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रविवार, 12 अप्रैल 2020

मैत्रेई पुष्पा का साहित्यिक परिचय

मैत्री पुष्पा का साहित्यिक परिचय-अपने लेखन के माध्यम से स्त्री विमर्श को नया आयाम देने वाली लेखिका मैत्रेई पुष्पा का जन्म 30 नवंबर सन 1944 ईस्वी में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के शुरू करा गांव में हुआ। लंका आरंभिक जीवन गांव में ही बेटा उन्होंने अपने कॉलेज की शिक्षा बुंदेलखंड कॉलेज झांसी से एम ए हिंदी साहित्य में किया। ग्रामीण जीवन में समय बिताने के कारण उनकी कहानी और उपन्यास और भी ग्रामीण अनुभव को देखा जा सकता है प्रेमचंद के बाद स्त्री पात्रों मैत्रयी पुष्पा के ही पात्र गांव से लिए गए हैं जीवन के सातवें दशक को पार करने की दहलीज पर खड़ी मैत्रिणी पुष्पा जी अब भी रचनात्मक लेखन में सक्रिय हैं।
रचनाएं-
1. उपन्यास-बेतवा बहती रही, इदन्नमम, झूला नर ,अल्मा कबूतरी ,आंगन पाखी, विजन ,कहे ईश्वरी फाग और त्रिया हठ।
2 कहानी संग्रह-ललमनिया ,गोपा हंसती है ,10 प्रतिनिधि कहानियां ,पियरी का सपना,
3. आत्मकथा -कस्तूरी कुंडल बसे ,गुड़िया भीतर गुड़िया।
4.कथा रिपोर्ताज- फाइटर की डायरी।
5.स्त्री विमर्श- खुली खिड़कियां ,सुनो मालिक सुनो ,चर्चा हमार।
6.पहली फिल्म बसुमति की चिट्ठी 
7.धारावाहिक- कस्तूरी कुंडल बसे
सम्मान एवं पुरस्कार
1.प्रेमचंद सम्मान 1994 ,बेतवा बहती रही 1995
2. साहित्यकार सम्मान 1998
 3.सार्क लिटरेरी अवॉर्ड 2001 
4.मंगला प्रसाद पारितोषिक 2006 
5.सुधा साहित्य सम्मान 2009
साहित्यिक विशेषताएं-मैत्रेई पुष्पा का हिंदी लेखन प्रमुख रूप से स्त्री विमर्श लेखन है उन्होंने स्त्री विमर्श को एक नया आयाम प्रदान किया है उनकी स्त्री पात्र सिर्फ बंदिनी मुख छवि को तोड़कर विद्रोह का स्वर प्रदान करती हैं उनकी नायिकाओं का विद्रोह जयशंकर प्रसाद या जैनेंद्र की स्त्री पात्रों की तरह ना होकर भारतीय मूल्यों व परंपराओं की रक्षा के साथ-साथ हाथ में दमन व हाथ में खुलकर रहने वाली ना होकर के पुरुष के समक्ष प्रमाणित और खड़ी होती नजर आई हैं मैत्रिणी पुष्पा जी की कहानियों में समकालीन था दिखाई देती है वह नारी सशक्तिकरण की अवधारणा को साथ लेती हुई उनके शिक्षा और रोजगार को लेकर चिंतित दिखाई देती हैं।
भाषा शैली -पुष्पा जी की भाषा जनसाधारण की भाषा खड़ी बोली में है उनकी भाषा शैली में पात्रा अनुकूल प्रसंग अनुकूल व देश काल और वातावरण के अनुरूप है उनकी भाषा में अधिकांश अभिधा शब्द शक्ति व दश्य बिंबों का प्रयोग दिखाई देता है उनकी कहानी और उपन्यास में वर्णनात्मक ,संवाद ,भावात्मक विश्लेषणात्मक आदि शैलियां दिखाई देती हैं।

शीर्षक लेखन उद्देश्य एवं महत्व

शीर्षक लेखन उद्देश्य व महत्व
   शीर्षक के समाचार का दर्पण होता है ।शीर्षक समाचार का सार होता है ।मानव शरीर में जो स्थान सिर सिर का होता है ।वही समाचार में शीर्षक का होता है शीर्षक समाचार का प्राण और सार का विज्ञापन है। समाचारों के शीर्षक से यह बोध होता है कि समाचार पत्र की विचारधारा नीति और परंपरा किस प्रकार की है शीर्षक समाचार पत्र की मनो भावना का स्पष्ट प्रतिबिंब होता है।

