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रविवार, 24 अक्तूबर 2021

प्रयोगवाद

प्रयोगवाद

साम्यवाद व मार्क्सवाद दृष्टि से ओतप्रोत साहित्य धारा प्रगतिवाद के पश्चात हिंदी साहित्य में प्रयोगवाद का उदय हुआ ।
1. छायावादोत्तर काल की वह काव्य धारा जिसमें काव्य के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किए गए प्रयोगवाद के नाम से जानी जाती है ।
2. सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय को प्रयोगवाद का प्रवर्तक माना जाता है ।
3.अज्ञेय के संपादन में 1943 ईस्वी में प्रकाशित तार सप्तक से प्रयोगवाद का आरंभ माना जाता है ।
4.अज्ञेय के संपादन में कुल चार तार सप्तक प्रकाशित हुए, जिनमें अज्ञेय ने सात-सात कवियों की रचनाएं संकलित की ।
5.तार सप्तक की मूल योजना प्रभाकर माचवे व नेमीचंद जैन की थी ।
6.इन दोनों ने अपनी योजना को अज्ञेय के सामने रखा ,जिसे उन्होंने क्रियान्वित किया ।
7.हिंदी कविता में प्रयोगों के आरंभ कर्ता निराला माने जाते हैं।
8. निराला की कविताओं को प्रयोगों का एल्बम कहा जाता है।
9.निराला ने छंद ,प्रतीक, उपमान आदि सभी क्षेत्रों में प्रयोग किए ।
10.निराला ने अपनी प्रथम कविता जूही की कली में कविता को छन्दों के बंधन से मुक्त किया।
11.कुकुरमुत्ता कविता में इन्होंने कुकुरमुत्ता गुलाब जैसे नये प्रतीक प्रयुक्त की किए ।
12.राहों के अन्वेषक तार सप्तक कवि संबोधन ।
13.प्रयोगवाद का नामकरण कर्ता 
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी को माना जाता है ,जिन्होंने प्रयोगवादी रचनाऐं शीर्षक निबंध लिखा।

14.तार सप्तक की भूमिका में अज्ञेय नें लिखा है ,सातों कवि एक स्कूल के नहीं हैं,राहीं नहीं राहों के अन्वेषी हैं।
15. दूसरा सप्तक की भूमिका में अज्ञेय ने लिखा हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है ,जितना की हमें कविता वादी कहना ।
16.अज्ञेय के अनुसार प्रयोग अपने आप में ईस्ट नहीं है ,वह साधन है ।
अज्ञेय के संपादन में कुल 4तार सप्तक प्रकाशित हुए :-
प्रथम सप्तक 1943ईस्वी 
दूसरा सप्तक 1951 ईस्वी 
तीसरा सप्तक 1959 ईस्वी 
चौथा सप्तक 1979 ईस्वी 

1.प्रयोगवादी आंदोलन के प्रचार-प्रसार हेतु अज्ञेय ने 1946 ईस्वी में "प्रतीक "का प्रकाशन किया ।
2.प्रयोगवाद के विकसित रूप को 'नई कविता 'के नाम से जाना जाता है ।
3.प्रयोगवाद ने दूसरे सप्तक के प्रकाशन के बाद नई कविता का रूप धारण कर लिया ।
4.डॉ रामविलास शर्मा और नामवर सिंह ने नई कविता को प्रयोगवाद का छद्म रूप कहां ।
5.नई कविता के नामकरण का श्रेय अज्ञेय को जाता है ।
6.उन्होंने 1952 में आकाशवाणी पटना से प्रसारित एक रेडियो वार्ता में नई कविता नाम का प्रयोग किया ।
7.1954 में इलाहाबाद से जगदीशगुप्त व रामस्वरूप चतुर्वेदी के संपादन मे नई कविता पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ।
8. डॉ बच्चन सिंह ने नई कविता को प्रगतिवादी व प्रयोगवाद दो अति वादी छोरो को मिलाने वाली कविता कहा ।
9.नई कविता का आरंभ और नामकरण अंग्रेजी के न्यू पोएट्री काव्य आंदोलन की तर्ज पर हुआ।
10. लघु मानव की प्रतिष्ठा नई कविता की महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं।
 लघु मानव से तात्पर्य साधन हीन ,उपेक्षित साधारण व्यक्ति से हैं।
नई कविता का रूप स्पष्ट करने के लिए निम्न आलोचनात्मक कृतियों का प्रकाशन हुआ :-
नई कविता के प्रतिमान-- लेखक डॉक्टर लक्ष्मीकांत वर्मा
कविता के नए प्रतिमान --लेखक डॉक्टर नामवर सिंह 
नई कविता का आत्म संघर्ष --लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध 
नई कविता सीमाएं और संभावनाए --गिरिजाकुमार माथुर 
नई कविता के बहाने लघु मानव पर --विजयदेव नारायण साही ।
नया प्रतीक ,
नये पत्ते ,
क,ख,ग,
प्रतिमान आदि पत्र-पत्रिकाओं ने नई कविता को प्रोत्साहन प्रदान किया ।

