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गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

Good Governance Initiatives In India: Right To

Good Governance Initiatives In India: Right To Information
ABSTRACT
Right to information act is an agent of good governance. It makes administration more accountable to the people. It makes people aware of administration and gives them an opportunity to take part in decision making process. It promoted democratic ideology by promoting openness and transparency in the administration. It reduces the chances of corruption and abuse of authority by public servants. Good governance basically has four elements: Transparency, Accountability, Predictability and Participation. These criterions refer to the availability of information to the general public and clarity about functioning of Governmental institutions. Right to information helps in fulfilling these objectives. Right to information is an integral part of the freedom of speech under article 19(a).
The aim of the abstract is to show the significance of right to information in empowering ordinary citizens of our country. The aim is to focus over the efforts at the national level to legislate this right. RTI focuses on enhancing people's participation in the democratic process. It goes without saying that an informed citizen is better equipped to keep necessary vigil on the instruments of governance and make the government more accountable to the governed. The Act is a big step towards making the citizens informed about the activities of the Government. The only way to secure substantial right to information available to the citizens of India is to implement the Right to Information Act, 2005 strictly according to the provisions of law. Due to ignorance, most of people have not heard about RTI act. To tackle this issue government should allocate huge fund for publicity budget of RTI act.
RESEARCH QUESTIONS
1. What are the factors involved in RTI to enhance the right of information for the citizens?
2. If  RTI is a Fundamental Right, then Why do we need an act to give us this right?
BIBLIOGRAPHY
1. Chaudhry, Sharmendra, Right to Information in India (February 8, 2011).SSRN: https://ssrn.com/abstract=1758022 or http://dx.doi.org/10.2139/ssrn.1758022
2. Gupta Namita, ―Implementation of Right to Information act : A challenge to government.
3. Kundu, Subhrajyoti, ―Democratic need for Right to Information in India‖, Global Media Journal, 2010, December.
4. Rani, RK, ―Right to Information act, 2005: objectives, challenges and suggestions.
5. Right To Information Act- An Overview, available on http://www.legalserviceindia.com/articles/rti_dh.htm
6. THE EXPANDING HORIZONS OF RIGHT TO INFORMATION BY PRAVEEN DALAL available on http://cic.gov.in/CIC-Articles/Praveen%20Dala-02-13052006.pdf
7.  Dr. J.N Pandey, The Constitutional Law of India, Central Law Agency, 46th Edition, 2009.
8. Dr. Abhe Singh Yadav, Right to Information Act, 2005 – An Analysis, 3rd Edition, 2012
9. Dr. K. P. Malik, Dr. K.C. Raval, Law and Social Transformation In India, 3rd Edition, 2012.
10. Right to Information: Master key to good governance, first report of second administrative reform commission, June, 2006.

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

बाजे भगत प्रसिद्ध हरियाणवी सांगी का साहित्यिक परिचय

हरियाणवी प्रसिद्ध सांगी बाजे भगत का साहित्यिक परिचय
भूमिका -हरियाणा के सागिया में बाजे भगत का विशेष स्थान है। यह आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे ।उनका असली नाम बाजे राम था परंतु यह लोगों के बीच सांग बहुत मधुर स्वर में मस्त होकर तथा भगत की भांति गाते थे ।इसलिए इनका नाम बाजे भगत पड़ गया जन्मस्थान - इनका जन्म संवत् 1855 में सोनीपत के सिसाना गांव में हुआ यानी 16 जुलाई 1898,  
मृत्यु -26 फरवरी 1936 में हुई। 
गुरु -इनके गुरु प्रसिद्ध सांगी हरदेवा सिंह थे
 रचनाएं- इनका रचनाकाल 1920 का दशक से ज्यादा रहा है 15 से 20 रचनाएं इनकी मिलती हैं ।इतने कम समय में असाधारण प्रसिदी मिली ।इन की प्रसिद्ध रचनाएं इस प्रकार है ।
1.हीर रांझा
2. नल दमयंती 
3.शकुंतला दुष्यंत 
4.महाभारत आदि पर्व 
5.कृष्ण जन्म 
6.पद भक्ति 
7राजा रघुवीर -धर्मपुर आदि इनके प्रसिद्ध सांग हैं 
कुछ प्रसिद्ध पंक्तियां- मैं निर्धन कंगाल आदमी तू राजा की जाई 
2.करके सगाई भूल गए हुई बड़े दिना की बात राजबाला का ब्याह कर दो बड़ी खुशी के साथ
 किस्सा राजबाला -अजीत सिंह 
सांग -नल दमयंती से विपदा में विपदा पड़ेगी एवं कि घुट पिए तो  
निष्कर्ष -हरियाणवी साहित्यकार, कवि सांग कलाकार माने जाते हैं ।बाजे भगत जी के रंगों में वे स्त्रियों की भूमिका स्वयं करने वाले हैं ।हरियाणा जगत में धूम मचाने वाले सांगी ।तत्कालीन समाज तथा उनकी परंपराओं का भी हमें परिचय इनकी रचनाओं में मिलता है डॉक्टर पूर्णचंद्र टंडन के अनुसार इनके सांग में श्रृंगार  की गहरी चाल थी। येउस बिन की भांति थे जिस पर सपेरे की तरह आम जनमानस नाचता था।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

हरियाणा की सांग परंपरा-उद्भव और विकास

हरियाणा की सांग परंपरा उद्भव और विकास
सॉन्ग हरियाणा की सुप्रसिद्ध नाटक से ली है हरियाणा में वर्तमान में लोग जिस सांग विदा अथवा शैली से परिचित हैं उसका विकास धीरे-धीरे हुआ है वर्तमान सांग भगत या नौटंकी का पूर्व रूप या पर आए हैं हरियाणा में आज सांग की एक व्यापक परंपरा है विभिन्न विद्वानों के वर्गीकरण के आधार पर हरियाणा सॉन्ग परंपरा के उद्भव एवं विकास को निम्नलिखित चरणों से समझा जा सकता है।
1.संक्रमण युग 
2.प्रारंभिक युग 
3.उत्कर्ष युग 
4.आधुनिक युग 
*** सांग परम्परा उद्भव एवं विकास ***

