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सोमवार, 29 सितंबर 2025

प्रेमचंद साहित्य में किसान विमर्श

भूमिका

हिंदी साहित्य में यदि किसान की दयनीय स्थिति और उसके जीवन संघर्ष का सबसे सजीव चित्रण किसी लेखक ने किया है तो वह हैं प्रेमचंद। उन्हें ग्रामीण जीवन का कथाकार कहा जाता है क्योंकि उनके साहित्य में गाँव, किसान, खेत, हल, बैल, कर्ज़, जमींदार, साहूकार और गरीबी से जूझते किसान की त्रासदी बार-बार सामने आती है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसान की दशा का यथार्थ चित्रण प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में मिलता है। इसीलिए उनके साहित्य को किसान विमर्श का साहित्य भी कहा जाता है।

प्रेमचंद के दौर में किसान शोषण, गरीबी, कर्ज़, अकाल और करों के बोझ तले दबा हुआ था। अंग्रेज़ी सत्ता, जमींदारी व्यवस्था और साहूकारी प्रथा ने उसे और भी निराश्रित बना दिया था। ऐसे कठिन समय में प्रेमचंद ने किसानों की दुर्दशा को साहित्य का केंद्रीय विषय बनाकर समाज और सत्ता को झकझोरने का कार्य किया।

किसान विमर्श का स्वरूप

प्रेमचंद साहित्य में किसान विमर्श का स्वरूप व्यापक है। इसमें केवल आर्थिक शोषण ही नहीं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और पारिवारिक स्तर पर किसान की पीड़ा व्यक्त की गई है।

किसान का जीवन गरीबी और कर्ज़ से ग्रस्त है।

जमींदार और साहूकार उसकी मेहनत का शोषण करते हैं।

प्राकृतिक आपदाएँ उसकी मेहनत पर पानी फेर देती हैं।

परिवार और समाज में उसे हीन दृष्टि से देखा जाता है।

फिर भी वह मेहनत, ईमानदारी और त्याग का प्रतीक है।


गोदान’ और किसान विमर्श

प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ (1936) किसान जीवन का महाकाव्य कहा जाता है। इसका नायक होरी भारतीय किसान का प्रतिनिधि चरित्र है।

होरी जीवनभर कर्ज़, कर और गरीबी से जूझता है।

वह बैल खरीदने के लिए भी साहूकारों का मोहताज है।

सामाजिक मान्यता पाने और धार्मिक कर्तव्य निभाने की उसकी लालसा उसे और कर्ज़ में डुबो देती है।

अंत में वह मर जाता है लेकिन गोदान का सपना अधूरा रह जाता है।


यह उपन्यास बताता है कि भारतीय किसान जीवन भर मेहनत करता है परंतु गरीबी और शोषण से मुक्त नहीं हो पाता।


कहानियों में किसान विमर्श

प्रेमचंद की कहानियों में भी किसान विमर्श अनेक रूपों में व्यक्त हुआ है।

1. ‘पूस की रात’ – इसमें हलकू नामक किसान ठंड से काँपते हुए खेत की रखवाली करता है। गरीबी इतनी है कि वह गर्म कपड़े भी नहीं खरीद सकता। अंततः अपनी जान बचाने के लिए वह खेत को छोड़ देता है। यह किसान की विवशता का हृदयविदारक चित्रण है।

2. ‘कफन’ – इसमें घीसू और माधव नामक पात्र किसान-श्रमिक वर्ग की दयनीय मानसिकता को उजागर करते हैं। बहू की मृत्यु पर भी वे कफन की जगह शराब पीकर दुख भुलाने का प्रयास करते हैं। यह कहानी गरीबी से उपजी असंवेदनशीलता और पलायनवाद को दिखाती है।

3. ‘ईदगाह’ – हामिद नामक बालक गरीब किसान परिवार से है। वह मेले में खिलौने या मिठाई नहीं खरीदता, बल्कि दादी के लिए चिमटा लाता है। यह कहानी किसान परिवार की गरीबी और त्याग का मार्मिक चित्रण है।

4. ‘सद्गति’ – इसमें एक चमार (दलित किसान) की मृत्यु और शव को घसीटने की घटना से किसान और श्रमिक वर्ग के साथ हो रहे जातिगत शोषण और अमानवीय व्यवहार को उजागर किया गया है।

