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बुधवार, 10 सितंबर 2025

प्रेमचंद युगीन कथा साहित्य

प्रेमचंद युगीन कथा साहित्य
प्रस्तावना
हिंदी कथा साहित्य का इतिहास भारतीय समाज, संस्कृति और समय की धड़कनों से गहराई से जुड़ा हुआ है। विशेषकर बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हिंदी कहानी और उपन्यास ने जिस यथार्थपरक, जनोन्मुख और समाजधर्मी स्वरूप को धारण किया, उसका सर्वाधिक श्रेय मुंशी प्रेमचंद और उनके युगीन रचनाकारों को जाता है। प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से भारतीय ग्रामीण जीवन, शोषण, गरीबी, जातिगत विषमता, स्त्री की दयनीय दशा, किसान और मजदूर की व्यथा, सामाजिक विषमता और राजनीतिक चेतना को स्वर दिया। इसलिए 1918 से 1936 (प्रेमचंद के जीवनकाल तक) का कालखंड ‘प्रेमचंद युगीन कथा साहित्य’ के नाम से विख्यात हुआ।


कथा साहित्य की पृष्ठभूमि

प्रेमचंद युगीन कथा साहित्य को समझने के लिए उस समय की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की ओर देखना आवश्यक है—

1. स्वतंत्रता संग्राम की चेतना : बीसवीं सदी के प्रारंभ में भारतीय समाज स्वतंत्रता आंदोलन की लहर में डूबा था। राष्ट्रीयता, त्याग और बलिदान की भावना उभर रही थी।

2. औपनिवेशिक शोषण : अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों से किसान और मजदूर वर्ग बदहाल थे। लगान, कर्ज, महाजन और जमींदारी शोषण से समाज त्रस्त था।

3. सामाजिक सुधार आंदोलन : स्त्री शिक्षा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, जातिवाद और अस्पृश्यता के विरुद्ध सुधारवादी विचार फैल रहे थे।

4. नवजागरण का प्रभाव : हिंदी साहित्य में यथार्थवादी दृष्टि, वैज्ञानिक चेतना और प्रगतिशील सोच का विकास हो रहा था।


इन परिस्थितियों ने कथा साहित्य को सामाजिक यथार्थ से जोड़ने का मार्ग प्रशस्त किया, और प्रेमचंद इसके प्रमुख शिल्पी बने।

प्रेमचंद युग की कथा परंपरा

प्रेमचंद से पूर्व हिंदी कथा साहित्य (विशेषतः उपन्यास और कहानी) रोमांटिक, कल्पनाश्रित और मनोरंजन प्रधान था। देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता या लाला श्रीनिवास दास की परीक्षा गुरु में सामाजिक यथार्थ की अपेक्षा रोमांच और शिक्षाप्रद प्रवृत्ति अधिक थी।
प्रेमचंद ने इस धारा को बदलते हुए कथा साहित्य को जीवन की जमीन से जोड़ा। उन्होंने साहित्य को ‘समाज का दर्पण’ माना और कथा साहित्य को आमजन की वेदना व संघर्ष का दस्तावेज़ बना दिया।

प्रेमचंद का कथा साहित्य

प्रेमचंद की कथा यात्रा को तीन रूपों में देखा जा सकता है—

(क) उपन्यास

प्रेमचंद के उपन्यास हिंदी साहित्य की धरोहर हैं। उनके उपन्यासों में किसानों की दुर्दशा, स्त्रियों का शोषण, दलित पीड़ा, मध्यवर्ग की विडंबना, राष्ट्रीयता और सामाजिक सुधार के स्वर स्पष्ट मिलते हैं।

सेवासदन (1919) : स्त्री-जीवन की त्रासदी और वेश्यावृत्ति की समस्या।

प्रेमाश्रम (1922) : किसान समस्या और वर्ग संघर्ष।

निर्मला (1927) : दहेज प्रथा और स्त्री शोषण।

गोदान (1936) : किसानों का महाकाव्य, जिसमें होरी और धनिया भारतीय ग्रामीण जीवन के प्रतीक बनते हैं।

रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प, गबन आदि उपन्यासों में भी राष्ट्रीयता, शोषण और सामाजिक यथार्थ अंकित है।

(ख) कहानियाँ

प्रेमचंद हिंदी कहानी के पथ-प्रदर्शक माने जाते हैं।

प्रारंभिक कहानियों (जैसे सप्तसरोज, नवनीत) में नैतिकता और आदर्शवाद झलकता है।

बाद की कहानियों (जैसे पूस की रात, कफन, ठाकुर का कुआँ, ईदगाह, नशा, बड़े घर की बेटी) में ग्रामीण जीवन, शोषण और मानवता की गहरी संवेदना प्रकट होती है।

उन्होंने कहानी को केवल मनोरंजन से निकालकर समाज की समस्याओं का दर्पण बना दिया।

(ग) प्रेमचंद की कथा दृष्टि

1. यथार्थवादी चित्रण

2. किसानों, मजदूरों और शोषित वर्ग की पीड़ा

3. स्त्री चेतना और दहेज-प्रथा की आलोचना

4. राष्ट्रीय चेतना और स्वतंत्रता आंदोलन का प्रभाव

5. नैतिकता, मानवता और सामाजिक न्याय की खोज


अन्य रचनाकार और प्रेमचंद युगीन कथा साहित्य

प्रेमचंद के समय में और भी कथा साहित्यकार सक्रिय थे, जिन्होंने यथार्थवादी दृष्टि से समाज को चित्रित किया—

जयशंकर प्रसाद : यद्यपि वे अधिकतर नाटककार और कवि रहे, किंतु उनकी कहानियों (आकाशदीप, इंद्रजाल) में मानवीय संवेदना स्पष्ट है।

उदयनारायण तिवारी, यशपाल : यशपाल ने बाद में प्रगतिवादी धारा को मजबूत किया।

प्रेमचंदोत्तर कथाकार : जैसे अज्ञेय, भगवतीचरण वर्मा आदि ने यथार्थ और प्रयोगशीलता दोनों को आगे बढ़ाया।