नई कविता के कवियों ने रस सिद्धांत को चुनौती देकर रस के स्थान पर द्धन्द्ध, तनाव एवं बेचैनी को काव्य की आत्मा माना ।

नागरी प्रचारिणी सभा

Feeनागरी प्रचारिणी सभा

भूमिका
काशी नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना 16 जुलाई, 1893 ई. को श्यामसुंदर दास जी द्वारा हुई थी। यह वह समय था जब अँगरेजी, उर्दू और फारसी का बोलबाला था तथा हिंदी का प्रयोग करनेवाले बड़ी हेय दृष्टि से देखे जाते थे। नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना क्वीन्स कालेज, वाराणसी के नवीं कक्षा के तीन छात्रों - बाबू श्यामसुंदर दास, पं॰ रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह ने कालेज के छात्रावास के बरामदे में बैठकर की थी। 

स्थापना


बाद में 16 जुलाई 1893 को इसकी स्थापना की तिथि इन्हीं महानुभावों ने निर्धारित की ।

प्रथम अध्यक्ष

आधुनिक हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास इसके पहले अध्यक्ष हुए। काशी के सप्तसागर मुहल्ले के घुड़साल में इसकी बैठक होती थीं। बाद में इस संस्था का स्वतंत्र भवन बना।

प्रथम वर्ष में बने सदस्य


 पहले ही साल जो लोग इसके सदस्य बने उनमें महामहोपाध्याय पं॰ सुधाकर द्विवेदी, इब्राहिम जार्ज ग्रियर्सन, अंबिकादत्त व्यास, चौधरी प्रेमघन जैसे भारत ख्याति के विद्वान् थे।

नागरी प्रचारिणी सभा का उद्देश्य





तत्कालीन परिस्थितियों में सभा को अपनी उद्देश्यपूर्ति के लिए आरंभ से ही प्रतिकूलताओं के बीच अपना मार्ग निकालना पड़ा। किंतु तत्कालीन विद्वन्मंडल और जनसमाज की सहानुभूति तथा सक्रिय सहयोग सभा को आरंभ से ही मिलने लगा था, अतः अपनी स्थापना के अनंतर ही सभा ने बड़े ठोस और महत्वपूर्ण कार्य हाथ में लेना आरंभ कर दिया।

कार्य एवं उपलब्धियाँ



अपनी स्थापना के अनंतर ही सभा ने बड़े ठोस और महत्वपूर्ण कार्य हाथ में लेना आरंभ कर दिया। अपने जीवन के विगत वर्षों में सभा ने जो कुछ कार्य किया है उसका संक्षिप्त विवरण निम्नांकित है :

राजभाषा और राजलिपि



सभा की स्थापना के समय तक उत्तर प्रदेश के न्यायालयों में अंग्रेजी और उर्दू ही विहित थी। सभा के प्रयत्न से, जिसमें स्व. महामना पं॰ मदनमोहन मालवीय का विशेष योग रहा, सन् 1900 से उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रदेश) में नागरी के प्रयोग की आज्ञा हुई और सरकारी कर्मचारियों के लिए हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं का जानना अनिवार्य कर दिया गया।

आर्यभाषा पुस्तकालय



सभा का यह पुस्तकालय देश में हिंदी का सबसे बड़ा पुस्तकालय है। स्व. ठा. गदाधरसिंह ने अपना पुस्तकालय सभा को प्रदान किया और उसी से इसकी स्थापना सभा में सन् 1896 ई. में हुई। विशेषतः 19वीं शताब्दी के अंतिम तथा 20वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षो में हिंदी के जो महत्वपूर्ण ग्रंथ और पत्रपत्रिकाएँ छपी थीं उनके संग्रह में यह पुस्तकालय बेजोड़ है। इस समय तक लगभग 15,000 हस्तलिखित ग्रंथ भी इसके संग्रह में हो गए हैं। मुद्रित पुस्तकें डयूई की दशमलव पद्धति के अनुसार वर्गीकृत हैं। इसकी उपयोगिता एकमात्र इसी तथ्य से स्पष्ट है कि हिंदी में शोध करनेवाला कोई भी विद्यार्थी जब तक इस पुस्तकालय का आलोकन नहीं कर लेता तब तक उसका शोधकार्य पूरा नहीं होता। स्व. पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी, स्व. जगन्नाथदास रत्नाकर, स्व. पं॰ मयाशंकर याज्ञिक, स्व. डॉ॰ हीरानंद शास्त्री तथा स्व. पं॰ रामनारायण मिश्र ने अपने अपने संग्रह भी इस पुस्तकालय को दे दिए हैं जिससे इसकी उपादेयता और बढ़ गई हैं।

