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गुरुवार, 14 जनवरी 2021

ई-मेल किसे कहते हैं इसका अर्थ व प्रक्रिया पर प्रकाश डालिए

ई-मेल किसे कहते हैं इसका अर्थ स्वरूप व प्रक्रिया पर प्रकाश डालिए।

b.a. सेकंड ईयर
सेमेस्टर 3

ईमेल का पूरा नाम इलेक्ट्रॉनिक मेल है ।नेटवर्क द्वारा एक-दूसरे कंप्यूटर तक सूचना का संचार किया जाता है एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर पर जो सूचनाएं भेजी जाती हैं उसे दूसरे कंप्यूटर पर पढ़ा जा सकता है तथा मुद्रित किया जा सकता है उसे सुरक्षित रखा जा सकता है।
इंटरनेट की सबसे लोकप्रिय सेवा ईमेल है इसका प्रयोग कहीं भी बैठा हुआ व्यक्ति दुनिया के किसी भी कोने में अपना संदेश तुरंत भेज सकता है कहा जा सकता है कि मेल का तात्पर्य डाक से है इलेक्ट्रॉनिक रूप में एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर कहते हैं।
यह मेल बॉक्स केंद्रीय कंप्यूटर पर उपस्थित डिस्क पर होता है इस मेल बॉक्स पर जो पता होता है उसे ईमेल पता कहती हैं जब हमने किसी को भी मेल भेजनी होती है तो हमें उसके ईमेल का पता मालूम होना चाहिए वोट मेल याहू ड्रा मेल आदि प्रमुख इंटरनेट सरवर हैं इनमें से कुछ सरवर मुफ्त में डाक भेजने प्राप्त करने तथा अपना खाता खोलने की सुविधा प्रदान करते हैं।
ई-मेल की प्रमुख विशेषताएं
ई-मेल की प्रमुख विशेषता यह है कि यह वनवे एकतरफा पद्धति है यह टेलीफोन की भांति एक समय में दोनों से यानी दो व्यक्तियों की बातचीत नहीं करवा सकती इसकी सूचना प्रदान करने की गति बहुत तेज होती है यदि डाक प्राप्त करता का कंप्यूटर बंद भी हो तब भी यह डाक बॉक्स में सम्मिलित हो जाती है कंप्यूटर चालू होने पर यह डाक प्राप्त करता को प्राप्त हो जाती है ईमेल भेजने वाले को ईमेल किए जाने की सूचना भी प्राप्त हो जाती है आरंभ में यह सुविधा केवल अंग्रेजी में ही उपलब्ध थी लेकिन अब यह सुविधा हिंदी में भी उपलब्ध है वह दुनिया के नाम से हिंदी को पोर्टल भी इंटरनेट पर आ चुका है ईमेल की सहायता से हिंदी में भी मेल भेजी जा सकती है अब हिंदी में कंप्यूटर पर हर प्रकार का काम किया जा रहा है।
ईमेल भेजने की प्रक्रिया
ईमेल भेजना प्राप्त करना देखना ईमेल खाता बंद आने के बाद ही खाता धारी को उसका पता बताया जाता है जिसका प्रयोग आप ईमेल भेजने में कर सकते हैं यदि खाता धारी का ईमेल नहीं है तो उसे मेल नहीं भेजी जा सकती उदाहरण
Raj at hotmail.com
Prem @ gmail.com
GCC Vani @ red clip.com
ईमेल पता बाएं से दाएं ओर यानी लेफ्ट से राइट की तरफ पढ़ा जाता है जैसे रवि एट द hotmail.com सुरेश एट द gmail.com।
राज और प्रेम प्रयोग करता का नाम है
हॉटमेल व जीमेल संगठनों के नाम पर जो वह संगठन है जो ईमेल सर्विस प्रोवाइड कर रहे हैं। कौन से अभिप्राय व्यापारिक संगठन से है
ईमेल भेजना
ईमेल भेजने के लिए सबसे पहले आपको अपने खाते में साइन इन करना होगा इसके लिए आप पहले ब्राउजरविंडो के एड्रेस बार में www.gmail.com टाइप करके एंटर की को दबाएं इसके बाद जीमेल का मुख्य पृष्ठ खुलकर स्क्रीन पर आ जाएगा फिर यूजरनेम बॉक्स में अपना यूजरनेम जो भी आपका यूजरनम है और पासवर्ड एडिट बॉक्स में डाल कर आप पासवर्ड टाइप करके साइन इन बटन पर क्लिक करें।
तत्पश्चात अपना लेटर बॉक्स या इनबॉक्स खुलकर स्क्रीन पर आ जाएगा इनबॉक्स खुलने के बाद बाय और कंपोज मेल विकल्प पर क्लिक करें इससे ईमेल लिखने का डायलॉग बॉक्स या फार्म स्क्रीन पर आ जाएगा
2 टेक्स्ट बॉक्स उस व्यक्ति का ईमेल पता भरें जिसे आप मेल करना चाहते हैं जैसे उदाहरण के लिए राय एट द रेट hotmail.com या प्रेम एट द gmail.com इसके नीचे सब्जेक्ट एक्स बॉक्स आएगा जिसमें पत्र का भी से टाइप करके जैसे बर्थडे पार्टीनीचे दिए गए बड़े बॉक्स में अपना संदेश टाइप कर ले इन सभी क्रियाओं को करने के बाद तू शीर्षक के ठीक ऊपर सेंड बटन को क्लिक करें आपका संदेश तुरंत ही चला जाएगा अपनी स्क्रीन पर वापस लौटे और सेंड में देखे तो आपको सेंड दिखा देगा
ई-मेल को देखना
ई-मेल को देखना और पढ़ना बहुत ही आसान कार्य है निम्नलिखित क्रियाओं इसमें की जाती है
अपने वेब ब्राउज़र या एड्रेस बारे में ईमेल आईडी अर्थात जो आपकी ईमेल आईडी है और पासवर्ड है वह टाइप करें और साइन इन करें इन वह इनबॉक्स में जाएं और आपने बॉक्स में की थी अनुसार पूरी सूचनाएं जो भी मिला आप इसके ऊपर आए हैं आप देख सकते हैं ईमेल पढ़ने के लिए संदेश के विषय पर अपना कर ले जाकर क्लिक करके स्क्रोल करते हुए आप सभी सूचनाएं जान सकते हैं अपने अनुसार जो आपको काम की मेल लगती हैं वह किसी अनुसार आप कभी भी उनको दोबारा देख सकते हैं जो आपके काम की नहीं है उनको आप डिलीट भी कर सकते हैं।