हरियाणा में लोक मंच को ‘सांग’ के नाम से जाना जाता है। ‘सांग’ शब्द,  स्वांग शब्द से बना है जो नाट्य शास्त्र के ‘रूपक’ शब्द का पर्याय है।  सांग हरियाणा की संस्कृति के जीवन का दर्पण है यहां के निवासियों के सामाजिक और नैतिक मूल्य, लोक जीवन से जुड़ी वीरता और प्रेम की कहानियां, खेत-खलिहान, दान-पुण्य और  अतिथि सत्कार के भाव अभिव्यक्त करता है। सांग- गीत, संगीत और नृत्य का कला-संगम हैं।  सांग कथानक की कथा को गीत तथा संवाद  दोनों के माध्यम से प्रस्तुत करने की अद्भुत कला है ।   सांग की यह विधा    हरियाणा    के   जनमानस    पर    जादू    का    प्रभाव    डालती    है।    इसके    मंच    के    चारों    ओर    बैठे    दर्शक    रागनियों    की    स्वर  -  लहरियों    में    एवं    वाद्य   संगीत    कथा    को    देखसुन    कर    मंत्रमुग्ध    हो    जाते    हैं    यदि    हम   इसके    नाम    के    ऊपर    चर्चा    करें    तो    हमें    विभिन्न    विद्वानों    के    द्वारा   उनके    अनेक    नाम    प्राप्त    होते    हैं-

सांग की उत्पति-
18वीं शताब्दी से पूर्व सामूहिक मनोरंजन के दो साधन थे – मुजरा और नकल। 
सम्पन्न परिवारों में विभिन्न आयोजनों  के अवसर पर मुजरे के लिए नृत्यांगनाएं आती थी 
और नकल के लिए नकलिए व नक्कालों को बुलाया जाता था जो अपने-अपने तरीकों से सामूहिक मनोरंजन किया करते थे परन्तु एक सभ्य समाज में नृत्यांगनाओं व नक्कालों के अश्लील भाव-भंगिमाओं व अश्लील संवादों के कारण उनको घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। 

ऐसी परिस्थिति में सांग का उद्भव हुआ।

हरियाणवी सांग का मंच  आडम्बरहीन व सादा होता है। किसी भी खुले स्थान पर तख्त लगाकर और उन पर दरियां बिछाकर सांग की स्टेज तैयार कर ली जाती है। इसमें न किसी पर्दे की आवश्यकता होती है और न ही नेपथ्य की। यहां पर सब कुछ खुले में दर्शकों के सामने होता है प्रवेश, प्रस्थान, संवाद, गाना और नाचना आदि सब कुछ विभिन्न पात्रों के द्वारा खुले मंच पर ही किया जाता है।

सांग शब्द की उत्त्पति-

1. डॉ    शंकर    लाल    यादव     सांग  को  संगीत    का   ही    फूहड़    रूप    मानते    हैं। 

2. श्री  राम  नारायण  अग्रवाल  का  मत  है  कि  सांग या स्वांग  का  एक  नाटक रूप  उत्तर  मध्यकाल  में  उत्तर  तथा  मध्य  भारत  में  "ख्याल"  नाम  से  विकसित  हुआ  था  और  उसी  ने  
पंजाब  में  ख्याल , 
राजस्थान  में  तुर्रा  कलगी ,  
मालवा  में  मांच,  
ब्रज  क्षेत्र  में भगत  और  
हरियाणा  तथा  मेरठ  में  सांग  के  नाम  से  प्रसिद्धि प्राप्त  की। 

3. श्री  जगदीश  चंद्र  माथुर  इसका  प्राचीनतम  नाम  संगीतक  मानते हैं  उनकी  धारणा  है  कि  संगीतक  ही  बाद  में  सांगीत  या  सांग  बन  गया। 

4. डॉ  इंदर  सेन  शर्मा  सांग  को  निश्चित  रूप  से  संस्कृत  के  स्वांग शब्द  का  ही  विकसित  रूप  मानते  हैं  । 

इस  प्रकार  हम  पाते  हैं  कि  विभिन्न  विद्वानों  ने  समय - समय  पर  सांग  के  लिए  अनेक  शब्दों  का  प्रयोग  किया  है  तथा  प्राचीन परंपराओं  के  द्वारा  उसको  स्पष्ट  करने  की  का  प्रयास  किया  है। आरंभ  में  सांग  के  लिए  चाहे  जो  भी  शब्द  प्रयुक्त  होता  हो  परंतु कालांतर  में  जाकर  इन  सब  में  सांग  शब्द  ही  ज्यादा  प्रसिद्ध  हो गया ।

भारत मे सांग परम्परा- 
यदि  हम  इतिहास  पर  नजर  डालें  तो  हम  पाते  हैं , संगीतक  के  सिद्धों  व  नाथों  के  समय  के  अन्य  नाम  सांग  या स्वांग  का  भी प्रचलन  हो  गया  था। इस  तथ्य  का  उल्लेख  आचार्य  रामचंद्र  शुक्ल  ने  अपने  हिंदी  साहित्य  के  इतिहास  में  इस प्रकार  दिया  है -

" आलो  डोंवि  तोय  सस  करिव  म  सांग।
निधिण  कण्ह  कपाली  जोई  लाग  । " 

डॉ  श्याम  परमार  का  कथन  की  गोरखनाथ  के  समय  भी  सांग का  प्रचलन  था  क्योंकि  उनकी  वाणी  में  इसका  उल्लेख  मिलता है -