हस्तलिखित ग्रंथों की खोज



स्थापित होते ही सभा ने यह लक्ष्य किया कि प्राचीन विद्वानों के हस्तलेख नगरों और देहातों में लोगों के बेठनों में बँधे बँधे नष्ट हो रहे हैं। अतः सन् 1900 से सभा ने अन्वेषकों को गाँव-गाँव और नगर-नगर में घर-घर भेजकर इस बात का पता लगाना आरंभ किया कि किनके यहाँ कौन-कौन से ग्रंथ उपलब्ध हैं। उत्तर प्रदेश में तो यह कार्य अब तक बहुत विस्तृत और व्यापक रूप से हो रहा है। इसके अतिरिक्त पंजाब, दिल्ली, राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी यह कार्य हुआ है। इस खोज की त्रैवार्षिक रिपोर्ट भी सभा प्रकाशित करती है। सन् 1955 तक की खोज का संक्षिप्त विवरण भी दो भागों में सभा ने प्रकाशित किया है। इस योजना के परिणामस्वरूप ही हिंदी साहित्य का व्यवस्थित इतिहास तैयार हो सका है और अनेक अज्ञात लेखक तथा ज्ञात लेखकां की अनेक अज्ञात कृतियाँ प्रकाश में आई हैं।

प्रकाशन



उत्तमोत्तम ग्रंथों और पत्रपत्रिकाओं का प्रकाशन सभा के मूलभूत उद्देश्यों में रहा है। अब तक सभा द्वारा भिन्न-भिन्न विषयों के लगभग 500 ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। त्रैमासिक नागरीप्रचारिणी पत्रिका सभा का मुखपत्र तथा हिंदी की सुप्रसिद्ध शोधपत्रिका है। भारतीय इतिहास, संस्कृति और साहित्य विषयक शोधात्मक सामग्री इसमें छपती है और निर्व्यवधान प्रकाशित होती रहनेवाली पत्रिकाओं में यह सबसे पुरानी है। मासिक हिंदी, विधि पत्रिका और हिंदी रिव्यू (अंगरेजी) नामक पत्रिकाएँ भी सभा द्वारा निकाली गई थीं किंतु कालांतर में वे बंद हो गई। सभा के उल्लेखनीय प्रकाशनों में हिंदी शब्दसागर, हिंदी व्याकरण, वैज्ञानिक शब्दावली, सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, भिखारीदास, पद्माकर, जसवंसिंह, मतिराम आदि मुख्य मुख्य कवियों की ग्रंथावलियाँ, कचहरी-हिंदी-कोश, द्विवेदी अभिनंदनग्रंथ, संपूर्णानंद अभिनंदनग्रंथ, हिंदी साहित्य का इतिहास और हिंदी विश्वकोश आदि ग्रंथ मुख्य हैं।

हिन्दी विश्वकोश तथा हिन्दी शब्दसागर



उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त हिन्दी विश्वकोश का प्रणयन सभा ने केंद्रीय सरकार की वित्तीय सहायता से किया है। इसके बारह भाग प्रकाशित हुए हैं। हिंदी शब्दसागर का संशोधन-परिवर्धन केंद्रीय सरकार की सहायता से सभा ने किया है जो दस खंडों में प्रकाशित हुआ है। यह हिंदी का सर्वाधिक प्रामाणिक तथा विस्तृत कोश है। दो अन्य छोटे कोशों लघु शब्दसागर तथा लघुतर शब्दसागर का प्रणयन भी छात्रों की आवश्यकतापूर्ति के लिए सभा ने किया है। सभा देवनागरी लिपि में भारतीय भाषाओं के साहित्य का प्रकाशन और हिंदी का अन्य भारतीय भाषाओं की लिपियों में प्रकाशित करने के लिए योजनाबद्ध रूप से सक्रिय हैं। प्रेमचंद जी के जन्मस्थान लमही (वाराणसी) में उनका एक स्मारक भी बनवाया है।

