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शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

संत कबीर से संबंधित संपूर्ण जानकारी

संत कबीर से संबंधित संपूर्ण जानकारी
बीए क्लासेज के लिए
m.a. क्लासेज के लिए
कबीर
एक समाज सुधारक
फक्कड़
क्रांतिकारी
भाषा के डिक्टेटर
निर्गुण भक्ति काव्य धारा के कवि 

- जन्मकाल 
1398 इसवी (ज्येष्ठ पूर्णिमा विक्रम संवत 1455, सोमवार)
नोट- जन्म काल के संबंध में निम्न पद प्रमाण है-
" चौदह सौ पचपन साल गये,चन्द्रवार इक ठाठ ठये|
जेठ सुदी बरसायत को, पूरणमासी तिथी प्रकट भये ||"
जन्मस्थान- काशी/वाराणसी
- एक किवदंती के अनुसार इनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था, जिसने लोक लज्जा के कारण इनको जन्म देकर काशी के 'लहरतारा' नमक तालाब के किनारे छोड़ दिया था| बाद में एक जुलाहा दंपत्ति 'नीरू व नीमा' के द्वारा इनका पालन पोषण किया गया|

मृत्युकाल- 1518 ई.(1575 वि.)- मगहर
"संवत पन्द्रह सौ पछत्तरां,कियो मगहर को गौन|
माघ सुदी एकादसी,रल्यो पौन से पौन ||"

 गुरु का नाम- स्वामी रामानंद ( मुसलमान अनुयायियों के अनुसार इनके गुरु 'शेख तकी' माने जाते हैं)

*
पिता का नाम- नीरू

माता का नाम-नीमा
पत्नी का नाम-लोई
 पुत्र व पुत्री का नाम- कमाल व कमाली
‪‎काव्य_भाषा‬:- सधुक्कड़ी


महत्वपूर्ण जानकारी- कबीर ने अपनी रचनाओं में राजस्थानी, पंजाबी, खड़ी बोली आदि पंचमेल भाषाओं का प्रयोग किया है, जिसे 'सधुक्कड़ी' भाषा कहा जाता है| कबीर की भाषा को यह नाम सर्वप्रथम आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा प्रदान किया गया था|
-डॉ. श्याम सुंदर दास ने कबीर की भाषा को पंचमेल खिचड़ी भाषा कहा है|

 नगेंद्र के अनुसार इनके द्वारा रचित 63 (प्रकाशित 43) रचनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है|

कबीरदास जी को अक्षर ज्ञान नहीं था इस संबंध में उन्होंने स्वयं लिखा है:-
"मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यौ नहिं हाथ |
चारिउ जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात ||'
- अंत: यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने स्वयं किसी ग्रंथ को लिपिबद्ध नहीं किया।

‪#‎रचना‬ संकलन- कबीरदास जी द्वारा रचित मुख्य पदों का संकलन उनके परम शिष्य 'धर्मदास में 1464 ईस्वी' में 'बीजक' के नाम से किया था| इसके तीन भाग किए गए हैं-

1. साखी:- इस भाग में कबीर दास द्वारा रचित दोहों/साखियों को शामिल किया गया है| इस में सांप्रदायिक शिक्षा और सिद्धांत के उपदेश हैं| इसकी भाषा सधुक्कड़ी है इस का विभाजन 59 अंगों में किया गया है|
प्रथम अंग- गुरुदेव को अंग
अन्तिम अंग- अबिहड़ कौ अंग

2.सबद - इस भाग में कबीर द्वारा रचित पदों को शामिल किया गया है इसकी भाषा ब्रज या पूरी बोली है इस भाग में कबीर के माया संबंधी विचारों तथा गेय पदों को शामिल किया गया है|

3. रमैंणी- इस भाग में कबीर द्वारा रचित राम भक्ति संबंधी पदों/चौपाइयों को शामिल किया गया है इसकी भाषा भी ब्रज या पूर्वी बोली है इसमें रहस्यवाद में दार्शनिक विचारों को प्रकट किया गया है|

