दिखाई देता है ।***रूपक, उत्प्रेक्षा ,अनुप्रास ,वक्रोक्ति का सौंदर्य दर्शनीय है।
सूरदास के पद पद कहां से लिया गया है यह प्रश्न बार-बार पूछा जाता है---
सूरदास के पौधे सूरदास के काव्य सूरसागर में संकलित है।यह सूरसागर के नवम सर्ग से लिया गया है सूरसागर सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है इसमें श्री कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है।
सूर के पदों को ध्यान में रखते हुए भ्रमरगीत की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं।
1.सूर के काव्य सूरसागर में संकलित है भ्रमरगीत में गोपियों की विरह पीड़ा को चित्रित किया गया है ।
2.प्रेम संदेश के बदले श्री कृष्ण के योग संदेश लाने वाले पौधों पर गोपियों ने व्यंग्य बाण छोड़े हैं व्यंग्य बाणों में गोपियों का हृदयस्पर्शी बुलाना है साथ ही श्री कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम भी प्रकट होता है।
3.सूरदास जी के भ्रमरगीत में निर्गुण ब्रह्मा का विरोध तथा सगुण ब्रह्मा की सराहना की गई है ।
4.वियोग श्रृंगार का मार्मिक चित्रण है।
5. गोपियों की स्पष्टता वाकपटुता से हरा देता है।6.व्यंग्यात्मक ता सर्वथा सराहनीय है।
7. एक निष्ठ प्रेम का दर्शन है।
8. गोपियों का वार्क चातुर्य उद्धव को मौन कर देता है ।9.आदर्श प्रेम की पराकाष्ठा और योग का पालन है ।
10. गोपियों का स्नेह अनूठा है।
कदो कारण भंवरेेेे का रंग हैजाताा
सूरदास के पदों में अपनी रचना का नाम पर मर गई थी क्यों रखा इसके निम्नलिखित कारण है
नंबर 1 कृष्ण भी काला है भ्रमर भी काला है उधर भी काला है इसीलिए उन्होंने अपनी रचना का नाम भ्रमरगीत रखा है।
******गोपियों ने योग मार्ग के बारे में कहा है---
1.गोपियों ने योग शिक्षा के बारे में परामर्श देते हुए कहा    है कि ऐसी शिक्षा लोगों को देना उचित है जिनका मन    चकरी के समान है ।
2.अस्थिर हो ।
3.चित में चंचलता हो।
 4.जिनका कृष्ण के प्रति स्नेह है अटूट नहीं है।
5. गोपियों के का दृष्टिकोण स्पष्ट है प्रेमाश्रय  स और स्नेह बंधन में बंधी हुई गोपियां किसी अन्य से प्रेम नहीं 6.कर सकती ।
7.किसी के उपदेश का उनके ऊपर कोई असर नहीं         पड़  रहा है चाहे वह उपदेश अपने ही प्रिय के द्वारा       क्यों ना दिया गया हो
8. यही कारण है कि अपने ही प्रिय श्री कृष्ण के द्वारा भेजा गया दूत का योग संदेश का सुनने में उनकी कोई रुचि ना रही।
मन चकरी पंक्ति में छिपा व्यंग्य
गोपिया कहती हैं कि उनका मन चकरी के समान अस्थिर नहीं है ।
यह योग का संदेश उनको सुनाना जिनका चित्त चंचल हो ।
जिन्हें श्री कृष्ण से प्रेम ना हो गोपियों का प्रेम तो स्नेह बंदी गुड से चिपकी हुई चिटियों के समान है।

** श्री कृष्ण उनके लिए हारिल की लकड़ी के समान है **हम गोपियां मन कर्म वचन सभी प्रकार से कृष्ण के प्रति समर्पित है।
** हम सोते जागते दिन रात उन्हीं का स्मरण करते हैं ।**हमें योग संदेश तो कड़वी ककड़ी की तरह प्रतीत होता है।
** हम योग संदेश नहीं बल्कि श्री कृष्ण का प्रेम चाहती     हैं इसीलिए गोपियां सुशांत से नाराज थी।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