पारिभाषिक शब्दावली



8 वर्ष के परिश्रम से काशी नागरी प्रचारणी सभा ने 1898 में पारिभाषिक शब्दावली प्रस्तुत की। हिंदी में पारिभाषिक शब्द निर्माण के इस सर्वप्रथम सर्वाधिक सुनियोजित, संस्थागत प्रयास में गुजराती, मराठी और बंगला में हुए इसी प्रकार के कार्यों का समुचित उपयोग किया गया। सभा का यह कार्य देश में सभी प्रचलित भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली और साहित्य के निर्माण की शृंखलाबद्ध प्रक्रिया का सूत्रपात करनेवाला सिद्ध हुआ।

मुद्रणालय



सन् 1953 से सभा अपना प्रकाशन कार्य समुचित रूप से चलाते रहने के उद्देश्य से अपना मुद्रणालय भी चला रही है। पुरस्कार पदक - विभिन्न विषयों के उत्तमोत्तम ग्रंथ अधिकाधिक संख्या में प्रकाशित होते रहें, इसे प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से सभा प्रति वर्ष कई पुरस्कार एवं स्वर्ण तथा रजत पदक ग्रंथकर्ताओं को दिया करती है जिनका हिंदीजगत् में अत्यंत समादर है।

 प्रवृत्तियाँ



अपनी समानधर्मा संस्थाओं से संबंधस्थापन

अहिंदीभाषी छात्रों को हिंदी पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति देना हिंदी की आशुलिपि (शार्टहैंड)

  टंकण (टाइप राइटिंग) की शिक्षा देना

लोकप्रिय विषयों पर समय-समय पर सुबोध व्याख्यानों का आयोजन करना

 प्राचीन और सामयिक विद्वानों के तैलचित्र सभाभवन में स्थापित करना 

आदि सभा की अन्य प्रवृत्तियाँ हैं।



सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका सरस्वती का श्रीगणेश और उसके संपादनादि की संपूर्ण व्यवस्था आरंभ में इस सभा ने ही की थी।


 अखिल भारतीय हिंदी साहित्य संमेलन का संगठन और सर्वप्रथम उसका आयोजन भी सभा ने ही किया था।


 इसी प्रकार, संप्रति हिंदू विश्वविद्यालय में स्थित भारत कला भवन नामक अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुरातत्व और चित्रसंग्रह का एक युग तो संरक्षण, पोषण और संवर्धन यह सभा ही करती रही।

 अंततः जब उसका स्वतंत्र विकास यहाँ अवरुद्ध होने लगा और विश्वविद्यालय में उसकी भविष्योन्नति की संभावना हुई तो सभा ने उसे विश्वविद्यालय को हस्तांतरित कर दिया।

स्वर्ण जयंती और हीरक जयंती

संवत् 2000 वि. में सभा ने महाराज विक्रमादित्य की द्विसहस्स्राब्दी तथा अपनी स्वर्णजयंतियाँ और जीवन के 60 वर्ष पूरे करने के उपलक्ष्य में सं. 2010 में अपनी हीरकजयंती के आयोजन बड़े समांरभपूर्वक किए। इन दोनों आयोजनों की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह रही की ये आयोजन उत्सव मात्र नहीं थे, प्रत्युत इन अवसरों पर सभा ने बड़े महत्वपूर्ण, ठोस तथा रचनात्मक कार्यों का समारंभ किया। उदाहरणार्थ, स्वर्णजयंती पर सभा ने अपना 50 वर्षों का विस्तृत इतिहास तथा नागरीप्रचारिणी पत्रिका का विक्रमांक (दो जिल्दों में) प्रकाशित किया। 50 वर्षों की खोज में ज्ञात सामग्री का विवरण एवं भारत कला भवन तथा आर्यभाषा पुस्तकालय में संगृहीत सामग्री की व्यवस्थित सूची प्रकाशित करने की भी उसकी योजना थीं, किन्तु ये कार्य खंडशः ही हो पाए। परिव्राजक स्वामी, सत्यदेव जी ने अपना आश्रम सत्यज्ञान निकेतन इसी अवसर पर देश के पश्चिमी भागों में प्रचार कार्य का केंद्र बनाने के निमित्त, सभा को दान कर दिया। इसी प्रकार हीरक जयंती पर सभा के 60 वर्षीय इतिहास के साथ हिंदी तथा अन्यान्य भारतीय भाषाओं के साहित्य का इन 60 वर्षों का इतिहास, नारीप्रचारिणी पत्रिका का विशेषांक, हिंदी शब्दसागर का संशोधन-परिवर्धन तथा आकर ग्रंथों की एक पुस्तकमाला प्रकाशित करने की सभा की योजना थी। यथोचित राजकीय सहयोग भी सभा को सुलभ हुआ, परिणामतः सभा ये कार्य सम्यक् रूप से करती रहती है।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