" अरे  ससरो  संवांगी  जो  संग  भयो , पांची  देवर  त्हारी लार।
घट  म  ससे  आ  नंदल  मोहेली ,  ते  कारण  छोडयो भरतार।। " 

 संत  कबीर  के  समय  भी  स्वांग  अत्यंत  आकर्षक  रूप  में  होते थे।  कथा  कीर्तन  को  छोड़कर  लोग  स्वांग  पर  लट्टू  रहते  थे  तभी तो  कबीर  को  झुंझला  कर  कहना  पड़ा -

" कथा  होय  तहं श्रोता  सोवै ,  
वक्ता  मुंड  पचाया  रे  ।
होय  जहां  कहीं  स्वांग  तमाशा  
तनिक  न  नींद  सताया  रे "

इस  प्रकार  हम  पाते  हैं  कि  सांग  काफी  समय  से  विभिन्न  नामों और  रूपों  में  प्रचलित  रहे  हैं।  समय  के  साथ  साथ  इसमें  थोड़ा बहुत  परिवर्तन  होता  रहा  और  आगे  चलकर  यह  सांग  के  रूप  में  ही  प्रसिद्ध  हो  गया। कुछ  विद्वान  तो  यह  भी  मानते  हैं  हिंदी नाटक  की  उत्पत्ति  और  विकास  का  विवरण  स्वांग  परंपरा  के अनुसंधान  के  बिना  अपूर्ण  ही  माना  जाएगा ।  आगे  चलकर 1750  के  आसपास  किशन  लाल  भाट  ने  आधुनिक  सांगों  की रचना  की  और  लोगों  के  सामने  प्रस्तुत  किया।

हरियाणा में सांग परम्परा-
हरियाणा में सांग का आरम्भ लगभग 1730 ई. में द्वारा किया गया। किशन लाल भाट के सांगों का अधिक इतिहास तो उपलब्ध नहीं है परन्तु यह जानकारी अवश्य है कि उन्होंने सांग कला को जन-जन तक  पहुंचाया। उन्होंने गीत नृत्य और नकल में कथानक और नाटकीय तत्वों को डालकर सांग कला को एक नई दिशा प्रदान की। 

 1. किशन  लाल  भाटः                                       
श्री  राजाराम  शास्त्री  ने  1958  में प्रकाशित  अपनी  पुस्तक  ' हरियाणा  लोक  मंच  की  कहानियां ' में  लिखा  कि  लगभग  सवा  दो  सौ  वर्ष  पूर्व  जिस  ज्योति  को किशन  लाल  भाट  ने  प्रज्वलित  किया , एक  सौ  सतर  वर्ष  बाद उसी  में  पंडित  दीपचंद  ने  स्वरूप  परिवर्तन  किया।  आरंभ  में स्वांग  का  स्वरूप  मुजरे  सरीखा  था।  नायक  नायिका  आदि  मंच पर  खड़े  होकर  अपना - अपना  अभिनय  करते  थे  और  सारंगी और  ढोलक  वाले  उनके  पीछे  घूम - घूमकर  साज  बजाते  थे  । 

पंडित  मांगेराम  की  रागनी  में  सांग  परंपरा ,  अभिनय ,  मंच , वाद्यों  एवं  वेशभूषा  का  समीक्षात्मक  परिचय  इस  प्रकार  दिया गया  है -

" हरियाणा  की  कहानी  सुण  ल्यो  दो  सौ  साल  की।

कई  किसम  की  हवा  चाली  नई  चाल  की।

एक  ढोलकिया  एक  सारंगिया  खड़े  रहै  थे।

एक  जनाना  एक  मर्दाना  दो  अड़े  रहैं  थे।  एक  सौ  सतर  साल बाद  फेर  दीपचंद  होग्या

साजिण्दे  तो  बणा  दिए  ओ  घोड़े  का  नाच  बंद  होग्या

चमोला  को  भूल  गए  यू  न्यारा  छंद  होग्या। " 

उक्त  विवेचन  से  स्पष्ट  होता  है  कि  1750  ईस्वी  के  आसपास हरियाणा  में  किशन  लाल  भाट  ने  इस  कला  का  वर्णन  किया होगा।

2. बंसीलालः  
किशन  लाल  भाट  के  बाद  सांग  को  संजीवनी  प्रदान  करने  वाले  बंसीलाल  का  समय  1800  ई०  सन  माना  गया है।  बंसीलाल नामक सांगी ने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में  अभिनय किया। उनके सांग ‘गोपीचन्द’ का विवरण प्रसिद्ध लेखक आर.सी. टेम्पल ने ‘द लिजेण्डस ऑफ द पंजाब’ में किया है। बंसीलाल के सांग कौरवी क्षेत्र अम्बाला और जगाधरी में होते थे।
इन्होंने  मुख्य  रूप  से  3  संगो  की  रचना  की  उनके  नाम  इस प्रकार  हैं।  
गुरु  गुग्गा ,  राजा  गोपीचंद  तथा  राजा  नल। 

3. अली बख्स-
19वीं शताब्दी के मध्य में (1854 से 1889 तक) अलीबख्श नामक सांगी प्रसिद्ध हुए। उनका कार्यक्षेत्र, धारूहेड़ा, रेवाड़ी, मेवात और भरतपुर थे। उन्होंने चौबोला, जिकारी, बहार, गजल और भजन के रूप में अपनी गेय रचनाएं प्रस्तुत की। उनके प्रसिद्ध सांग रहे पदमावत, कृष्ण लीला, निहालदे, चन्द्रावल और गुलब कावली। 
 इनके  सांगों  की  धूम हरियाणा ,  मेरठ  और  मेवाड़  में आदि क्षेत्रों में तो खूब  मची परन्तु  संगीत साधनों की कमी व लोकधुनों के अभाव में राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पाई। 

