5955758281021487 Hindi sahitya : प्रेमचंद की प्रासंगिकता

बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

प्रेमचंद की प्रासंगिकता

वर्तमान समाज में प्रेमचंद की प्रासंगिकता

हिंदी साहित्य के इतिहास में मुंशी प्रेमचंद का स्थान सर्वोपरि है। उन्हें कथा-साहित्य का “सम्राट” कहा जाता है। प्रेमचंद केवल कहानीकार या उपन्यासकार नहीं थे, वे समाज के धड़कते हुए यथार्थ के चित्रकार थे। उन्होंने अपने समय की पीड़ा, शोषण, विषमता और अन्याय को शब्दों के माध्यम से ऐसा रूप दिया जो आज भी उतना ही सजीव और सत्य प्रतीत होता है। इसीलिए कहा जाता है — “प्रेमचंद केवल अपने युग के लेखक नहीं, बल्कि हर युग के लेखक हैं।”
उनकी रचनाएँ समय और समाज की सीमाओं से परे जाकर मानवीय संवेदनाओं और नैतिक मूल्यों की ऐसी व्याख्या करती हैं, जो हर काल में प्रासंगिक बनी रहती है।


1. प्रेमचंद का युग और रचनात्मक दृष्टि

प्रेमचंद का जन्म 1880 ई. में हुआ और उन्होंने भारत की गुलामी, सामंतवादी व्यवस्था, गरीबी, जातिवाद और औपनिवेशिक अन्याय का गहराई से अनुभव किया। उनका युग राजनीतिक उथल-पुथल और सामाजिक जागरण का था। उस समय साहित्य का केंद्र बिंदु व्यक्ति की पीड़ा और समाज की कुरीतियाँ थीं।
प्रेमचंद ने इस यथार्थ को अपने कथा-साहित्य में अत्यंत सजीव रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने किसानों, मजदूरों, स्त्रियों और निम्न वर्ग के जीवन को जिस सहानुभूति और करुणा के साथ उकेरा, वह हिंदी साहित्य में नया मोड़ था।


2. यथार्थवाद का सशक्त प्रवक्ता

प्रेमचंद हिंदी साहित्य में यथार्थवाद के संस्थापक माने जाते हैं। उन्होंने कहा था — “साहित्य समाज का दर्पण है।”
उनके उपन्यासों और कहानियों में जीवन का यथार्थ, उसकी कठोरता और संघर्ष स्पष्ट रूप से झलकता है। ‘गोदान’, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, ‘गबन’, ‘सेवासदन’ जैसे उपन्यास और ‘पूस की रात’, ‘कफन’, ‘नमक का दारोगा’ जैसी कहानियाँ समाज के उस वास्तविक स्वरूप को सामने लाती हैं, जो आज भी हमारे चारों ओर विद्यमान है।

आज भी किसान ऋण, महाजनी प्रथा, आर्थिक विषमता, स्त्री उत्पीड़न, और भ्रष्टाचार से जूझ रहा है। प्रेमचंद ने इन समस्याओं को न केवल अपने युग में उठाया, बल्कि उनके समाधान के लिए सामाजिक चेतना जगाने का प्रयास किया। इस दृष्टि से उनका यथार्थ आज भी अत्यंत प्रासंगिक है।


3. सामाजिक न्याय और समानता की चेतना

प्रेमचंद की रचनाओं का मुख्य उद्देश्य समाज में समानता, सहानुभूति और न्याय की स्थापना था। उन्होंने समाज में व्याप्त जाति-भेद, लिंग-भेद, आर्थिक असमानता और शोषण के खिलाफ कलम उठाई।
‘गोदान’ के होरी जैसे पात्र आज भी भारतीय किसान की दयनीय स्थिति का प्रतीक हैं। ‘सद्गति’ में उन्होंने दलितों के प्रति समाज की कठोरता को उजागर किया। ‘सेवासदन’ में स्त्री की गरिमा और अधिकार की चर्चा की।

21वीं सदी में जब हम सामाजिक समानता, लैंगिक न्याय और मानवाधिकारों की बात करते हैं, तब प्रेमचंद के विचार और उनकी रचनाएँ हमारे लिए प्रेरणास्रोत बनती हैं। वे हमें सिखाते हैं कि साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन का माध्यम है।


4. स्त्री विमर्श की दृष्टि से प्रासंगिकता

प्रेमचंद ने भारतीय स्त्री को केवल परिवार की परिधि में नहीं बाँधा, बल्कि उसे स्वाधीन और संवेदनशील व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। ‘निर्मला’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘घासवाली’ जैसी रचनाओं में उन्होंने स्त्री के आत्मसम्मान, अधिकार और सामाजिक स्थिति पर विचार किया।

आज जब ‘नारी सशक्तिकरण’ और ‘लैंगिक समानता’ के मुद्दे राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में हैं, तब प्रेमचंद की स्त्री-पात्राएँ— निर्मला, सोना, सुमन, और जालपा—हमारे लिए प्रेरणा हैं। वे संघर्ष करती हैं, समाज से सवाल करती हैं, और आत्मसम्मान के लिए जूझती हैं।

प्रेमचंद का यह दृष्टिकोण उन्हें आधुनिक नारी विमर्श के अग्रदूतों में स्थान देता है।