परिभाषा -समाचारों अथवा लेखों के ऊपर लिखे जाने वाली संक्षिप्त परिचय देने वाली पंक्ति को मां शीर्षक तथा सिर्फ पंक्ति को ही शीर्षक कहा जाता है।
शीर्षक लेखन के उद्देश्य एवं महत्व।
1. इसमें एक दृष्टि में समाचार का मूल भाव प्रकट हो जाता है।
2. प्राय समाचार के महत्वपूर्ण अंश शीर्षक में होते हैं।
3. समाचार का दर्पण शीर्षक होता है।
4. पाठक इससे अपनी रुचि के समाचार चयन में सुविधा का अनुभव करता है।
 5. शीर्षक के समाचार पत्र की पृष्ठ सजाने में सहयोग करता है।
6. शीर्षक ग्राहकों को समाचार पत्र खरीदने के लिए प्रेरित करते हैं।
7. शीर्षक समाचार का सार होता है।
8.विभिन्न प्रकार की पाइपों से सजे शीर्षक समाचार पत्र के श्रृंगार होते हैं।
9.शीर्षक किसी समाचार पत्र के राजनीतिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक विचारों के परिचायक होते हैं।
10. शीर्षक सीधे सपाट तो होते ही हैं किसी भी चटपटे और सनसनीखेज समाचार को प्रस्तुत करने वाले तीखे भी हो सकते हैं।
शीर्षक लेखन के समय ध्यान देने योग्य बातें-
1.शीर्षक समाचार की राजनीतिक सामाजिक व्यवसायिक नीतियों पर निष्पक्ष होना जरूरी है।
2.शीर्षक लिखते समय इस बात की पूरी जानकारी रखनी चाहिए कि आपके टाइप किस प्रकार का है।
3.ड शीर्षक दो पंक्तियों से अधिक का नहीं होना चाहिए।
4. शीर्षक अर्थ अभिव्यक्ति में समर्थ होना चाहिए।
5. शीर्षक रोचक अर्थ पूर्ण व आकर्षक होना जरूरी है।
6.शीर्षक कभी भी अश्लील अमर्यादित तथा अभद्र नहीं होना चाहिए।
7. शीर्षक में शब्दों की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

Bhasha vigyan भाषा विज्ञान

भाषा विज्ञान
हिंदी वर्णमाला- स्वर एवं व्यंजन

भाषा की सबसे छोटी इकाई ध्वनि होती है। इसी ध्वनि को ही वर्ण कहा जाता है। वर्णों को व्यवस्थित करने वाले समूह को वर्णमाला कहते हैं। 

स्वर-
जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता हो और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों, जिन वर्णों का उच्चारण करते समय प्राणवायु कंठ, तालु आदि स्थानों से बिना रुके हुए निकलती है, उन्हें 'स्वर' कहा जाता है। ये संख्या में ग्यारह हैं- 

स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ। 

अनुस्वार- अं
विसर्ग-अ:

उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए हैं- 

1. ह्रस्व स्वर। 
2. दीर्घ स्वर। 
3. प्लुत स्वर। 

1. ह्रस्व स्वर- 
जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। 
ये हिंदी में चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। 
इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं। 

2. दीर्घ स्वर- 
जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। 
ये हिन्दी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। 

नोट- दीर्घ स्वरों को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए। यहां दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है। 

3. प्लुत स्वर-
जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं । 

मात्राएँ 

स्वरों के बदले हुए स्वरूप को मात्रा कहते हैं स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं- 

स्वर मात्राएँ 

शब्द   - अ × - हम 
आ  - ा - काम 
इ  -  ि - कितना
ई -  ी - खीर 
उ -  ु - गुलाब 
ऊ ू - भूल 
ऋ ृ - मृग
ए े - केश 
ऐ ै - हैरान 
ओ ो - चोर 
औ ौ - औरत

व्यंजन
जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं। अर्थात व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। ये संख्या में 33 हैं। इसके निम्नलिखित तीन भेद हैं- 

1. स्पर्श व्यंजन 
2. अंतःस्थ व्यंजन
3. ऊष्म व्यंजन

1 स्पर्श व्यंजन-
जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय हवा फेफड़ों से निकलते हुए ,मुख के किसी स्थान विशेष भाग जैसे कंठ ,तालु ,मूर्धा आदि को स्पर्श करते हुए निकले ,उच्चारण के आधार पर उन ध्वनियों को स्पर्श व्यंजन कहते हैं।

इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है। 
"क" से लेकर "म" तक के व्यंजन स्पर्श व्यंजन की श्रेणी में आते हैं, इसके 5 प्रकार हैं- 

कंण्ठय-  
कंठ से उच्चरित होने वाले व्यंजनों को कंण्ठय व्यंजन कहा जाता है। जैसे-
"क" वर्ग के व्यंजन क, ख, ग, घ, ङ

तालव्य- 
तालव्य व्यंजन तालु की सहायता से बोले जाने वाले व्यंजनों को कहा जाता है। जैसे-
 "च" वर्ग के व्यंजन च, छ, ज, झ, ञ

मूर्धन्य व्यंजन- 
मूर्धा के स्पर्श करने से उच्चारित होने वाले व्यंजनों को मूर्धन्य व्यंजन कहा जाता है। जैसे-
 "ट" वर्ग के व्यंजन ट, ठ, ड, ढ, ण, 
    ड़, ढ़

दन्त्य व्यंजन-  
दाँतों की सहायता से उच्चारित होने वाले व्यंजनों को दन्त्य व्यंजन कहा जाता है। जैसे- 
"द" वर्ग के व्यंजन- त, थ, द, ध, न

ओष्ठय व्यंजन-  
होठों की सहायता से उच्चारित होने वाले व्यंजनों को ओष्ठय व्यंजन कहा जाता है। जैसे- 
"प" वर्ग के व्यंजन- प, फ, ब, भ, म

अंतःस्थ व्यंजन- 
अन्त:करण से उच्चारित होने वाले व्यंजनों को अन्त:स्थ व्यंजन कहा जाता है। 
 जैसे- य, र, ल, व

ऊष्म व्यंजन- 
इन वर्णों के उच्चारण में मुख से विशेष प्रकार की गर्म (ऊष्मा) वायु निकलती है, इसलिए इन्हें ऊष्म व्यंजन कहते है ।
जैसे- श, ष, स, ह