किसान और जमींदारी विमर्श

प्रेमचंद ने किसानों और जमींदारों के बीच के संबंधों पर गहन प्रकाश डाला। जमींदार किसान की मेहनत का शोषण करते हैं। किसान मेहनत करता है, फसल उगाता है लेकिन उसका लाभ जमींदार और साहूकार उठा लेता है।

‘गोदान’ में जमींदार राय साहब और पूंजीपति वर्ग का चरित्र इसका उदाहरण है। वे किसानों की मेहनत का शोषण करते हैं और विलासिता का जीवन जीते हैं।

किसान और स्त्री विमर्श

प्रेमचंद ने किसान परिवार की स्त्रियों की स्थिति को भी गहराई से चित्रित किया।

धनिया (‘गोदान’) त्याग और संघर्ष की प्रतिमूर्ति है।

किसान स्त्रियाँ गरीबी और सामाजिक रूढ़ियों के बीच अपने परिवार को सँभालती हैं।

दहेज प्रथा, बाल विवाह और कुप्रथाओं से वे भी पीड़ित हैं।

किसान स्त्री विमर्श से यह स्पष्ट होता है कि ग्रामीण जीवन की स्त्री भी उतनी ही संघर्षशील है जितना किसान पुरुष।

किसान और आर्थिक विमर्श

प्रेमचंद ने दिखाया कि किसान हमेशा कर्ज़ और साहूकारी के चंगुल में फँसा रहता है। साहूकार ऊँचे ब्याज पर उसे कर्ज़ देते हैं और बदले में उसकी फसल, खेत और बैल तक हड़प लेते हैं।

‘गोदान’ में होरी का परिवार इसी आर्थिक शोषण का शिकार है।

किसान विमर्श की विशेषताएँ

1. यथार्थपरकता – प्रेमचंद ने किसान का चित्रण कल्पना से नहीं, बल्कि वास्तविक जीवन से किया।

2. मानवीयता – किसान पात्रों में त्याग, ईमानदारी और श्रमशीलता का गुण है।

3. संघर्षशीलता – किसान कठिन परिस्थितियों में भी संघर्ष करता है।

4. करुणा – उनकी कहानियाँ करुणा और सहानुभूति जगाती हैं।

5. सामाजिक-आर्थिक आलोचना – प्रेमचंद ने किसान विमर्श के माध्यम से व्यवस्था की आलोचना की।


समकालीन संदर्भ

आज भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं, कर्ज़ से दबे हैं और न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए आंदोलन कर रहे हैं। प्रेमचंद के किसान विमर्श की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

निष्कर्ष

प्रेमचंद का साहित्य किसान विमर्श की दृष्टि से मील का पत्थर है। उन्होंने भारतीय किसान को केवल पात्र नहीं बनाया, बल्कि उसे भारतीय समाज और संस्कृति का आधार स्तंभ मानकर चित्रित किया।

‘गोदान’ किसान जीवन का महाकाव्य है।

‘पूस की रात’, ‘कफन’, ‘ईदगाह’, ‘सद्गति’ जैसी कहानियाँ किसान की त्रासदी, संघर्ष और विवशता का यथार्थ रूप प्रस्तुत करती हैं।


प्रेमचंद ने अपने साहित्य से यह संदेश दिया कि किसान भारतीय समाज की आत्मा है, उसकी समस्याएँ केवल उसकी नहीं, पूरे समाज की समस्याएँ हैं। इस दृष्टि से प्रेमचंद का किसान विमर्श न केवल साहित्यिक महत्व रखता है, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व का भी दस्तावेज़ है।

शनिवार, 27 सितंबर 2025

भूमंडलीकरण और हिंदी साहित्य

भूमंडलीकरण और हिंदी साहित्य
प्रस्तावना

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक और इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत में दुनिया ने जिस परिवर्तन को देखा, उसे हम भूमंडलीकरण (Globalization) कहते हैं। यह केवल आर्थिक अवधारणा न रहकर सांस्कृतिक, राजनीतिक और साहित्यिक स्तर तक फैली हुई प्रक्रिया है। भूमंडलीकरण ने मनुष्य की जीवनशैली, विचारधारा, भाषा और साहित्य को भी गहराई से प्रभावित किया है।
हिंदी साहित्य, जो समाज का दर्पण माना जाता है, इस वैश्विक परिघटना से अछूता नहीं रहा। आधुनिक हिंदी कथा-साहित्य, कविता, निबंध और उपन्यासों में भूमंडलीकरण की छाप स्पष्ट दिखाई देती है।

