हरियाणा की सांग परंपरा उद्भव और विकास
सॉन्ग हरियाणा की सुप्रसिद्ध नाटक से ली है हरियाणा में वर्तमान में लोग जिस सांग विदा अथवा शैली से परिचित हैं उसका विकास धीरे-धीरे हुआ है वर्तमान सांग भगत या नौटंकी का पूर्व रूप या पर आए हैं हरियाणा में आज सांग की एक व्यापक परंपरा है विभिन्न विद्वानों के वर्गीकरण के आधार पर हरियाणा सॉन्ग परंपरा के उद्भव एवं विकास को निम्नलिखित चरणों से समझा जा सकता है।
1.संक्रमण युग
2.प्रारंभिक युग
3.उत्कर्ष युग
*** सांग परम्परा उद्भव एवं विकास ***
हरियाणा में लोक मंच को ‘सांग’ के नाम से जाना जाता है। ‘सांग’ शब्द, स्वांग शब्द से बना है जो नाट्य शास्त्र के ‘रूपक’ शब्द का पर्याय है। सांग हरियाणा की संस्कृति के जीवन का दर्पण है यहां के निवासियों के सामाजिक और नैतिक मूल्य, लोक जीवन से जुड़ी वीरता और प्रेम की कहानियां, खेत-खलिहान, दान-पुण्य और अतिथि सत्कार के भाव अभिव्यक्त करता है। सांग- गीत, संगीत और नृत्य का कला-संगम हैं। सांग कथानक की कथा को गीत तथा संवाद दोनों के माध्यम से प्रस्तुत करने की अद्भुत कला है । सांग की यह विधा हरियाणा के जनमानस पर जादू का प्रभाव डालती है। इसके मंच के चारों ओर बैठे दर्शक रागनियों की स्वर - लहरियों में एवं वाद्य संगीत कथा को देखसुन कर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं यदि हम इसके नाम के ऊपर चर्चा करें तो हमें विभिन्न विद्वानों के द्वारा उनके अनेक नाम प्राप्त होते हैं-
सांग की उत्पति-
18वीं शताब्दी से पूर्व सामूहिक मनोरंजन के दो साधन थे – मुजरा और नकल।
सम्पन्न परिवारों में विभिन्न आयोजनों के अवसर पर मुजरे के लिए नृत्यांगनाएं आती थी
और नकल के लिए नकलिए व नक्कालों को बुलाया जाता था जो अपने-अपने तरीकों से सामूहिक मनोरंजन किया करते थे परन्तु एक सभ्य समाज में नृत्यांगनाओं व नक्कालों के अश्लील भाव-भंगिमाओं व अश्लील संवादों के कारण उनको घृणा की दृष्टि से देखा जाता था।
ऐसी परिस्थिति में सांग का उद्भव हुआ।
हरियाणवी सांग का मंच आडम्बरहीन व सादा होता है। किसी भी खुले स्थान पर तख्त लगाकर और उन पर दरियां बिछाकर सांग की स्टेज तैयार कर ली जाती है। इसमें न किसी पर्दे की आवश्यकता होती है और न ही नेपथ्य की। यहां पर सब कुछ खुले में दर्शकों के सामने होता है प्रवेश, प्रस्थान, संवाद, गाना और नाचना आदि सब कुछ विभिन्न पात्रों के द्वारा खुले मंच पर ही किया जाता है।
सांग शब्द की उत्त्पति-
1. डॉ शंकर लाल यादव सांग को संगीत का ही फूहड़ रूप मानते हैं।
2. श्री राम नारायण अग्रवाल का मत है कि सांग या स्वांग का एक नाटक रूप उत्तर मध्यकाल में उत्तर तथा मध्य भारत में "ख्याल" नाम से विकसित हुआ था और उसी ने
पंजाब में ख्याल ,
राजस्थान में तुर्रा कलगी ,
मालवा में मांच,
ब्रज क्षेत्र में भगत और
हरियाणा तथा मेरठ में सांग के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की।
3. श्री जगदीश चंद्र माथुर इसका प्राचीनतम नाम संगीतक मानते हैं उनकी धारणा है कि संगीतक ही बाद में सांगीत या सांग बन गया।