संयुक्त व्यंजन- 
जो व्यंजन 2 या 2 से अधिक व्यंजनों  के मिलने से बनते हैं उन्हें संयुक्त व्यंजन कहा जाता है। संयुक्त व्यंजन में जो पहला व्यंजन होता है वो हमेशा स्वर रहित होता है और इसके विपरीत दूसरा  व्यंजन हमेशा स्वर सहित होता है।
जैसे-  क्ष, त्र, ज्ञ, श्र

राम काव्य परंपरा व राम काव्य की प्रमुख प्रवृतियां

रामकाव्य परम्परा एवं प्रवृतियाँ-

 रामकाव्य का आधार संस्कृत राम-काव्य तथा नाटक रहे । इनमें बाल्मीकि- रामायण, अध्यात्म-रामायण, रघुवंश, उत्तररामचरित, हनुमन्नाटक, प्रसन्नराघव नाटक, बाल रामायण,विष्णु-पुराण, श्रीमद्भागवत, भगवद्गीता आदि उल्लेख्य हैं ।  ।इस काव्य परम्परा के सर्वश्रेष्ठ कवि महाकवि तुलसीदास हैं किंतु हिंदी में सर्वप्रथम रामकथा लिखने का श्रेय विष्णुदास को है ; इस काव्य धारा के कवियों और उनकी रचनाओं का उल्लेख नीचे दिया गया है : -

विष्णुदास : 1.रुक्मिणी मंगल 2. स्नेह लीला

ईश्वरदास : 1.भरतमिलाप 2. अंगदपैज

तुलसीदास : 
इनके कुल 13 ग्रंथ मिलते हैं :-
1. दोहावली 2. कवितावली 3. गीतावली 4.कृष्ण गीतावली 5. विनय पत्रिका 6. राम लला नहछू 7.वैराग्य-संदीपनी 8.बरवै रामायण 9. पार्वती मंगल 10. जानकी मंगल 11.हनुमान बाहुक 12. रामाज्ञा प्रश्न 13. रामचरितमानस

नाभादास : 
1. रामाष्टयाम 2. भक्तमाल 3. रामचरित संग्रह

अग्रदास :
1.अष्टयाम 2. रामध्यान मंजरी 3.हितोपदेश या उपाख्यान बावनी

प्राणचंद चौहान :
1. रामायण महानाटक

ह्रदयराम :
1.हनुमन्नाटक 2. सुदामा चरित 3. रुक्मिणी मंगल ।

इस काव्य परम्परा के सर्वश्रेष्ठ कवि महाकवि तुलसीदास की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय :

दोहावली : इसमें नीति, भक्ति, राम-महिमा तथा नाम-माहात्म्य विषयक 573 दोहे हैं ।

कवितावली : इस रचना में कवित्त, सवैया,छप्पय आदि छंदों में रामायण की कथा सात कांडों में कही गई है, पर यह सर्वत्र क्रमबद्ध नहीं है, अत: संग्रह- रामकथा ठहरती है ।

गीतावली : 
गीतावली में रामकथा को गीतिशैली में कहा गया है । इसमें सात कांड तथा 328 पद हैं ।

कृष्ण-गीतावली : 
इसमें कृष्ण महिमा की कथा 61 पदों में है । ब्रजभाषा में कृष्ण-लीला का सुंदर गान किया गया है । कृष्ण की बाल्य-अवस्था एवं गोपी-उद्धव संवाद के प्रसंग कवित्व की दृष्टि से उत्तम बन पड़े हैं ।

विनय पत्रिका : 
तुलसी के साहित्य में रामचरितमानस के उपरान्त विनय-पत्रिका का स्थान है । यह पत्रिका रूप में प्रस्तुत की गई है । इसमें राम के सम्मुख हनुमान के मुख से विनय के पद हैं । कवि के भक्ति, ज्ञान, वैराग्य तथा संसार की असारता आदि से संबंधित उद्गार अत्यन्त मार्मिक हैं । यह रचना ब्रज भाषा में है । इसमें कवि का पांडित्य, वाक्-चातुर्य तथा उक्ति-वैचित्र्य सभी कुछ देखने को मिलता है ।

रामलला नहछू : 
यह राम जनेऊ (यज्ञोपवीत ) के अवसर को ध्यान में रखकर लिखा गया है । इसमें कुल 20 छंद हैं ।

वैराग्य-संदीपनी :
 इसमें संत महिमा का वर्णन है । यह कवि की प्रारम्भिक रचना प्रतीत होती है, जिसमें उनका झुकाव संत मत की ओर था । 62 छंदों में राम-महीमा, ज्ञान-वैराग्य तथा संत स्वभाव आदि की चर्चा है ।

बरवै रामायण :
 इसमें 69 बरवै छंदों में रामकथा का वर्णन है ।

पार्वती मंगल : 
इसमें 164 छंदों में शिव पार्वती के विवाह का वर्णन है ।

जानकी-मंगल : 
इसमें 216 छंदों में राम का विवाह वर्णन है ।

हनुमान-बाहुक : 
हनुमान बाहुक में हनुमान की स्तुति से संबंधित पद्यों का संग्रह है । इसकी रचना कवि ने अपनी पीड़ाग्रस्त बाहु की स्वस्थता की कामना से की है ।

