सांग सम्राट लख्मीचंद का संक्षिप्त जीवन परिचय
1.हरियाणा सांग परम्परा में श्री लख्मीचंद का नाम सर्वाधिक प्रमुख हैं।
2.जिन्होंने हरियाणवी सांग को सर्वथा एक नवीन दिशा दी ।
3.लख्मी चंद का जन्म 15 जुलाई ,1930 में हरियाणा के सोनीपत जिले के जाटी कला गांव में हुआ।
4. इनके पिता का नाम उदमी राम था।
5. यह जाति से ब्राह्मण थे।
6. मानसिंह इन के गुरु थे। 7. इनकी शिष्य परंपरा में शिष्य थे -
1.मांगेराम
2.भाईचंद सुल्तान
3.पंडित चंदन लाल आदि
8. इनके मुख में सरस्वती का निवास था।
9. वे तत्काल काव्य रचना कर लेते थे।
10. इसलिए आंसू कवि कहलाते थे।
11 अधिक पढ़े लिखे होने के बावजूद भी इनको वेदों पुराणों आदि का पूर्ण ज्ञान था ।
11.अतः इनके सांग से हमें पुराना ज्ञान प्राप्त हुआ है।
12. 18 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली बार सोहन के अखाड़े में अपनी मधुर वाणी का परिचय दिया।
13. सन 1920 में इन्होंने अपनी अलग सांग मंडली बनाई ।
14.वे न केवल अच्छे गायक थे अपितु सफल अभिनेता भी थे।
15. इनको हरियाणा के सांगो का सम्राट भी कहा जाता है ।
16.हरियाणा के निवासियों में यह दादा लख्मीचंद के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
17.आज भी अनेकों विश्वविद्यालयों में विभिन्न मांगो पर शोध कार्य चल रही है तथा आज भी वह शोध का विषय बने हुए हैं।
18 इनके द्वारा रचित प्रमुख सांग हैं---
*-- हरिश्चंद्र
*-- नल दमयंती
*---सत्यवान सावित्री
** द्रोपदी
**सेठ ताराचंद
**शकुंतला
**भूप सिंह
***चाप सिंह
** हीरामल जमाल
**राजा भोज **चंद किरण
**पद्मावत
**नौटंकी
**जानी चोर
***शाही लकड़हारा इत्यादि ।
19.इसके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित अनेक गीत और रागनियां लोगों को आज भी कंठस्थ हैं ।
इन्होंने अपने सांगों में सामाजिक रूढ़ियों और जड़ परंपराओं पर प्रहार किया ।
20.इन्होंने सांग परंपरा को स्वस्थ एवं सुदृढ़ बनाया फलस्वरूप लंबे काल तक हरियाणा में सांगो की धूम मची रही ।
21. लख्मी चंद ने नारी के प्रति सदैव सहानुभूति मैं दृष्टिकोण अपनाया नल दमयंती शीर्षक सांग में राजा नल दमयंती को जंगल में त्याग कर चला जाता है दमयंती नल के बिना विरह की आग में जलने लगती है वह उसे गहने जंगल में ढूंढने का प्रयास करती हैं।
22.सांगी लख्मीचंद ने अपने सांग हरिश्चंद्र में रोहतास की मृत्यु पर उसकी मां को विलाप करते दिखाया है उस समय मानवता का अत्यंत का रोने का दृश्य उपस्थित होता है उसने पुत्र को सांप द्वारा काटे जाने पर उसका ह्रदय चित्कार कर उठता है।
निष्कर्ष के तौर पर ****
हम कह सकते हैं कि हरियाणा सां को एक नई दिशा प्रदान करने में पंडित लख्मीचंद ने जोदादा लखमीचंद जी की रचना:
जगत मैं मोह लिए मेहर सुमेर जी माया नै बहुत घणे मारे हैं।
1 ब्रह्मा विष्णु शिव जी मोहे भस्मासुर का किया नाश।
चन्द्रमा कै स्याही लाद्यी इन्द्र नै भी भोगे त्रास।
नारद केसे ऋषि मोहे मरकट रूप धारया खास।
भृगु चमन यमदग्नि उद्दालक की भी मारी मति।
त्रिशंकू और नहुष मोहे उनकी करी बुरी गति।
बड़े बड़े ऋषि मोहे इसमै नहीं झूठ रत्ति।
वो नहुष दिया स्वर्ग तै गेर जी माया के कपट न्यारे हैं।
2 वशिष्ठ केसे मुनि मोहे विपलोदे गौतम लो लीन।
अत्रि मुनि कर्दम शम्भु मुनि सारे प्रवीन।
पुलिस्त केसे मुनि मोहे कर दिए तेरह तीन।
असचर निसचर दन्त दाने ऋषि मुनि ब्रह्मचारी।
शंकराचार्य विरहम पति जिनकी गई मति मारी।