नाथ संप्रदाय

नाथ संप्रदाय का संक्षिप्त परिचय
नाथ संप्रदाय सिद्धू और संतों के बीच की एक कड़ी है।
नाथ लोग  बौद्धों की सहजयान शाखा से पल्लवित हुए हैं।
सिद्धों की वाममार्गी योग प्रधान योग साधना की प्रतिक्रिया के रूप में यह धर्म विकसित हुआ है।

राहुल सांकृत्यायन ने नाथ पंथ को सिद्धों की परंपरा का विकसित रूप माना है ।
यह पंथ का प्रवर्तन मछंदर नाथ तथा गोरखनाथ ने किया है 

12वीं से चौदहवी शताब्दी तक का काल नाथ पंथ के उत्कर्ष का काल कहा जाता है ।
जहां
 सिद्ध नारी योग में विश्वास करते थे ,वहां नाथपंथी ब्रम्हचर्य में विश्वास करने पर बल देते थे ।
नाथों की संख्या 9 है ।
गोरखनाथ ,गोपीचंद तथा भरथरी प्रसिद्ध नाथ योगी थे।

 सब दी 
पद प्राण संकली 
आत्मबोध 
महेंद्र गोरखनाथ बौद्ध 
गोरखनाथ की प्रसिद्ध रचनाएं हैं।

 नाथ योगियों ने पूजा पद्धति से संबंधित सभी प्रकार की रूढ़ियों तथा आडंबर का विरोध किया।

 गोरखनाथ ने अपनी कृति गोरख वाणी में ब्राह्मणों की उपेक्षा की है ।

उन्होंने वेद -पुराण ,मंदिर मस्जिद आदि को व्यर्थ माना है ।
निर्गुण निराकार ईश्वर की उपासना के पक्षधर थे ।
  नाथू न गुरु की महिमा को स्वीकारते हुए ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु को आवश्यक माना है।

 गोरख वाणी में गोरखनाथ जी कहते हैं-
नाथ निरंजन आरती गाउ।
गुरुदयाल आज्ञा जो पाऊं।।

नाथ साहित्य में कर्मों को ही प्रमुख माना गया है।
 उनका तो स्पष्ट कहना है कि पुनर्जन्म के कर्मों का फल मनुष्य को इस जन्म में भोगना पड़ता है ।
इसलिए मानव को यथासंभव सद कर्म ही करनी चाहिए।
 इसके साथ-साथ नाथपंथी सहज और सरल जीवन जीने में भी विश्वास करते हैं।

रविवार, 2 मई 2021

आचार्य रामचंद्र शुक्ल :एक विश्लेषण

 रामचंद्र शुक्ल
हिंदी भाषा के आधुनिक काल का जब भी जिक्र होगा तो कुछ महा पंडितो के नाम जरूर लिए जाएंगे।

 हिंदी साहित्य को परिभाषित करने के लिए जरूर लिए जाएंगे जिनके बिना हिंदी साहित्य अधूरा सा प्रतीत होता है।

 हिंदी साहित्य के महान उच्च कोटि के साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी में वैज्ञानिक दृष्टि के,समालोचना का प्रारंभ करने वाले ,अद्भुत सम आलोचक ,उच्च कोटी के निबंध कार, भावुक  कवि का जो स्थान हिंदी गद्य साहित्य में उन्हें प्राप्त है शायद किसी को प्राप्त हुआ होगा।आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के कार्य क्षेत्र
आचार्य रामचंद्रर शुक्लल
शुक्ल जी हिंदी साहित्य के इतिहास के बाद यद्यपि कई विद्वानों हिंदीका इतिहास लिखा किंतु उन्हें कोई भी चुनती में दे सका ।
एक और शुक्ल जी महान आलोचक के दूसरी ओर अत्यंत भावुक व संवेदनशील कवि ।
इन दोनों प्रतिभाओं का सामंजस्य से उनके व्यक्तित्व को परिपूर्ण बनाता है।
 यही कारण है कि गंभीर विश्व पर भी लिखे गए निबंध में समरता कई स्थानों पर आनंद के दर्शन करा देती है।