रामाज्ञा प्रश्न :
 इसमें सात सर्ग हैं । प्रत्येक सर्ग में सात-सात दोहों के सात सप्तक हैं । कुल मिलाकर इसमें 343 दोहे हैं । इसमें राम-कथा के बहाने शुभ-अशुभ शकुनों का विचार किया गया है ।

रामचरितमानस : 
यह रामकथा सात खंड में विभाजित है 
 यह भक्तिकाल का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ और महाकाव्य है ।
रामकाव्य की प्रमुख प्रवृतियाँ-

1 राम का स्वरूप : 
रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में श्री रामानंद के अनुयायी सभी रामभक्त कवि विष्णु के अवतार दशरथ-पुत्र राम के उपासक हैं । अवतारवाद में विश्वास है । उनके राम परब्रह्म स्वरूप हैं । उनमें शील, शक्ति और सौंदर्य का समन्वय है । सौंदर्य में वे त्रिभुवन को लजावन हारे हैं । शक्ति से वे दुष्टों का दमन और भक्तों की रक्षा करते हैं तथा गुणों से संसार को आचार की शिक्षा देते हैं । वे मर्यादापुरुषोत्तम और लोकरक्षक हैं ।

2 भक्ति का स्वरूप : 
इनकी भक्ति में सेवक-सेव्य भाव है । वे दास्य भाव से राम की आराधना करते हैं । वे स्वयं को क्षुद्रातिक्षुद्र तथा भगवान को महान बतलाते हैं । तुलसीदास ने लिखा है : सेवक-सेव्य भाव बिन भव न तरिय उरगारि । राम-काव्य में ज्ञान, कर्म और भक्ति की पृथक-पृथक महत्ता स्पष्ट करते हुए भक्ति को उत्कृष्ट बताया गया है । तुलसी दास ने भक्ति और ज्ञान में अभेद माना है : भगतहिं ज्ञानहिं नहिं कुछ भेदा । यद्यपि वे ज्ञान को कठिन मार्ग तथा भक्ति को सरल और सहज मार्ग स्वीकार करते हैं । इसके अतिरिक्त तुलसी की भक्ति का रूप वैधी रहा है ,वह वेदशास्त्र की मर्यादा के अनुकूल है ।

3 लोक-मंगल की भावना : 
रामभक्ति साहित्य में राम के लोक-रक्षक रूप की स्थापना हुई है । तुलसी के राम मर्यादापुरुषोत्तम तथा आदर्शों के संस्थापक हैं । इस काव्य धारा में आदर्श पात्रों की सर्जना हुई है । राम आदर्श पुत्र और आदर्श राजा हैं, सीता आदर्श पत्नी हैं तो भरत और लक्ष्मण आदर्श भाई हैं । कौशल्या आदर्श माता है, हनुमान आदर्श सेवक हैं । इस प्रकार रामचरितमानस में तुलसी ने आदर्श गृहस्थ, आदर्श समाज और आदर्श राज्य की कल्पना की है । आदर्श की प्रतिष्ठा से ही तुलसी लोकनायक कवि बन गए हैं और उनका काव्य लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत है ।

4 समन्वय भावना : 
तुलसी का मानस समन्वय की विराट चेष्टा है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में - उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है । लोक और शास्त्र का समन्वय, गार्हस्थ्य और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृत का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय रामचरितमानस में शुरु से आखिर तक समन्वय का काव्य है । हम कह सकते हैं कि तुलसी आदि रामभक्त कवियों ने समाज, भक्ति और साहित्य सभी क्षेत्रों में समन्वयवाद का प्रचार किया है ।

राम भक्त कवियों की भारतीय संस्कृति में पूर्ण आस्था रही । पौराणिकता इनका आधार है और वर्णाश्रम व्यवस्था के पोषक हैं ।

लोकहित के साथ-साथ इनकी भक्ति स्वांत: सुखाय थी ।

सामाजिक तत्व की प्रधानता रही ।

5 काव्य  मौलिकता : 
"उनकी भाषा में भी एक समन्वय की चेष्टा है। तुलसीदास की भाषा जितनी ही लौकिक है, उतनी ही शास्त्रीय। तुलसीदास के पहले किसी ने इतनी परिमार्जित भाषा का उपयोग नहीं किया था। काव्योपयोगी भाषा लिखने में तुलसीदास कमाल करते हैं। उनकी ‘विनय पत्रिका’ में भाषा का जैसा जोरदार प्रवाह है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। जहाँ भाषा साधारण और लौकिक होती है वहाँ तुलसीदास की उक्तियाँ तीर की तरह चुभ जाती है और जहाँ शास्त्रीय और गंभीर होती हैं वहाँ पाठक का मन चील की तरह मंडरा कर प्रतिपाद्य सिद्धांत को ग्रहण कर उड़ जाता है।" (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी)। 

संत कवियों की साखियों और पदों, जायसी के ‘पद्मावत’, सूरदास के सरस पदों के संग्रह ‘सूरसागर’ और गोस्वामी तुलसीदास की अन्यतम कृति ‘रामचरितमानस’ हिंदी साहित्य को भक्ति काल की महान देन हैं। इस काव्य ने ज्ञान और भक्ति के संदेश द्वारा मध्यकाल में सामाजिक मनोबल का निर्माण करके भारतीय अस्मिता को नवीन परिभाषा से महिमा मंडित किया। मनुष्य और मनुष्य की समानता, ईश्वर की सर्वापरिता, पाखंड के खंडन, आध्यात्मिक प्रेम में संपूर्ण समर्पण भाव, मानवतावाद, पारिवारिक और सामाजिक आदर्शों की स्थापना, लोक मर्यादा की स्थापना, मनुष्य की रागात्मक वृत्ति के परिष्कार और विभिन्न काव्यविधाओं और काव्यभाषा के निरंतर विकास की दृष्टि से भक्ति काल की उपलब्धियाँ अनेकविध और बहुआयामी हैं। इसे उचित ही ‘हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग’ माना गया है।