विशेषताएँ

प्रेमचंद युगीन कथा साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं—

1. यथार्थवाद का उदय : किसानों, मजदूरों और स्त्रियों का यथार्थ चित्रण।


2. सामाजिक सरोकार : साहित्य समाज की समस्याओं से सीधा जुड़ा।


3. मानवता का स्वर : जाति, धर्म, वर्ग से ऊपर उठकर मनुष्य को केंद्र में रखा गया।


4. राष्ट्रीय चेतना : स्वतंत्रता संग्राम की गूंज साहित्य में स्पष्ट है।


5. भाषा की सरलता : खड़ी बोली हिंदी का सहज, संवादात्मक रूप।


6. चरित्र-चित्रण की सजीवता : पात्र जीवन्त और वास्तविक लगते हैं।


सीमाएँ

प्रेमचंद युगीन कथा साहित्य की कुछ सीमाएँ भी रही—

कभी-कभी अत्यधिक आदर्शवाद।

स्त्री पात्रों के चित्रण में कहीं-कहीं दयनीयता की अधिकता।

साहित्य में मनोरंजन का पक्ष अपेक्षाकृत कम।
प्रभाव और महत्व

1. प्रेमचंद ने कथा साहित्य को भारतीय समाज की आत्मा से जोड़ा।


2. उन्होंने किसानों और मजदूरों को पहली बार साहित्य का नायक बनाया।


3. हिंदी कथा साहित्य को विश्व साहित्य में यथार्थवादी परंपरा से जोड़ा।


4. उनके प्रभाव से प्रगतिवादी और यथार्थवादी धारा का जन्म हुआ।


5. आज भी हिंदी कथा साहित्य की धारा प्रेमचंद की नींव पर टिकी है।


उपसंहार

प्रेमचंद युगीन कथा साहित्य हिंदी साहित्य का वह अध्याय है जिसने साहित्य को जीवन का आईना बना दिया। प्रेमचंद और उनके समकालीन लेखकों ने यह सिद्ध कर दिया कि साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज का मार्गदर्शन भी है। आज जब हम प्रेमचंद की कहानियों या उपन्यासों को पढ़ते हैं तो लगता है मानो यह हमारे ही समय का जीवंत दस्तावेज हो। किसानों का शोषण, स्त्रियों की पीड़ा, जातिगत विषमता, आर्थिक संघर्ष—ये सब समस्याएँ आज भी समाज में मौजूद हैं। इस दृष्टि से प्रेमचंद युगीन कथा साहित्य न केवल ऐतिहासिक महत्त्व रखता है, बल्कि आज भी हमारी चेतना को झकझोरता है।

बुधवार, 27 अगस्त 2025

प्रेमचंद का जीवन परिचय , युगीन परिवेश व परिस्थितियों

 प्रेमचंद का जीवन-परिचय, उनकी युगीन परिस्थितियाँ, साहित्यिक योगदान तथा उनके समय के उपन्यासकारों और प्रमुख उपन्यासों का विवेचन कीजिए।

भूमिका :

प्रेमचंद हिंदी साहित्य के वह युग-पुरुष हैं जिन्होंने उपन्यास और कहानी को केवल मनोरंजन का साधन न बनाकर सामाजिक यथार्थ और सुधार का उपकरण बनाया। वे अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के सच्चे द्रष्टा और यथार्थवादी कलाकार थे। उनके साहित्य में किसान, मज़दूर, स्त्री, दलित और शोषित वर्ग की पीड़ा गहराई से झलकती है। अतः प्रेमचंद और उनके समकालीन उपन्यासकारों का विवेचन हिंदी साहित्य के विकास के लिए आवश्यक है।

1. प्रेमचंद का जीवन-परिचय :

प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 ई. को वाराणसी जिले के लमही गाँव में हुआ। उनका वास्तविक नाम धनपत राय था, परंतु साहित्य में वे ‘प्रेमचंद’ के नाम से विख्यात हुए।
बचपन में ही माता-पिता का निधन हो गया।
आर्थिक अभावों में पढ़ाई की और शिक्षक की नौकरी की।
उन्होंने उर्दू से साहित्यिक जीवन शुरू किया और बाद में हिंदी को अपनी रचना भाषा बनाया।
‘सोज़-ए-वतन’ (1907) उनकी पहली कहानी-संग्रह थी, जो अंग्रेज़ सरकार द्वारा जब्त कर ली गई।
जीवन के अंतिम दिनों में वे "हंस" पत्रिका का संपादन कर रहे थे।
8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हुआ।

2. प्रेमचंद की युगीन परिस्थितियाँ :

प्रेमचंद का साहित्य उनकी युगीन परिस्थिति का दर्पण है। उनका समय उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों का था। यह समय भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संघर्ष का काल था।

1. राजनीतिक परिस्थिति :

अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद अपने चरम पर था।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन धीरे-धीरे परिपक्व हो रहा था।

गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन, सत्याग्रह और स्वदेशी की भावना प्रबल हो रही थी।

इस राजनीतिक पृष्ठभूमि का प्रभाव प्रेमचंद के उपन्यास ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’ और अनेक कहानियों पर देखा जा सकता है।

2. सामाजिक परिस्थिति :

समाज में अस्पृश्यता, जातिगत ऊँच-नीच, स्त्रियों की दयनीय दशा और अशिक्षा जैसी समस्याएँ व्याप्त थीं।

स्त्रियों की शिक्षा, विधवा-विवाह, वेश्यावृत्ति और दहेज जैसी समस्याओं को प्रेमचंद ने प्रत्यक्ष रूप से उठाया।

‘सेवासदन’ वेश्यावृत्ति पर और ‘नमक का दरोगा’ भ्रष्टाचार-विरोध पर केंद्रित है।

3. आर्थिक परिस्थिति :

किसानों पर जमींदारी और महाजनी शोषण का गहरा संकट था।

अकाल, भूख और निर्धनता आम जनजीवन की त्रासदी थी।

‘गोदान’ जैसे उपन्यास में प्रेमचंद ने इन आर्थिक विसंगतियों को वास्तविक रूप में चित्रित किया।