‪#‎कबीर_के_काव्य_की_प्रमुख_विशेषताएं‬:-

* कण-कण में ईश्वर की व्याप्ति
* विरह की व्याकुलता-
" अंखिणियां झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि |
जीभणियां छाला पड्या, नाम पुकारि-पुकारि ||"
* मूर्ति पूजा का विरोध-
" पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार |
ताते यह चाकी भली, पीस खाय संसार ||"
* धार्मिक आडंबरों का विरोध
* अहिंसा का संदेश
* गुरु का महत्व
* नारी की निंदा-
" नारी की झांई परत, अंधा होत भुजंग|
कबीरा तिनकी कौन गति, नित नारी के संग||"
* अवतारवाद का खंडन
* माया की भर्त्सना
* निर्गुण ब्रह्म की उपासना
* रहस्यवाद
* पुस्तकीय ज्ञान का परिहास
" पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय|
एकै के आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय ||"
* ब्रह्म की सौंदर्य भावना
* बौद्धों के महायान का प्रभाव (क्षणिकवाद)
* सदाचार की शिक्षा
* ईश्वर के प्रति अनयन भाव
* रूपात्मक प्रतीकों का प्रयोग
‪#‎विशेष_तथ्य‬:-
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- कबीर तथा अन्य निर्गुण पंथी संतों के द्वारा अंतः साधना में' रागात्मिका भक्ति' और 'ज्ञान' का योग तो हुआ पर 'कर्म' की दशा वही रही जो नाथ पंथियों के यहां थी|
- हजारी प्रसाद दिवेदी के अनुसार-" ऐसी थी कबीर सिर से पैर तक मस्त मौला, आदत से फक्कड़, स्वभाव से फक्खड., दिल से तर,दिमाग से दुरूस्त,भक्तो के लिए निरीह, भेषधारी के लिए प्रचंड|"
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को 'वाणी का डिक्टेटर' (भाषा का तानाशाह) कह कर पुकारा|
-- कबीर सिकंदर लोदी के समकालीन माने जाते हैं|
- रामचंद्र शुक्ल ने इन की प्रशंसा में एक जगह लिखा है - प्रतिभा उन्मे बड़ी प्रखर थी|
- हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनको भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की प्रतिमूर्ति माना है|
- गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित कबीर की साखियों को 'सलोकु या श्लोक' कहा गया है| इसमें 227 पद 17 राग 237 श्लोक संकलित हैं।
निष्कर्ष
कबीर दास जी कवि ना होकर एक समाज सुधारक क्रांतिकारी, निर्गुण भक्ति धारा के कवि, जाती पाती और रंगभेद ना करने वाले, तत्कालीन समाज वह आने वाले समाज के लिए यगुचेता के रूप में हमेशा हिंदी साहित्य में याद किए जाएंगे।

रविवार, 8 नवंबर 2020

संक्षेपण की परिभाषा प्रक्रिया के नियम और प्रमुख विशेषताएं

संक्षेपण की परिभाषा
संक्षेपण की प्रक्रिया के नियम
उस की प्रमुख विशेषताएं
उदाहरण
b.a. तृतीय वर्ष
पांचवा सेमेस्टर
प्रयोजनमूलक हिंदी में संक्षेपण प्रक्रिया का अत्यधिक महत्व है आज मानव जीवन की गति व दिनचर्या अत्यंत तीव्र होती जा रही है मानव अपनी जीवन के अत्यधिक व्यवस्थाओं के कारण हर कार्य को शीघ्रता से निपटाना चाहता है इसी कारण आज मानव को अपने भाव की अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए सीमित शब्दों के प्रयोग में सिद्धहस्त होने की जरूरत है इसीलिए मनुष्य के जीवन में संशोधन की आवश्यकता दिन प्रतिदिन अधिक अनुभव की जा रही है संक्षेपण की भाषा सूत्र आत्मक और अपने आप में पूर्ण होनी चाहिए।
इस प्रकार आज विभिन्न परीक्षाओं में भी अत्यंत सीमित शब्दों में उत्तर देने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है आज पत्रकारिता में भी अत्यंत सीमित समय तथा स्थान में अधिक से अधिक विषय को प्रकाशित करने के लिए संक्षेपण का महत्व बढ़ता जा रहा है।
संक्षेपण की परिभाषा
संक्षेपण शब्द का सामान्य अर्थ है किसी कथन या लिखित भाव को संपूर्ण एवं सारे रूप में प्रस्तुत करना।
किसी विस्तृत विषय वस्तु या संदर्भ को कम से कम शब्दों में प्रस्तुत करना ही संक्षेपण कहलाता है संक्षेपण में कथ्य के अनावश्यक अप्रासंगिक और अन्य उपेक्षित हंस को छोड़ते हुए मूल बात को ध्यान में रखकर कम से कम शब्दों में मैं प्रस्तुतीकरण संक्षेपण कहलाता है।
परिभाषा
नरेश मिश्र के अनुसार
संक्षेपण वास्तव में कम से कम शब्दों में लिखी गई स्वत पूर्ण रचना होती है संक्षेपण में पाठ के सभी तत्वों का क्रम से संस्कृत रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