भूमंडलीकरण की संकल्पना

भूमंडलीकरण का अर्थ है – दुनिया को एक वैश्विक गाँव के रूप में देखना, जहाँ पूँजी, तकनीक, संस्कृति और विचारों का आदान-प्रदान निर्बाध रूप से हो।

यह आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और मुक्त व्यापार की नीतियों के साथ जुड़ा है।

साथ ही यह मीडिया, संचार क्रांति, उपभोक्तावाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को भी प्रोत्साहित करता है।
साहित्य में भूमंडलीकरण का अर्थ है – उन परिवर्तनों का चित्रण जो इस नई व्यवस्था के चलते समाज और व्यक्ति के जीवन में आए हैं।

1. हिंदी कहानियों में भूमंडलीकरण

हिंदी कहानी सदैव समाज की छोटी-छोटी घटनाओं और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती रही है। भूमंडलीकरण ने कहानीकारों को नए विषय दिए—

आर्थिक असमानता और बेरोजगारी

निजीकरण और मजदूरों का शोषण

पारिवारिक संबंधों का विघटन

गाँव से शहर की ओर पलायन

मीडिया और उपभोक्तावाद का दबाव


उदाहरण:

उदय प्रकाश की कहानियाँ भूमंडलीकरण के यथार्थ को बेबाकी से सामने लाती हैं। उनकी कहानियों ‘मोहनदास’, ‘हीरामन’ या ‘तिरिछ’ में सामाजिक विसंगतियों और नई आर्थिक नीतियों से पैदा हुए संकटों का चित्रण मिलता है।

संजय खाती, अखिलेश, असग़र वजाहत, संजीव जैसे कहानीकारों ने भूमंडलीकरण के दौर में आम आदमी की पीड़ा और असमानता को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है।


इस प्रकार हिंदी कहानी भूमंडलीकरण के बाद बदले समाज की सच्चाइयों को प्रामाणिक रूप से अभिव्यक्त करती है

2. हिंदी निबंधों में भूमंडलीकरण

हिंदी निबंध साहित्य में भूमंडलीकरण पर वैचारिक और आलोचनात्मक दृष्टि मिलती है। निबंधकारों ने इसके लाभ और हानि दोनों पर चर्चा की है।

लाभ यह कि दुनिया की नई जानकारियाँ और तकनीकी सुविधाएँ सभी तक पहुँच रही हैं।

हानि यह कि सांस्कृतिक पहचान और भाषाई विविधता खतरे में पड़ रही है।


रामचंद्र शुक्ल की आलोचनात्मक परंपरा से लेकर समकालीन निबंधकारों तक यह चिंता दिखाई देती है कि भूमंडलीकरण कहीं ‘संस्कृति के उपनिवेशवाद’ का नया रूप न बन जाए।
समकालीन निबंधों में भाषा-बाजार, साहित्य का विपणन, और हिंदी की स्थिति पर गंभीर बहस हुई है।


3. हिंदी उपन्यासों में भूमंडलीकरण

उपन्यास जीवन का व्यापक चित्र प्रस्तुत करता है, इसलिए भूमंडलीकरण का सबसे गहरा प्रभाव उपन्यासों में दिखाई देता है।

अशोक वाजपेयी, राही मासूम रज़ा, नीलाभ अश्क, संजीव आदि उपन्यासकारों ने बदलते सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य को चित्रित किया।

‘मोहनदास’ (उदय प्रकाश) उपन्यास न केवल भूमंडलीकरण के बाद आम आदमी की पहचान संकट को सामने लाता है बल्कि यह भी दिखाता है कि नई व्यवस्था में न्याय प्राप्त करना कितना कठिन है।

मन्नू भंडारी और कृष्णा सोबती के उपन्यासों में भी उपभोक्तावाद, नारी की बदलती भूमिका और वैश्विक जीवनशैली का असर मिलता है।

