नाखून क्यों बढ़ते हैं
(हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध पर आधारित विवेचनात्मक लेख)
प्रस्तावना
हिंदी निबंध साहित्य में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। वे केवल साहित्यकार ही नहीं बल्कि चिंतक, इतिहासकार, आलोचक और संस्कृति-विश्लेषक भी थे। उनके निबंधों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे किसी भी सामान्य विषय को दार्शनिक गहराई, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य और जीवन-दर्शन से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं।
उनका प्रसिद्ध निबंध “नाखून क्यों बढ़ते हैं” इस बात का ज्वलंत उदाहरण है। प्रथम दृष्टि में यह प्रश्न तुच्छ और हास्यास्पद प्रतीत हो सकता है, लेकिन द्विवेदी जी ने इसे लेकर जिस तरह जीवन और समाज के व्यापक प्रश्नों को उजागर किया, वह उनकी अद्वितीय लेखन-प्रतिभा को प्रमाणित करता है।
निबंध का शाब्दिक आशय
“नाखून क्यों बढ़ते हैं” शीर्षक पाठक को कौतूहल में डालता है। नाखून एक साधारण जैविक सत्य है – वे मानव शरीर के विकास का स्वाभाविक हिस्सा हैं, लगातार बढ़ते हैं और समय-समय पर काटे जाते हैं। किंतु द्विवेदी जी ने केवल शारीरिक कारण तक सीमित न रहकर इसके पीछे दार्शनिक और सांस्कृतिक कारण ढूँढने का प्रयास किया।
उनके अनुसार नाखून का बढ़ना केवल शरीर की प्रक्रिया नहीं, बल्कि जीवन के निरंतर प्रवाह और असीम इच्छाओं का प्रतीक है।
विज्ञान और नाखून
विज्ञान के अनुसार नाखून केराटिन नामक प्रोटीन से बने होते हैं और ये मनुष्य की उंगलियों की सुरक्षा तथा पकड़ की शक्ति को बढ़ाने के लिए विकसित हुए हैं। नाखून लगातार इसलिए बढ़ते रहते हैं क्योंकि यह जीवित कोशिकाओं की निरंतर क्रिया का परिणाम है। शरीर में रक्तसंचार, कोशिका-विभाजन और ऊर्जा-प्रवाह ही नाखून की वृद्धि का कारण हैं।
द्विवेदी जी ने इन तथ्यों को आधार बनाकर यह संकेत किया कि मनुष्य का जीवन और उसकी इच्छाएँ भी नाखून की तरह कभी थमती नहीं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
नाखून का बढ़ना मानव की उस प्रवृत्ति का प्रतीक है, जो अतृप्ति कहलाती है। मनुष्य सदा कुछ न कुछ चाहता है; उसकी आकांक्षाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। नाखून चाहे कितनी ही बार काटे जाएँ, वे पुनः बढ़ते हैं। उसी प्रकार मनुष्य की इच्छाओं को कितनी ही बार संयमित या नियंत्रित क्यों न किया जाए, वे फिर से जन्म ले लेती हैं।
इस प्रकार नाखून यहाँ मानवीय वासना, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का दार्शनिक प्रतीक बन जाते हैं।
सांस्कृतिक संकेत
भारतीय संस्कृति में शरीर के प्रत्येक अंग का कोई न कोई सांकेतिक महत्व रहा है। नाखूनों की उपेक्षा या अत्यधिक वृद्धि अशुद्धि का प्रतीक मानी गई है। समय-समय पर नाखून काटना सामाजिक शुचिता और मर्यादा से भी जुड़ा रहा है।
द्विवेदी जी ने इस सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को भी निबंध में छुआ है। उनके अनुसार, यदि मनुष्य अपने नाखूनों (अर्थात इच्छाओं) को नियंत्रित करता रहे तो जीवन संतुलित रह सकता है। किंतु यदि इन्हें बढ़ने दिया जाए, तो ये असामाजिक, अस्वस्थ और असुंदर प्रतीत होते हैं।
व्यंग्य और हास्य का पुट
द्विवेदी जी के निबंधों में हल्का व्यंग्य और हास्य भी मिलता है। वे नाखून के बढ़ने को लेकर कभी-कभी यह प्रश्न उठाते हैं कि यदि यह इतना आवश्यक है तो मनुष्य ने ही क्यों इन्हें काटने की आदत डाल ली?