संक्षेपण और सार में अंतर
कुछ विद्वान सार और संक्षेपण को एक दूसरे का पर्यायवाची मानती हैं किंतु यह उचित नहीं है सार में पाठ के सभी तथ्यों की चर्चा अवश्य नहीं होती केवल केंद्रीय भाव ही संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत किया जाता है जबकि संक्षेपण में सभी तथ्यों की प्रस्तुति मूल क्रम में कम से कम शब्दों में की जाती है सार तथा संक्षेपण दोनों में भाव प्रस्तुत करने के लिए सीमित शब्दों को अपनाने की प्रक्रिया होती है संक्षेपण में मूल पाठ का लगभग एक तिहाई भाग होना आवश्यक है जबकि शहर में ऐसा कोई नियम नहीं होता है।

संक्षेपण प्रक्रिया के नियम
संक्षेपण एक कला है इसमें भाव्या अभिव्यक्ति की शक्ति और निपुणता का विकास होता है भाषा पर सहज अधिकार हो जाता है व्यक्ति के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है कुछ बातों का ध्यान देना अति आवश्यक होता है जो इस प्रकार से हैं।
1. मूल पाठ को दो-तीन बार पढ़कर उसकी केंद्रीय भाव को समझ लेना चाहिए।
2. मूल बात को शुद्ध रूप में अभिव्यक्त की करना चाहिए उसकी व्याख्या नहीं करनी चाहिए।
3. मूल पाठ का सिर्फ एक तिहाई भाग ही होना चाहिए।
4. संक्षेपण लेखन के वाक्य छोटे-छोटे और सरल भाषा में होनी चाहिए।
5.संक्षेपण में कुछ भी अपनी तरफ से नहीं जोड़ना चाहिए।
6.संक्षेपण स्वयं में एक स्वतंत्र सुगठित और प्रभावपूर्ण अनुच्छेद होना चाहिए।
7.यथा स्थान पर विराम चिन्हों का अनुकूल प्रयोग करना चाहिए।
संक्षेपण की विशेषताएं
1. संक्षिप्तता
2. पूर्णता
3. क्रमबद्धता
4. स्पष्टता
5. मौलिकता
6. समाहार शक्ति
उदाहरण
अनुच्छेद
मेरा यह मतलब कदापि नहीं कि विदेशी भाषाएं सीखने ही नहीं चाहिए नहीं आ सकता। अनुकूलता ,अवसर और अवकाश होने पर हमें एक नहीं, अनेक भाषाएं सीख कर ज्ञानार्जन करना चाहिए ।द्वेष किसी भाषा से नहीं करना चाहिए ।ज्ञान कहीं भी मिलता हो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए ।परंतु अपनी भाषा और उसके साहित्य को प्रधानता देनी चाहिए ।क्योंकि अपना अपने देश का ,अपनी जाति का उपहार और कल्याण अपनी ही भाषा के साहित्य की उन्नति से हो सकता है। ज्ञान ,विज्ञान ,धर्म और राजनीति की भाषा सदैव लोक भाषा ही होनी चाहिए ।तो अपनी भाषा के साहित्य की सेवा और अभिवृद्धि करना सभी दृष्टिकोण से हमारा परम कर्तव्य है।

संक्षेपण
विदेशी भाषाओं का विरोध न करके आवश्यकता और सुविधा के अनुसार सभी भाषाओं से ज्ञान लेना चाहिए परंतु अपने राष्ट्र का उपकार और कल्याण अपनी भाषा के साहित्य से ही संभव है अतः यह हमारा परम धर्म है कि हम अपनी भाषा और उसके साहित्य की अभिवृद्धि करें।

शीर्षक अपनी भाषा का महत्व

काव्य गुण- अर्थ/ परिभाषा/ प्रकार व उदाहरण

b.a. प्रथम वर्ष
समेस्टर प्रथम
काव्य गुण किसे कहते हैं इसके विभिन्न भेदों का उदाहरण सहित परिचय दीजिए।
काव्य गुण
काव्य की शोभा को संपादित करने वाले या काव्य की आत्मा रस का उत्कर्ष बनाने वाले तत्व काव्य के गुण कहलाते हैं।
परिभाषा
डॉ नगेंद्र के अनुसार
गुण काव्य के उत्कर्ष साधक तत्वों को कहते हैं जो मुख्य रूप से रसके और गुण रूप से शब्दार्थ के नित्य धर्म हैं।