भूमंडलीकरण ने उपन्यासकारों को यह सोचने के लिए मजबूर किया कि अब गाँव और शहर का अंतर मिट रहा है, लेकिन इसके साथ ही गरीबी, विस्थापन और हाशियाकरण जैसी समस्याएँ और गहराई से सामने आ रही हैं।

4. हिंदी कविताओं में भूमंडलीकरण

कविता मानवीय संवेदनाओं की सबसे तीव्र अभिव्यक्ति है। भूमंडलीकरण के बाद हिंदी कविता में—

बाजारवाद और उपभोक्तावाद की आलोचना

मानव संबंधों की कृत्रिमता

प्रकृति का दोहन और पर्यावरण संकट

नारी की नयी भूमिका
जैसे विषय प्रमुखता से आए।

कुमार विकल, ज्ञानेंद्रपति, राजेश जोशी, आलोकधन्वा जैसे कवियों ने भूमंडलीकरण के दौर में बदलते जीवन का चित्रण किया।
राजेश जोशी की कविता “मार्केट जा रहा है कवि” भूमंडलीकरण और बाजार संस्कृति पर तीखा व्यंग्य करती है।
कई कविताओं में यह चिंता व्यक्त की गई है कि भूमंडलीकरण मनुष्य को उपभोक्ता मात्र बना रहा है, उसकी संवेदनशीलता को नष्ट कर रहा है।

भूमंडलीकरण और भाषा/हिंदी का संकट

भूमंडलीकरण के चलते अंग्रेज़ी और विदेशी भाषाओं का प्रभुत्व बढ़ा है। हिंदी के सामने यह चुनौती है कि वह अपने पाठक और सृजन-क्षेत्र को बनाए रखे।
इंटरनेट और डिजिटल युग में हिंदी ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है, लेकिन बाजार-आधारित भाषा-नीति अब भी हिंदी के लिए चुनौती बनी हुई है।

भूमंडलीकरण के सकारात्मक पक्ष

विश्व साहित्य से जुड़ने का अवसर

नई तकनीक के कारण हिंदी साहित्य का वैश्विक प्रसार

विषय-विस्तार और शैलियों की विविधता

प्रवासी भारतीयों द्वारा हिंदी लेखन में बढ़ोतरी

भूमंडलीकरण के नकारात्मक पक्ष

साहित्य का वस्तुकरण (Commodification)

बाजार की माँग के अनुसार लेखन का दबाव

लोकभाषाओं और बोलियों की उपेक्षा

संवेदनाओं और मानवीय मूल्यों का ह्रास

उपसंहार

भूमंडलीकरण ने हिंदी साहित्य को नई दृष्टि और नए विषय प्रदान किए हैं। कहानी, निबंध, उपन्यास और कविता—सभी विधाओं में इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
किंतु यह प्रभाव द्वंद्वात्मक है—एक ओर अवसर और दूसरी ओर संकट। साहित्यकारों की जिम्मेदारी है कि वे इस वैश्विक युग में मानवीय मूल्यों, सांस्कृतिक अस्मिता और भाषाई विविधता को सुरक्षित रखें।
इस प्रकार हिंदी साहित्य भूमंडलीकरण के दौर में भी अपनी पहचान और प्रासंगिकता को बनाए रखने की क्षमता रखता है।

नाखून क्यों बढ़ते हैं निबंध हजारी प्रसाद द्विवेदी

नाखून क्यों बढ़ते हैं

(हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध पर आधारित विवेचनात्मक लेख)
प्रस्तावना

हिंदी निबंध साहित्य में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। वे केवल साहित्यकार ही नहीं बल्कि चिंतक, इतिहासकार, आलोचक और संस्कृति-विश्लेषक भी थे। उनके निबंधों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे किसी भी सामान्य विषय को दार्शनिक गहराई, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य और जीवन-दर्शन से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं।
उनका प्रसिद्ध निबंध “नाखून क्यों बढ़ते हैं” इस बात का ज्वलंत उदाहरण है। प्रथम दृष्टि में यह प्रश्न तुच्छ और हास्यास्पद प्रतीत हो सकता है, लेकिन द्विवेदी जी ने इसे लेकर जिस तरह जीवन और समाज के व्यापक प्रश्नों को उजागर किया, वह उनकी अद्वितीय लेखन-प्रतिभा को प्रमाणित करता है।

