भारतेंदु युग में राष्ट्रवाद पर विवेचन कीजिए।
प्रस्तावना
हिंदी साहित्य का इतिहास विभिन्न युगों में विभाजित है। भारतेंदु युग (1868 ई. – 1900 ई.) आधुनिक हिंदी साहित्य का आरंभिक युग माना जाता है। इसे भारतेन्दु हरिश्चंद्र का युग भी कहा जाता है, क्योंकि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व ने संपूर्ण हिंदी साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की। इस युग की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता राष्ट्रवाद की भावना है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पहली बार साहित्य को सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना से जोड़ा। अंग्रेजी शासन की दमनकारी नीतियाँ, गरीबी, अशिक्षा और राष्ट्रीय अपमान ने भारतवासियों को एकजुट होने की प्रेरणा दी। यही कारण है कि इस युग का साहित्य राष्ट्रीयता के भाव से ओतप्रोत दिखाई देता है।
भारतेंदु युग की पृष्ठभूमि
1. अंग्रेजी शासन का दमनकारी स्वरूप – किसानों पर करों का बोझ, भारतीय उद्योगों का पतन, गरीबी और अकाल।
2. 1857 की क्रांति के बाद की निराशा – जनता में असंतोष और स्वतंत्रता की आकांक्षा।
3. पश्चिमी शिक्षा और प्रगति का प्रभाव – अंग्रेजी शिक्षा से नई चेतना, आधुनिक विचारों और स्वतंत्रता की ललक का विकास।
4. प्रेस और समाचार पत्रों का योगदान – भारतेंदु ने कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगज़ीन जैसे पत्रों द्वारा राष्ट्रवादी विचारों का प्रसार किया।
भारतेन्दु युग में राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति
1. कविता में राष्ट्रवाद
भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रसिद्ध कविता – “भारत दुर्दशा” – देश की दीन दशा का करुण चित्रण करती है।
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल” में भाषा और राष्ट्र की एकता का स्पष्ट संदेश है।
कवियों ने पराधीनता, गरीबी और शोषण के विरुद्ध स्वर बुलंद किए।
2. नाटक और निबंध में राष्ट्रवाद
भारतेंदु के नाटकों में अंधेर नगरी सामाजिक-राजनीतिक भ्रष्टाचार पर करारी चोट करता है।
नीलदेवी जैसे नाटकों में विदेशी आक्रमण के विरोध और राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा का संदेश है।
उनके निबंध और लेखों में अंग्रेजी शासन की नीतियों पर सीधी आलोचना की गई।
3. पत्र-पत्रिकाओं द्वारा राष्ट्रवाद
कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र चंद्रिका और हरिश्चंद्र मैगज़ीन ने राष्ट्रवादी चेतना का प्रचार किया।
सामाजिक सुधार, स्वदेशी उद्योग, शिक्षा और भाषा के माध्यम से राष्ट्रीय एकता पर बल दिया गया।
4. भाषा और राष्ट्रवाद
भारतेंदु ने हिंदी भाषा को राष्ट्र की पहचान माना।
हिंदी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए निरंतर संघर्ष किया।
राष्ट्रवाद का मूल आधार भाषा को माना गया, क्योंकि भाषा जनता को जोड़ने का सबसे सशक्त साधन है।
5. सामाजिक सुधार और राष्ट्रवाद
समाज में व्याप्त कुरीतियों – बाल विवाह, दहेज प्रथा, अशिक्षा पर प्रहार।
उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तक समाज जागृत नहीं होगा, तब तक राष्ट्र स्वतंत्र नहीं हो सकता।
राष्ट्रवाद को केवल राजनीतिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान से भी जोड़ा गया।
भारतेंदु युगीन अन्य साहित्यकार और राष्ट्रवाद।
भारतेंदु अकेले राष्ट्रवाद के वाहक नहीं थे। इस युग के अन्य साहित्यकारों ने भी राष्ट्रवादी चेतना का प्रसार किया :
प्रताप नारायण मिश्र – कविताओं और व्यंग्य रचनाओं में विदेशी शासन की नीतियों की आलोचना।
बालकृष्ण भट्ट – हिंदी प्रदीप पत्र के माध्यम से स्वदेशी और राष्ट्रीय एकता का प्रचार।
राधाचरण गोस्वामी – ऐतिहासिक नाटकों में राष्ट्रीय गौरव का चित्रण।
जयशंकर प्रसाद के पूर्ववर्ती कवि – भारत की ऐतिहासिक स्मृतियों और गौरवपूर्ण परंपराओं की याद दिलाते रहे।
भारतेंदु युगीन राष्ट्रवाद के प्रमुख बिंदु
1. विदेशी शासन की आलोचना।
2. स्वदेशी भाषा और उद्योगों का समर्थन।
3. हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने का प्रयास।
4. सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार और समाज सुधार।
5. साहित्य को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जागरण का साधन बनाना।
6. ऐतिहासिक गौरव और सांस्कृतिक धरोहर की पुनर्स्मृति।
प्रभाव
भारतेंदु युग ने आने वाले द्विवेदी युग और छायावाद युग को राष्ट्रवादी आधार प्रदान किया।
गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी साहित्य ने जो भूमिका निभाई, उसकी नींव भारतेंदु युग में ही पड़ी।
इस युग ने हिंदी साहित्य को केवल भावुकता से निकालकर सामाजिक यथार्थ और राष्ट्र सेवा से जोड़ दिया।
निष्कर्ष
भारतेंदु युग हिंदी साहित्य का राष्ट्रवादी युग कहा जा सकता है। इस युग में साहित्य ने जन-जागरण का कार्य किया और राष्ट्र को स्वतंत्रता की ओर प्रेरित किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके समकालीन साहित्यकारों ने समाज को यह संदेश दिया कि –
जब तक भाषा, समाज और संस्कृति मजबूत नहीं होगी, तब तक राष्ट्र स्वतंत्र नहीं हो सकता।
साहित्यकार केवल कवि या लेखक नहीं, बल्कि राष्ट्र के मार्गदर्शक होते हैं।
अतः यह युग केवल साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने सही कहा है –
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय के सूल॥”
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