लक्षण व स्वरूप

नंबर 1 * रस के साधक धर्म है।
नंबर दो * नित्य हैं।
नंबर तीन *गुण रस का उत्कर्ष करते हैं।
नंबर 4 गुण भावात्मक होते हैं।


गुणों की संख्या पर विवाद

*भरत मुनि व दंडी ने इनकी संख्या 10 मानी है।
*वामन ने इसकी संख्या 20 मानी है
*भोज ने इनकी संख्या 24 मानी है।
*आचार्य मम्मट ने इनकी संख्या तीन मानी है।
*डॉ नगेंद्र ने भी इनकी संख्या तीन मानी है।

सर्वमत
सर्वमत के अनुसार गुणों की संख्या 3 है।* के भेद तीन हैं।

नंबर 1 प्रसाद गुण
नंबर 2. माधुर्य गुण
नंबर 3.ओज गुण
प्रसाद गुण
जिस गुण के कारण काव्या का अर्थ तुरंत समझ में आ जाए और उसे पढ़ते ही मन में खुशी हो उसे ही प्रसाद गुण कहती हैं। यह गुण प्राय सभी रसों में प्रयुक्त होता है।
इस गुण के काव्य की शब्दावली सरल और सुबोध होती है।
उदाहरण
1.अंबर के आनंद से देखो
कितने तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहां मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
2. ढंग है नया
लेकिन बात यह पुरानी है
घोड़ों पर रखकर या थैली में भर कर
या रोटी से ढक कर या फिल्मों में रंग कर वे जंजीरे केवल जंजीरे ही लाए हैं और भी वे कई बार आए हैं।

माधुर्य गुण
जिस रचना से अंतः करण में आनंद विभूत हो जाए। प्रेम ,श्रृंगार ,शांत
 एवं करुणा रसों में यह पाया जाता है।
 प्रकृति के सुंदर वर्णन में भी पाया जाता है ।
हृदय के अंदर प्रेम की मधुरता का पायी है।  जिसमें लंबे समास , ट व र वर्ण, संयुक्त अक्षरों का निषेध होता है।
उदाहरण
1.एक मेरी भव बाधा हरोै, राधा नागरि सोई
  जा तन की झाई परै श्याम हरित दुति होई
2.तेरी आंखों के जंगल में मैं इस प्रकार गुम हो जाता हूं
तुम रेल सी गुजरती हो मैं पुल साथ रहता हूं।

ओज गुण
जिस काव्य रचना के सरवन से चित्र में आवेग उत्पन्न हो क्या मन में उत्साह आए वहां ओज गुण होता है इस गुण में चित्त की वृत्ति होती है यह गुण वीर रूद्र भयानक तथा वीभत्स रस ओं के अनुकूल पाया जाता है इसमें लंबे समास कठोर वर्ण और संयुक्त वर्ण का प्रयोग किया जाता है।
उदाहरण
1. वीर तुम बढ़े चलो धीर तुम बढ़े चलो
2. होंगे कामयाब हम होंगे कामयाब एक दिन
3 आगे नदिया पड़ी अपार 
  घोड़ा कैसे उतरे पार 
   राणा ने सोचा इस बार 
     तब तक था चेतक उस पार
निष्कर्ष
काव्य में रस की वृद्धि करने वाले काव्य के सौंदर्य में वृद्धि करने वाले तत्वों को काव्य गुण कहते हैं।
सर्वमत अनुसार काव्य गुण तीन ही प्रकार के होते हैं जो हम ऊपर पढ़ चुके हैं।








शनिवार, 7 नवंबर 2020

प्रयोजनमूलक हिंदी की अवधारणा

प्रयोजनमूलक हिंदी की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए
प्रयोजनमूलक हिंदी की क्या आवश्यकता है




प्रयोजनमूलक हिंदी का महत्व
भाषा का एकमात्र प्रमुख कार्य मानव के भाव अथवा विचारों का संप्रेषण करना है ।
इस कार्य को संपन्न करने के लिए भाषा शब्द और अर्थ के जिस आवरण को धारण करती है ।
वह बहुआयामी और बहु प्रयोजन आत्मक है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि प्रयोजनमूलक  भाषा को कहा जाता है जिसका प्रयोग विशेष प्रयोजन को समक्ष रखकर किया जाता है।