 वे बीच-बीच में रोचक प्रसंग ,मुहावरे अथवा लोकोक्तियों प्रयोग करके गंभीर विषय को भी सरल और रोचक बना देते थे ।
शुक्ल जी की निबंध में कहीं न कहीं रसगुल्ले का जिक्र जरुर आता था ऐसा लगता है जैसे शुक्ला जी को सफेद रसगुल्ले बहुत पसंद थे।
शुक्ला जी की भाषा हर प्रकार के भाव के प्रतिपादन में सक्षम दिखाई देती है ।ऐसा ही वे कितनी सूक्ष्म एंव जटिल हो।
 उनका शब्द प्रभाव अनुकूल एवं वाक्य विन्यास अत्यंत व्यवस्थित है ।
शुक्ल जी की विशेषता है कि उन्होंने  भाषा का आडंबर अपनी रचनाओं में कहीं नहीं किया है ।
इसलिए उनकी भाषाएं सरस ,सुंदर  और कहीं  भाव स्पष्ट तान विफलता दिखाई नहीं देती है।
 शुक्ल जी की रचनाओं में उनके विचार पूर्णता श्रंखलाबद्ध होने की वजह उतार-चढ़ाव के साथ भाषा भीदिखाई दी है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कृतित्व 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कृतित्व््व्व्््व््व्व््व््व्व््््व््व्व््व्व्््व््व्व््व््व
निष्कर्ष
 आचार्य रामचंद्र शुक्ल की उपलब्धियां अत्यंत सुंदर उनके विचार अनुकरणीय हिंदी साहित्य के लिए  वरदान साबित होगा।
 हिंदी साहित्य का यह मूल सितारा 1941 उनमें संसार से विदा हो गया ।अपनी कमाई उन्होंने साहित्य को जो प्रदान की है ।उसे हिंदी साहित्य जगत उन्हें कभी नहीं भूलेगा ,नाही कभी अनदेखी कर पाएगा ।यदि निबंध और आलोचना लिखे जाएंगे रामचंद्र शुक्ल की विद्वता को ही निश्चय ही आधार माना जाएगा। आधुनिक हिंदी साहित्य के जन्मदाता ,दिवेदी युग के संस्थापक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उनको साहित्य संस्कार दिया था। उन्होंने साहित्य की जिस विधान में भी कुछ भी लिखा है अत्यंत  सुंदर हे ै।हिंदी साहित्य जगत उन्हीं सदैव याद रखेगा ।उनका हिंदी साहित्य में योगदान अमूल्अविस्मरणीय व सराहनीय है।

आत्मविश्वास निबंध

आत्मविश्वास निबंध आत्मनिर्भरता
आत्मनिर्भरता
मनुष्य का जीवन संघर्ष का जीवन किंतु यदि संघर् से जूझते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है तो उसे स्वयं पर विश्वास करना होगा और विश्वास बनाए रखकर निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होना होगा।


आत्मनिर्भर होना किसी भी व्यक्ति की सफलता का सबसे बड़ा आधार है।
हाथ निर्भरता के विषय में विभिन्न विद्वानों ने अनेक उत्तर प्रदेश प्रस्तुत किए


जैसे रूसो प्रतिवादी शिक्षा विदित है उन्होंने कहा कि छोटे बच्चों के हाथ में पुस्तक नहीं देनी चाहिए बल्कि कागज और पेंसिल देकर उन्हें प्रकृति की गोद में छोड़ देना चाहिए।
तुलसीदास जी ने कहा है
पराधीन सपनेहु सुख नाही
वास्तव में स्वाबलंबन या आतम निर्भरता भी मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है यदि हम अपने चारों ओर की प्रकृति पर दृष्टिपात करें तो छोटे बड़े जीव जंतुओं को देखें वह भी सभी स्वतंत्रता प्रिय होने के साथ-साथ पूर्णता आत्मनिर्भर हैं।
पशु पक्षियों के नन्हे शिशु जन्म लेने के कुछ समय बाद ही आत्मनिर्भर हो जाते हैं जबकि मानव संतान अगर बस चले तो कभी भी आत्मनिर्भर ना बने आज के युवा वर्ग माता पिता पर आश्रित रहकर ही जीवन का आनंद उठाए जा रहे हैं मनुष्य की प्रकृति है कि वह सब कुछ प्राप्त करना चाहता है लेकिन हाथ पैर बिलारा नहीं चाहता यही भावना उसकी पराजय का सबसे बड़ा कारण है मानव जीवन में परतंत्रता सबसे बड़ा दुख है और सबसे बड़ा सुख स्वाबलंबी मनुष्य कभी परतंत्र नहीं हो सकते वे सदा स्वतंत्र रहकर आत्मनिर्भर बनने की लगातार कोशिश करते हैं।
हाथ निर्भरता से मनुष्य की प्रगति होती है वह उस वीरता का वर्णन करता है जो स्वयं पृथ्वी को धो कर पानी निकाल कर अपनी तृष्णा को शांत करने की क्षमता रखता है कायर भेरु विरुद्ध मी अनु उत्साह है कर्म अन्य लोग ऐसा कर पाने में असमर्थ रहती है 
आत्मविश्वास व्यक्ति 

