हिंदी की संस्कृति का केंद्र : बनारस
प्रस्तावना
भारत की सांस्कृतिक चेतना, परंपरा और भाषा की गंगा जिस नगर से होकर प्रवाहित होती है, वह है — बनारस। जिसे काशी, वाराणसी या अविमुक्त क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। यह केवल एक नगर नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का प्रतीक है। यहाँ धर्म, दर्शन, कला, संगीत, साहित्य और विशेष रूप से हिंदी भाषा और संस्कृति का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। इसी कारण बनारस को “हिंदी की संस्कृति का केंद्र” कहा जाता है।
बनारस का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिचय
बनारस विश्व के प्राचीनतम नगरों में से एक है। इसका उल्लेख वेदों, उपनिषदों और पुराणों में मिलता है। कहा गया है — “काश्यां तु मरणं मुक्ति:” — अर्थात् काशी में मृत्यु भी मोक्ष प्रदान करती है। यह नगर सदियों से ज्ञान, अध्यात्म और साहित्य का केंद्र रहा है। यहाँ के घाटों, मंदिरों और गलियों में भारत की संस्कृति का संगीत गूंजता है।
गंगा तट पर बसा यह नगर न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह भाषा, कला और संस्कृति का जीवंत विश्वविद्यालय भी है। यहाँ का हर कोना भारतीय परंपरा की गवाही देता है।
हिंदी साहित्य में बनारस का योगदान
हिंदी साहित्य का विकास जिन प्रमुख नगरों में हुआ, उनमें बनारस का स्थान सर्वोपरि है। यहाँ भक्ति युग से लेकर आधुनिक काल तक हिंदी साहित्य के अनेक महान कवि, लेखक और चिंतक पैदा हुए, जिन्होंने हिंदी को न केवल समृद्ध किया, बल्कि उसे भारतीय संस्कृति से जोड़ा।
1. भक्ति काल में योगदान:
काशी संत परंपरा का केंद्र रही है। कबीर, रैदास, तुलसीदास जैसे संत कवियों ने यहीं रहकर भक्ति का अद्भुत साहित्य रचा।
कबीरदास ने बनारस में जन्म लेकर समाज की रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाई और लोकभाषा में सत्य, प्रेम और समानता का संदेश दिया।
रैदास ने समानता और श्रम की गरिमा को रेखांकित किया।
गोस्वामी तुलसीदास ने यहीं रामचरितमानस जैसी अमर कृति की रचना की, जिसने हिंदी को भारतीय संस्कृति का वाहक बना दिया।
2. रीति और आधुनिक काल में योगदान:
बनारस में संस्कृत और हिंदी का अद्भुत सह-अस्तित्व रहा। 19वीं–20वीं शताब्दी में बनारस हिंदी पत्रकारिता, कथा, नाटक और आलोचना का भी केंद्र बना।
भारतेंदु हरिश्चंद्र (जिन्हें हिंदी का आधुनिक युग प्रवर्तक कहा जाता है) का जन्म भी यहीं हुआ। उन्होंने न केवल साहित्य, बल्कि राष्ट्रभक्ति और नवजागरण को अपनी रचनाओं के माध्यम से स्वर दिया।
जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत और रामधारी सिंह दिनकर जैसे कवियों ने बनारस में रहकर हिंदी को नई दिशा दी।
प्रसाद की कामायनी जैसी रचनाएँ आज भी बनारसी संस्कृति के गूढ़ दर्शन और सौंदर्य का उदाहरण हैं।
भाषाई और सांस्कृतिक विशेषताएँ
बनारस की भाषा में वह मिठास और लय है जो हिंदी की आत्मा बन गई है। पूर्वी हिंदी की उपभाषा अवधी और भोजपुरी यहाँ आपस में घुल-मिलकर एक सांस्कृतिक सेतु का निर्माण करती हैं। यही कारण है कि बनारस की बोली में लोकगीत, कहावतें और मुहावरे आज भी जीवंत हैं।
यहाँ का लोक जीवन, वेशभूषा, संगीत, नृत्य, लोककला और त्योहार हिंदी संस्कृति के रंगों से रँगे हैं। बनारसी ठाठ, बनारसी साड़ी, बनारसी पान और बनारसी बोलचाल — सब हिंदी संस्कृति के प्रतीक हैं।
हिंदी पत्रकारिता का केंद्र : बनारस
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब हिंदी पत्रकारिता का आरंभ हुआ, तब उसका प्रमुख केंद्र भी बनारस ही था।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने “कवि वचन सुधा”, “हरिश्चंद्र चंद्रिका” जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से हिंदी को आधुनिक स्वर दिया।