रसखान का जीवन परिचय

रसखान का जीवन परिचय
***हिंदी साहित्य में भक्ति काल की कृष्ण काव्य धारा        के प्रमुख कवि रसखान जी हैं
****पूरा नाम- सैयद इब्राहिम रसखान रस की खान
****जन्म -सन 1573 ईस्वी में हरदोई जिले के पिहानी        ग्राम में हुआ।
***मृत्यु- इनकी मृत्यु वृंदावन में 1628 ईस्वी में हुई।
****पिता -एक संपन्न जागीरदार थे।
****इनका कार्य क्षेत्र एक कवि के रूप में कृष्ण भगत         के रूप में जाता।
****इनकी कर्म भूमि ब्रजधाम थी।
****कवि रसखान कृष्ण के कृष्ण भक्त कवि थे और ***प्रभु कृष्ण के सगुण और निर्गुण रूप से उपस्थित थे ****रसखान ने कृष्ण की सगुण रूप की लीलाओं का ****बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है।

*****यह ने लीलाओं से वे इतने प्रभावित हुए कि पशु         पक्षी पहाड़ या नर रूप में ब्रज में ही पैदा होना              चाहते थे।

****मुसलमान होते हुए भी इन्होंने एक हिंदू देवता से        इस प्रकार अनन्या प्रेम किया इस कारण इनको रस       की खान कहा जाता है।
***रसखान जी के गुरु का नाम गोस्वामी विट्ठलदास जीता।
इनकी विद्वता उनके काव्य की अभिव्यक्ति में से जगजाहिर है रसखान को फारसी हिंदी संस्कृत का अच्छा ज्ञान था उन्होंने श्रीमत भगवत का फारसी में अनुवाद किया था।

प्रमुख रचनाएं ----सुजान रसखान और प्रेम वाटिका है ****इनका काल भक्ति काल
*** इनकी विधाएं कविता और सवैया छंद है ।
***सगुण भक्ति का वर्णन किया है ।
***भाषा शैली ब्रज फारसी और हिंदी है।
*** उनके जीवन में कभी रस की कमी न थी पहले             लौकिक रस आस्वादन करते रहे फिर              अलौकिक रस में लीन होकर काव्य रस से रहे। 
***उनके काव्य में कृष्ण की रूप माधुरी ,ब्रज महिमा राधा कृष्ण की प्रेम लीला ओं का उत्कृष्ट वर्णन मिलता है।
***** वे अपनी प्रेम की तन्मयता , भाव भी है लता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं ।***उतने ही अपनी भाषा की मार्मिक ता शब्द चयन तथा व्यंजक शैली के लिए भी है।
*** यह हमेशा दिल्ली के आसपास ही रहे तथा कृष्ण से संबंधित है प्रत्येक वस्तु पर वे मुग्ध हैं-----
कृष्ण के रूप सौंदर्य
वेशभूषा 
मुरली 
गाय गोवर्धन 
पर्वत
 यमुना नदी के तीर
 कदम के पेड़ ,लाठी ,कंबल आदि से

रसखान की प्रमुख पंक्तियां

निष्कर्ष्ष के रूप हम कह सकतेेे हैं रसखान सच मेंेंेंें ही कृष्ण भक्ति कि रस कीी खान थे।