5 काव्य शैलियाँ : 
रामकाव्य में काव्य की प्राय: सभी शैलियाँ दृष्टिगोचर होती हैं । तुलसीदास ने अपने युग की प्राय: सभी काव्य-शैलियों को अपनाया है । वीरगाथाकाल की छप्पय पद्धति, विद्यापति और सूर की गीतिपद्धति, गंग आदि भाट कवियों की कवित्त-सवैया पद्धति, जायसी की दोहा पद्धति, सभी का सफलतापूर्वक प्रयोग इनकी रचनाओं में मिलता है । रामायण महानाटक ( प्राणचंद चौहान) और हनुमननाटक (ह्दयराम) में संवाद पद्धति और केशव की रामचंद्रिका में रीति-पद्धति का अनुसरण है ।

6 रस : 
रामकाव्य में नव रसों का प्रयोग है । राम का जीवन इतना विस्तृत व विविध है कि उसमें प्राय: सभी रसों की अभिव्यक्ति सहज ही हो जाती है । तुलसी के मानस एवं केशव की रामचंद्रिका में सभी रस देखे जा सकते हैं । रामभक्ति के रसिक संप्रदाय के काव्य में श्रृंगार रस को प्रमुखता मिली है । मुख्य रस यद्यपि शांत रस ही रहा ।

7 भाषा : 
रामकाव्य में मुख्यत: अवधी भाषा प्रयुक्त हुई है । किंतु ब्रजभाषा भी इस काव्य का श्रृंगार बनी है । इन दोनों भाषाओं के प्रवाह में अन्य भाषाओं के भी शब्द आ गए हैं । बुंदेली, भोजपुरी, फारसी तथा अरबी शब्दों के प्रयोग यत्र-तत्र मिलते हैं । रामचरितमानस की अवधी प्रेमकाव्य की अवधी भाषा की अपेक्षा अधिक साहित्यिक है ।

8 छंद :
 रामकाव्य की रचना अधिकतर दोहा-चौपाई में हुई है । दोहा चौपाई प्रबंधात्मक काव्यों के लिए उत्कृष्ट छंद हैं । इसके अतिरिक्त कुण्डलिया, छप्पय, कवित्त , सोरठा , तोमर ,त्रिभंगी आदि छंदों का प्रयोग हुआ है ।

9 अलंकार :
 रामभक्त कवि विद्वान पंडित हैं । इन्होंने अलंकारों की उपेक्षा नहीं की । तुलसी के काव्य में अलंकारों का सहज और स्वाभाविक प्रयोग मिलता है । उत्प्रेक्षा, रूपक और उपमा का प्रयोग मानस में अधिक है ।

भक्ति काल को स्वर्ण युग क्यों कहा गया है

भक्ति काल को स्वर्ण युग क्यों कहा गया है।
भक्तिकाल- 
*हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग *

हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग ‘भक्तिकाल’ का समय संवत् 1375 से 1700 संवत् तक माना जाता है । भक्तिकाल हिंदी साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण काल है जिसे ‘स्वर्णयुग’ विशेषण से विभूषित किया जाता है ।राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अंतर्विरोधों से परिपूर्ण होते हुए भी इस काल में भक्ति की ऐसी धारा प्रवाहित हुयी कि विद्वानों ने एकमत से इसे  हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल कहा ।

भक्तिकाल ही स्वर्ण युग क्यों?

1 आत्मचेतना के प्रेरक कवियों और समाज सुधारकों का उदय-
 इसे स्वर्णकाल या स्वर्ण युग कहने का बहुत बड़ा अर्थ और अभिप्राय है। इस काल में ही शताब्दियों से चली आती हुई दासता को तोड़ने के लिए आत्मचेतना के प्रेरक कवियों और समाज सुधारकों का उदय हुआ। रामानंद, बल्लभाचार्य, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, दादूदयाल, रैदास, रसखान, रहीम आदि ने देशभक्ति की लहरों को जगाते हुए मानवतावाद का दिव्य सन्देश दिया। 

2 राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक जागृति:
इस काल में ही राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक जागृति की अभूतपूर्व आँधी आयी। उसने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ना व उनको झुकाना शुरू कर दिया। समग्र राष्ट्र का स्वतंत्र रूप सामने आने लगा। एक प्रकार से वैचारिक क्रान्ति की ध्वनि गूँजित होने लगी और समाज स्वावलम्बन की दिशा में आगे बढ़ने लगे।

3 धर्म, जात-पात के भेदों से अलग मानवतावादी कवियों का काव्य:

भक्तिकाल में धार्मिक भावनाओं से उत्प्रेरित विभिन्न मतवादी काव्य साधनाओं को जन्म हुआ। इस प्रकार मतवादों का प्रवाह दक्षिण भारत में आलवार भक्तों के द्वारा प्रवाहित हुआ था। आलवारों के बाद दक्षिण में आचार्यों की परम्परा में विशिष्टाद्वैव, अद्वैत, द्वैत और अद्वैताद्वैत वाद का प्रतिपादन हुआ। विशिष्टाद्वैत के प्रतिपादक रामानुजाचार्य हुए। रामानुजाचार्य की ही परम्परा में रामानन्द जी हुए थे। रामानन्द की लम्बी शिष्य श्रृंखला थी। उसमें कबीरदास जुलाहा, भवानन्द ब्राहमण, पीपा राजपूत धन्ना जाट, सेना नाई, रैदास चमार तथा सदना कसाई थे। इस प्रकार रामानन्द ने जात पात के भेदों को दूर करके मानवतावाद के स्थापना की थी। रामानन्द के शिष्यों में कबीर सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय हुए थे। 

4 सगुण एवं निर्गुण  दोनों भक्ति भावनाओं का विकास-
भक्तिकाल मे भक्ति भावना निर्गुण अैर सगुण दोनों ही रूपों में प्रस्फुटित हुई थी । इस काल मे सगुण एवं निर्गुण दोनों भक्ति भावनाओं का विकास साथ साथ निर्विरोध चलता रहा। निर्गुण धारा में कबीर, रैदास, दादूदयाल, पीपा, धन्ना आदि प्रवाहित हुए थे। तुलसीदास व सूरदास मीरा आदि कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सगुण मत का प्रचार प्रसार से सगुण भक्ति को पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया था ।
 

5 गुरू महिमा- भक्तिकाल में सबसे सगुण और निर्गुण दोनों ही मतों के सभी कवियों ने अधिक गुरू महत्व पर प्रकाश डाला गया है। कबीरदास में अपनी साखी रचना में कहा है-

गुरू गोबिन्द दोऊ, खड़े, काके लागो पाय।
बलिहारी गुरू आपने, गोबिन्द दियो बताय।।
इसी तरह तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई जायसी आदि ने गुरू महत्व को बतलाया है।

6. इष्टदेव का महत्व- 
भक्तिकाल के सभी कवियों ने अपने अपने इष्टदेव के महत्व को अंकित किया है। तुलसीदास ने अपनी महाकाव्य कृति रामचरितमानस में स्पष्ट लिखा है-
रामहिं केवल मोहिं पियारा। 
जान लेहु जो जाननिहारा।

7 अपार भक्तिधारा- 
भक्ति का आग्रह या भक्ति की अपार धारा इस काल में कहीं भी देखी जा सकती है। इसकी प्रधानता के कारण ही इस काल का नाम भक्तिकाल रखना सर्वथा उचित और न्यायसंगत लगता है।

8. सत्संगति का महत्व का उल्लेख- सज्जनों की प्रशंसा और दुर्जनों की निन्दा करके समाज में इसकी आवश्यकता पर बल दिया-

कबीरा संगति साधु की, हरै और व्याधि।
संगति बुरी असाधु, की बढ़ै कोटि अपराधि।।

9 आडम्बरों का खण्डन विरोध- भक्तिकाल में सभी प्रकार के आडम्बरों का खंडन करते हुए मानवतावाद की स्थापना की गयी। कबीरदास ने मूर्ति पूजा के विरोध में कहा-
कंकर पत्थर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता मुल्ला चढ़ि बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।

10 सर्व साधारण हित एवं उत्थान का काव्य:
भक्तिकाल का काव्य सर्व साधारण हित एवं उत्थान का काव्य है एक दूसरा तथ्य यह भी है कि भक्ति काल में सबको समानता का दर्जा देते हुए, प्रत्येक व्यक्ति विशेष के लिए मंदिर के द्वार खोल दिए गए थे। प्राचीन काल में जबकि यह प्रथा थी कि निम्न जाति के लोगों का मंदिर में प्रवेश वर्जित था। ऐसी स्थिति में जब भक्ति के द्वार सब के लिए खोल दिए गए, तो सब तरफ़ एक समानता का माहौल बनना लाजमी था और ऐसी स्थिति में भक्ति काल को स्वर्ण युग कहा जाना ही उचित है ।

11: ब्रज एवम अवधी भाषा का चर्मोत्कर्ष:

भक्तिकाल की रचनाओं में ब्रज एवम अवधी भाषा का चर्मोत्कर्ष देखने को मिलता है कृष्ण भक्त कवियों मुख्यतः सूरदास ने ब्रज भाषा को व तुलसीदास ने अवधी भाषा को उसके चर्मोत्कर्ष तक पहुँचाने का सराहनीय कार्य किया है ।

12 काव्य के आवश्यक अंगों का सुंदर प्रयोग:  
इस काल की रचनाओं में काव्य के आवश्यक अंगों जैसे रस, छंद, अलंकार, बिम्ब प्रतीक, योजना, रूपक, भाव आदि का सुन्दर चित्रण हुआ है। इस प्रकार से भक्तिकाल का महत्व साहित्य और भक्ति भावना दोनों ही दृष्टियों से बहुत अधिक है । 

13 सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना का उद्धबोधन:-
इस काल सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना को अपेक्षित दिशाबोध प्राप्त हुआ। 
इसी कारण इस काल को स्वर्ण युग कहा जाता है।