प्रयोजनमूलक हिंदी की परिभाषा

 हिंदी भाषा मूल्य तय एक सुनिश्चित ध्वनि समूह ,रूप ,संरचना के वाक्य विन्यास का सांचा लिए रहती है किंतु जैसे-जैसे आवश्यकतानुसार भाषा का विकास और प्रचार होता है वैसे वैसे उसके प्रकार्यात्मक प्रयोजनों के दायरे भी बढ़ने लगते हैं।

हिंदी भाषा में भी प्रयोजन का दायरा बदलते ही उसकी भाषिक इकाई का संदर्भ अर्थ और प्रकार यह एकदम भिन्न हो जाता है ।
उदाहरण के लिए रस शब्द का प्रयोग भी देख लीजिए वनस्पति शास्त्र के संदर्भ में इसका अर्थ नींबू का रस
 आम का रस
 गन्ने का रस
 होता है ।
किंतु काव्यशास्त्र के दायरे में आते ही उसका
 वीर रस 
श्रृंगार रस 
हास्य रस
 करुण रस 
इत्यादि हो जाता है ।
यही शब्द आयुर्वेद में किसी वस्तु का सार तत्व हो जाता है ।


हिंदी अथवा मानक भाषा के प्रयोजनमलक अनुप्रयोग में एक विशेष शब्द चयनऔर अर्थ पाया कि सूक्ष्म अंतर व्यक्त करने वाली रेखाओं के प्रति सरसता की उपेक्षा रहती है ।


प्रयोजनमूलक हिंदी के विविध रूपों क्षेत्रों और आयामों की संदर्भित सार्थकता की मूल दूरी की रचना प्रक्रिया है ।

यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि संरचना प्रक्रिया की तनिक सभ्यता किस प्रकार भाषिक प्रयोजन को भिन्न बना देती है जैसे 
तरणि -सूर्य 
तरणी -नौका 
शब्द समान होते हुए भी एकदम भिन्न।


 प्रयोजन क्षेत्र और संदर्भ के संवाहक स्पष्ट है कि प्रयोजनमूलक हिंदी और उसकी संरचना प्रक्रिया के संबंध से पता चलता है कि उसका प्रयोग किसी विशेष कार्य के लिए किया जाता है तथा प्रशासनिक स्तर पर विभिन्न कार्यालयों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए होने वाला प्रयोग एक विशेष प्रकार के शब्द चयन व वाक्य विन्यास मांगता है जो पत्रकारिता प्रयोजन हेतु अपनाए गए भिन्न प्रकार के शब्दों के वाक्य विन्यास की अपेक्षा रखता है इस प्रकार के कार्य करने में हिंदी भाषा पूर्ण है।

कंप्यूटर स्वरूप और महत्व

कंप्यूटर स्वरूप और महत्व
प्रयोजनमूलक हिंदी
b.a. द्वितीय वर्ष
सेमेस्टर तृतीय
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1.
कंप्यूटर क्या है?
कंप्यूटर एक ऐसी इलेक्ट्रॉनिक युक्तियां मशीन है जो दिए गए निर्देश अनुसार निर्देशन समूह के आधार पर सूचनाओं को संप्रेषित करती है  ।

2.कंप्यूटर को मुख्यतः कितने भागों में बांटा जाता है
‌‌ कंप्यूटर को मुख्यतः दो भागों में बांटा जाता है
 हार्डवेयर
 सॉफ्टवेयर

3.हार्डवेयर किसे कहते हैं?
 कंप्यूटर और कंप्यूटर से जुड़े हुए सभी यंत्रों व उपकरणों को हार्डवेयर कहते हैं उदाहरण के लिए मॉनिटर कीबोर्ड आदि।
4.सॉफ्टवेयर किसे कहते हैं
कंप्यूटर के संचालन के लिए जिन प्रोग्रामों की आवश्यकता होती है उन्हें सॉफ्टवेयर कहते हैं।
जैसे
एम एस एक्सेल
 एम एक्सल
सॉफ्टवेयर एमएस वर्ड

5.कंप्यूटर का जन्मदाता किसे माना जाता है
कंप्यूटर का जन्मदाता चार्ल्स बैबेज को माना जाता है।