 इनके  साथ  ही इनके समकालीन  बालकराम ,  अहमदबख्स ,  नेतराम  और रामलाल  ने  भी  सांग  कला  में  काफी  महत्वपूर्ण  योगदान  दिया। 

4. नेतराम-
19वीं शताब्दी  के अन्त में आए पं. नेतराम। आरम्भ में वे भजन-कीर्तन किया करते थे परन्तु लोगों का रूझान सांग की तरफ अधिक देखकर उन्होंने लोक भाषीय संगीत का सहारा लिया और सांग मण्डली का निर्माण किया उनके प्रसिद्ध सांग थे-गोपीचन्द, शीलादे और पूरण भगत।
  इनके  गुरु  शंकर  दास  नहीं  चाहते  थे  कि  पंडित  नेतराम सांग  करें  क्योंकि  सभ्य  समाज  में  इसे  अश्लील  समझा  जाता था।

5. दीपचंदः 
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में एक विशिष्ट प्रतिभा ने सांग के क्षेत्र में कदम रखा और यह प्रतिभा थे सेरी खाण्डा (सोनीपत) निवासी दीपचंद । ये छाजू राम के शिष्य थे । ये मूलतः  संस्कृत के विद्वान थे। दीपचन्द के सांग प्रथम विश्व युद्ध के समय अपने यौवन पर थे। उन्होंने किशनलाल भाट द्वारा आरम्भ की पद्धति में अनेक परिवर्तन किए। दीपचन्द ने अंग्रेजी शासन के साथ भारत में आने वाले हारमोनियम को भी सांग वाद्यों में शामिल किया। उन्होंने कलाकारों और टेकियों की संख्या भी बढ़ा दी, जिनका काम था मुख्य सांगी या सांग के पात्रों द्वारा गाए गए आरम्भिक मुखड़ों को दोहराना। दीपचन्द के स्त्री पात्रों के आभूषण और वस्त्र-सज्जा थे – काले रंग का लहंगा उस पर धारू रंग की अंगिया और लाल रंग का ओढणा आदि। पं. दीपचन्द के प्रसिद्ध सांग थे – सोरठ, सरण दे, राजा भोज, नल दमयन्ती, गोपीचन्द, हरिश्चन्द्र, उत्तानपाद और ज्यानी (ज्ञानी) चोर।
 ऐसा  कहा  जाता  है की  प्रथम  विश्व  युद्ध  के  समय  सेना  में  जब  जवानों  की आवश्यकता  पड़ी  तो  सरकार  ने  इन  से  अनुरोध  किया  और उन्होंने  अपने  सांगो  के  माध्यम  से  हरियाणा  में  यह  जादू  भरे शब्द  युवाओं  के  मन  में  भरे -

" भरती  होल्यो  रै  थारै  बाहर  खड़े  रंगरूट
इत  राखो  मधम  बाणां  अर  मिल्लै  फ्ट्या  पुराणा
उत  मिल्लैगा  फुलबूट। " 

6.  बाजे  भगतः  
हरदेवा के शिष्य बाजे नाई (बाजे भगत) सुसाणा निवासी भी हरियाणा के प्रमुख सांगियों में से एक थे। उनकी रागनियों में भक्ति व नीति की प्रधानता थी। उन्होंने साज-संगीत में काफी सुधार किया और सारंगी, ढोलक, नगाड़े तथा हारमोनियम के अनेक कुशल कलाकारों को मंच पर लेकर आए। 
हरदेवा  के  शिष्य  बाजे  नाई  की  भी  प्रसिद्धि हरियाणा  में  खूब  फैली। बाजे  भगत  ने  अपनी  रंग  भरी  रागनियों से  हरियाणा  के  जनमानस  को  बीन  बजाने  वाले  सपेरे  की  तरह मंत्र - कीलित  कर  दिया।    उनके लोकप्रिय सांग थे, जमाल, रघबीर, चन्दकिरण और गोपीचन्द। 
उनके  सांगों  में  श्रंगार  की  गहरी  छाप होती  थी-

" बाजे  कह  कर  ठंडा  सीना , लाग्या  सामण  किसा महीना।

नाचै  नै  बणके  मोर  मोरणी  आंसू  चाहवै  सै।। " 

इनके  प्रमुख  सांग  है  चंद  किरण ,  जमाल  और  जानी चोर।

7. पंडित  लख्मीचंदः  
हरियाणा  के  सांग  साहित्य  को  यदि  किसी ने  चरम  पर  पहुंचाया  और  इस  कला  के  सूर्य  कहे  जाते  हैं ,उनका  नाम  है  पंडित  लख्मीचंद। इनको  सांग  शिरोमणी कहा  जाता  है।
आरम्भ में पं. लखमीचन्द के सांगों को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो पाई क्योंकि उनके सांगों में शृंगार प्रवृति अधिक पाई जाती थी। समाज में इस प्रकार के सांगों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। पं. लखमीचन्द ने इस बात को समझा  व इनके गुरु मानसिंग के कारण इन्होंने अपने दो विद्वान साथियों के साथ मिलकर पुराणों की कथाएं सुनी, उपनिषदों के प्रसंग सुने और अनेक दर्शनों की गुत्थियों की चर्चा करते हुए उनके ज्ञान को अपने भीतर आत्मसात किया और इन्होंने धार्मिक  व  पौराणिक  सांगों  की  रचना आरंभ की । इनकी श्रृंगारी प्रवृति पर आध्यात्मिकता का पुट चढ़ता चला गया।
इनके ये सांग भाव -भाषा, कला-कौशल  सभी  दृष्टि  से  अद्वितीय  थे।  उन्होंने लगभग 2500 रागनियों और 1000 नई लोकधुनों का विकास किया। उनके प्रसिद्ध सांग हैं – हरिश्चन्द्र मदनावत,नौटंकी, शाही लकड़हारा, नल-दमयन्ती, सत्यवान सावित्री, शकुन्तला, द्रोपदीचीर उत्तानपाद, भगतपूरणमल, हीर-रांझा, सेठ ताराचन्द, मीराबाई, पदमावत,  ज्यानीचोर, हीरामल जमाल और राजा भोज आदि।