गुरुवार, 18 मार्च 2021

पल्लवन शब्द का अर्थ बताते हुए उसकी परिभाषा एवं प्रक्रिया के नियमों का उल्लेख कीजिए।

पल्लवन का अर्थ व परिभाषा
प्रक्रिया व नियम
पल्लवन शब्द का शाब्दिक अर्थ विस्तार होता है यह शब्द अंग्रेजी के Expansion शब्द का हिंदी अनुवाद है पल्लवन संक्षेपण का विपरीतार्थक है
पल्लवन एक प्रकार की गद्य रचना है जिसमें किसी विचार या विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है।
किसी विद्वान मनीषी संत या महात्माओं द्वारा कही गई बात या विचार सूत्र का रूप धारण कर लेते हैं लेकिन आम आदमी उस सूत्र आत्मक वाक्य को समझ नहीं सकते हैं उन्हें समझाने के लिए विस्तृत व्याख्यात्मक प्रस्तुति की आवश्यकता होती है इस प्रकार की नीतियां सूत्र वाक्य कहावत और लोकोक्तियां में गंभीर विचार शामिल होते हैं उसी को विस्तृत रूप प्रदान करना ही पल्लवन कहलाता है।
पल्लवन संक्षेपण की भांति एक कला है।
पल्लवन में निपुणता प्राप्त करने के लिए प्रतिभा और निरंतर अभ्यास की नितांत आवश्यकता होती है।
परिभाषा
पल्लवन की कोई सर्वसामान्य परिभाषा उपलब्ध नहीं है इसका प्रमुख कारण यह है कि सर्जनात्मक गद्य रूप विषय में किसी शास्त्रीय या परंपरागत रूढ़ियों का कोई आग्रह नहीं मिलता है फिर भी अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी मत के अनुसार पल्लवन को परिभाषित करने की कोशिश की है।
डॉ रामप्रकाश" एक निश्चित विषय अथवा विवेचन बिंदु या काव्य से संबंध विचार एवं भाव को अपने ज्ञान सहानुभूति और कल्पना के के सहारे विस्तृत कर सू ललित प्रवाह मई उन्मुक्त शैली के माध्यम से गद्दे में अभिव्यक्त करना पल्लवन कहलाता है।"

डॉ नरेश मिश्र के अनुसार किसी भाव गुप्त सूत्र आत्मक वाक्य को साधारण व्यक्ति के लिए बोद्ध गम में बनाने हेतु किए जाने वाले विस्तार को ही पल्लवन कहते हैं।

इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि पल्लवन वह कला है जिसमें किसी सूत्र ,वाक्य खती कथन तथा मुहावरे आदि में निर्गुण विचारों को सरल सहज स्वाभाविक

बुधवार, 10 मार्च 2021

पृथ्वीराज रासो का संक्षिप्त परिचय व उसकी प्रमाणिकता वह प्रमाणिकता पर महत्वपूर्ण तथ्य

पृथ्वीराज रासो का संक्षिप्त परिचय
प्रमाणिकता व प्रमाणिकता पर महत्वपूर्ण तथ्य
पृथ्वीराज रासो आदिकालीन हिंदी साहित्य का एक गौरव ग्रंथ है इसे हिंदी साहित्य का प्रथम काव्य महाकाव्य भी कहा जाता है इसके चार रूपांतर भी प्राप्त हुए हैं
वृहत
मध्यम
लघु
अति लघु
#वृहत रूपांतर में 69 समय तथा 16360 छंद है यह राजस्थान के उदयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित है।
#मध्यम रूपांतर
मध्यम संस्करण में 1700 ईसवी के बाद पाया जाता है इसमें 7000 छंद है यह जैन ज्ञान भंडार बीकानेर में सुरक्षित है।
लघु संस्करण इसमें 33 00- 3500 छंद है यह पी शर्मा संपादित अनूप संस्कृत महाविद्यालय  के पुस्तकालय में
सुरक्षित है।
अति लघु संस्करण मैं तेरा स्वच्छंद है खोजकर्ता अगर चंद नाहटा तथा डॉ दशरथ शर्मा इसे प्रमाणिक भी मानते हैं।  