सांग सम्राट लख्मीचंद का संक्षिप्त जीवन परिचय

सांग सम्राट लख्मीचंद का संक्षिप्त जीवन परिचय
1.हरियाणा सांग परम्परा में श्री लख्मीचंद का नाम सर्वाधिक प्रमुख हैं।
2.जिन्होंने हरियाणवी सांग को सर्वथा एक नवीन दिशा दी ।
3.लख्मी चंद का जन्म 15 जुलाई ,1930 में हरियाणा के सोनीपत जिले के जाटी कला गांव में हुआ।
4. इनके पिता का नाम उदमी राम था।
5. यह जाति से ब्राह्मण थे।
6. मानसिंह इन के गुरु थे।
7. इनकी शिष्य परंपरा में शिष्य थे -
1.मांगेराम
 2.भाईचंद सुल्तान 
3.पंडित चंदन लाल आदि 
8. इनके मुख में सरस्वती का निवास था।
9. वे तत्काल काव्य रचना कर लेते थे।
10. इसलिए आंसू कवि कहलाते थे।
11 अधिक पढ़े लिखे होने के बावजूद भी इनको वेदों पुराणों आदि का पूर्ण ज्ञान था ।
11.अतः इनके सांग से हमें पुराना ज्ञान प्राप्त हुआ है।
12. 18 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली बार सोहन के अखाड़े में अपनी मधुर वाणी का परिचय दिया।
13. सन 1920 में इन्होंने अपनी अलग सांग मंडली बनाई ।
14.वे न केवल अच्छे गायक थे अपितु सफल अभिनेता भी थे।
15. इनको हरियाणा के सांगो  का सम्राट भी कहा जाता है ।
16.हरियाणा के निवासियों में यह दादा लख्मीचंद के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
17.आज भी अनेकों विश्वविद्यालयों में विभिन्न मांगो पर शोध कार्य चल रही है तथा आज भी वह शोध का विषय बने हुए हैं।
18 इनके द्वारा रचित प्रमुख सांग हैं---
*-- हरिश्चंद्र
*-- नल दमयंती 
*---सत्यवान सावित्री
** द्रोपदी 
**सेठ ताराचंद 
**शकुंतला 
**भूप सिंह 
***चाप सिंह
** हीरामल जमाल 
**राजा भोज **चंद किरण 
**पद्मावत 
**नौटंकी 
**जानी चोर 
***शाही लकड़हारा इत्यादि ।
19.इसके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित अनेक गीत और रागनियां लोगों को आज भी कंठस्थ हैं ।
इन्होंने अपने सांगों में सामाजिक रूढ़ियों और जड़ परंपराओं पर प्रहार किया ।
20.इन्होंने सांग परंपरा को स्वस्थ एवं सुदृढ़ बनाया फलस्वरूप लंबे काल तक हरियाणा में सांगो की धूम मची रही ।
21. लख्मी चंद ने नारी के प्रति सदैव सहानुभूति मैं दृष्टिकोण अपनाया नल दमयंती शीर्षक सांग में राजा नल दमयंती को जंगल में त्याग कर चला जाता है दमयंती नल के बिना विरह की आग में जलने लगती है वह उसे गहने जंगल में ढूंढने का प्रयास करती हैं।
22.सांगी लख्मीचंद ने अपने सांग हरिश्चंद्र में रोहतास की मृत्यु पर उसकी मां को विलाप करते दिखाया है उस समय मानवता का अत्यंत का रोने का दृश्य उपस्थित होता है उसने पुत्र को सांप द्वारा काटे जाने पर उसका ह्रदय चित्कार कर उठता है।
निष्कर्ष के तौर पर ****
हम कह सकते हैं कि हरियाणा सां को एक नई दिशा प्रदान करने में पंडित लख्मीचंद ने जोदादा लखमीचंद जी की रचना: 
जगत मैं मोह लिए मेहर सुमेर जी माया नै बहुत घणे मारे हैं।
1 ब्रह्मा विष्णु शिव जी मोहे भस्मासुर का किया नाश।
चन्द्रमा कै स्याही लाद्यी इन्द्र नै भी भोगे त्रास।
नारद केसे ऋषि मोहे मरकट रूप धारया खास।
भृगु चमन यमदग्नि उद्दालक की भी मारी मति।