सांग करते समय इनका अभिनय लाजवाब होता था, उनके  अभिनय  उत्कर्ष का  उल्लेख  पंडित  मांगेराम  ने  इस  प्रकार  किया  है -

" लख्मीचंद  नै  मार  गेरे  जब  लकड़हारा  गावण  लाग्या।

बहुत  सी  दुनिया  पाछै  रहगी  नए - नए  सांग  बणावण लाग्या

लख्मीचंद  का  माई  चन्द  था  काट  बैल  सी  हाल्या  करता

बागां  मैं  नौटंकी  बण  के  खटोले  से  साल्या  करता

आगै - आगै  नौटंकी  फेर  पाछै  बामण  चाल्या  करता

लख्मीचंद  माली  की  बणके  साड़ी बांध्या  करता । " 

8. पंडित  मांगेराम : 
 पंडित  मांगेराम  लख्मीचंद  के  शिष्य  एवं समकालीन  थे। वे  लख्मीचंद  से  प्रभावित  होकर  उनके  शिष्य  बन  गये  ।  उन्होंने  स्वयं  कहां  है -

" पहले  मोटरकार  चलाई , 
फेर  सांग  सीख  लिया लख्मीचंद  के  डेरे  मैं  ।

गैरां  के  दुख  दूर  करूं  सूं  
या  ताकत  सै  मेरे  मैं  ।। " 

मांगे राम जी ने ऐतिहासिक, पौराणिक, भक्ति, लौकिक गाथाओं से सम्बन्धित सांगों का डंका हरियाणा के गांव-गांव में बजाया। यही नहीं वे राष्ट्रवादी भावनाओं से प्रेरित, सामाजिक जीवन से सम्बन्धित अभिनय भी अपने कला-मंच के माध्यम से करते थे। उनके प्रसिद्ध सांग थे- रूप बसंत, हकीकतराय, कृष्ण-जन्म, ध्रुवभगत, गोपीचन्द, भरथरी, चन्द्रहास, चापसिंह और शकुन्तला आदि। उनके सांगों की प्रसिद्धिी फिरोज जालंधर, अमृतसर, लाहौर, मुलतान और बन्नू के हाट तक के इलाकों तक पहुंच गई थी। 

उनके  सांगों  के  मूल  में  भक्ति  भावना ,  धर्म  और  ज्ञान  का  मार्ग रहा  है।  ऐसे  सांगों  की  रचना  ये  करना  चाहते  थे , जिनको  बाप और  बेटी  इकट्ठे  बैठकर  देख  सकते  हो।  श्रृंगार  और  वीर  रस  का  वर्णन  अनुषांगिक  रूप  में  हुआ  है।  पंडित  मांगेराम  ने सामयिकता  एवं  सुविधा  अनुकूल  अपने  सांगों  में  स्त्री  पात्रों  को जम्फर  तथा  सलवार  पहनाई ,  जिसकी  जनता  ने  भूरी  भूरी प्रशंसा  की  ।
मांगे राम के साथ-साथ लखमीचन्द के शिष्य, माईचन्द, सुलतान, रतीराम, चन्दन भी सांग करते थे।

9. धनपत-
ये मांगे राम के समकालीन थे । धनपत सांगी निदाणा-निवासी थे । इनकी गायन शैली और अभिनय कहीं उत्तम थे, परन्तु रागनी-रचना की दृष्टि से मांगेराम अग्रणी थे। धनपत सिंह के प्रसिद्ध सांग थे-लीलोचमन, ज्यानी चोर, सत्यवान-सावित्री तथा बन-देवी। उनका लीलो चमन सांग, भारत विभाजन पर आधारित था जो राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित था। ‘सत्यवान-सावित्री’ सांग के माध्यम से उन्होंने नारी शक्ति को विशेष रूप से प्रेरित किया।

10. पं. रामकिशन ब्यास.-
पं. रामकिशन ब्यास ने भी सन 1945 से 1990 तक इस परम्परा का बखूबी निभाया। ये सांग और रागनी के क्षेत्र में ‘व्यास जी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने अनेक सांगों की रचना की और अभिनय भी किया। रामकिशन ब्यास की रचनाएं अत्यन्त लोकप्रिय रहीं। उनके सांग मंच को सुशोभित करेन वाले व्यक्ति थे उनके नक्कारची इम्मन, सारंगी उस्ताद-सब्बीर हुसैन, हारमोनियम मास्टर-ताहिर हुसैन प्यारे-ढोलकवादक आदि। रूपकला जादूखोरी, धर्मजीत, सत्यवान-सावित्री, हीरामल-जमाल और कम्मो कैलाश, रामकिशन ब्याज जी के प्रसिद्ध सांग थे। उनके सभी सांग लोकजीवन में प्रेमभावना और भक्तिभावना और सौन्दर्य भावना संचार करने वाले थे।

11. खिम्मा-
ये रामकिशन व्यास के समकालीन थे । सांगी खिम्मा भी लगभग 60 वर्ष तक सांग परम्परा को निभाते रहे। ये बाजे भगत के शिष्य और गोरड़ निवासी हरदेवा के पुत्र थे। इन्होंने बाजे भगत की सांग प्रणाली को निभाया। परन्तु ये अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाए।