बुधवार, 13 जनवरी 2021

निबंध किसे कहते हैं निबंध का स्वरूप परिभाषा और विशेषताएं लिखिए।

निबंध किसे कहते हैं इसका स्वरूप, परिभाषा और विशेषताएं लिखिए
b.a. m.a. हिंदी की क्लासेज के लिए
यदि पद्य कविताओं की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है आचार्य रामचंद्र शुक्ल
यदि कोई अच्छा कवि जीवन की व्याख्या करता है तो वह एक अच्छा आलोचक हमें वह व्याख्या समझाने में सहायक होता है।
निबंध
भूमिका

निबंध गद्य को एक विचार प्रधान विधा है जो अपने वर्तमान रूप में आकर और शैली की दृष्टि से अर्वाचीन है संस्कृत साहित्य में भी निबंध शब्द का प्रचलन रहा है वहां उसका प्रयोग गद्दे के साथ-साथ बंधन या बांधी के अर्थ में किया जाता था बंधन के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग गीता में दिखाई पड़ता है।
निबंध का इतिहास

निबंध के संदर्भ में डॉक्टर लक्ष्मीसागर वर्षा के विचारों यह स्पष्ट होता है कि हिंदी में निबंध रचना भी खड़ी बोली गद्य की विशेषता है और अभी इसका इतिहास एक शताब्दी पुराना नहीं है निबंध शब्द प्राचीन है किंतु निबंध रचना हिंदी की साहित्यिक चेतना का प्रतीक है गद्दे की विचार प्रधान विधाओं में निबंध का अपना एक विशेष स्थान है इसके महत्व का प्रतिपादन करते हुए रामचंद्र शुक्ल कह चुके हैं कि यह पद्य कविताओं की कसौटी है तो गद्दे निबंध की कसौटी है अर्थात गद्य के श्रेष्ठतम रूप के दर्शन निबंध में ही होती है ।

शाब्दिक अर्थ
हिंदी का शब्द निबंध अंग्रेजी के ऐसे शब्द का पर्याय है ऐसे का अर्थ होता है एस्से।

परिभाषा

 किसी निश्चित विषय पर विचारों को श्रंखला बद रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास यह निबंध कहलाता है ।
निबंध का वर्तमान स्वरूप पश्चिम की देन है पाश्चात्य विद्वानों द्वारा इसके रूप पर प्रस्तुत विवेचना का उल्लेख करना है संगत ना होगा।
निबंध का महत्व
निबंध शब्द अंग्रेजी के ऐसे शब्द का समानार्थी है ऐसे शब्द का अर्थ होता है प्रयत्न या प्रयास करना फ्रांस के प्रसिद्ध निबंध लेखक मॉन्टेनर के अनुसार ऐसे व्यक्तिगत विचार या अनुभूति को कलात्मक सूत्र में पिरो कर पाठक के सामने प्रस्तुत करने का एक प्रयत्न मात्र है अपने निबंधों के संबंध में माउंटेन का कहना है कि यह मेरी अपनी भावनाएं हैं इनके द्वारा में किसी नवीन सत्य के अन्वेषण का दावा नहीं करता इनके द्वारा मैं अपने आप को पाठकों की सेवा में समर्पित करता हूं इस उदाहरण के द्वारा हमें निबंध का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है निबंध में निबंधकार के व्यक्तित्व की प्रधानता रहती है व्यक्तित्व की प्रधानता में ही व्यक्त निबंध का महत्व निहित है साहित्य के अन्य किसी अंग में साहित्यकार के व्यक्तित्व की इतनी प्रधानता नहीं रहती है
निबंध के प्रकार
निबंधों के प्रमुख चार प्रकार होते हैं 
कथात्मक निबंध
 वर्णनात्मक निबंध 
विचारात्मक निबंध 
 भावात्मक निबंध 
कथात्मक निबंध -इन निबंधों में काल्पनिक इतिवृतों, , आत्मकथात्मक वृत्तातों तथा ऐतिहासिक कथाओं को निबंध के रूप में प्रस्तुत किया जाता है वर्णनात्मक निबंध
 इन निबंधों में स्वर में प्रकृति दृश्य तथा मानवीय जीवन से संबंधित कतिपय घटनाओं को प्रस्तुत किया जाता है ।
विचारात्मक निबंध 
इन्हें चिंतन आत्मक निबंध भी कहा जाता है इसमें बुद्धि तत्व की प्रधानता रहती है विचारों की बहुलता के कारण यह निबंध थोड़े जटिल हो जाती हैं ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध है इसी कोटि के अंतर्गत आते हैं ।
भावात्मक निबंध 
इन में बुद्धि तत्व की अपेक्षा भावना की प्रधानता रहती है निबंध में भावनाओं का तूफान सा पड़ता है अध्यापक पूर्ण सिंह के निबंध है।
 इसी कोटि के  निबंधों की शेैली विषयों के साथ-साथ मनीषियों द्वारा सामान्यतः निबंधों का विभाजन 5 शैली में किया जाता है।।
 समास शैली
 व्यास शैली 
तरंग शैली 
विक्षेप शैली और धारा शैली
 समास शैली में कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए लेखक तत्सम शब्दों का आश्रय लेता है ।इनमें कहीं ना कहीं भाषा की कथा भी हो जाती है आचार्य शुक्ल की निबंध इसी शैली में लिखे हैं ।

व्यास शैली 
व्यास शैली के अंतर्गत छोटे-छोटे व्यक्तियों में अपने को प्रस्तुत किया जाता है ।आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इस शैली के लेखक थे इस शैली में भाषा के परिमार्जन पर बल दिया जाता है ।
तरंग शैली 
लहरों के उतार-चढ़ाव के समान यहां भाव का उतार-चढ़ाव रहता है भाषा की एकरूपता नहीं रहती है भावात्मक निबंधों में इसका प्रयोग किया जाता है योगी हरि और सरदार पूर्ण सिंह के निबंध इसी शैली का एक उदाहरण है।
 विक्षेप शैली 
यहां तक का आश्रय लेकर हवाओं को निरंकुश रूप से प्रस्तुत किया जाता है कभी-कभी बुद्धि के नियंत्रण के अभाव में यहां पर अंगल पर लाभ भी दिखाई पड़ता है इसे विक्षेप शैल कहा जाता है।
 धारा शैली
 इस शैली के अंतर्गत लेखक के विचार धाराप्रवाह में प्रवाहित होते दृष्टिगोचर होते हैं यहां दक्षता प्रधान रहता है प्रभाव निरंकुश होकर विचारों में समन्वित हो जाते ही यहां बुद्धि तत्व भाव के प्रभाव में बाधक ना होकर साधक होता है अध्यापक पूर्ण सिंह का मजदूरी और प्रेम निबंध इसक उत्कृष्ट उदाहरण है।
 निष्कर्ष-संक्षेप में कहा जा सकता है कि निबंध की शैली में प्रवाह संगीत सरलता के साथ-सथ शब्द शक्तियों और अलंकारों मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग भी अपेक्षित है। निबंध साहित्यकार की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जिसमें वह अपने व्यक्तित्व अपने विचारों अपने युग की युगबोध को श्रंखला बद रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करता है।