6.कंप्यूटर भाषा मुख्यता कितने भागों में बांटी जाती है
 कंप्यूटर भाषा मुख्यतः दो भागों में बांटी जाती है।
 लो लेवल लैंग्वेज
हाई लेवल लैंग्वेज
7.एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर के निर्माण में किस भाषा का प्रयोग किया जाता है
एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर के निर्माण में हाई लेवल की भाषा का प्रयोग किया जाता है। 

8.हाई लेवल लैंग्वेज कौन-कौन सी होती हैं
हाई लेवल languages
BASIC
COBOL
FORTRAN
ALGOL
C
PASCAL

9.कंप्यूटर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग कौन सा होता है
या
कंप्यूटर का दिमाग किसे कहा जाता है
सीपीयू

10.बेसिक की का पूरा नाम क्या है
Beginner's all purpose symbolic instructions code

11.
कंप्यूटर के कितने प्रकार होते हैं?
कंप्यूटर के मुख्यतः तीन प्रकार होते हैं
एनालॉग कंप्यूटर
डिजिटल कंप्यूटर
हाइब्रिड कंप्यूटर
12. डिजिटल कंप्यूटर किस सिद्धांत पर आधारित है?
डिजिटल कंप्यूटर गणना प्रणाली पर आधारित होता है।



पत्र व पत्र के प्रकार

b.a. तृतीय वर्ष 
पांचवा सेमेस्टर
पत्र लेखन
प्रयोजनमूलक हिंदी
महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी।

1.पत्र किसे कहते हैं?
पत्र एक माध्यम है जो किसी व्यक्ति को अपना संदेश किसी दूसरे व्यक्ति तक लिखित रूप में पहुंचाने का कार्य करता है।

2.पत्र के कितने प्रकार होते हैं?
पत्र के दो प्रकार होते हैं।
1. औपचारिक पत्र
2. अनौपचारिक पत्र

3.पत्र भेजने वाले को क्या कहा जाता है?
   प्रेषक

4.व्यवहारिक पत्र किसे कहते हैं?
जो पत्र सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं व्यापारियों मंत्रियों या संपादकों आदि को लिखे जाते हैं उन्हें व्यवहारिक पत्र कहती हैं।

5.आवेदन पत्र किसे कहते हैं?
जो पत्र नौकरी प्राप्त करने के लिए लिखे जाते हैं उन्हें आवेदन पत्र कहती हैं।

6.निमंत्रण पत्र किसे कहते हैं?
जो पत्र विवाह शादी पार्टी जन्मदिवस आदि किसी आयुर्वेद आयोजन पर किसी को भुलाने के लिए लिखे जाते हैं उसे निमंत्रण पत्र कहती हैं।

7.कार्यालय पत्र किसे कहते हैं?
जो पत्र एक कार्यालय द्वारा किसी दूसरे कार्यालय को लिखे जाते हैं उन्हें कार्यालय पत्र या ऑफिशियल लेटर कह जाती हैं।

8.कार्यालय पत्र में सबसे ऊपर क्या लिखा जाता है?
कार्यालय पत्रों में सबसे ऊपर पत्र संख्या लिखने अनिवार्य होती है।

9.कार्यालय पत्रों में पत्र संख्या क्यों लिखी जाती है?
कार्यालय पत्र पत्र संख्या अनिवार्य रूप से लिखी जाती है ताकि यह ध्यान रहे कि कौन सा पत्र क्रमांक किस तिथि को किस विभाग को भेजा गया था।
10.परिपत्र किसे कहते हैं?
यदि कोई पत्र सभी संबंधित या अधीनस्थ कार्यालयों या राज्य को प्रेषित किया जाता है उसे परिपत्र कहती हैं जैसे केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को भेजा गया पत्र जैसे शिक्षा महानिदेशालय पंचकूला द्वारा कॉलेज को भेजा गया पत्र परिपत्र कहलाता है।

11.नियुक्ति पत्र किसे कहते हैं?
जब किसी पत्र के माध्यम से किसी की नियुक्ति की सूचना दी जाती है उसे नियुक्ति पत्र कहा जाता है उसमें भी विज्ञापन संख्या पदों की संख्या तथा नौकरी तेज से संबंधित नियमों के बारे में लिखा जाता है उसमें डेट ऑफ जॉइनिंग आदि भी बताई जाती हैं।

12=अधिसूचना किसे कहते हैं?
भारतीय सूचना पत्रों में प्रकाशित होने वाले सरकारी नियम आदेश अधिकार या नियुक्तियों के विषय में विज्ञापित समाचार को अधिसूचना कहते हैं।

13.प्रेस विज्ञप्ति किसे कहते हैं?
प्रशासन द्वारा मिली महत्वपूर्ण सूचना या बाद सूचना को आम लोगों के बीच प्रसार प्रचार हेतु उसे समाचार पत्र में प्रकाशित करवाने को ही प्रेस विज्ञप्ति कहती हैं।

14.अनुस्मारक किसे कहते हैं? 