कृष्ण काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियां

कृष्ण काव्य की प्रमुख प्रवृतियां
कृष्णभक्ति काव्य परम्परा-

 इस काव्य परम्परा की प्रवृत्तियाँ इस प्रकार से हैं :-

1 विषय-वस्तु की मौलिकता :
 हिंदी साहित्य में कृष्ण काव्य की सृष्टि से पूर्व संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य में कृष्ण भक्ति की पर्याप्त रचनाएँ मिलती हैं । यद्यपि इस सारे कृष्णकाव्य का आधारग्रंथ श्रीमद भागवत है, परंतु उसे मात्र भागवत का अनुवाद नहीं कहा जा सकता । कृष्ण चरित्र के वर्णन में इस धारा के कवियों ने मौलिकता का परिचय दिया है । भागवत में कृष्ण के लोकरक्षक रूप पर अधिक बल दिया है, जबकि भक्त कवियों ने उसके लोक रंजक रूप को ही अधिक उभारा है । इसके अतिरिक्त भागवत में राधा का उल्लेख नहीं है, जबकि इस साहित्य में राधा की कल्पना करके प्रणय में अलौकिक भव्यता का संचार हुआ है । विद्यापति और जयदेव का आधार लेते हुए भी इन कवियों के प्रणय-प्रसंग में स्थूलता का सर्वथा अभाव है । अपने युग और परिस्थितियों के अनुसार कई नए प्रसंगों की उद्भावना हुई है ।

2 कृष्ण का ब्रह्म रूप में चित्रण:
कृष्ण काव्य परम्परा के कवियों ने अपने काव्य में अनेक प्रसंगों में कृष्ण के ब्रह्म रूप को चित्रित किया है ।

3 कृष्ण की बाल लीलाओं का गान:
श्रीकृष्ण-साहित्य का मुख्य विषय कृष्ण की लीलाओं का गान करना है। वल्लभाचार्य के सिद्धांतो से प्रभावित होकर इस शाखा के कवियों ने कृष्ण की बाल-लीलाओं का ही अधिक वर्ण किया है। सूरदास इसमें प्रमुख है।

4 सगुण भक्ति पर बल :
कृष्णभक्त कवियों ने ब्रह्म के साकार और सगुण रूप को ही भक्ति का आधार माना है, कृष्ण-काव्य के माध्यम से उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप का खंडन कर सगुण की प्रतिष्ठा की है । सब विधि अगम विचारहिं, तातें सूर सगुन लीला पद गावै ।

5 भक्ति-भावना : 
वात्सल्य, सख्य, माधुर्य एवं दास्य भाव की भक्ति का प्राधान्य इस काव्य में मिलता है । वात्सल्य भाव के अंतर्गत कृष्ण की बाल-लीलाओं, चेष्टाओं एवं मां यशोदा के ह्रदय की सुंदर झांकी मिलती है । सख्य भाव के अंतर्गत कृष्ण और ग्वालों की जीवन संबंधी सरस लीलाएँ हैं और माधुर्य भाव के अंतर्गत गोपी-लीला प्रमुख है । इन कवियों ने दास्यभाव के विनय पद भी लिखे हैं ; किंतु अधिकतर सख्य अथवा कांताभाव को ही अपनाया है । कांताभाव में परकीया प्रेम को अधिक महत्व दिया है । इसके अलावा नवधा भक्ति के अंगों का भी वर्णन है ।

6 वात्सल्य और बाल-मनोविज्ञान का सजीव चित्रण : 
वात्सल्य रस का अनुपम चित्रण हुआ है । बालकृष्ण की चेष्टाओं का सूक्ष्म और सजीव चित्रण जैसा इन कवियों ने किया है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता । - मैया, कबहुँ बढ़ेगी चोटी । किती बार मोहिं दूध पियत भई अजहूँ है यह छोटी ।

7 रस-वर्णन : 
अधिकतर शांत रस का प्रयोग हुआ है। कृष्ण की विस्मयकारी अलौकिक लीलाओं के कारण अद्भूत -रस का भी निरुपण हुआ है । मुख्य रस भक्ति ही ठहरता है जिसमें वत्सल, श्रृंगार और शांत रसों का मिश्रण है । यत्र -तत्र निर्वेद का भी चित्रण विशेषत: सूर और मीरा के काव्य में मिलता है। माधुर्य भाव का चित्रण अद्वितीय रूप से हुआ है ।शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का अत्यंत मनोहारी वर्णन हुआ है । राधा-कृष्ण के रूप-चित्रण में नख-शिख वर्णन और श्रृंगारिक संबंध -चित्रण में नायक-नायिका भेद के वर्णन का भी विकास हुआ है । वियोग श्रृंगार के लिए भ्रमरगीत प्रसंग अत्यंत महत्वपूर्ण है । संयोग वर्णन : तुम पै कौन दुहावै गैया ? इत चितवन उत धार चलावत, यहै सिखायो मैया ? वियोग वर्णन : कहा परदेशी को पतिआरो? प्रीति बढ़ाय चले मधुबन को, बिछुरि दियो दु:ख भारो ।

8 संगीतात्मकता : 
कृष्ण काव्य संगीतात्मक है । संगीत की राग-रागिनियों का प्रयोग प्राय: सभी कवियों ने किया है । आज भी संगीत के क्षेत्र में इन पदों का महत्व अमिट है । सूर , मीरा, हितहरिवंश, हरिदास आदि कवियों के पदों में संगीत की पूर्व छटा है ।