4. डॉ इंदर सेन शर्मा सांग को निश्चित रूप से संस्कृत के स्वांग शब्द का ही विकसित रूप मानते हैं ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि विभिन्न विद्वानों ने समय - समय पर सांग के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग किया है तथा प्राचीन परंपराओं के द्वारा उसको स्पष्ट करने की का प्रयास किया है। आरंभ में सांग के लिए चाहे जो भी शब्द प्रयुक्त होता हो परंतु कालांतर में जाकर इन सब में सांग शब्द ही ज्यादा प्रसिद्ध हो गया ।
भारत मे सांग परम्परा-
यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो हम पाते हैं , संगीतक के सिद्धों व नाथों के समय के अन्य नाम सांग या स्वांग का भी प्रचलन हो गया था। इस तथ्य का उल्लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में इस प्रकार दिया है -
" आलो डोंवि तोय सस करिव म सांग।
निधिण कण्ह कपाली जोई लाग । "
डॉ श्याम परमार का कथन की गोरखनाथ के समय भी सांग का प्रचलन था क्योंकि उनकी वाणी में इसका उल्लेख मिलता है -
" अरे ससरो संवांगी जो संग भयो , पांची देवर त्हारी लार।
घट म ससे आ नंदल मोहेली , ते कारण छोडयो भरतार।। "
संत कबीर के समय भी स्वांग अत्यंत आकर्षक रूप में होते थे। कथा कीर्तन को छोड़कर लोग स्वांग पर लट्टू रहते थे तभी तो कबीर को झुंझला कर कहना पड़ा -
" कथा होय तहं श्रोता सोवै ,
वक्ता मुंड पचाया रे ।
होय जहां कहीं स्वांग तमाशा
तनिक न नींद सताया रे "
इस प्रकार हम पाते हैं कि सांग काफी समय से विभिन्न नामों और रूपों में प्रचलित रहे हैं। समय के साथ साथ इसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन होता रहा और आगे चलकर यह सांग के रूप में ही प्रसिद्ध हो गया। कुछ विद्वान तो यह भी मानते हैं हिंदी नाटक की उत्पत्ति और विकास का विवरण स्वांग परंपरा के अनुसंधान के बिना अपूर्ण ही माना जाएगा । आगे चलकर 1750 के आसपास किशन लाल भाट ने आधुनिक सांगों की रचना की और लोगों के सामने प्रस्तुत किया।
हरियाणा में सांग परम्परा-
हरियाणा में सांग का आरम्भ लगभग 1730 ई. में द्वारा किया गया। किशन लाल भाट के सांगों का अधिक इतिहास तो उपलब्ध नहीं है परन्तु यह जानकारी अवश्य है कि उन्होंने सांग कला को जन-जन तक पहुंचाया। उन्होंने गीत नृत्य और नकल में कथानक और नाटकीय तत्वों को डालकर सांग कला को एक नई दिशा प्रदान की।
1. किशन लाल भाटः
श्री राजाराम शास्त्री ने 1958 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ' हरियाणा लोक मंच की कहानियां ' में लिखा कि लगभग सवा दो सौ वर्ष पूर्व जिस ज्योति को किशन लाल भाट ने प्रज्वलित किया , एक सौ सतर वर्ष बाद उसी में पंडित दीपचंद ने स्वरूप परिवर्तन किया। आरंभ में स्वांग का स्वरूप मुजरे सरीखा था। नायक नायिका आदि मंच पर खड़े होकर अपना - अपना अभिनय करते थे और सारंगी और ढोलक वाले उनके पीछे घूम - घूमकर साज बजाते थे ।
पंडित मांगेराम की रागनी में सांग परंपरा , अभिनय , मंच , वाद्यों एवं वेशभूषा का समीक्षात्मक परिचय इस प्रकार दिया गया है -
" हरियाणा की कहानी सुण ल्यो दो सौ साल की।
कई किसम की हवा चाली नई चाल की।
एक ढोलकिया एक सारंगिया खड़े रहै थे।
एक जनाना एक मर्दाना दो अड़े रहैं थे। एक सौ सतर साल बाद फेर दीपचंद होग्या
साजिण्दे तो बणा दिए ओ घोड़े का नाच बंद होग्या
चमोला को भूल गए यू न्यारा छंद होग्या। "
उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि 1750 ईस्वी के आसपास हरियाणा में किशन लाल भाट ने इस कला का वर्णन किया होगा।
2. बंसीलालः