सोमवार, 4 जनवरी 2021

काव्य के मुख्य तत्व

काव्य के मुख्य तत्व
*काव्य के मूल तत्व*
            काव्य को ठीक से समझने के लिए लक्षणों के साथ-साथ उसके प्रमुख तत्वों की पहचान भी आवश्यक है। भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य के स्वरूप के संबंध में उसके तत्वों का भी उल्लेख किया है। काव्य रचना के लिए, उसका अस्तित्व सिद्ध करने के लिए जो तत्व होते हैं; उन्हें ही काव्य के तत्व कहा जाता है। काव्य के यह अनिवार्य तत्व है। अतः इन्हें मूलभूत तत्व भी कहा जाएगा।
              काव्य में एक विशिष्ट प्रकार का भाव होता है; इस भाव को ठीक से परखने वाला, सोचने वाला एक विचार होता है; इसे सजाने वाला भी एक तत्व होता है तथा इसे प्रकट करने वाला भी एक तत्व होता है। इन सभी का मिला हुआ जो रूप तैयार होता है, उसे ही काव्य के तत्व कहा जाएगा। इस आधार पर काव्य के तत्व निम्न अनुसार है -

1. भाव तत्व -
            भाव तत्व काव्य का ही नही, अपितु सम्पूर्ण साहित्य का मूल तत्व है । यह सम्पूर्ण साहित्य का प्राण तत्व है। इसे सृजनात्मक तत्व भी कहते हैं । भाव ही कवि की कल्पना का प्रेरक है। भाव के आधार पर ही कविता आकार ग्रहण करती है। भाव जितना अच्छा होगा, कविता उतनी अच्छी होती है। इसलिए भाव तत्व पर ही कविता का प्रभाव, महत्व निर्भर करता है। संस्कृत आचार्यों ने काव्य में भावों को जीवंत तत्व माना भी है क्योंकि भाव ही काव्य को शक्ति प्रदान करते हैं।
                
भाव तत्व के कारण साहित्य को शास्त्र से पृथक माना जाता है। साहित्य की सरसता का आधार भाव तत्व ही होता है। चित्त की स्थायी और अस्थायी वृत्तियों का नाम भाव है। भावतत्व साहित्य की प्रभावात्मकता और संप्रेषणीयता का आधार है।  भाव कविता का आधार व शक्ति तो है ही लेकिन काव्य को संपूर्ण रूप से प्रभावी बनाने के लिए भावों में विविधता का होना आवश्यक है। विविधता के कारण ही काव्य एकरस होने से बचता है। इतना ही नहीं आदि से अंत तक काव्य को प्रभावी बनाने के लिए भी भावों में विविधता का होना आवश्यक है।
             विविधता के साथ ही काव्य का उदात्त होना आवश्यक है। काव्य के जितने भी भाव होते हैं, वह सस्ते मनोरंजन के लिए नहीं होते। भावों का स्थाई प्रभाव होना चाहिए। इसीलिए भावों का उदात्त होना आवश्यक है। उदात्तता के कारण ही काव्य भव्य-दिव्य बनता है। भावों में निरंतरता का गुण भी होना चाहिए,  काव्य को उत्कृष्ट व श्रेष्ठ बनाने के लिए भावों का मौलिक होना आवश्यक है।
         यदि भावों की अभिव्यक्ति निरंकुश है तो वह साहित्य को असुंदर तथा अहितकर बना देती है।
          भाव तत्व साहित्य का अभिन्न तथा अनिवार्य तत्व जरूर है, लेकिन उसकी स्थिति साहित्य की विभिन्न विधाओं में समान रूप से नहीं है। गीत में यह अत्याधिक प्रखर रूप में अभिव्यक्त होता है। युगीन परिवेश तथा विशेष मताग्रह का असर भी भाव तत्व की स्थिति पर होता है।
         
2. बुद्धि तत्व (विचार तत्व)
              
बुद्धि तत्व का महत्व इसी में है कि भाव, कल्पना आदि का ठीक संयोजन और शब्द का प्रयोग औचित्यपूर्ण हो। औचित्य के बिना विश्वसनीयता और प्रभाव नष्ट हो जाते हैं। भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने इस तत्व को महत्वपूर्ण माना है। विचार तत्व का संबंध अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों से है। बुद्धि तत्व के आधार पर ही काव्य में विचार लाए जाते हैं। बुद्धि तत्व का संबंध विचारों और तत्वों से है। प्रत्येक साहित्य में किसी न किसी मात्रा में तथ्यों, विचारों और सिद्धांतों का समावेश किया जाता है। बुद्धि तत्व के आधार पर काव्य में विशिष्ट विचारों का निर्माण किया जाता है। इन्हीं विचारों के आधार पर व्यक्ति मन तथा समाज मन संस्कारित किए जाते हैं। अतः साहित्य में वस्तुओं और घटनाओं का चित्रण उसके उचित रूप में ही किया जाता है। प्रमुखतया इसका स्वरूप कथा संगठन, चरित्र चित्रण और भाव निरूपण के क्षेत्र में देखा जा सकता है।
              कथावस्तु की सुक्ष्म रेखाओं के निर्माण के लिए अर्थात घटनाओं का चुनाव करना घटनाओं को संग्रहित करना की उसका यथेष्ट प्रभाव पडे और कर्म के अनुरूप फल दिखाने के लिए बुद्धि तत्व का प्रयोग किया जाता है। इस तत्व के कारण भावनाओं पर अंकुश रखा जाता है। बुद्धि तत्व में ऐसे विचारों की अपेक्षा की जाती है, जो दार्शनिक की तरह सत्य का निर्माण करने वाला हो। इसी सत्य के कारण यह विचार काल की मर्यादा के परे होते है। फिर भी इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि साहित्य में विचारों का क्या महत्व है? विचारों का चित्रण उसी सीमा तक ग्राह्य माना जा सकता है, जहां वे रचना के भाव सौंदर्य में बाधक न बने। भावशून्य विचारों का वर्णन साहित्य को उसकी विशिष्ट उपाधि से वंचित करके दर्शन नीतिशास्त्र या उपदेश ग्रंथ का रूप प्रदान कर देता है। जिस तरह विचार तत्व भाव तत्व को निरी भावुकता तथा निरर्थक प्रलाप होने से बचाता है; उसे आधारभूमि प्रदान कर उन्हें व्यवस्थित बनाकर अभिव्यक्तिक्षम एवं संप्रेषणीय बनाता है; उसी प्रकार भाव तत्व विचार तत्व को शुष्क बौद्धिक होने से बचा कर उन्हें सहज ग्राह्य और प्रभावी बनाता है। अतः स्पष्ट है कि निरंकुश भावाभिव्यक्ति मात्र प्रलाप बन जाती है, साहित्य नहीं। वैसे ही मात्र विचारों की अभिव्यक्ति बोझिल पांडित्य प्रदर्शन मात्र बन जाती है, साहित्य नहीं। इसी कारण भाव और विचारों का तादात्म्य साहित्य के लिए अनिवार्य होता है।