प्रद्युम्न प्रतापी राजा सागर केसे हुए बलकारी।
जिसनै कंस सहसरबाहु का डर बल मैं परशुराम से हारे हैं।
3 दन्त वक्र जरासन्ध त्रिया पै मरे शिशुपाल।
श्रृंगी ऋषि दुर्वासा डूबे देख कै हूरां की चाल।
कौरव पांडव कट कै मरग्ये खून के भरे थे ताल।
त्रिया तेरे तीन नाम घर घर मारे कई करोड़।
कुरूक्षेत्र पै राड़ जागी शील का शीश दिया तोड़।
रूप धारण ऐसा किया पड़ी पड़ी तड़फै थी खोड़।
व लिए सूरमां काल नै घेर जी सिर बाणो से तारे हैं।
4 त्रिया ही के मोह मैं आकै माटी मैं मिलाए भूप।
पम्पापुर मैं बाली मोहे गेर दिए अधरूप।
त्रिया ही नै नारद मोहे बन्दर का बनाया रूप।
नागनी से हो नार बुरी रावण कुंभकर्ण खोए।
सारा कुटम्ब खाक मैं मिला दिया बाकी रहा न कोए।
त्रिया की बातां मैं आकै पाछै मूण्ड पकड़ कै रोए।
कहै लखमीचंद नैना की शमशेर जी मोह फांसी मैं हारे हैं।
अब आपके सामने एक रचना गुणी सुखीराम जी की प्रस्तुत है:
माया नै ब्होत घणें मारे जी,जग मै मोहे मेहर सुमेर है।
1 विष्णु ब्रह्मा शिव मोहे भस्मासुर का किया नास।
चन्द्रमा के दाग लाग्या इन्द्र नै भी भोगी त्रास।
कुछ नारद के से मुनि मोहे मरकट रूप धारा खास।
भृगु चमन जमदग्नि उद्दालक की मारी मति।
श्रृंगी ऋषि दुर्वासा मोहे जन की करी बुरी गति।
त्रंशकु नाहुख मोहे इस में नहीं झूठ रति।
वे दिये स्वर्ग से गेर है, माया मैं कपट भारे जी।
2 वशिष्ठ से मुनि मोहे पीप्लाद गौतम से लीन।
अत्रि मुनि कर्दम मुनि स्वयंभु मुनि प्रवीन।
पुलीस्त मुनि कश्यप ऋषि कर दिए तेरा तीन।
दाना देत असुर निशाचर ऋषि मुनि ब्रह्मचारी।
शुक्राचार्य बृहस्पति जन की भी मति मारी।
सर्वदमन प्रताप भलु संद से वै राजा भारी।
किया सहस्त्र बाहु का ढेर है,बल परशुराम आरे जी।
3 बलोचन बाणा सुर मारे त्रिया का धार कै रूप।
त्रिया नै दशरथ मोहा गेर दिया अन्ध कूप।
सिन्ध उपसिन्ध दोनु लड़े छाया गिनी ना धूप।
श्रृंगी ऋषि पारा ऋषि त्रिया के कारण रोये।
जिस घर पड़ा अन्धेर है,सिर बाणो से तारे जी।
4 दंतवकर जरासंध त्रिया पै मरे थे हाल।
भोमासुर कंस राजा त्रिया नै मोहा शिशुपाल।
कैरू पांडू कुटुम्ब खपे खून का भरा था नाल।
माया तेरे तीन नाम रूप धारे मारे कई करोड़।
कुरूक्षेत्र मैं राड़ मची सब का सिर दिया तोड़।
ऐसी मोहनी डारी जिनकी पड़ी पड़ी तड़फी खोड़।
सब लिया काल ने घेर है, जो बली कोड़े सारे जी।
5 जन्मेजय नै कुबद करी त्रिया कारण देखो नै यार।
अठारह ब्राह्मण काटे जिसने होम बीच दिया डार।
तप जप सत योग खोया लाज शर्म दीन्ही तार।
तन मन धन विद्या ज्ञान लूटा राज पाट गये छूट।
शूरा बन्जू ध्यानी ब्रह्मानन्द रश गये घूंट।
गुणी सुखीराम कह कलजुग मैं नेम धर्म गये टूट।
नैनो की मार शमशेर है, आखिर नरक बीच डारे जी।
ये दोनों एक ही रचना हैं लेकिन दो कवियों की छाप है इनमें गुणी सुखीराम जी का जन्म सन् अठारह सौ सत्तावन में हुआ और दादा लखमीचंद जी का जन्म सन् उन्नीस सौ तीन में हुआ। गुणी सुखीराम जी का देहांत सन् उन्नीस सौ पांच में हुआ और दादा लखमीचंद जी का देहांत सन् उन्नीस सौ पैंतालीस में हुआ। विद्वान् लोग टेक से ही पता लगा लेते हैं कि इस तरह की टेक गुणी सुखीराम जी के समय की है और दादा लखमीचंद जी के समय की नहीं। इसलिए दादा लखमीचंद जी ने छाप काट कर अपनी छाप लगाकर नहीं गाई थी।उनको बदनाम किया जा रहा है। बदनाम करने पर भी उनकेे वंशज चुप हैं तो इससे स्पष्ट है कि दादा लखमीचंद महाचोर थे।