किशन लाल भाट के बाद सांग को संजीवनी प्रदान करने वाले बंसीलाल का समय 1800 ई० सन माना गया है। बंसीलाल नामक सांगी ने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में अभिनय किया। उनके सांग ‘गोपीचन्द’ का विवरण प्रसिद्ध लेखक आर.सी. टेम्पल ने ‘द लिजेण्डस ऑफ द पंजाब’ में किया है। बंसीलाल के सांग कौरवी क्षेत्र अम्बाला और जगाधरी में होते थे।
इन्होंने मुख्य रूप से 3 संगो की रचना की उनके नाम इस प्रकार हैं।
गुरु गुग्गा , राजा गोपीचंद तथा राजा नल।
3. अली बख्स-
19वीं शताब्दी के मध्य में (1854 से 1889 तक) अलीबख्श नामक सांगी प्रसिद्ध हुए। उनका कार्यक्षेत्र, धारूहेड़ा, रेवाड़ी, मेवात और भरतपुर थे। उन्होंने चौबोला, जिकारी, बहार, गजल और भजन के रूप में अपनी गेय रचनाएं प्रस्तुत की। उनके प्रसिद्ध सांग रहे पदमावत, कृष्ण लीला, निहालदे, चन्द्रावल और गुलब कावली।
इनके सांगों की धूम हरियाणा , मेरठ और मेवाड़ में आदि क्षेत्रों में तो खूब मची परन्तु संगीत साधनों की कमी व लोकधुनों के अभाव में राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पाई।
इनके साथ ही इनके समकालीन बालकराम , अहमदबख्स , नेतराम और रामलाल ने भी सांग कला में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
4. नेतराम-
19वीं शताब्दी के अन्त में आए पं. नेतराम। आरम्भ में वे भजन-कीर्तन किया करते थे परन्तु लोगों का रूझान सांग की तरफ अधिक देखकर उन्होंने लोक भाषीय संगीत का सहारा लिया और सांग मण्डली का निर्माण किया उनके प्रसिद्ध सांग थे-गोपीचन्द, शीलादे और पूरण भगत।
इनके गुरु शंकर दास नहीं चाहते थे कि पंडित नेतराम सांग करें क्योंकि सभ्य समाज में इसे अश्लील समझा जाता था।
5. दीपचंदः
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में एक विशिष्ट प्रतिभा ने सांग के क्षेत्र में कदम रखा और यह प्रतिभा थे सेरी खाण्डा (सोनीपत) निवासी दीपचंद । ये छाजू राम के शिष्य थे । ये मूलतः संस्कृत के विद्वान थे। दीपचन्द के सांग प्रथम विश्व युद्ध के समय अपने यौवन पर थे। उन्होंने किशनलाल भाट द्वारा आरम्भ की पद्धति में अनेक परिवर्तन किए। दीपचन्द ने अंग्रेजी शासन के साथ भारत में आने वाले हारमोनियम को भी सांग वाद्यों में शामिल किया। उन्होंने कलाकारों और टेकियों की संख्या भी बढ़ा दी, जिनका काम था मुख्य सांगी या सांग के पात्रों द्वारा गाए गए आरम्भिक मुखड़ों को दोहराना। दीपचन्द के स्त्री पात्रों के आभूषण और वस्त्र-सज्जा थे – काले रंग का लहंगा उस पर धारू रंग की अंगिया और लाल रंग का ओढणा आदि। पं. दीपचन्द के प्रसिद्ध सांग थे – सोरठ, सरण दे, राजा भोज, नल दमयन्ती, गोपीचन्द, हरिश्चन्द्र, उत्तानपाद और ज्यानी (ज्ञानी) चोर।
ऐसा कहा जाता है की प्रथम विश्व युद्ध के समय सेना में जब जवानों की आवश्यकता पड़ी तो सरकार ने इन से अनुरोध किया और उन्होंने अपने सांगो के माध्यम से हरियाणा में यह जादू भरे शब्द युवाओं के मन में भरे -
" भरती होल्यो रै थारै बाहर खड़े रंगरूट
इत राखो मधम बाणां अर मिल्लै फ्ट्या पुराणा
उत मिल्लैगा फुलबूट। "
6. बाजे भगतः
हरदेवा के शिष्य बाजे नाई (बाजे भगत) सुसाणा निवासी भी हरियाणा के प्रमुख सांगियों में से एक थे। उनकी रागनियों में भक्ति व नीति की प्रधानता थी। उन्होंने साज-संगीत में काफी सुधार किया और सारंगी, ढोलक, नगाड़े तथा हारमोनियम के अनेक कुशल कलाकारों को मंच पर लेकर आए।
