5955758281021487 Hindi sahitya : मीराबाई के पद

शनिवार, 7 नवंबर 2020

मीराबाई के पद

मीराबाई के पद व्याख्या सहित

b.a. प्रथम वर्ष 
सेमेस्टर प्रथम

आज मैं यहां मीराबाई के 4 पदों का वर्णन करूंगी।

किसी भी पद की व्याख्या करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातों को जानना अनिवार्य है।

सबसे पहले शब्दों के अर्थों में हमें ध्यान देना होता है।

इसके बाद प्रसंग लिखते हैं जो बताता है कि यह पद कहां से लिया गया है इसमें किस चीज का प्रतिपाद्य किया गया है।

इसके बाद व्याख्या की जाती है व्याख्या में पद का मूल भाव शामिल किया जाता है।

सरल शब्दों में व्याख्या होने के बाद विशेष लिखा जाता है विशेष में भी दो प्रकार होते हैं।
1.  कला पक्ष
2. भाव पक्ष
कला पक्ष में हम उसकी भाषा, उसमें कौन सा अलंकार है ?कौन सा रस है उसकी शैली कौन सी है ?किस प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया गया है ?आदि 
8/7बिंदुओं के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं।
प्रमुख शब्दार्थ-
परस-स्पर्श
ज्वाला- अग्नि
सरण-आश्रय लेना
शुभग-सुंदर
प्रसंग-प्रस्तुत पद हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक मध्यकालीन काव्य कुंज से संकलित कृष्ण प्रेमिका मीराबाई के पद से लिया गया है। इस पद में मीराबाई प्रभु श्री कृष्ण के चरणों की वंदना करते हुए कहती है कि--
व्याख्या-हे मेरे मन तू श्री कृष्ण के चरणों का स्पर्श कर तू उसकी ही शरण का आश्रय ग्रहण कर प्रभु के चरण सुंदर कमल के समान कोमल हैं ।
यह संसार के सभी प्रकार के कष्टों को नष्ट करने वाले हैं चाहे वह दुख दैहिक ,दैविक या भौतिक ही क्यों ना हो।

 कवियत्री मीराबाई कहती है कि प्रभु के इन चरणों का स्पर्श करके प्रहलाद ने इंद्र की पदवी को ग्रहण कर लिया यही नहीं प्रभु श्री कृष्ण के इन चरणों को स्पर्श करके ध्रुव भगत को अटल बना दिया।
प्रभु श्री कृष्ण सभी शरणागत को आश्रय देतेहैं ।
प्रभु ने इन चरणों को संपूर्ण ब्रह्मांड को भेंट किया है संसार का कोई भी व्यक्ति इस संसार में आने के बाद प्रभु के चरणों का सहारा ले सकता है ।
यह चरण अपने नख शिख( सिर से लेकर पैरों तक) अत्यंत ही सो बनिए हैं। इन्हीं चरणों में कालिया नाग को ना कर गोपियों के सामने नचाया था ।
यह वही चरण है जिन्होंने गोवर्धन पर्वत को धारण किया था और इंद्र के घरों को चूर चूर कर दिया था ।
अंत में मीराबाई कहती हैं कि मैं तो प्रभु श्री कृष्ण के चरणों की दासी हूं जो इस अगम संसार रूपी सागर को पार उतारने वाली नौका के समान है।
विशेष -
भाव पक्ष
1. कवियत्री मीराबाई ने श्री कृष्ण के चरणों की महिमा का गुणगान किया है
2. प्रहलाद और ध्रुव भगत दोनों का उदाहरण देकर समझाया है।
कला पक्ष
राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग हुआ है
तत्सम व तद्भव शब्दावली का प्रयोग हुआ है
प्रसाद वर्मा दुर्गुण सर्वत्र व्याप्त है
अनुप्रास रूपक और उदाहरण अलंकारों का प्रयोग हुआ है
शांत रस का परिपाक है
गीती शैली का प्रयोग है।
पद नंबर दो
आप सब को सूचित किया जाता है कि प्रसंग और विशेष मुख्यतः सभी में समान रहेगा।
व्याख्या-प्रस्तुत पद में मीराबाई अपने प्रभु श्री कृष्ण की वेशभूषा तथा उनके रूप सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहती हैं कि बांके बिहारी श्री कृष्ण को मेरा प्रणाम है मेरा प्रणाम वह स्वीकार करें।
इनके सुंदर मस्तक पर मोर के पंखों का मुकुट विराजमान है तिलक सुशोभित हो रहा है ।कानों में कुंडल सुशोभित हो रहे है तथा सिर पर  घुंघराले बाल हैं। इनके मधुर होठों पर बांसुरी विराजमान है ।
जिस की मधुर ध्वनि ब्रज की सभी गोपियों को मोहित कर लेती हैं ।
यह गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले बंसी बजैया मोहन आपकी इसी छवि को देखकर मैं आपकी ओर आकर्षित हो गई हूं ।
गोवर्धन पर्वत को धारण करने के कारण ही श्री कृष्ण को गिरवर धारी भी कहा जाता है मेैं उन पर मोहित हो गई है यह मोह उनके प्रेम का कारण बना है।
पद नंबर 3
व्याख्या-मीराबाई कहती है कि नंद केे पुत्र  कृष्णा्ण्णा्/
श्री कृष्ण उनकी आंखों में बस गए हैं। उन भगवान श्री कृष्ण ने अपने सिर पर मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट धारण कर रखा है ।उनके कानों में मछली की आकृति के कुंडल सुशोभित हो रहे हैं तथा उनके मस्तक पर लाल रंग का तिलक  शोभा मान हो रहा है उनका रूप मन को मोहने वाला उनका शरीर सावला है आंखें बड़ी-बड़ी हैं।
 उनके अमृत रस से परिपूर्ण होठों पर मुरली विराजते हुए शोभायमान है ।
उनके हृदय पर वैजयंती माला की फुल सुशोभित हो रहे हैं ।
मीराबाई कहती है कि गोपाल ,कृष्ण ,कन्हैया भगत वत्सल हैं तथा संतों को सुख देने वाले हैं।
पद नंबर 4
व्याख्या-मीराा अपनी अपनीी सखियों संबोधित करतेेेेे हुए कहती हैं कि
यह सखी मेरी आंखों को कृष्ण की ओर देखने की आदत पड़ गई है ।श्री कृष्ण की छवि हमेशा मेरी आंखो में समाई रहती है।
 मीरा कहती है कि श्री कृष्ण की मधुर मूर्ति मेरे नैनों में बस गई हैं ।ऐसा लगता है कि मानो मेरे हृदय में उस मूर्ति की नोक इस प्रकार जड गई है कि वह किसी प्रकार से निकल नहीं सकती है।
एे सखी 
मैं न जाने कब की अपने महल में खड़ी हुई अपने प्रियतम का रास्ता र निहार रही हूं।
 उनकी प्रतीक्षा कर रही हूं मेरे प्राण तो सांवले श्री कृष्ण के में ही फंसे हुए हैं ।
वही मेरे जीवन के लिए जड़ी-बूटी के समान है ।
अंत में मीरा कहती है कि मैं गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले भगवान श्री कृष्ण के हाथों बिक चुकी हूं लेकिन लोग मेरे बारे में कहते हैं कि मैं बिगड़ गई हूं लोक लाज मैंने छोड़ दी है भाव यह है कि मैंने अपना सब कुछ प्रभु श्री कृष्ण के चरणों में न्योछावर कर दिया है लोग भले ही मुझे कहते रहे कि मैं भटक गई हूं।




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