किसी सरकारी विभाग के कार्यालय को पूर्व में भेजे किसी पत्र के संदर्भ में प्रतिउत्तर ने पानी पर उत्तर पाने के लिए जो समरण पत्र भेजा जाता है उसे अनुस्मारक कहते हैं।
15. औपचारिक व अनौपचारिक पत्रों में क्या अंतर है?
औपचारिक पत्र-
यह पत्र किसी सरकारी या गैर सरकारी अर्ध सरकारी संस्थाओं संपादकों मंत्रियों व्यापारियों आधी को लिखे जाती हैं इनमें औपचारिकताएं करनी आवश्यक होती हैं
अनौपचारिक पत्र
यह वह पत्र हैं जिनमें औपचारिकताओं की आवश्यकता नहीं होती यह अपने ही सगे संबंधियों को लेकर जाती हैं इनमें अपने दिल के तमाम भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की जाती है पत्थर पड़ने वाला और लिखने वाला आधिकारिक रूप से आपस में भावों से परिचित होता है।

मीराबाई के पद

मीराबाई के पद व्याख्या सहित

b.a. प्रथम वर्ष 
सेमेस्टर प्रथम

आज मैं यहां मीराबाई के 4 पदों का वर्णन करूंगी।

किसी भी पद की व्याख्या करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातों को जानना अनिवार्य है।

सबसे पहले शब्दों के अर्थों में हमें ध्यान देना होता है।

इसके बाद प्रसंग लिखते हैं जो बताता है कि यह पद कहां से लिया गया है इसमें किस चीज का प्रतिपाद्य किया गया है।

इसके बाद व्याख्या की जाती है व्याख्या में पद का मूल भाव शामिल किया जाता है।

सरल शब्दों में व्याख्या होने के बाद विशेष लिखा जाता है विशेष में भी दो प्रकार होते हैं।
1.  कला पक्ष
2. भाव पक्ष
कला पक्ष में हम उसकी भाषा, उसमें कौन सा अलंकार है ?कौन सा रस है उसकी शैली कौन सी है ?किस प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया गया है ?आदि 
8/7बिंदुओं के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं।
प्रमुख शब्दार्थ-
परस-स्पर्श
ज्वाला- अग्नि
सरण-आश्रय लेना
शुभग-सुंदर
प्रसंग-प्रस्तुत पद हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक मध्यकालीन काव्य कुंज से संकलित कृष्ण प्रेमिका मीराबाई के पद से लिया गया है। इस पद में मीराबाई प्रभु श्री कृष्ण के चरणों की वंदना करते हुए कहती है कि--
व्याख्या-हे मेरे मन तू श्री कृष्ण के चरणों का स्पर्श कर तू उसकी ही शरण का आश्रय ग्रहण कर प्रभु के चरण सुंदर कमल के समान कोमल हैं ।
यह संसार के सभी प्रकार के कष्टों को नष्ट करने वाले हैं चाहे वह दुख दैहिक ,दैविक या भौतिक ही क्यों ना हो।