9 प्रकृति चित्रण : 
भाव-प्रधान काव्य होने के कारण इसमें प्रकृति चित्रण उद्दीपन रूप में अर्थात पृष्ठभूमि रूप में हुआ है । फिर भी प्रकृति के कोमल और कठोर, मनोरम और भयानक दोनों रूपों का समावेश हुआ है । जहां संसार का सौंदर्य इनकी आंखों से छूट नहीं सका है वहीं मानव ह्रदय के अमूर्त सौंदर्य-चित्रण में कल्पना और भाव अपूर्व वर्णन हुआ है ।

10 सामाजिक पक्ष : 
यद्यपि भगवान की लीलाओं का ही चित्रण अधिक हुआ है, लेकिन इसके साथ-साथ लोक-मंगल की भावना भी स्वत: समाविष्ट हो गई । उद्धव-गोपी संवाद में उद्धव को लक्षित करके अलखवादी, स्वाभिमानी, निष्फल कायाकष्ट को ही सर्वश्रेष्ठ साधन मानने वाले योगियों की अच्छी खबर ली है । उपदेशात्मकता का अभाव है । संपूर्ण काव्य सरस और रमणीय है ।

11 काव्य-रूप : 
संपूर्ण साहित्य मुक्तक शैली में ही है । अधिकांश रचना गेय पदों में के रूप में हुई है । कुछ कवियों ने सवैया, घनाक्षरी अथवा अन्य छंदों का भी प्रयोग किया है ।

12 शैली : 
गेय शैली का प्रयोग हुआ है । गीति-काव्य के सभी तत्त्व यथा भावप्रणता, आत्माभिव्यक्ति, संगीतात्मकता, संक्षिप्तता, भाषा की कोमलता आदि मिलते हैं ।

13 छंद : 
गीति-पद, चौपाई, सार और सरसी । दोहा, कवित्त, सवैया, छप्पय, गीतिका, हरिगीतिका आदि छंदों का प्रयोग ।

14 ब्रज भाषा का चर्मोत्कर्ष: 
कृष्णभक्ति काव्य में अत्यंत ललित और प्रांजल ब्रजभाषा के दर्शन होते हैं । भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से कृष्ण काव्य सम्पन्न है ।

15 अलंकार:
इस काव्य-धारा में उपमा, रूपक तथा उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया गया है।

16 लोकोक्तियों व मुहावरों का प्रचुर प्रयोग:- कृष्ण काव्य परम्परा में लोकोक्तियों व मुहावरों का प्रचुर प्रयोग भी  खूब देखने को मिलता है ।

17 प्रकृति चित्रण:
प्रकृति-वर्णन भी इस काव्य धारा में मिलता है। इस काव्यधारा के कवियों ने ग्राम्य-प्रकृति के सुंदर चित्र उकेरे हैं।

18 व्यंग्यात्मकता:
कृष्ण-काव्य व्यंग्यात्मक है। इसमें उपालंभ की प्रधानता है। सूर का भ्रमरगीत इसका सुंदर उदाहरण है।

19 ज्ञान और कर्म के स्थान पर भक्ति को प्रधानता:
श्री कृष्ण-काव्य-धारा में ज्ञान और कर्म के स्थान पर भक्ति को प्रधानता दी गई है। इसमें आत्म-चिंतन की अपेक्षा आत्म-समर्पण का महत्व है।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

सदाचार का ताबीज

 सदाचार का ताबीज व्यंग्य लेख का उद्देश्य
भूमिका-सदाचार का ताबीज एक व्यंग्य लेख है जो हरिशंकर परसाई द्वारा लिखा गया है। व्यंग्य लेख भी निबंध का ही एक रूप होता है।
सदाचार की ताबीज का उद्देश्य-
1. इस व्यंग्य का प्रमुख उद्देश्य देश में सर्वत्र व्याप्त भ्रष्टाचार की व्यापकता पर प्रकाश डालना है।
2. लेखक हरिशंकर परसाई जी ने इसके उन्मूलन पर भी विचार प्रस्तुत किए हैं।
3. सरकारी तंत्र में फैले भ्रष्टाचार का भयावह रूप प्रस्तुत किया गया है।
4.जो एक कल्पित राज्य और राजा के माध्यम से लेखक ने प्रस्तुत करने की कोशिश की है राजा अपनी प्रजा में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए विद्वानों द्वारा सदाचार का ताबीज सभी कर्मचारियों को बनवा देता है। जब वह माह की 2 तारीख को रिश्वत की रकम लेने के लिए तैयार नहीं है राजा बड़ा खुश होता है यह तो बड़ा अजीब ताबीज है सभी सदाचारी हो गए हैं लेकिन जब वह माह की 21 तारीख को दोबारा मूल्यांकन करता है तो सभी कर्मचारी रिश्वत लेने के लिए तैयार हो जाते हैं इसी में लेख का उद्देश्य निहित होता है।
5. सरकार का छोटे से लेकर बड़ा कर्मचारी हर स्तर पर आज रिश्वत लेने के लिए तैयार है।
6. उन्मूलन का प्रयास सरकार करती है तो सरकार का ही कोई मंत्री या अधिकारी भ्रष्टाचार के उन्मूलन में बाधा बनकर खड़ा हो जाता है।
निष्कर्ष-लेखक श्री हरिशंकर परसाई जी को लगता है कि यदि कर्मचारियों को उनकी आवश्यकता अनुसार समुचित वेतन और सुविधाएं उपलब्ध करवा दी जाए तो ही इस भ्रष्टाचार का उन्मूलन संभव है यही इस व्यंग्य का सच्चा और सही उद्देश्य है।