3. कल्पना तत्व
                साहित्य में भावनाओं का चित्रण कल्पना के द्वारा ही संभव है। इसी कल्पना के कारण कवि औरों के सुख-दुख और दूसरों की अनुभूतियों का चित्रण इस प्रकार कर देता है कि वह हमारा सुख दुख बन जाता है। वह परोक्ष की घटना को प्रत्यक्ष रूप में, अतीत की घटना को वर्तमान में और सूक्ष्म भावों को स्थूल रूप में प्रस्तुत कर देता है। इसका श्रेय उसकी कल्पना शक्ति को ही है। काव्य में सौंदर्य और चमत्कार की सृष्टि भी कल्पना के द्वारा ही संभव है। वस्तुतः प्रत्येक युग और प्रत्येक भाषा का साहित्य कल्पना शक्ति की अपूर्व क्षमता, उसके द्वारा निर्मित वैभाव और अलौकिक चमत्कार की कहानियों से भरा पड़ा है। साहित्यकार की क्षमता असत्य को सत्य में स्थूल को सूक्ष्म में लौकिक को अलौकिक में परिवर्तित करने की विशेष शक्ति से संपन्न होती है। लेखक की कल्पना विषय की समुचित अवधारणा, तदनुरूप कथानक एवं घटनाएं गढ़ती है, पात्रों का चरित्र गढती है, उसका नामकरण करती है, संवादों के लिए भाषा का चुनाव करती है और अनुरूप वातावरण बनाती है। कलाकार इसकी सहायता से बाह्य जगत को अधिकपूर्ण एवं सुंदर बनाकर प्रस्तुत करता है।
               साहित्य का केंद्रीय तत्व भाव है और कल्पना उसे प्रभावी रूप प्रदान करती है। परंतु कल्पना कभी-कभी भाव से भी अपनी शक्ति को सशक्त बनाकर स्वतंत्र रूप में प्रदर्शन करने लगती है; तब साहित्य का सौंदर्य नष्ट हो जाता है। भावशून्य कल्पना से साहित्य कोरा चमत्कार ही बन कर रह जाता है बिहारी के वियोग श्रृंगार से संबंधित दोहे इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। वास्तव में कल्पना का प्रयोग भावना के सार्थक चित्रण में होना चाहिए अन्यथा उसका अपना कोई स्वतंत्र महत्व नहीं है।

4. शैली तत्व
                काव्य के कला पक्ष से संबंधित इस तत्व को  'शब्द तत्व' भी कहा जाता है। रचनाकार जिस भाषा, जिस रूप और जिस पद्धति से अपनी अनुभूति को अभिव्यंजित करता है, उसे शैली कहा जाता है। इसके अंतर्गत भाषा, शब्द चयन, अलंकारों का प्रयोग, शब्द का उपयोग, साहित्य स्वरूप आदि का समावेश होता है। इस तत्व को अधिकांश भारतीय विद्वान शरीर तत्व के रूप में परिभाषित करते है। इस तत्व का आधार भाषा है। अतः इसे भाषिक संरचना भी कहा गया है। शैली काव्य के बाह्य अंग से संबंधित होती है। जिस प्रकार शरीर के अभाव में प्राण का अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार भाषा के अभाव में साहित्य की कल्पना संभव नहीं है। सर्वोत्कृष्ट साहित्य वह है, जिसमें भाव पक्ष व शैली पक्ष दोनों में अद्भुत समन्वय हो। किंतु जब कविगण मात्र शैली पर ही ध्यान केंद्रित करता है और भाव पक्ष का विस्मरण कर बैठता है, तो काव्यत्व क्षीण हो जाता है।
                 उपर्युक्त साहित्य के तत्वों का सूक्ष्मता से अध्ययन करने के उपरांत स्पष्ट होता है, कि साहित्य के तत्व किसी जड़ वस्तु के अंगों के समान अलग-अलग नहीं होते; बल्कि एक दूसरे के साथ इस तरह मिले हुए होते हैं कि इनको अलग-अलग करना संभव नहीं होता। भाव, विचार, कल्पना, शैली का संगठित रूप  साहित्य होता है। युगीन परिवेश और विशेष मताग्रह के अनुरूप इन तत्वों में से किसी एक तत्व की व्याप्ति बढ़ जाती हुई दिखाई देती है। विधा विशेष के अनुरूप किसी विशेष मत की प्रधानता हो जाती है। फिर भी अन्य तत्व भी कम-अधिक मात्रा में प्रत्येक साहित्य में विद्यमान होते है

रविवार, 3 जनवरी 2021

अलंकार व अलंकार भेद

अलंकार:-
अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – अलम + कार ।
यहाँ पर अलम का अर्थ होता है - आभूषण ।
मानव समाज सौन्दर्य का बड़ा उपासक है, उसकी प्रवृत्ति के कारण ही अलंकारों को जन्म दिया गया है । जिस तरह से  एक नारी अपनी सुन्दरता को बढ़ाने के लिए आभूषणों को प्रयोग में लाती हैं उसी प्रकार भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है । जो शब्द काव्य की शोभा को बढ़ाने या उसमे चमत्कार उत्पन्न करने में सहायक तत्व के रूप में होते हैं, उसे अलंकार कहते हैं ।
उदाहरण :-  ‘भूषण बिना न सोहई- कविता, बनिता मित्त’

अलंकार के भेद :- अलंकार के 3 भेद हैं
1. शब्दालंकार 2. अर्थालंकार 3. उभयालंकार

1. शब्दालंकार :-
शब्दालंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – शब्द + अलंकार ।
शब्द के दो रूप होते हैं – ध्वनी और अर्थ । ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टि होती है । 
अर्थात जहां पर शब्दों के माध्यम से काव्य या कविता में चमत्कार उत्पन्न हो जाता है और उन शब्दों की जगह पर समानार्थी शब्द को रखने से वो चमत्कार समाप्त हो जाये वहाँ शब्दालंकार होता है |

शब्दालंकार के भेद :-
अनुप्रास अलंकार
यमक अलंकार
पुनरुक्ति अलंकार
वक्रोक्ति अलंकार
श्लेष अलंकार

* अनुप्रास अलंकार :-
अनुप्रास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – अनु + प्रास । यहाँ पर अनु का अर्थ है- बार -बार  और प्रास का अर्थ होता है – वर्ण । जब किसी वर्ण की बार – बार आवृति हो तब जो चमत्कार होता है उसे अनुप्रास अलंकार कहते है।
जैसे :- 
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए ।