 कवियत्री मीराबाई कहती है कि प्रभु के इन चरणों का स्पर्श करके प्रहलाद ने इंद्र की पदवी को ग्रहण कर लिया यही नहीं प्रभु श्री कृष्ण के इन चरणों को स्पर्श करके ध्रुव भगत को अटल बना दिया।
प्रभु श्री कृष्ण सभी शरणागत को आश्रय देतेहैं ।
प्रभु ने इन चरणों को संपूर्ण ब्रह्मांड को भेंट किया है संसार का कोई भी व्यक्ति इस संसार में आने के बाद प्रभु के चरणों का सहारा ले सकता है ।
यह चरण अपने नख शिख( सिर से लेकर पैरों तक) अत्यंत ही सो बनिए हैं। इन्हीं चरणों में कालिया नाग को ना कर गोपियों के सामने नचाया था ।
यह वही चरण है जिन्होंने गोवर्धन पर्वत को धारण किया था और इंद्र के घरों को चूर चूर कर दिया था ।
अंत में मीराबाई कहती हैं कि मैं तो प्रभु श्री कृष्ण के चरणों की दासी हूं जो इस अगम संसार रूपी सागर को पार उतारने वाली नौका के समान है।
विशेष -
भाव पक्ष
1. कवियत्री मीराबाई ने श्री कृष्ण के चरणों की महिमा का गुणगान किया है
2. प्रहलाद और ध्रुव भगत दोनों का उदाहरण देकर समझाया है।
कला पक्ष
राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग हुआ है
तत्सम व तद्भव शब्दावली का प्रयोग हुआ है
प्रसाद वर्मा दुर्गुण सर्वत्र व्याप्त है
अनुप्रास रूपक और उदाहरण अलंकारों का प्रयोग हुआ है
शांत रस का परिपाक है
गीती शैली का प्रयोग है।
पद नंबर दो
आप सब को सूचित किया जाता है कि प्रसंग और विशेष मुख्यतः सभी में समान रहेगा।
व्याख्या-प्रस्तुत पद में मीराबाई अपने प्रभु श्री कृष्ण की वेशभूषा तथा उनके रूप सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहती हैं कि बांके बिहारी श्री कृष्ण को मेरा प्रणाम है मेरा प्रणाम वह स्वीकार करें।
इनके सुंदर मस्तक पर मोर के पंखों का मुकुट विराजमान है तिलक सुशोभित हो रहा है ।कानों में कुंडल सुशोभित हो रहे है तथा सिर पर  घुंघराले बाल हैं। इनके मधुर होठों पर बांसुरी विराजमान है ।
जिस की मधुर ध्वनि ब्रज की सभी गोपियों को मोहित कर लेती हैं ।
यह गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले बंसी बजैया मोहन आपकी इसी छवि को देखकर मैं आपकी ओर आकर्षित हो गई हूं ।
गोवर्धन पर्वत को धारण करने के कारण ही श्री कृष्ण को गिरवर धारी भी कहा जाता है मेैं उन पर मोहित हो गई है यह मोह उनके प्रेम का कारण बना है।
पद नंबर 3
व्याख्या-मीराबाई कहती है कि नंद केे पुत्र  कृष्णा्ण्णा्/
श्री कृष्ण उनकी आंखों में बस गए हैं। उन भगवान श्री कृष्ण ने अपने सिर पर मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट धारण कर रखा है ।उनके कानों में मछली की आकृति के कुंडल सुशोभित हो रहे हैं तथा उनके मस्तक पर लाल रंग का तिलक  शोभा मान हो रहा है उनका रूप मन को मोहने वाला उनका शरीर सावला है आंखें बड़ी-बड़ी हैं।
 उनके अमृत रस से परिपूर्ण होठों पर मुरली विराजते हुए शोभायमान है ।
उनके हृदय पर वैजयंती माला की फुल सुशोभित हो रहे हैं ।
मीराबाई कहती है कि गोपाल ,कृष्ण ,कन्हैया भगत वत्सल हैं तथा संतों को सुख देने वाले हैं।
पद नंबर 4
व्याख्या-मीराा अपनी अपनीी सखियों संबोधित करतेेेेे हुए कहती हैं कि
यह सखी मेरी आंखों को कृष्ण की ओर देखने की आदत पड़ गई है ।श्री कृष्ण की छवि हमेशा मेरी आंखो में समाई रहती है।
 मीरा कहती है कि श्री कृष्ण की मधुर मूर्ति मेरे नैनों में बस गई हैं ।ऐसा लगता है कि मानो मेरे हृदय में उस मूर्ति की नोक इस प्रकार जड गई है कि वह किसी प्रकार से निकल नहीं सकती है।
एे सखी 
मैं न जाने कब की अपने महल में खड़ी हुई अपने प्रियतम का रास्ता र निहार रही हूं।
 उनकी प्रतीक्षा कर रही हूं मेरे प्राण तो सांवले श्री कृष्ण के में ही फंसे हुए हैं ।
वही मेरे जीवन के लिए जड़ी-बूटी के समान है ।
अंत में मीरा कहती है कि मैं गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले भगवान श्री कृष्ण के हाथों बिक चुकी हूं लेकिन लोग मेरे बारे में कहते हैं कि मैं बिगड़ गई हूं लोक लाज मैंने छोड़ दी है भाव यह है कि मैंने अपना सब कुछ प्रभु श्री कृष्ण के चरणों में न्योछावर कर दिया है लोग भले ही मुझे कहते रहे कि मैं भटक गई हूं।