4. सांस्कृतिक परिस्थिति :

पश्चिमी शिक्षा और आधुनिकता का प्रभाव बढ़ रहा था।

साहित्य और पत्रकारिता समाज सुधार के साधन बन रहे थे।

इस प्रकार प्रेमचंद का साहित्य उनके समय की समूची परिस्थिति का यथार्थ चित्रण करता है।

3. प्रेमचंद का साहित्यिक योगदान :

1. उपन्यासों में योगदान :

सेवासदन (1919) – स्त्री-जीवन और वेश्यावृत्ति की समस्या।

प्रेमाश्रम (1922) – किसान और जमींदारी समस्या।

रंगभूमि (1925) – शोषण के विरुद्ध सूरदास का संघर्ष।

कर्मभूमि (1932) – राष्ट्रीय आंदोलन और सत्याग्रह।

गोदान (1936) – किसान जीवन का यथार्थ चित्रण।

2. कहानियों में योगदान :
प्रेमचंद ने 300 से ज्यादा कहानी लिखी जो मानसरोवर के आठ भागों में प्रकाशित हैं। उनकी प्रसिद्ध कहानी-
पंच परमेश्वर, ईदगाह, बड़े घर की बेटी, कफन आदि कहानियों में गाँव का जीवन, मानवीय संबंध और करुणा का मार्मिक चित्रण मिलता है।

3. विशेषताएँ :

साहित्य को समाज का दर्पण बनाया।

किसानों, मजदूरों और दलितों को पहली बार साहित्य का नायक बनाया।

भाषा सरल, बोलचाल की और प्रभावशाली।

कथानक में यथार्थवाद, आदर्शवाद और मानवीय संवेदना का अद्भुत संतुलन।

4. प्रेमचंद के समय के उपन्यासकार और प्रमुख उपन्यास :

प्रेमचंद के युग में अन्य उपन्यासकारों ने भी अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।

1. चतुरसेन शास्त्री – वैशाली की नगरवधू, सोमनाथ।

2. जयशंकर प्रसाद – कंकाल, तितली।

3. भगवतीचरण वर्मा – चित्रलेखा।

4. यशपाल – दादा कामरेड, देशद्रोही।

5. इलाचंद्र जोशी – जहाज का पछी,देवयानी।

6. वृंदावनलाल वर्मा – गढ़कुंडार, मृणालिनी।

इन सभी उपन्यासकारों ने ऐतिहासिक, दार्शनिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक धरातलों पर उपन्यास विधा को विस्तार दिया।
5.प्रेमचंद का हिंदी उपन्यास पर प्रभाव :

प्रेमचंद ने उपन्यास को नई दिशा दी। उनसे पहले हिंदी उपन्यासों में मनोरंजन या रोमांटिकता का पुट अधिक था, किंतु प्रेमचंद ने सामाजिक समस्याओं को केंद्र में रखकर उपन्यास को गंभीरता और उद्देश्य प्रदान किया। उनके प्रभाव से बाद के उपन्यासकारों ने भी यथार्थवाद, सामाजिक संघर्ष और जनजीवन के प्रश्नों को उठाया।


निष्कर्ष :

प्रेमचंद का जीवन और साहित्य उनकी युगीन परिस्थितियों का सच्चा प्रतिबिंब है। उन्होंने किसान, मजदूर, स्त्री और दलितों की पीड़ा को स्वर दिया और साहित्य को समाज परिवर्तन का औज़ार बनाया। उनके समय के अन्य उपन्यासकारों ने भी विभिन्न आयामों को लेकर हिंदी उपन्यास को समृद्ध किया। किंतु हिंदी उपन्यास की वास्तविक रीढ़ प्रेमचंद ही बने। इसलिए उन्हें उचित ही ‘उपन्यास सम्राट’ कहा जाता है। उनका साहित्य आज भी समाज को मार्गदर्शन देने वाला दीपस्तंभ है।


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