निबंध का शाब्दिक आशय

“नाखून क्यों बढ़ते हैं” शीर्षक पाठक को कौतूहल में डालता है। नाखून एक साधारण जैविक सत्य है – वे मानव शरीर के विकास का स्वाभाविक हिस्सा हैं, लगातार बढ़ते हैं और समय-समय पर काटे जाते हैं। किंतु द्विवेदी जी ने केवल शारीरिक कारण तक सीमित न रहकर इसके पीछे दार्शनिक और सांस्कृतिक कारण ढूँढने का प्रयास किया।
उनके अनुसार नाखून का बढ़ना केवल शरीर की प्रक्रिया नहीं, बल्कि जीवन के निरंतर प्रवाह और असीम इच्छाओं का प्रतीक है।

विज्ञान और नाखून

विज्ञान के अनुसार नाखून केराटिन नामक प्रोटीन से बने होते हैं और ये मनुष्य की उंगलियों की सुरक्षा तथा पकड़ की शक्ति को बढ़ाने के लिए विकसित हुए हैं। नाखून लगातार इसलिए बढ़ते रहते हैं क्योंकि यह जीवित कोशिकाओं की निरंतर क्रिया का परिणाम है। शरीर में रक्तसंचार, कोशिका-विभाजन और ऊर्जा-प्रवाह ही नाखून की वृद्धि का कारण हैं।
द्विवेदी जी ने इन तथ्यों को आधार बनाकर यह संकेत किया कि मनुष्य का जीवन और उसकी इच्छाएँ भी नाखून की तरह कभी थमती नहीं।

दार्शनिक दृष्टिकोण

नाखून का बढ़ना मानव की उस प्रवृत्ति का प्रतीक है, जो अतृप्ति कहलाती है। मनुष्य सदा कुछ न कुछ चाहता है; उसकी आकांक्षाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। नाखून चाहे कितनी ही बार काटे जाएँ, वे पुनः बढ़ते हैं। उसी प्रकार मनुष्य की इच्छाओं को कितनी ही बार संयमित या नियंत्रित क्यों न किया जाए, वे फिर से जन्म ले लेती हैं।
इस प्रकार नाखून यहाँ मानवीय वासना, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का दार्शनिक प्रतीक बन जाते हैं।

सांस्कृतिक संकेत

भारतीय संस्कृति में शरीर के प्रत्येक अंग का कोई न कोई सांकेतिक महत्व रहा है। नाखूनों की उपेक्षा या अत्यधिक वृद्धि अशुद्धि का प्रतीक मानी गई है। समय-समय पर नाखून काटना सामाजिक शुचिता और मर्यादा से भी जुड़ा रहा है।
द्विवेदी जी ने इस सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को भी निबंध में छुआ है। उनके अनुसार, यदि मनुष्य अपने नाखूनों (अर्थात इच्छाओं) को नियंत्रित करता रहे तो जीवन संतुलित रह सकता है। किंतु यदि इन्हें बढ़ने दिया जाए, तो ये असामाजिक, अस्वस्थ और असुंदर प्रतीत होते हैं।

व्यंग्य और हास्य का पुट

द्विवेदी जी के निबंधों में हल्का व्यंग्य और हास्य भी मिलता है। वे नाखून के बढ़ने को लेकर कभी-कभी यह प्रश्न उठाते हैं कि यदि यह इतना आवश्यक है तो मनुष्य ने ही क्यों इन्हें काटने की आदत डाल ली?
यह व्यंग्य दरअसल उस मानव-प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है, जो स्वाभाविकता से टकराकर कृत्रिमता को जन्म देती है।


सामाजिक जीवन में नाखून का प्रतीक

द्विवेदी जी नाखून को केवल व्यक्तिगत जीवन का नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन का भी प्रतीक मानते हैं। समाज में भी अनेक ऐसी चीजें होती हैं जो बार-बार हटाने के बाद भी पुनः उभर आती हैं—

जैसे अन्याय, असमानता, भ्रष्टाचार।
इन्हें रोकने के लिए कितने ही प्रयास किए जाएँ, वे फिर से जन्म लेते हैं।
यहाँ नाखून एक सामाजिक रूपक बनकर सामने आता है।