5. राजनीतिक चेतना और आज का समाज

प्रेमचंद ने अपने साहित्य में राजनीतिक चेतना को भी गहराई से व्यक्त किया। ‘रंगभूमि’ में औपनिवेशिक सत्ता के दमन के विरुद्ध भारतीय किसान का संघर्ष, ‘कर्मभूमि’ में गांधीवादी आदर्शों की झलक, और ‘गोदान’ में ग्रामीण भारत की सामाजिक-आर्थिक विसंगतियाँ— ये सब राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

आज जब राजनीति में नैतिकता का अभाव और सत्ता के प्रति अंधभक्ति बढ़ रही है, तब प्रेमचंद की रचनाएँ हमें सजग नागरिक बनने का संदेश देती हैं। वे हमें याद दिलाती हैं कि राजनीति जनता की सेवा का माध्यम होनी चाहिए, न कि शोषण का।


6. आर्थिक विषमता और पूंजीवादी व्यवस्था पर प्रहार

प्रेमचंद ने ‘गबन’ और ‘गोदान’ जैसे उपन्यासों में पूंजीवादी व्यवस्था की अमानवीयता और आर्थिक विषमता की समस्या को रेखांकित किया।
‘गबन’ के रमानाथ की भौतिक लालसा और ‘गोदान’ के होरी की गरीबी आज भी हमारे समाज में दिखती है।
आज के समय में जब अमीरी-गरीबी की खाई और गहरी हो रही है, तब प्रेमचंद की दृष्टि हमें संतुलित जीवन और नैतिक मूल्यों की ओर लौटने का आह्वान करती है।


7. नैतिकता और मानवीय मूल्यों की शिक्षा

प्रेमचंद के साहित्य का मूल केंद्र मानवता है। उन्होंने किसी भी विचारधारा या वर्ग विशेष के लिए नहीं लिखा, बल्कि मनुष्य को केंद्र में रखकर लिखा।
‘नमक का दारोगा’ की ईमानदारी, ‘ईदगाह’ की मासूमियत, ‘कफन’ की विडंबना— सब हमें यह सिखाती हैं कि नैतिक मूल्य ही समाज की वास्तविक पूंजी हैं।
आज के यांत्रिक और भौतिकवादी युग में जब इंसान भावनाओं से दूर होता जा रहा है, तब प्रेमचंद की रचनाएँ मानवता की लौ जलाए रखती हैं।



8. शिक्षा, ग्रामीण जीवन और राष्ट्रनिर्माण में योगदान

प्रेमचंद का मानना था कि शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्ति का साधन नहीं, बल्कि समाज सुधार का माध्यम है।
‘कर्मभूमि’ में उन्होंने शिक्षा को समाज परिवर्तन का औजार बताया। ग्रामीण जीवन उनके साहित्य का मूल विषय रहा — क्योंकि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है।

आज भी जब शिक्षा व्यवसाय बन गई है और गाँवों की समस्याएँ उपेक्षित हैं, तब प्रेमचंद की ग्रामीण चेतना और लोकजीवन का चित्रण हमें दिशा देता है कि विकास का वास्तविक अर्थ तभी संभव है जब वह समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे।


9. प्रेमचंद की भाषा, शैली और साहित्यिक आदर्श

प्रेमचंद की भाषा सहज, लोकानुभव से जुड़ी और जनसामान्य की थी। उन्होंने साहित्य को क्लिष्ट भाषा से मुक्त कर सरल हिंदी-उर्दू मिश्रित रूप में जनता के बीच पहुँचाया।
उनकी शैली में कथा, संवाद, व्यंग्य और भावनात्मकता का अनोखा संयोजन है।
आज जब साहित्य में जटिल भाषा और कृत्रिमता का प्रभाव बढ़ रहा है, तब प्रेमचंद की सादगी और स्पष्टता हमारे लिए अनुकरणीय है।


10. डिजिटल युग में प्रेमचंद की प्रासंगिकता

आज का समाज तकनीक, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और सोशल मीडिया से संचालित है। मनुष्य के बीच संवाद घटा है, संबंध कृत्रिम होते जा रहे हैं।
ऐसे समय में प्रेमचंद का साहित्य हमें आत्मीयता, संवेदनशीलता और मानवीयता की याद दिलाता है।
उनके पात्र हमें सिखाते हैं कि प्रगति केवल मशीनों से नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों से होती है।
डिजिटल युग के इस संक्रमणकाल में प्रेमचंद की कहानियाँ एक मानवीय स्पर्श का कार्य करती हैं।

11. निष्कर्ष : हर युग में जीवित लेखक

प्रेमचंद का साहित्य केवल अतीत का दस्तावेज़ नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशा है।
उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से यह सिद्ध किया कि साहित्य समाज को आईना दिखाने का कार्य करता है।
आज जब समाज में हिंसा, असमानता, और स्वार्थ बढ़ रहे हैं, तब प्रेमचंद का मानवीय दृष्टिकोण, नैतिक आदर्श और यथार्थवादी लेखन हमें चेतना, संवेदना और परिवर्तन का मार्ग दिखाते हैं।

इसलिए कहा जा सकता है —
“प्रेमचंद का साहित्य कालातीत है, क्योंकि उसमें मानवता की वह ज्योति जलती है जो हर युग में प्रकाश देती है।”

निष्कर्षतः, प्रेमचंद आज भी हमारे विचार, हमारी संवेदना, और हमारे समाज के लिए उतने ही प्रासंगिक हैं जितने वे सौ वर्ष पहले थे। उनके शब्द हमारे समय की सबसे बड़ी आवश्यकता हैं— सत्य, संवेदना और सामाजिक न्याय के लिए जागरूकता।

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