12. अन्य सांगी- 
बाजे भगत के शिष्य हुश्यारे-प्यारे ने भी सांग परम्परा को निभाया। मांगे राम के शिष्य सरूपलाल व कपूर आदि ने भी कई वर्षों तक अपने गुरू के सांगों का मंचन किया। धनपत सिंह के शिष्य श्याम, गांव धरोधी (जींद), चन्दगीराम गांव भगाणा (हिसार), बनवारी ठेल, गांव मोखरा (रोहतक) आदि ने भी सांग की परम्परा को जीवित रखा। इसी शृंखला में रामकिशन व्यास के शिष्य पाल्लेराम, गांव खटकड़ (जींद) में भी अपने गुरू की परम्परा को आगे बढ़ाया। लखमीचन्द की प्रणाली में जो सांग मंचित हुए है वे उनके पुत्र तुलेराम और उनके शिष्य जहूर मीर के द्वारा किए गए हैं।
निष्कर्ष
इस  प्रकार  हम  देखते  हैं  कि  सांगों  का  विकास काफी  लंबे  समय  से  चला  आ  रहा  है  और  उनकी  प्रसिद्धि  आज  भी  बनी  हुई  है।  यह  हरियाणवी  समाज  के  लोक  मानस  के निकट  है  और  कहीं  न  कहीं  हरियाणवी  लोग  अपने  आप  को इन  से  जुड़ा  हुआ  महसूस  करते  हैं। 
हरियाणवी  संस्कृति  को  इन  सभी  सांगियों  ने 
 अपने  सांगों  से माध्यम  से  अभिव्यक्त  किया  और  हरियाणा  समाज  के  मनोरंजन  के  माध्यम  से  लोकप्रद  शिक्षाओं  का  प्रचार  प्रसार  भी  किया। इसमें  इन  सभी  का  अमूल्य  योगदान  रहा  है।

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

संपादक के गुण एवं दायित्व

संपादक के गुण एवं दायित्व।
भूमिका- किसी भी पत्र या पत्रिका के प्रकाशन में संपादक का विस्तार होता है जो किसी फिल्म के निर्माण में उसके निर्देशक का अथवा किसी कार्यालय के संचालन में उस कार्यालय के प्रबंधक का जो कार्य होता है वही कार्य एक संपादक का होता है संपादक के कुछ गुण व दायित्व होते हैं जो निम्नलिखित हैं ।
1.संपादक का व्यवहार मधुर होना चाहिए
ताकि उसके कार्यालय के कर्मचारी अच्छे से कार्य कर सकें। 
2.संपादक का सामाजिक राजनीतिक व व्यापारिक दायरा अत्यंत विस्तृत होना चाहिए ।
3.समाचार पत्र संपादक के एक दायित्व पूर्ण कार्य है 4.संपादक का हर खबर के प्रति अपने पत्र के प्रति दायित्व बनता है 
5.संपादक को विभिन्न विषयों का ज्ञान होना अति आवश्यक है 
6संपादक को तकनीकी तथा मशीनी ज्ञान भी होना चाहिए 7.संपादक को अच्छे संपादन के लिए कार्य कुशल व्यक्तियों की पहचान होनी चाहिए 
8.कार्यालय का उचित प्रबंध करने के लिए उसे एक अच्छा प्रबंधक भी होना चाहिए 
9.संपादक में एक अच्छे लेखक के गुण भी होने जरूरी हैं उसे कम शब्दों में अधिक बात  कहने का माद्दा होना चाहिए 
संपादक के दायित्व -
1विभिन्न स्त्रोतों से समाचार का संकलन करना 
2.विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त समाचार को महत्व के अनुसार व्यवस्थित करना 
3.अपने समाचार पत्र अथवा पत्रिका को समसामयिक बनाए रखना 
4.विभिन्न विद्वानों आलोचकों बुद्धिजीवियों विषय विशेषज्ञों के लिए एक राय प्राप्त करना और उन्हें प्रासंगिक माहौल में प्रकाशित करना 
5.विभिन्न महापुरुषों की जयंती यों धार्मिक सामाजिक राष्ट्रीय पर्वों से संबंधित विभिन्न लेखों का प्रकाशन करना 6.खेल और आर्थिक गतिविधियों तथा फिल्मी मनोरंजन संबंधी खबरों व लेखों का प्रकाशन करना 
7.अपने पत्र की आर्थिक स्थिति मजबूत बनाए रखने के लिए विज्ञापनों का प्रकाशन करना 
8.किसी भी प्रकार की खबर का प्रकाशन करने से पहले उसकी सच्चाई की पुष्टि कर लेना ।
9.जन भावनाओं व सामाजिक सरोकारों का ध्यान रखना अपने पत्र के विस्तार हेतु सजग रहना 
निष्कर्ष -संपादक ही एक अच्छे पत्रकार संचालक होता है वह उस नाविक की भांति होता है जो किनारे पर लगाता है।