आगे चलकर आचार्य शुक्ल और प्रसाद जैसे लेखकों ने आलोचना और गद्य लेखन को नए आयाम दिए।
बनारस के प्रेसों और पत्रिकाओं ने हिंदी भाषा को पूरे उत्तर भारत में फैलाने में अहम भूमिका निभाई।
बनारस और भारतीय दर्शन
बनारस केवल साहित्य का नहीं, बल्कि दर्शन का भी केंद्र रहा है। यहाँ काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) की स्थापना पंडित मदन मोहन मालवीय ने की, जिसने हिंदी को शिक्षा और अनुसंधान का विषय बनाया।
यह विश्वविद्यालय और शहर मिलकर संस्कृत, हिंदी और भारतीय दर्शन की त्रिवेणी बनाते हैं। बनारस की गलियाँ जैसे आध्यात्मिकता का विद्यालय हैं, वैसे ही यहाँ की भाषा में दर्शन का भाव भी विद्यमान है।
लोकसंस्कृति और लोककला में बनारस
बनारस की लोकसंस्कृति हिंदी संस्कृति का जीवंत रूप है। यहाँ का लोकगीत, लोककथा, नौटंकी, रामलीला, कजरी, चैता आदि लोककलाएँ हिंदी समाज की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।
विशेष रूप से रामनगर की रामलीला विश्वविख्यात है, जो परंपरा, आस्था और नाट्यकला का संगम है। यह परंपरा रामचरितमानस से जुड़ी है, और इस प्रकार हिंदी की धार्मिक-सांस्कृतिक परंपरा को आज तक जीवित रखे हुए है।
बनारस और आधुनिक हिंदी चेतना
आधुनिक हिंदी साहित्य में बनारस केवल अतीत का गौरव नहीं, बल्कि समकालीन सृजनशीलता का भी केंद्र है। यहाँ के कवि और लेखक आज भी सामाजिक परिवर्तन, राजनीतिक चेतना और सांस्कृतिक पुनर्जागरण पर लिख रहे हैं।
कवि काशीनाथ सिंह, धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव, नामवर सिंह आदि ने बनारस की धरती से हिंदी को नई दिशा दी। काशीनाथ सिंह की रचनाओं में बनारस की गंगा-जमुनी संस्कृति और आम जन का जीवन साकार रूप में दिखता है।
बनारस का वैश्विक सांस्कृतिक प्रभाव
बनारस आज विश्व मंच पर भी भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। यहाँ आने वाला हर विदेशी यात्री भारत की आत्मा को महसूस करता है। गंगा किनारे होने वाले आरती, संगीत, योग, शिल्प और भाषा की ध्वनियाँ विश्व मानवता के लिए शांति का संदेश बनकर गूंजती हैं।
हिंदी का प्रचार भी यहाँ से विदेशों तक हुआ है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में विदेशों से आने वाले छात्र हिंदी सीखते हैं और अपने देशों में इसकी संस्कृति का प्रचार करते हैं।
हिंदी संस्कृति के केंद्र के रूप में बनारस का महत्व
बनारस को हिंदी की संस्कृति का केंद्र कहे जाने के पीछे निम्न कारण हैं:
1. यहाँ हिंदी के महान कवियों और लेखकों की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है।
2. यहाँ भक्ति, ज्ञान, दर्शन, और कला का संगम हुआ है।
3. बनारस ने हिंदी भाषा को लोक से जोड़ने और राष्ट्रीयता का माध्यम बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई।
4. यहाँ के विश्वविद्यालय, प्रेस और संस्थाएँ हिंदी के शोध, प्रकाशन और प्रचार का आधार हैं।
5. यहाँ की लोकसंस्कृति, परंपरा और बोली हिंदी की जीवंत आत्मा को प्रकट करती है।
निष्कर्ष
बनारस केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि हिंदी संस्कृति का हृदयस्थल है। यह वह भूमि है जहाँ धर्म और साहित्य, कला और दर्शन, लोक और शास्त्र — सभी एक साथ प्रवाहित होते हैं। हिंदी का विकास, उसका स्वरूप, उसका भाव और उसकी आत्मा — सब कुछ बनारस से गहराई से जुड़ा है।
वास्तव में कहा जा सकता है —
> “यदि हिंदी भारत की आत्मा है, तो बनारस उसकी धड़कन है।”
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