अनुप्रास के भेद :-

छेकानुप्रास अलंकार
वृत्यानुप्रास अलंकार
लाटानुप्रास अलंकार
अन्त्यानुप्रास अलंकार
श्रुत्यानुप्रास अलंकार

* छेकानुप्रास अलंकार :-
जहाँ पर स्वरुप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृति एक बार हो वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है ।

जैसे :- रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।

* वृत्यानुप्रास अलंकार :-
जब एक व्यंजन की आवर्ती अनेक बार हो वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार कहते हैं, जैसे :- “चामर- सी, चन्दन-सी, चांद-सी,
चाँदनी चमेली चारु चंद- सुघर है।”

* लाटानुप्रास अलंकार :-
जहाँ शब्द और वाक्यों की आवर्ती हो तथा प्रत्येक जगह पर अर्थ भी वही पर अन्वय करने पर भिन्नता आ जाये वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है अथार्त जब एक शब्द या वाक्य खंड की आवर्ती उसी अर्थ में हो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है, जैसे :- तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

* अन्त्यानुप्रास अलंकार :-
जहाँ अंत में तुक मिलती हो वहाँ पर अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है, जैसे :- 
”लगा दी किसने आकर आग ।
कहाँ था तू संशय के नाग ?”

* श्रुत्यानुप्रास अलंकार :-
जहाँ पर कानों को मधुर लगने वाले वर्णों की आवर्ती हो उसे श्रुत्यानुप्रास अलंकार कहते है, जैसे :-   
”दिनान्त था , थे दीननाथ डुबते ,
सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे ”

2. यमक अलंकार  :-
यमक शब्द का अर्थ होता है – दो । 
जब एक ही शब्द दो या दो से ज्यादा बार प्रयोग हो पर हर बार उसका अर्थ  अलग-अलग आये वहाँ पर यमक अलंकार होता है ।

जैसे :- कनक कनक ते सौगुनी , मादकता अधिकाय ।
वा खाये बौराए नर , वा पाये बौराये ।

3. पुनरुक्ति अलंकार :-
पुनरुक्ति अलंकार दो शब्दों से  मिलकर  बना है – पुन: +उक्ति ।
 जब कोई शब्द दो बार दोहराया  जाता है वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है ।

4. विप्सा अलंकार  :-
जब आदर, हर्ष, शोक, विस्मयादिबोधक आदि भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति को ही विप्सा अलंकार कहते है ।

जैसे :- मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधामय
राधा मन मोहि-मोहि मोहन मयी-मयी ।

5. वक्रोक्ति अलंकार :-
जहाँ पर वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाले उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है ।

वक्रोक्ति अलंकार के भेद :-

* काकु वक्रोक्ति :-
जब वक्ता के द्वारा बोले गये शब्दों का उसकी कंठ ध्वनी के कारण श्रोता कुछ और अर्थ निकाले वहाँ पर काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है ।

जैसे :- मैं सुकुमारि नाथ  बन जोगू ।

* श्लेष वक्रोक्ति अलंकार :-
जहाँ पर श्लेष की वजह से वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का अलग अर्थ निकाला जाये वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है ।

जैसे :- को तुम हौ इत आये कहाँ घनस्याम हौ तौ कितहूँ बरसो ।
चितचोर कहावत है हम तौ तहां जाहुं जहाँ धन सरसों ।।

6. श्लेष अलंकार :-
जहाँ पर कोई एक शब्द एक ही बार आये पर उसके अर्थ अलग अलग निकलें वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है ।

जैसे :- रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून ।
पानी गए न उबरै मोती मानस चून ।।

2. अर्थालंकार :-
जहाँ पर अर्थ के माध्यम से कविता या काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ पर अर्थालंकार होता है ।

अर्थालंकार के भेद :-
उपमा अलंकार
रूपक अलंकार
उत्प्रेक्षा अलंकार
द्रष्टान्त अलंकार
संदेह अलंकार
अतिश्योक्ति अलंकार
प्रतीप अलंकार
अनन्वय अलंकार
भ्रांतिमान अलंकार
व्यतिरेक अलंकार
विभावना अलंकार
विरोधाभाष अलंकार
असंगति अलंकार
मानवीकरण अलंकार
अन्योक्ति अलंकार

1. उपमा अलंकार :-
उपमा शब्द का अर्थ होता है – तुलना ।
 जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना किसी दूसरे यक्ति या वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमा अलंकार होता है ।

जैसे :- सागर -सा गंभीर ह्रदय हो ,
गिरी -सा ऊँचा हो जिसका मन ।

उपमा अलंकार के अंग :-
उपमेय
उपमान
वाचक शब्द
साधारण धर्म

*  उपमेय क्या होता है :-
उपमेय का अर्थ होता है – उपमा देने के योग्य । अगर जिस वस्तु की समानता किसी दूसरी वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमेय होता है ।

*  उपमान क्या होता है :-
उपमेय की उपमा जिससे दी जाती है उसे उपमान कहते हैं अथार्त उपमेय की जिस के साथ समानता बताई जाती है उसे उपमान कहते हैं ।

*  वाचक शब्द क्या होता है :-
जब उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है तब जिस शब्द का प्रोग किया जाता है उसे वाचक शब्द कहते हैं |

*  साधारण धर्म क्या होता है :-
दो वस्तुओं के बीच समानता दिखाने के लिए जब किसी ऐसे गुण या धर्म की मदद ली जाती है जो दोनों में वर्तमान स्थिति में हो उसी गुण या धर्म को साधारण धर्म कहते हैं ।

उपमा अलंकार के भेद :-
पूर्णोपमा अलंकार
लुप्तोपमा अलंकार

* पूर्णोपमा अलंकार :-
इसमें उपमा के सभी अंग होते हैं – उपमेय , उपमान , वाचक शब्द , साधारण धर्म आदि अंग होते हैं वहाँ पर पूर्णोपमा अलंकार होता है।

जैसे :- सागर -सा गंभीर ह्रदय हो ,
गिरी -सा ऊँचा हो जिसका मन ।

* लुप्तोपमा अलंकार क्या होता है :-

इसमें उपमा के चारों अगों में से यदि एक या दो का या फिर तीन का न होना पाया जाए वहाँ पर लुप्तोपमा अलंकार होता है

जैसे :- कल्पना सी अतिशय कोमल ।
 जैसा हम देख सकते हैं कि इसमें उपमेय नहीं है तो इसलिए यह लुप्तोपमा का उदहारण है ।

2. रूपक अलंकार :-
जहाँ पर उपमेय और उपमान में कोई अंतर न दिखाई दे वहाँ रूपक अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर उपमेय और उपमान के बीच के भेद को समाप्त करके उसे एक कर दिया जाता है वहाँ पर रूपक अलंकार होता है ।

जैसे :- ” उदित उदय गिरी मंच पर, रघुवर बाल पतंग ।
विगसे संत- सरोज सब, हरषे लोचन भ्रंग ।।”