यह व्यंग्य दरअसल उस मानव-प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है, जो स्वाभाविकता से टकराकर कृत्रिमता को जन्म देती है।
सामाजिक जीवन में नाखून का प्रतीक
द्विवेदी जी नाखून को केवल व्यक्तिगत जीवन का नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन का भी प्रतीक मानते हैं। समाज में भी अनेक ऐसी चीजें होती हैं जो बार-बार हटाने के बाद भी पुनः उभर आती हैं—
जैसे अन्याय, असमानता, भ्रष्टाचार।
इन्हें रोकने के लिए कितने ही प्रयास किए जाएँ, वे फिर से जन्म लेते हैं।
यहाँ नाखून एक सामाजिक रूपक बनकर सामने आता है।
नाखून और कला-दृष्टि
हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्यकार होने के साथ-साथ कला-दृष्टि से भी समृद्ध थे। वे कहते हैं कि नाखून की बढ़त में भी एक सौंदर्य है। जिस तरह चित्रकार अपनी रचना में बार-बार रंग भरता है, उसी तरह प्रकृति भी नाखूनों को निरंतर बढ़ाती है।
यह दृष्टि साधारण को असाधारण में बदल देती है।
जीवन-दर्शन
इस निबंध में अंततः द्विवेदी जी ने यह निष्कर्ष दिया कि नाखून का बढ़ना जीवन की निरंतरता का प्रतीक है।
मनुष्य मृत्यु तक सक्रिय रहता है; उसकी इच्छाएँ, सपने और कर्मराशि कभी समाप्त नहीं होती। नाखून की भाँति ही उसका जीवन एक सतत प्रक्रिया है, जो रुककर भी रुकती नहीं।
निबंध की शैलीगत विशेषताएँ
1. सामान्य विषय का असाधारण रूपांतरण – साधारण नाखून के बहाने उन्होंने गहन दार्शनिक विवेचन प्रस्तुत किया।
2. हास्य-व्यंग्य का प्रयोग – भाषा कहीं-कहीं चुटीली और रोचक बन जाती है।
3. सांस्कृतिक गहराई – भारतीय समाज और संस्कृति के संकेतों को निबंध में सहज ढंग से जोड़ा गया है।
4. सरल-सुबोध भाषा – कठिन विचारों को भी उन्होंने सामान्य पाठकों तक पहुँचाने योग्य भाषा में व्यक्त किया।
5. रूपक और प्रतीक – नाखून को जीवन, इच्छाओं, वासनाओं और सामाजिक बुराइयों का प्रतीक बनाना।
प्रासंगिकता
आज के समय में भी यह निबंध उतना ही सार्थक है। आधुनिक मनुष्य की भौतिक इच्छाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ रही हैं, जिन्हें काटने के बाद भी वे दुबारा पनप जाती हैं।
इस दृष्टि से “नाखून क्यों बढ़ते हैं” निबंध हमें आत्मसंयम, संतुलन और आत्मचिंतन की ओर प्रेरित करता है।
उपसंहार
हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह निबंध हिंदी निबंध साहित्य की श्रेष्ठ उपलब्धि है। एक साधारण विषय को दार्शनिक गहराई, सांस्कृतिक दृष्टि, सामाजिक संदर्भ और साहित्यिक सौंदर्य से जिस प्रकार उन्होंने संपन्न किया, वह उन्हें अद्वितीय बनाता है।
नाखून का बढ़ना केवल जैविक क्रिया नहीं, बल्कि जीवन की निरंतरता, इच्छाओं की अतृप्ति और समाज की पुनरावृत्त समस्याओं का रूपक है।
इस प्रकार यह निबंध हमें सिखाता है कि जीवन में इच्छाओं को नियंत्रित करते हुए आगे बढ़ना चाहिए, अन्यथा वे बोझ बनकर असुंदर प्रतीत होंगी।
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