त्रिशंकू और नहुष मोहे उनकी करी बुरी गति।
बड़े बड़े ऋषि मोहे इसमै नहीं झूठ रत्ति।
वो नहुष दिया स्वर्ग तै गेर जी माया के कपट न्यारे हैं।
2 वशिष्ठ केसे मुनि मोहे विपलोदे गौतम लो लीन।
अत्रि मुनि कर्दम शम्भु मुनि सारे प्रवीन।
पुलिस्त केसे मुनि मोहे कर दिए तेरह तीन।
असचर निसचर दन्त दाने ऋषि मुनि ब्रह्मचारी।
शंकराचार्य विरहम पति जिनकी गई मति मारी।
प्रद्युम्न प्रतापी राजा सागर केसे हुए बलकारी।
जिसनै कंस सहसरबाहु का डर बल मैं परशुराम से हारे हैं।
3 दन्त वक्र जरासन्ध त्रिया पै मरे शिशुपाल।
श्रृंगी ऋषि दुर्वासा डूबे देख कै हूरां की चाल।
कौरव पांडव कट कै मरग्ये खून के भरे थे ताल।
त्रिया तेरे तीन नाम घर घर मारे कई करोड़।
कुरूक्षेत्र पै राड़ जागी शील का शीश दिया तोड़।
रूप धारण ऐसा किया पड़ी पड़ी तड़फै थी खोड़।
व लिए सूरमां काल नै घेर जी सिर बाणो से तारे हैं।
4 त्रिया ही के मोह मैं आकै माटी मैं मिलाए भूप।
पम्पापुर मैं बाली मोहे गेर दिए अधरूप।
त्रिया ही नै नारद मोहे बन्दर का बनाया रूप।
नागनी से हो नार बुरी रावण कुंभकर्ण खोए।
सारा कुटम्ब खाक मैं मिला दिया बाकी रहा न कोए।
त्रिया की बातां मैं आकै पाछै मूण्ड पकड़ कै रोए।
कहै लखमीचंद नैना की शमशेर जी मोह फांसी मैं हारे हैं।
अब आपके सामने एक रचना गुणी सुखीराम जी की प्रस्तुत है: 
माया नै ब्होत घणें मारे जी,जग मै मोहे मेहर सुमेर है।
1 विष्णु ब्रह्मा शिव मोहे भस्मासुर का किया नास।
चन्द्रमा के दाग लाग्या इन्द्र नै भी भोगी त्रास।
कुछ नारद के से मुनि मोहे मरकट रूप धारा खास।
भृगु चमन जमदग्नि उद्दालक की मारी मति।
श्रृंगी ऋषि दुर्वासा मोहे जन की करी बुरी गति।
त्रंशकु नाहुख मोहे इस में नहीं झूठ रति।
वे दिये स्वर्ग से गेर है, माया मैं कपट भारे जी।
2 वशिष्ठ से मुनि मोहे पीप्लाद गौतम से लीन।
अत्रि मुनि कर्दम मुनि स्वयंभु मुनि प्रवीन।
पुलीस्त मुनि कश्यप ऋषि कर दिए तेरा तीन।
दाना देत असुर निशाचर ऋषि मुनि ब्रह्मचारी।
शुक्राचार्य बृहस्पति जन की भी मति मारी।
सर्वदमन प्रताप भलु संद से वै राजा भारी।
किया सहस्त्र बाहु का ढेर है,बल परशुराम आरे जी।
3 बलोचन बाणा सुर मारे त्रिया का धार कै रूप।
त्रिया नै दशरथ मोहा गेर दिया अन्ध कूप।
सिन्ध उपसिन्ध दोनु लड़े छाया गिनी ना धूप।
श्रृंगी ऋषि पारा ऋषि त्रिया के कारण रोये।
जिस घर पड़ा अन्धेर है,सिर बाणो से तारे जी।
4 दंतवकर जरासंध त्रिया पै मरे थे हाल।
भोमासुर कंस राजा त्रिया नै मोहा शिशुपाल।
कैरू पांडू कुटुम्ब खपे खून का भरा था नाल।
माया तेरे तीन नाम रूप धारे मारे कई करोड़।
कुरूक्षेत्र मैं राड़ मची सब का सिर दिया तोड़।
ऐसी मोहनी डारी जिनकी पड़ी पड़ी तड़फी खोड़।
सब लिया काल ने घेर है, जो बली कोड़े सारे जी।
5 जन्मेजय नै कुबद करी त्रिया कारण देखो नै यार।
अठारह ब्राह्मण काटे जिसने होम बीच दिया डार।
तप जप सत योग खोया लाज शर्म दीन्ही तार।
तन मन धन विद्या ज्ञान लूटा राज पाट गये छूट।
शूरा बन्जू ध्यानी ब्रह्मानन्द रश गये घूंट।
गुणी सुखीराम कह कलजुग मैं नेम धर्म गये टूट।
नैनो की मार शमशेर है, आखिर नरक बीच डारे जी।