रूपक अलंकार की पहचान :-
* उपमेय को उपमान का रूप देना ।
* वाचक शब्द का लोप होना ।
* उपमेय का भी साथ में वर्णन होना ।

रूपक अलंकार के भेद :-
सम रूपक अलंकार
अधिक रूपक अलंकार
न्यून रूपक अलंकार

* सम रूपक अलंकार :-
इसमें उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है वहाँ पर सम रूपक अलंकार होता है ।

जैसे :- बीती विभावरी जागरी 
अम्बर – पनघट में डुबा रही , ताराघट उषा-नागरी ।

* अधिक रूपक अलंकार :-
जहाँ पर उपमेय में उपमान की तुलना में कुछ न्यूनता का बोध होता है वहाँ पर अधिक रूपक अलंकार होता है ।

* न्यून रूपक अलंकार :-
इसमें उपमान की तुलना में उपमेय को न्यून दिखाया जाता है वहाँ पर न्यून रूपक अलंकार होता है ।

जैसे :- जनम सिन्धु विष बन्धु पुनि, दीन मलिन सकलंक
सिय मुख समता पावकिमि चन्द्र बापुरो रंक ..

3. उत्प्रेक्षा अलंकार :-
जहाँ पर उपमान के न होने पर उपमेय को ही उपमान मान लिया जाए  अथार्त जहाँ पर अप्रस्तुत को प्रस्तुत मान लिया जाए वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है ।
जैसे :- सखि सोहत गोपाल के, 
उर गुंजन की माल
बाहर सोहत मनु पिये, दावानल की ज्वाल ।।

उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद :-

* वस्तुप्रेक्षा अलंकार :-

जहाँ पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना दिखाई जाए वहाँ पर वस्तुप्रेक्षा अलंकार होता है ।

जैसे :- ” सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल.
बाहर लसत मनो पिये, दावानल की ज्वाल .”

* हेतुप्रेक्षा अलंकार :-
जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना देखी जाती है अथार्त वास्तविक कारण को छोडकर अन्य हेतु को मान लिया जाए वहाँ हेतुप्रेक्षा अलंकार होता है ।

* फलोत्प्रेक्षा अलंकार :-
इसमें वास्तविक फल के न होने पर भी उसी को फल मान लिया जाता है वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है । जैसे :- 
खंजरीर नहीं लखि परत कुछ दिन साँची बात.
बाल द्रगन सम हीन को करन मनो तप जात..

4. दृष्टान्त अलंकार :-
जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होता हो वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है । इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती -जुलती बात उपमान रूप में दुसरे वाक्य में होती है । यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है |

जैसे :- ‘ एक म्यान में दो तलवारें, कभी नहीं रह सकती हैं ।

किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है ll’

5.संदेह अलंकार:-
जब उपमेय और उपमान में समता देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय है या नहीं । जब यह दुविधा बनती है , तब संदेह अलंकार होता है अथार्त  जहाँ पर किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर संशय बना रहे वहाँ संदेह अलंकार होता है।  यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है ।

जैसे :- यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया ।

* संदेह अलंकार की मुख्य बातें :-
विषय का अनिश्चित ज्ञान ।
यह अनिश्चित समानता पर निर्भर हो ।
अनिश्चय का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो ।

6. अतिश्योक्ति अलंकार :-
जब किसी व्यक्ति या वस्तु का वर्णन करने में लोक समाज की सीमा या मर्यादा टूट जाये उसे अतिश्योक्ति अलंकार कहते हैं । जैसे :- 
हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आग ।
सगरी लंका जल गई , गये निसाचर भाग ।

7.प्रतीप अलंकार :-
इसका अर्थ होता है उल्टा | उपमा के अंगों में उल्ट-फेर करने से अथार्त उपमेय को उपमान के समान न कहकर उलट कर उपमान को ही उपमेय कहा जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है । इस अलंकार में दो वाक्य होते हैं एक उपमेय वाक्य और एक उपमान वाक्य । लेकिन इन दोनों वाक्यों में सद्रश्य का साफ कथन नहीं होता , वः व्यंजित रहता है । इन दोनों में साधारण धर्म एक ही होता है परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है । जैसे :- 
” नेत्र के समान कमल है ।”

08. भ्रांतिमान अलंकार  :-
जब उपमेय में उपमान के होने का भ्रम हो जाये वहाँ पर भ्रांतिमान अलंकार होता है अथार्त जहाँ उपमान और उपमेय दोनों को एक साथ देखने पर उपमान का निश्चयात्मक भ्रम हो जाये मतलब जहाँ एक वस्तु को देखने पर दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाए वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है । यह अलंकार उभयालंकार का भी अंग माना जाता है ।

जैसे :- पायें महावर देन को नाईन बैठी आय ।
फिरि-फिरि जानि महावरी, एडी भीड़त जाये ।

09. व्यतिरेक अलंकार:-
व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ होता है आधिक्य । व्यतिरेक में कारण का होना जरुरी है । अत: जहाँ उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहाँ पर व्यतिरेक अलंकार होता है ।

जैसे :- का सरवरि तेहिं देउं मयंकू। चांद कलंकी वह निकलंकू।।
मुख की समानता चन्द्रमा से कैसे दूँ ?

10. विभावना अलंकार :-
जहाँ पर कारण के न होते हुए भी कार्य का हुआ जाना पाया जाए वहाँ पर विभावना अलंकार होता है, जैसे :- 
बिनु पग चलै सुनै बिनु काना ।
कर बिनु कर्म करै विधि नाना ।

11.विशेषोक्ति अलंकार :-
काव्य में जहाँ कार्य सिद्धि के समस्त कारणों के विद्यमान रहते हुए भी कार्य न हो वहाँ पर विशेषोक्ति अलंकार होता है ।

जैसे :- नेह न नैनन को कछु, उपजी बड़ी बलाय ।
नीर भरे नित-प्रति रहें, तऊ न प्यास बुझाई ।।

12. विरोधाभाष अलंकार:-
जब किसी वस्तु का वर्णन करने पर विरोध न होते हुए भी विरोध का आभाष हो वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है । जैसे :- 
‘आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के ।
शून्य हूँ जिसमें बिछे हैं पांवड़े पलकें ।’

13. असंगति अलंकार:-
जहाँ आपतात: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरन्य रणित हो वहाँ पर असंगति अलंकार होता है |

जैसे :- ” ह्रदय घाव मेरे पीर रघुवीरै |”

14. मानवीकरण अलंकार:-
जहाँ पर काव्य में जड़ में चेतन का आरोप होता है वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है अथार्त जहाँ जड़ प्रकृति पर मानवीय भावनाओं और क्रियांओं का आरोप हो वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है |