नाखून और कला-दृष्टि

हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्यकार होने के साथ-साथ कला-दृष्टि से भी समृद्ध थे। वे कहते हैं कि नाखून की बढ़त में भी एक सौंदर्य है। जिस तरह चित्रकार अपनी रचना में बार-बार रंग भरता है, उसी तरह प्रकृति भी नाखूनों को निरंतर बढ़ाती है।
यह दृष्टि साधारण को असाधारण में बदल देती है।

जीवन-दर्शन

इस निबंध में अंततः द्विवेदी जी ने यह निष्कर्ष दिया कि नाखून का बढ़ना जीवन की निरंतरता का प्रतीक है।
मनुष्य मृत्यु तक सक्रिय रहता है; उसकी इच्छाएँ, सपने और कर्मराशि कभी समाप्त नहीं होती। नाखून की भाँति ही उसका जीवन एक सतत प्रक्रिया है, जो रुककर भी रुकती नहीं।


निबंध की शैलीगत विशेषताएँ

1. सामान्य विषय का असाधारण रूपांतरण – साधारण नाखून के बहाने उन्होंने गहन दार्शनिक विवेचन प्रस्तुत किया।

2. हास्य-व्यंग्य का प्रयोग – भाषा कहीं-कहीं चुटीली और रोचक बन जाती है।

3. सांस्कृतिक गहराई – भारतीय समाज और संस्कृति के संकेतों को निबंध में सहज ढंग से जोड़ा गया है।

4. सरल-सुबोध भाषा – कठिन विचारों को भी उन्होंने सामान्य पाठकों तक पहुँचाने योग्य भाषा में व्यक्त किया।

5. रूपक और प्रतीक – नाखून को जीवन, इच्छाओं, वासनाओं और सामाजिक बुराइयों का प्रतीक बनाना।


प्रासंगिकता

आज के समय में भी यह निबंध उतना ही सार्थक है। आधुनिक मनुष्य की भौतिक इच्छाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ रही हैं, जिन्हें काटने के बाद भी वे दुबारा पनप जाती हैं।
इस दृष्टि से “नाखून क्यों बढ़ते हैं” निबंध हमें आत्मसंयम, संतुलन और आत्मचिंतन की ओर प्रेरित करता है।

उपसंहार

हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह निबंध हिंदी निबंध साहित्य की श्रेष्ठ उपलब्धि है। एक साधारण विषय को दार्शनिक गहराई, सांस्कृतिक दृष्टि, सामाजिक संदर्भ और साहित्यिक सौंदर्य से जिस प्रकार उन्होंने संपन्न किया, वह उन्हें अद्वितीय बनाता है।
नाखून का बढ़ना केवल जैविक क्रिया नहीं, बल्कि जीवन की निरंतरता, इच्छाओं की अतृप्ति और समाज की पुनरावृत्त समस्याओं का रूपक है।
इस प्रकार यह निबंध हमें सिखाता है कि जीवन में इच्छाओं को नियंत्रित करते हुए आगे बढ़ना चाहिए, अन्यथा वे बोझ बनकर असुंदर प्रतीत होंगी।

शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

समाचार पत्र लेखन और संपादकीय लेखन

समाचार पत्र लेखन तथा संपादकीय लेखन
प्रस्तावना

समाचार पत्र लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाता है। यह समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, साहित्य, विज्ञान, खेल और संस्कृति सभी क्षेत्रों की गतिविधियों का दर्पण होता है। आज सूचना का युग है और मनुष्य प्रतिदिन बदलती परिस्थितियों से अवगत रहना चाहता है। समाचार पत्र इस आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। इनमें प्रकाशित समाचार और संपादकीय न केवल जानकारी प्रदान करते हैं बल्कि समाज की दिशा भी तय करते हैं। समाचार पत्र लेखन और संपादकीय लेखन, दोनों पत्रकारिता की आधारभूत विधाएँ हैं जिनका समाज और जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ता है।


समाचार पत्र लेखन : स्वरूप और विशेषताएँ

समाचार पत्र लेखन का मूल उद्देश्य तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और तटस्थ जानकारी पाठकों तक पहुँचाना है। इसमें भाषा सरल, स्पष्ट और निष्पक्ष होनी चाहिए। समाचार पत्र लेखन का दायरा अत्यंत व्यापक है— इसमें राजनीति, अपराध, शिक्षा, विज्ञान, कला, खेल, मनोरंजन, मौसम, दुर्घटनाएँ, योजनाएँ और नीतियाँ सभी सम्मिलित होती हैं।