ये दोनों एक ही रचना हैं लेकिन दो कवियों की छाप है इनमें गुणी सुखीराम जी का जन्म सन् अठारह सौ सत्तावन में हुआ और दादा लखमीचंद जी का जन्म सन् उन्नीस सौ तीन में हुआ। गुणी सुखीराम जी का देहांत सन् उन्नीस सौ पांच में हुआ और दादा लखमीचंद जी का देहांत सन् उन्नीस सौ पैंतालीस में हुआ। विद्वान् लोग टेक से ही पता लगा लेते हैं कि इस तरह की टेक गुणी सुखीराम जी के समय की है और दादा लखमीचंद जी के समय की नहीं। इसलिए दादा लखमीचंद जी ने छाप काट कर अपनी छाप लगाकर नहीं गाई थी।उनको बदनाम किया जा रहा है। बदनाम करने पर भी उनकेे वंशज चुप हैं तो इससे स्पष्ट है कि दादा लखमीचंद महाचोर थे।

रविवार, 19 अप्रैल 2020

नेट परीक्षा 2020

नेट परीक्षा 2020 संबंधी महत्वपूर्ण बातें

1.*UGC NET June Exam 2020: यूजीसी नेट परीक्षा के लिए बढ़ी आवेदन की अंतिम तिथि*

2.नई दिल्ली: NTA NET JUNE 2020 परीक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया 16 मार्च, 2020 से शुरू हाेे चुकी थी, और यह आवेदन प्रक्रिया 16 अप्रैल, 2020 तक समाप्त होनी थी। जिसकी अंतिम तिथि को अब बढ़ाकर 16 मई, 2020 कर दिया गया है। 
3.आपको बता दें कि COVID-19 महामारी के कारण अभिभावकों और छात्रों को हुई कठिनाइयों को देखते हुए राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी ने तारीखों को संशोधित किया है। NTA ने नेट जून, 2020 परीक्षा के साथ विभिन्न परीक्षाओं को स्थगित किया गया है। जिनकी जानकारी नीचे दिए गई नोटिफिकेशन में अंकित है।

4.यूजीसी नेट परीक्षा का आयोजन असिस्टेंट प्रोफेसर की पात्रता और जूनियर रिसर्च फैलोशिप के लिए होता है। उम्मीदवार इन दोनों के लिए एक साथ आवेदन कर सकते हैं।
5. नेट की परीक्षा 15 जून से 20 जून, 2020 तक आयोजित की जाएगी और इसका रिजल्ट अगस्त 2020 में आने की संभावना है। पिछले कुछ वर्षों से यह परीक्षा ऑनलाइन माध्यम से आयोजित की जा रही है। पहले यह परीक्षा ऑफलाइन माध्यम से ली जाती थी।

6.अब इस परीक्षा का आयोजन दो पालियों में किया जाता है। पहली पाली की परीक्षा सुबह 9:30 से दोपहर के 12:30 तक तथा दूसरी पाली की परीक्षा 2:30 से 5 बजे तक होती है।

7.इस परीक्षा में पहला पेपर सभी उम्मीदवारों के लिए समान होता है। पहले पेपर में 100 नंबर के कुल 50 प्रश्न पूछे जाते हैं। वहीं दूसरा पेपर उम्मीदवार के विषय से संबंधित होता है। इसमें 200 नंबर के कुल 100 प्रश्न होते हैं।
8. यह सभी प्रश्न बहुविकल्पीय होते हैं तथा निगेटिव मार्किंग नहीं होती।
सभी नेट परीक्षार्थियों के लिए अग्रिम शुभकामनाएं
हिंदी नेट परीक्षार्थियों के लिए यूट्यूब चैनल अब कैसे से जुड़े।
जिनके लिंक इस प्रकार से हैं।
हिंदी साहित्य को समर्पित चैनल
ab kese 
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मातृभाषा निबंध