हरदेवा के शिष्य बाजे नाई की भी प्रसिद्धि हरियाणा में खूब फैली। बाजे भगत ने अपनी रंग भरी रागनियों से हरियाणा के जनमानस को बीन बजाने वाले सपेरे की तरह मंत्र - कीलित कर दिया। उनके लोकप्रिय सांग थे, जमाल, रघबीर, चन्दकिरण और गोपीचन्द।
उनके सांगों में श्रंगार की गहरी छाप होती थी-
" बाजे कह कर ठंडा सीना , लाग्या सामण किसा महीना।
नाचै नै बणके मोर मोरणी आंसू चाहवै सै।। "
इनके प्रमुख सांग है चंद किरण , जमाल और जानी चोर।
7. पंडित लख्मीचंदः
हरियाणा के सांग साहित्य को यदि किसी ने चरम पर पहुंचाया और इस कला के सूर्य कहे जाते हैं ,उनका नाम है पंडित लख्मीचंद। इनको सांग शिरोमणी कहा जाता है।
आरम्भ में पं. लखमीचन्द के सांगों को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो पाई क्योंकि उनके सांगों में शृंगार प्रवृति अधिक पाई जाती थी। समाज में इस प्रकार के सांगों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। पं. लखमीचन्द ने इस बात को समझा व इनके गुरु मानसिंग के कारण इन्होंने अपने दो विद्वान साथियों के साथ मिलकर पुराणों की कथाएं सुनी, उपनिषदों के प्रसंग सुने और अनेक दर्शनों की गुत्थियों की चर्चा करते हुए उनके ज्ञान को अपने भीतर आत्मसात किया और इन्होंने धार्मिक व पौराणिक सांगों की रचना आरंभ की । इनकी श्रृंगारी प्रवृति पर आध्यात्मिकता का पुट चढ़ता चला गया।
इनके ये सांग भाव -भाषा, कला-कौशल सभी दृष्टि से अद्वितीय थे। उन्होंने लगभग 2500 रागनियों और 1000 नई लोकधुनों का विकास किया। उनके प्रसिद्ध सांग हैं – हरिश्चन्द्र मदनावत,नौटंकी, शाही लकड़हारा, नल-दमयन्ती, सत्यवान सावित्री, शकुन्तला, द्रोपदीचीर उत्तानपाद, भगतपूरणमल, हीर-रांझा, सेठ ताराचन्द, मीराबाई, पदमावत, ज्यानीचोर, हीरामल जमाल और राजा भोज आदि।
सांग करते समय इनका अभिनय लाजवाब होता था, उनके अभिनय उत्कर्ष का उल्लेख पंडित मांगेराम ने इस प्रकार किया है -
" लख्मीचंद नै मार गेरे जब लकड़हारा गावण लाग्या।
बहुत सी दुनिया पाछै रहगी नए - नए सांग बणावण लाग्या
लख्मीचंद का माई चन्द था काट बैल सी हाल्या करता
बागां मैं नौटंकी बण के खटोले से साल्या करता
आगै - आगै नौटंकी फेर पाछै बामण चाल्या करता
लख्मीचंद माली की बणके साड़ी बांध्या करता । "
8. पंडित मांगेराम :
पंडित मांगेराम लख्मीचंद के शिष्य एवं समकालीन थे। वे लख्मीचंद से प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गये । उन्होंने स्वयं कहां है -
" पहले मोटरकार चलाई ,
फेर सांग सीख लिया लख्मीचंद के डेरे मैं ।
गैरां के दुख दूर करूं सूं
या ताकत सै मेरे मैं ।। "
मांगे राम जी ने ऐतिहासिक, पौराणिक, भक्ति, लौकिक गाथाओं से सम्बन्धित सांगों का डंका हरियाणा के गांव-गांव में बजाया। यही नहीं वे राष्ट्रवादी भावनाओं से प्रेरित, सामाजिक जीवन से सम्बन्धित अभिनय भी अपने कला-मंच के माध्यम से करते थे। उनके प्रसिद्ध सांग थे- रूप बसंत, हकीकतराय, कृष्ण-जन्म, ध्रुवभगत, गोपीचन्द, भरथरी, चन्द्रहास, चापसिंह और शकुन्तला आदि। उनके सांगों की प्रसिद्धिी फिरोज जालंधर, अमृतसर, लाहौर, मुलतान और बन्नू के हाट तक के इलाकों तक पहुंच गई थी।