जैसे :-बीती विभावरी जागरी , अम्बर पनघट में डुबो रही तास घट उषा नगरी ।

15. अन्योक्ति अलंकार :-
जहाँ पर किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य को कोई बात कही जाए  वहाँ पर अन्योक्ति अलंकार होता है । जैसे :-
फूलों के आस- पास रहते हैं , फिर भी काँटे उदास रहते हैं ।

3. उभयालंकार :-
जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित रहकर दोनों को चमत्कारी करते हैं वहाँ उभयालंकार होता है |

जैसे :- ‘ कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय ।’

छंद किसे कहते हैं छंद के विभिन्न प्रकार

छन्द :-
छंद शब्द का शाब्दिक अर्थ है- बन्धन। वर्णों-मात्राओं की विशेष क्रम व्यवस्था, गणना, लय, यति-गति आदि से सम्बन्धित विशिष्ट नियमों से बंधी हुई पद रचना छंद कहलाती है। 
छंद का वर्णन सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के नवम् छन्द में ‘छन्द’ की उत्पत्ति ईश्वर से बताई गई है। लौकिक संस्कृत के छंदों का जन्मदाता वाल्मीकि को माना गया है। आचार्य पिंगल ने ‘छन्दसूत्र’ में छन्द का सुसम्बद्ध वर्णन किया है, अत: इसे छन्दशास्त्र का आदि ग्रन्थ माना जाता है। छन्दशास्त्र को ‘पिंगलशास्त्र’ भी कहा जाता है। हिन्दी साहित्य में छन्दशास्त्र की दृष्टि से प्रथम कृति ‘छन्दमाला’ है।

छंद के अंग या अवयव-
छंद के अंग निम्नलिखित प्रकार हैं-

1- चरण
छंद की प्रत्येक पंक्ति को पद या चरण कहते हैं. प्रत्येक छंद की सामान्यता चार पंक्तियां होती है. छंदों में प्राय: चार चरण होते हैं. प्रत्येक चरण अथवा पद में वर्गों अथवा मात्राओं की संख्या क्रमानुसार रहती है. पाद या चरण तीन प्रकार के होते हैं-

* सम चरण– 
जिस छंद के चारों चरण की मात्राएं या वर्णों का रूप समान हो, बे सम चरण कहलाते हैं. द्वितीय और चतुर्थ चरण को “सम चरण” कहते हैं. जैसे- इंद्रवज्रा, चौपाई आदि.

*अर्धसम चरण– 
जिस छंद के प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ पद की मात्राओं या वर्णों की समानता हो, बे “अर्धसम चरण” कहलाते हैं. जैसे- दोहा सोरठा आदि.

*विषम चरण– 
जिन छंदों में 4 से ज्यादा चरण हो और उन में कोई समानता ना हो. बे “विषम चरण” कहलाते हैं. प्रथम और तृतीय चरण को विषम चरण कहते हैं जैसे- कुंडलिया और छप्पय आदि.

2. वर्ण-
वे चिन्ह जो मुख से निकलने वाली ध्वनि को सूचित करने के लिए निश्चित किए जाते हैं, “वर्ण” कहलाते हैं. वर्ण को अक्षर भी कहा जाता है.वह दो प्रकार के होते हैं- लघु एवं गुरु.

लघु या ह्रस्व– जिन्हें बोलने में कम समय लगता है उसे लघु या ह्रस्व वर्ण कहते हैं। मात्रा के अनुसार इसका चिन्ह (। ) होता है.

गुरु या दीर्घ– जिन्हें बोलने में लघु वर्ण से ज्यादा समय लगता है उन्हें गुरु या दीर्घ वर्ण कहते हैं। मात्रा के अनुसार इसका चिन्ह (S) होता है.

3- मात्रा
किसी ध्वनि या बाढ़ के उच्चारण में जो समय लगता है, उसे ही मात्रा कहते हैं. लघु वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उससे (l) मात्रा होती है एवं गुरु वर्ण में जो समय लगता है उससे (S) मात्रा होती है.

4- यति
साधारण भाषा में इसे विराम कहते हैं. छंदों को पढ़ते समय कई स्थानों पर विराम लेना पड़ता है. उन्हीं विराम स्थलों को “यति” कहते हैं.

5- गति
गति छंद का मुख्य अवयव है. छंद को पढ़ते समय एक प्रकार के प्रवाह की अनुभूति होती है, जिसे गति कहते हैं.

6- तुक
छंद के चरणों के अंत में जो अक्षरों की समानता पाई जाती है, उन्हें तुक कहते हैं यह दो प्रकार के होते हैं- तुकांत एवं अतुकांत।

7. गण-
गण का अर्थ है- समूह ।तीन वर्णों के एक समूह को गण माना जाता है। इसमे वर्णों की संख्या तीन ही होती है न अधिक न कम । गणों की संख्या 8 है-
यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ)
तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ)
जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।)
नगण (।।।) और सगण (।।ऽ)
णों को आसानी से याद करने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा। सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ लघु और गुरू मात्राओं के सूचक हैं। जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।

* छंदों के प्रकार- 
छंद मुख्य रूप से 3 प्रकार के होते हैं-

* वर्णिक छंद- 
वर्णों की गणना पर आधारित “वर्णिक छंद” कहलाते हैं । वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान रहती है और लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है. वर्णिक छंद दो प्रकार के होते हैं- साधारण एवं दंडक.

मात्रिक छंद- मात्रा की गणना पर आधारित छंद “मात्रिक छंद” कहलाते हैं. मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या समान रहती है. लेकिन लघु गुरु के क्रम पर ध्यान दिया नहीं जाता है. कुछ प्रमुख मात्रिक छंद इस प्रकार है जैसे- चौपाई, रोला, दोहा एवं सोरठा आदि मात्रिक छंद है.

मुक्तक छंद- वे छंद जो मात्राओं एवं वर्णों से पूर्णतया मुक्त होते हैं, मुक्तक छंद कहलाते हैं. मुक्तक छंद में मात्राओं एवं वर्णों का कोई प्रतिबंध नहीं होता है. रसखान एवं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी रचनाओं में इसका भरपूर प्रयोग किया है।