इसके रचियता कवि चंदबरदाई थे जो कथा नायक पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि उनके मित्र व प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं।

इस महाकाव्य में कवि ने पृथ्वीराज चौहान तथा संयोगिता की प्रेमकथा का वर्णन किया है साथ ही पृथ्वीराज पर मोहम्मद गौरी के आक्रमणों का भी वर्णन किया गया है।


भाव एवं भाषा दोनों दृष्टिकोण से यह एक उल्लेखनीय महाकाव्य है लेकिन इसकी प्रमाणिकता के बारे में अनेक विद्वानों ने संदेह व्यक्त किया है इस विषय पर बहुत सारे शोध नित्य प्रतिदिन हो रहे।
पृथ्वीराज रासो को अप्रमाणिक मानने वाले विद्वान तथा उनके विभिन्न तर्क
डॉ रामचंद्र शुक्ल
कविराज श्यामलदान
गौरी शंकर
हीराचंद ओझा
डॉक्टर बूलर
मुंशी देवी प्रसाद
विभिन्न तर्क
1.घटनाएं और नाम इतिहास सम्मत नहीं है परमार चालू कश्यप और चौहानों को अग्निवंशी कहा गया है जबकि वे सूर्यवंशी हैं।
2. पृथ्वीराज का तिल्ली गोद जाना और संयोगिता स्वयंवर ऐतिहासिक नहीं।
3. अंनगपाल पृथ्वीराज तथा बीसलदेव के राज्यों के संदर्भ अशुद्ध है।
4.पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज की मां का नाम कपूरी था जबकि रासो में उसे कमला बताया गया है 
5.पृथ्वीराज की बहन पृथा का विवाह मेवाड़ के राजा समर सिंह के साथ बताया जाना भी अशुद्ध है ।
6.पृथ्वीराज द्वारा गुजरात के राजा भीम सिंह का वध भी इतिहास सम्मत नहीं है ।
7.पृथ्वीराज के 14 विवाह भी इतिहास सम्मत नहीं लगते हैं ।
8.पृथ्वीराज के हाथों मोहम्मद गौरी और सोमेश्वर का वध भी इतिहास के विरुद्ध है ।
9.रासो की तिथियों में इतिहास की तिथियों से 90 या 100 वर्षों का अंतर दिखाई पड़ता है।
पृथ्वीराज रासो को प्रमाणिक मानने वाले विद्वान तथा प्रमाणिकता के पक्ष में विभिन्न तर्क
विद्वान 
डॉक्टर श्यामसुंदर दास 
मोहनलाल 
विष्णु लाल पांडा 
मिश्र बंधु 
कर्नल टॉड
प्रमाणिकता के पक्ष में विभिन्न तर्क
1. प्रक्षेपों का जुड़ा होना
2.समय का अंतर संवत भिन्नता के कारण मोहनलाल विष्णु लाल पंड्या ने आनंद संवत की कल्पना की है जिसके अनुसार तिथि या सभी शुद्ध हैं ।
3.डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार पृथ्वीराज रासो में 12 वीं शताब्दी की संयुक्त  भाषा के लक्षण मौजूद हैं ।

4.इतिहास ग्रंथ ना होकर काव्य ग्रंथ है ।
5.हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार रासो की मूल रचना शुक-शुकी संवाद के रूप में हुई है प्रक्षेपित अंशों में ऐसा नहीं है।
6. चंदबरदाई लाहौर निवासी था जहां अरबी ,फारसी का प्रभाव भी उस समय आ चुका था ।
7.मुनि जी ने विजय ने पुरातन प्रबंध संग्रह 1441 ईस्वी में दिए गए पृथ्वीराज प्रबंध की और विद्वानों का ध्यान खींचा जिससे पृथ्वीराज रासो के चार चंद उद्धृत हुए तथा तीन राशियों के वर्तमान संस्करण हमें भी मिल जाते हैं मुनि जी के अनुसार रासो 1290 विक्रम संवत की रचना है।
उम्मीद करती हूं आपको यह विषय अच्छे से समझ आ गया होगा।
धन्यवाद।