मातृभाषा निबंध
हिंदी मेरी पहचान
हिंदी मेरा अभिमान
भूमिका/प्रस्तावना--देश का विकास और राष्ट्र चरित्र मातृभाषा में सुरक्षित है इस संबंध में महापुरुषों ने मातृभाषा के महत्व को स्वीकार किया है स्वामी दयानंद सरस्वती विवेकानंद तिलक मदन मोहन मालवीय जी ने ही नहीं विदेशी विद्वान मैक्समूलर ने भी हिंदी की तारीफ के पुल बांधे हैं जापान चीन और रूस जैसे प्रगति मान देशों ने भी अपनी मातृभाषा को महत्व दिया है और निरंतर प्रगति मान है ना जाने क्यों भारत ही ऐसा देश है जहां के निवासियों को अपना कुछ अच्छा नहीं लगता अपितु उन्हें विदेशी वस्तु अच्छी लगती हैं उनकी संस्कृति आकर्षित करती है इतना ही नहीं विदेशी वस्तुओं को अपनाकर भारतीय गौरव महसूस करते हैं आज सहज सरल भाषा के प्रति घटती रुचि उनके इस सोच का ही परिणाम है।
मातृभाषा का इतिहास/प्रमुख कारण
1.जिस समय देश स्वतंत्र हुआ उस समय लोगों में अपनी मातृभाषा के लिए अच्छी भावनाएं थी इसलिए हिंदी के विकास के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए गए मात्रिभाषा के सुधार के लिए नीतियां बनाई गई।
2. राष्ट्रभाषा वह मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया गया ताकि अंग्रेजी के ज्ञान के बिना परेशानी नहीं होगी हिंदी भाषी प्रदेशों की आकांक्षा देखते हुए प्रिय भाषा पर आधारित राष्ट्रीय नीति बनाई गई।
3.अंग्रेजी का ज्ञान न रखने वाले शिक्षित लोग स्वयं को है समझने लगे।
4.लोगों के मन में यह भाव पनपने लगा कि वैश्वीकरण के कारण अंग्रेजी का ज्ञान ही उनकी प्रगति में सहायक हो सकता है।
5.इसी विचारधारा ने पब्लिक स्कूलों को हवा दी पब्लिक स्कूलों की संख्या बढ़ी और इतनी बड़ी कि कई गुना हो गई इन स्कूलों में संपन्न परिवारों के बच्चे प्रवेश पाने लगे इन्हें उच्च शिक्षा तथा उत्तम शिक्षा का केंद्र मानकर सामान्य जन भी येन केन प्रकारेण इन्हीं स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने का प्रयास करने लगे।
6.इसके विपरीत सरकारी स्कूलों में केवल अति सामान्य परिवारों के बच्चे पढ़ने के लिए विवश लें और तड़प कर रह गए पब्लिक स्कूलों के प्रति आकर्षण को देख दूरदराज के क्षेत्रों में पब्लिक स्कूल खुल गए जिनमें हिंदी भाषा को कोई महत्व नहीं दिया जाता है।
7.इस तरह हिंदी या अन्य मात्री भाषाओं की दुर्दशा होती गई।
8.हिंदी भाषा के सुधार के स्थान पर अंग्रेजी को सवारने में युवा वर्ग लग गया।
9.हिंदी को है समझने लगे अब आज का छात्र अपनी प्रगति अपना उज्जवल भविष्य अंग्रेजी में ही देखता है।
10.वह विचार समाप्त हो गया कि अपनी मातृभाषा के द्वारा बच्चे का विकास संभव है उसके लिए भले ही वह रट्टू तोता की तरह अंग्रेजी के वाक्य रखने पड़े।
भले ही अपने देश में हम विदेशी कहे जाने लगे।
11.इसी तरह हमारी मातृभाषा का पत्र हमने स्वयं पथरीला कर लिया ऐसा करने से सरकार ने भी खूब सहयोग दिया भले ही इसमें उसकी व्यवस्था रही हो।
उप संहार
यद्यपि अंग्रेजी के महत्व को नकारा नहीं जा सकता तथापि अपनी मातृभाषा की ओर भी ध्यान देना चाहिए नहीं तो हम अपने ही देश में विदेशी हो जाएंगे इसका परिणाम सबसे अधिक अपनी संस्कृति पर पड़ेगा और पड़ रहा है अपनी सनातन संस्कृति का अस्तित्व न रहने पर हम विश्व स्तर पर लताड़ा जाएंगे यही कारण था महात्मा गांधी जैसे शुविक मातृभाषा के महत्व को नानकार सके उनका कहना था कि मातृभाषा को छोड़कर हम दूसरे के बीच लाग बन जाएंगे अब तो बस यही कह सकते हैं कि परमात्मा ही हमें सद्बुद्धि दे। कहा भी जाता है कि

अपनी माता का स्थान हम किसी भी चाची ताई यामोशी को नहीं दे सकते उसी प्रकार अपनी मातृभाषा का स्थान किसी अन्य विदेशी भाषा को नहीं दे सकते।