प्रेमचंद रचित ईदगाह कहानी में बाल मनोविज्ञान

प्रेमचंद द्वारा रचित कहानी ईदगाह में मनोविश्लेषणात्मक विवेचन।
भूमिका- प्रेमचंद जी उपन्यास सम्राट कहे जाते हैं क्योंकि उन्होंने 300 से ज्यादा कहानियां लिखी हैं।प्रेमचंद जी को यथार्थवादी लेखक कहा जाता हैउन्होंने नारी समस्या वेश्यावृत्ति किसान समस्या युवा वर्ग से संबंधित अनेक विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है लेकिन ईदगाह कहानी में एक बालमन का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है यह एक मनोविश्लेषणात्मक कहानी है जिनको हम कुछ तथ्यों पर ध्यान देकर साबित कर सकते हैं।-
1. त्योहारों की प्रशंसा
 2जिम्मेदारियों से मुक्ति 3.
बच्चों की कल्पना 4.
5.हाजिर जवाब
 6.नकल की प्रवृत्ति
 7.समझौता करने की प्रवृत्ति 
8.तर्क करने की प्रवृत्ति
 9.स्वाभिमान
 10.विनोदी स्वभाव 
11.जिज्ञासा की प्रवृत्ति
 निष्कर्ष -प्रेमचंद ने ईदगाह कहानी में बच्चों की स्वभाविक प्रवृत्तियों का सूक्ष्मता से वर्णन किया है लेखक की निरीक्षण शक्ति बड़ी बहन है जैसे बच्चों को बड़ी निकटता से उन्होंने देखा हो लेखक ने अपनी सूक्ष्म सोच और कल्पना शक्ति से इस कहानी का मनोविश्लेषणात्मक वर्णन सूक्ष्म दृष्टि से किया है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ईदगाह कहानी मनोविज्ञान से संबंधित है या ईदगाह प्रेमचंद की एक मनोविश्लेषणात्मक कहानी है ।धन्यवाद

आधुनिक मीरा-महादेवी वर्मा का जीवन परिचय

आधुनिक मीरा महादेवी वर्मा का जीवन परिचय
BA 3rd 6th sem.

महादेवी वर्मा 
जीवन परिचय-

आधुनिक युग की मीरा कही जाने वाली कवयित्री एवं महान लेखिका महादेवी वर्मा जी का जन्म 26 मार्च, 1907 को उत्तर प्रदेश फर्रुखाबाद जिले में हुआ था. इनका जन्म एक साहू परिवार में हुआ था. इनके पिताजी का नाम गोविंद सहाय वर्मा व माता जी का नाम हेमरानी था। उनके परिवार में 7 पीढ़ियों के बाद किसी पुत्री का जन्म हुआ था । अतः इनके जन्म से परिवार में बहुत खुशियां मनाई गई । इनका जन्म देवी मां की कृपा से हुआ था. इस कारण इनके दादा भागलपुर जी ने उनका नाम महादेवी रख दिया. महादेवी वर्मा की प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में ही हुई थी, और  9 वर्ष की अल्प आयु में इनका विवाह स्वरूप नारायण प्रसाद जी  के साथ हो जाने और साथ में ही इनके माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण इनकी शिक्षा रुक गई, किंतु बाद में यह पुनः प्रारंभ हो गई. हिंदी, अंग्रेजी, चित्र कला और संस्कृति का ज्ञान देने के लिए अध्यापक उनके घर पर ही आते थे।

प्रसिद्धि के पथ पर- 

महादेवी वर्मा हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत के साथ महत्वपूर्ण स्तंभ मानी जाती हैं। उन्हें आधुनिक मीरा भी कहा गया है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है।
गद्य पद्य दोनों ही साहित्य में अपना कीर्तिमान स्थापित करने वाली महान कवयित्री महादेवी वर्मा जी का निधन 11 सितंबर 1987 ई0 में हुआ था. भले ही उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया हो, किंतु उनका साहित्य आज भी संपूर्ण संसार को अपने ज्ञान से प्रकाशित कर रहा है.
1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम॰ए॰ करने के बाद से उनकी प्रसिद्धि का एक नया युग प्रारंभ हुआ। भगवान बुद्ध के प्रति गहन भक्तिमय अनुराग होने के कारण और अपने बाल-विवाह के अवसाद को झेलने वाली महादेवी बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थीं। कुछ समय बाद महात्मा गांधी के सम्पर्क और प्रेरणा से उनका मन सामाजिक कार्यों की ओर उन्मुख हो गया। प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में एम० ए० करने के बाद प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या का पद संभाला और चाँद का निःशुल्क संपादन किया। प्रयाग में ही उनकी भेंट रवीन्द्रनाथ ठाकुर से हुई और यहीं पर 'मीरा जयंती' का शुभारम्भ भी हुआ ।

 महादेवी वर्मा का साहित्यिक परिचय 

कवित्री महादेवी की साहित्य और संगीत के अलावा चित्रकला में भी रुचि रखती थी .उनकी सबसे पहली रचना महिलाओं की विशेष पत्रिका  “चांद”  में प्रकाशित हुई और  इसका संपादन भी इन्हें स्वयं किया. 

महादेवी वर्मा की रचनाएं-
महादेवी वर्मा जीवनी पद एवं गद्य दोनों ही विधाओं में बहुत सी रचनाएं की हैं और दोनों विधाओं में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है. इनमें से कुछ कृतियां इस प्रकार हैं-
महादेवी वर्मा की कृतियाँ (रचनाएं) –
कविता संग्रह:

महादेवी वर्मा ने निम्नलिखित कविता संग्रह लिखे:

1. नीहार (1930) 
यह उनका प्रथम काव्य है और इस काव्य संकलन में लगभग 47 गीत संकलित हैं

2. रश्मि (1931) 
इस काव्य संग्रह में आत्मा और परमात्मा के मिलन के संबंध में 37 कविताएं संग्रहित हैं.

3. नीरजा (1934) 
इस संग्रह में 58 गीत लिखे गए हैं जिनमें से ज्यादातर गीतों में विरह वेदना भाव दर्शाया गया है.

4. सांध्यगीत (1936) उय उनका चौथा कविता संग्रह हैं। इसमें 1934 से 1936 ई० तक के रचित गीत हैं। 1936 में प्रकाशित इस कविता संग्रह के गीतों में नीरजा के भावों का परिपक्व रूप मिलता है। इसमे न केवल सुख-दुख का बल्कि आँसू और वेदना, मिलन और विरह, आशा और निराशा एवं बन्धन-मुक्ति आदि का  भी समन्वय है।

5. दीपशिखा (1942)
इस संग्रह में लगभग 58 गीत लिखे गए हैं और इन गीतों में रहस्य भावना को प्रधान रखा गया है. 