उनके सांगों के मूल में भक्ति भावना , धर्म और ज्ञान का मार्ग रहा है। ऐसे सांगों की रचना ये करना चाहते थे , जिनको बाप और बेटी इकट्ठे बैठकर देख सकते हो। श्रृंगार और वीर रस का वर्णन अनुषांगिक रूप में हुआ है। पंडित मांगेराम ने सामयिकता एवं सुविधा अनुकूल अपने सांगों में स्त्री पात्रों को जम्फर तथा सलवार पहनाई , जिसकी जनता ने भूरी भूरी प्रशंसा की ।
मांगे राम के साथ-साथ लखमीचन्द के शिष्य, माईचन्द, सुलतान, रतीराम, चन्दन भी सांग करते थे।
9. धनपत-
ये मांगे राम के समकालीन थे । धनपत सांगी निदाणा-निवासी थे । इनकी गायन शैली और अभिनय कहीं उत्तम थे, परन्तु रागनी-रचना की दृष्टि से मांगेराम अग्रणी थे। धनपत सिंह के प्रसिद्ध सांग थे-लीलोचमन, ज्यानी चोर, सत्यवान-सावित्री तथा बन-देवी। उनका लीलो चमन सांग, भारत विभाजन पर आधारित था जो राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित था। ‘सत्यवान-सावित्री’ सांग के माध्यम से उन्होंने नारी शक्ति को विशेष रूप से प्रेरित किया।
10. पं. रामकिशन ब्यास.-
पं. रामकिशन ब्यास ने भी सन 1945 से 1990 तक इस परम्परा का बखूबी निभाया। ये सांग और रागनी के क्षेत्र में ‘व्यास जी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने अनेक सांगों की रचना की और अभिनय भी किया। रामकिशन ब्यास की रचनाएं अत्यन्त लोकप्रिय रहीं। उनके सांग मंच को सुशोभित करेन वाले व्यक्ति थे उनके नक्कारची इम्मन, सारंगी उस्ताद-सब्बीर हुसैन, हारमोनियम मास्टर-ताहिर हुसैन प्यारे-ढोलकवादक आदि। रूपकला जादूखोरी, धर्मजीत, सत्यवान-सावित्री, हीरामल-जमाल और कम्मो कैलाश, रामकिशन ब्याज जी के प्रसिद्ध सांग थे। उनके सभी सांग लोकजीवन में प्रेमभावना और भक्तिभावना और सौन्दर्य भावना संचार करने वाले थे।
11. खिम्मा-
ये रामकिशन व्यास के समकालीन थे । सांगी खिम्मा भी लगभग 60 वर्ष तक सांग परम्परा को निभाते रहे। ये बाजे भगत के शिष्य और गोरड़ निवासी हरदेवा के पुत्र थे। इन्होंने बाजे भगत की सांग प्रणाली को निभाया। परन्तु ये अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाए।
12. अन्य सांगी-
बाजे भगत के शिष्य हुश्यारे-प्यारे ने भी सांग परम्परा को निभाया। मांगे राम के शिष्य सरूपलाल व कपूर आदि ने भी कई वर्षों तक अपने गुरू के सांगों का मंचन किया। धनपत सिंह के शिष्य श्याम, गांव धरोधी (जींद), चन्दगीराम गांव भगाणा (हिसार), बनवारी ठेल, गांव मोखरा (रोहतक) आदि ने भी सांग की परम्परा को जीवित रखा। इसी शृंखला में रामकिशन व्यास के शिष्य पाल्लेराम, गांव खटकड़ (जींद) में भी अपने गुरू की परम्परा को आगे बढ़ाया। लखमीचन्द की प्रणाली में जो सांग मंचित हुए है वे उनके पुत्र तुलेराम और उनके शिष्य जहूर मीर के द्वारा किए गए हैं।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम देखते हैं कि सांगों का विकास काफी लंबे समय से चला आ रहा है और उनकी प्रसिद्धि आज भी बनी हुई है। यह हरियाणवी समाज के लोक मानस के निकट है और कहीं न कहीं हरियाणवी लोग अपने आप को इन से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं।
हरियाणवी संस्कृति को इन सभी सांगियों ने
अपने सांगों से माध्यम से अभिव्यक्त किया और हरियाणा समाज के मनोरंजन के माध्यम से लोकप्रद शिक्षाओं का प्रचार प्रसार भी किया। इसमें इन सभी का अमूल्य योगदान रहा है।