शनिवार, 2 जनवरी 2021

नरेश मेहता का संक्षिप्त परिचय/ साहित्यिक परिचय/नरेश मेहता

नरेश मेहता का साहित्यिक परिचय
b.a. फाइनल ईयर
सेमेस्टर 5
नरेश मेहता का जन्म 15 फरवरी 1922 को मालवा के शाहजहांपुर गांव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ ।
उनके पिता बिहारी लाल शुक्ल थे ।
मेहता पदवी इन्हें इनके पूर्वजों से मिली थी।
 नरेश जी ढाई साल के ही थे उनकी माता का निधन हो गया उनके  चाचा पंडित शंकर लाल शुक्ला ने इनका पालन पोषण किया।
शैक्षणिक उपलब्धियां
 नरेश मेहता नी इंटर की परीक्षा उज्जैन से पास की।
 इसके बाद वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।
 सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की एक प्रमुख नेता रहे।
 इन्होंने अपनी उच्च शिक्षा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से प्राप्त की।
 इसके पश्चात देहरादून में सेकंड लेफ्टिनेंट का परीक्षण प्राप्त किया ।
इन्होंने शिक्षा समाप्ति के बाद आकाशवाणी लखनऊ में अपना काम आरंभ किया और फिर अनेक आकाशवाणी केंद्रों पर कार्यरत रहे ।
सन् 1953 में आकाशवाणी से त्यागपत्र देकर पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हो गई।
 इन्होंने साहित्यकार भारतीय श्रमिक और कृति आदि पत्रिकाओं का संपादन किया।
 22 नवंबर 2000 में मेहता जी का निधन हो गया नरेश मेहता कई बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे ।
नई कविता के प्रमुख हस्ताक्षर थे ।
इन्होंने उपन्यास ,कहानी ,नाटक तथा समीक्षा आदि में अच्छा कार्य किया है ।कवि के साथ-साथ वे अध्ययन शील प्रवृत्ति वाले भाव और गंभीर चिंतक भी रहे हैं ।
डॉक्टर जगदीश गुप्त ने  अनुसार
"नरेश मेहता छायावादी काव्य की अत्यंत प्रतिभावान तथा बांग्ला संस्कार से प्रभावित संवेदनशील रचनाकार के रूप में विख्यात है परंपरा एवंलालित्य काला लिखता पूर्ण किंतु वैचारिक समन्वयक है। "
नरेश मेहता साहित्य में नवीनता तथा प्रयोग की दृष्टि के पक्षपाती रहे हैं।
 वह एक प्रगतिशील लेखक है उनकी रचनाओं पर मार्क्सवादी विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा है कतिपय आलोचकों ने उन्हें अहंकारी एवं एवं वादी होने का आरोप भी लगाया है ।
पुरस्कार व सम्मान
सन 1974 में मध्यप्रदेश का राजकीय सम्मान 
1983 में सारस्वत सम्मान 
1984 में मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग का शिखर सम्मान 1988 में साहित्य अकादमी पुरस्कार 
1990 में उत्तर भारती के उत्तर प्रदेश के भारत भारती सम्मान 1992 में ज्ञानपीठ पुरस्कार
रचनाएं
 काव्यगत विशेषताएं
1.सनातन समस्याओं  का उल्लेख
 श्री नरेश मेहता जी ने समाज में चली आ रही सनातन एवं शाश्वत समस्याओं तथा संदर्भों क कियाा है। उन्होंंने अपनी कविताओं में बौद्धिकता वैैैैैष्णव तथा पर्यावरण एवं सांस्कृतिक विचारों का वर्णणन बड़ी संजीदगीी से किया है।
साधारण मानव के कवि साधारण मानव के कवि नरेश मेहता जी ने मिट्टी से जुड़े मिट्टी के अनेक रूपों को पहचानने वाले कभी माने जाते हैं उन्हें मनुष्य के पुरुषार्थ पर पूरा विश्वास था वे लिखते हैं विश्वास करो यह सबसे बड़ा देवता व है कि तुम पुरुषार्थ करते मनुष्य हो और मैं स्वरूप पाती मृतिका 
मानवीय पीड़ा की अनुभूति 
नरेश मेहता जी की कविताओं में सर्वत्र जनसाधारण की समस्याओं मन के विविध रूपों का उनकी पीड़ा का आमजन की समस्याओं का उल्लेख किया गया है पौराणिक विषयों का उद्घाटन नरेश मेहता जी ने अपनी काव्य रचनाओं में पौराणिक विषयों को आधुनिक संदर्भ से जोड़कर व्यक्त किया है उन्होंने रामायण महाभारत के प्रसिद्ध प्रसंग को लेकर काव्य रचना की है ।
रामायण पर आधारित उनके प्रमुख काव्य 
संशय की एक रात में राम रावण के युद्ध का वर्णन है ।
प्रसाद पर्व में सीता वनवास की घटना का वर्णन है ।महाप्रस्थान में पांडवों के हिमालय में जलने की कथा है इस प्रकार नरेश मेहता जी ने पौराणिक प्रसंगों के माध्यम से आज के आधुनिक जीवन की समस्याओं को चित्रित किया है ।

नरेश मेहता जी की कविताओं में प्रकृति का उदास रूप का चित्रण हुआ है ।
जो उनकी समूची संस्कृति को नई क्रांति और संस्कार प्रदान करता है ।
 उसमें उल्लास है, सृजन है ,याद है , निरंतरता जीवंतता है ।उसमें संकोच, तिरस्कार और अस्वीकृत ि नहीं है ।
वह मनुष्य को एक नए मानवीय संस्कार देती हैं ।मनुष्य के भीतर की आसुरी वृत्तियों बदलकर  में बदलती है ।
भाषा शैली 
नरेश मेहता की भाषा सरल सहज और भावानुकूल है ।
उन्होंने नए प्रतीकों , बिम्ब ,उपमाओ का सुंदर समन्वय हुआ है।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

कुरुक्षेत्र काव्यम रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित के आधार पर भीष्म पितामह के चरित्र पर प्रकाश डालिए

भीष्म पितामह का चरित्र चित्रण
भारतीय संस्कृति के इतिहास में नहीं अपितु विश्व की संस्कृति के इतिहास में भीष्म पितामह जैसा महान चरित्रवान शायद ही कोई हो उनकी वीरता पराक्रम दृढ़ प्रतिज्ञा कर्म योगी की भावना से कोई व्यक्ति भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता कुरुक्षेत्र कविता में रामधारी सिंह दिनकर जी ने भीष्म पितामह का चरित्र बौद्धिक एवं मनोवैज्ञानिक सांचे में डाला है उनके चरित्र की विशेषताओं का अध्ययन निम्नलिखित सिरको के आधार पर किया जा सकता है परम शक्तिशाली विश्व पितामह परम शक्तिशाली ब्रह्मचारी थे वह बल के आधार होते हुए भी परम वैरागी थे उन्होंने धर्म के लिए राज सिंहासन को त्याग और स्नेह के लिए प्राण विसर्जन कर दी विश्व भर में उनके समान कोई दूसरा पराक्रमी नहीं हुआ काल तथा मृत्यु भी उनके वश में ही थी उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था कर्म के उपासक कुरुक्षेत्र में भीष्म पितामह को कर्म का महान उपासक दिखाया गया है उनका मत है कि भाग्य के सहारे बैठकर कायर पुरुष की कार्य करते हैं व्यक्ति अपने सुखों को ब्रह्मा से लिखवा कर नहीं आया है अपितु उसने अपना सुख अपने कठोर कर्म से प्राप्त किया है यह प्रकृति भी मानव के लिए