6. सप्तपर्णा (अनूदित-1959)

7. प्रथम आयाम (1974)

8. अग्निरेखा (1990)

गद्य साहित्य:
गद्य साहित्य में महादेवी वर्मा द्वारा रचित कृतियाँ निम्नलिखित हैं:
रेखाचित्र – अतीत के चलचित्र (1941) तथा स्मृति की रेखाएं (1943)

संस्मरण – पथ के साथी (1956) और मेरा परिवार (1972 और संस्मरण (1983)

निबंध – शृंखला की कड़ियाँ (1942), 
विवेचनात्मक गद्य (1942), 
साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (1962), संकल्पिता (1969)

ललित निबंध – क्षणदा (1956)

कहानियाँ – गिल्लू

संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह – हिमालय (1963)

बाल साहित्य:
महादेवी वर्मा के लिखे बाल साहित्य निम्नलिखित हैं:
1. ठाकुरजी भोले हैं
2. आज खरीदेंगे हम ज्वाला

इसके अतिरिक्त महादेवी वर्मा जी ने महिलाओं की विशेष पत्रिका “चाँद” का संपादन कार्य भी संभाला।

सम्मान और पुरुस्कार-
1. सेकसरिया पुरस्कार (1934), 
2. द्विवेदी पदक (1942), 
3. भारत भारती पुरस्कार (1943), 
4 . मंगला प्रसाद पुरस्कार (1943) 
5. पद्म भूषण(1956)
6. साहित्य अकादेमी फेल्लोशिप (1979), 
7. यामा कृति पर - ज्ञानपीठ पुरस्कार (1982), 
8. पद्म विभूषण(1988) मरणोपरांत
9. 1991 में सरकार ने उनके सम्मान में, कवि जयशंकर प्रसाद के साथ उनका एक 2 रुपये का युगल टिकट भी जारी किया था.

काव्यगत विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ)
1. आत्माभिव्यक्ति
2. मार्मिक वेदना एवम प्रेम का चित्रण
3. रहस्यवाद
4. प्रकृति प्रेम
5. राष्ट्रीय / सांस्कृतिक जागरण
6. स्वच्छन्दतावाद
7. कल्पना की प्रधानता
8. दार्शनिकता
9. महादेवी वर्मा की भाषा शैली
महादेवी वर्मा जी ने अपनी भाषा शैली में सर्वाधिक खड़ी बोली का प्रयोग किया है .और इन गीतों में विरह-वेदना और आत्मा परमात्मा के मिलन को ज्यादातर दर्शाया गया है. इन्होंने भावात्मक शैली का प्रयोग किया है इनकी रचनाओं में उपमा, रूपक श्लेष और मानवीकरण जैसे अलंकारों का प्रयोग किया गया है.

रविवार, 12 अप्रैल 2020

हिंदी वर्तनी का अर्थ व परिभाषा एवं नियम

हिंदी वर्तनी का अर्थ व परिभाषा।
भूमिका- वर्तनी का शाब्दिक अर्थ बर्तन करना अर्थात किसी का अनुगमन करना है लिखित भाषा में लेखनी उच्चारित ध्वनियों का अनुगमन करती है।
 परिभाषा ध्वनियों के लिए लिपि चिन्ह एवं उनके संयोजन को सुनिश्चित करना वर्तनी का कार्य है 
भारत सरकार द्वारा भारतीय हिंदी वर्णमाला का मानकीकरण किया गया है पहले प्रचलित कुछ वर्ण अब अमानत हो गई हैं तथा कुछ वर्णों का मानकीकरण हो गया है जो सभी स्तर पर सभी के लिए माननीय अनिवार्य है इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं- परिभाषा :– वर्तनी’ शब्द का अर्थ ‘पीछे-पीछे चलना’ है। लेखन-व्यवस्था में वर्तनी शब्द स्तर पर शब्द की ध्वनियों के पीछे-पीछे चलती हैं। वर्तनी शब्द विशेष के लेखन में उस शब्द की एक-एक करके आने वाली ध्वनियों में लिपि चिह्न निर्धारित करती है। इस प्रकार उच्चारित शब्द के लेखन में प्रयोग होने वाले लिपि चिहनों के व्यवस्थित रूप को वर्तनी कहते हैं। शुद्ध वर्तनी के नियम निम्नलिखित हैं।

1.जिन व्यंजनों के अंत में खड़ी पाई जाती है, उन्हें जब दूसरे व्यंजन के साथ जोड़ते हैं तो यह हटा दी जाती है; जैसे-तथ्य में ‘थ’ को ” के रूप में प्रयोग किया है।
2.स्वर रहित पंचमाक्षर जब अपने वर्ग के व्यंजन के पहले आता है तो उसे अनुस्वार (-) के रूप में लिखा जाता है; जैसे-पंकज, दंड, पंजाब, प्रारंभ।
3.जब किसी शब्द में श, ष, स में से सभी अथवा दो का एक साथ प्रयोग हो तो उनका प्रयोग वर्णमाला क्रम से होता है; जैसे-शासन, शेषनाग।
4.जब कोई पंचमाक्षर किसी अन्य पंचमाक्षर के साथ संयुक्त होता है तो पंचमाक्षर ही लिखा जाता है; जैसे-जन्म, निम्न, अन्न।
5.यदि य, व, हु के पहले पंचमाक्षर हो तो वहाँ पंचमाक्षर ही लिखा जाता है; जैसे-पुण्य, कन्हैया, अन्य।
6.जब य, र, ल, व और श, ष, स, ह से पहले ‘सम्’ उपसर्ग लगता है तो वहाँ ‘म्’ के स्थान पर अनुस्वार लगता है; जैसे-सम् + वाद