समाचार पत्र लेखन की प्रमुख विशेषताएँ

1. तथ्यपरकता – समाचार तथ्यों पर आधारित होना चाहिए, अनुमान या व्यक्तिगत विचार उसमें सम्मिलित नहीं होने चाहिए।

2. निष्पक्षता – लेखक को किसी पक्ष विशेष के समर्थन या विरोध से बचना चाहिए।

3. स्पष्टता – समाचार संक्षिप्त और स्पष्ट भाषा में हो। जटिल या कठिन शब्दों का प्रयोग कम होना चाहिए।

4. समसामयिकता – समाचार का मूल्य उसकी नवीनता में निहित है। पुराने समाचार का कोई महत्व नहीं होता।

5. सारगर्भिता – समाचार में केवल आवश्यक तथ्य प्रस्तुत हों, अनावश्यक विवरण से बचना चाहिए।

6. उल्टे पिरामिड शैली – समाचार लेखन में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य प्रारंभ में और कम महत्वपूर्ण विवरण अंत में दिया जाता है।


समाचार पत्र लेखन की भाषा-शैली

समाचार की भाषा में सरलता, सटीकता और ताजगी अनिवार्य है। भाषा न अधिक साहित्यिक हो और न ही अत्यधिक बोलचाल की। मुहावरे या अलंकारिक शैली की अपेक्षा तथ्यपरकता और व्यावहारिकता पर जोर दिया जाता है।

समाचार पत्र लेखन का उदाहरण (संक्षेप में)

“भिवानी जिले में स्वच्छता अभियान के अंतर्गत राजकीय महाविद्यालय सिवानी में पोस्टर मेकिंग एवं स्लोगन लेखन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। प्रतियोगिता में लगभग 150 विद्यार्थियों ने भाग लिया। प्राचार्य डॉ. रंजीत सिंह ने विजेताओं को सम्मानित करते हुए कहा कि स्वच्छता केवल सरकारी कार्यक्रम नहीं बल्कि जीवन शैली का हिस्सा है। नोडल अधिकारी सुमन देवी ने विद्यार्थियों को स्वच्छता के प्रति जागरूक रहने का आह्वान किया।”

यह उदाहरण बताता है कि समाचार लेखन किस प्रकार सरल, स्पष्ट और तथ्यपरक होता है।

संपादकीय लेखन : स्वरूप और महत्व

समाचार पत्र का हृदय उसका संपादकीय पृष्ठ होता है। संपादकीय किसी मुद्दे पर अख़बार का आधिकारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इसमें केवल तथ्य नहीं होते बल्कि घटनाओं का विश्लेषण, विवेचन और समाधान प्रस्तुत किया जाता है। संपादकीय पाठकों को सोचने और समाज को दिशा देने का कार्य करता है।

संपादकीय लेखन की प्रमुख विशेषताएँ

1. गंभीरता और गहनता – संपादकीय किसी विषय का गहराई से विश्लेषण करता है।

2. विचारपरकता – इसमें केवल घटनाएँ नहीं, बल्कि घटनाओं के कारण, परिणाम और निहितार्थ प्रस्तुत किए जाते हैं।

3. मार्गदर्शन – संपादकीय जनमानस को किसी मुद्दे पर विचार और दिशा प्रदान करता है।

4. आलोचनात्मक दृष्टि – इसमें सरकार, समाज या व्यवस्था की खामियों पर साहसपूर्वक टिप्पणी की जाती है।

5. समसामयिकता और प्रासंगिकता – संपादकीय सदैव समकालीन मुद्दों पर आधारित होते हैं।


संपादकीय लेखन की भाषा-शैली

संपादकीय की भाषा प्रभावपूर्ण, तर्कसंगत और प्रामाणिक होनी चाहिए। इसमें भावुकता से अधिक तर्क और विवेचना पर बल होता है। भाषा न अधिक कठोर हो और न ही अत्यधिक भावनात्मक, बल्कि संतुलित होनी चाहिए।

संपादकीय लेखन का उदाहरण (संक्षेप में)

“हाल ही में बढ़ती बेरोजगारी ने युवा वर्ग को गहरी चिंता में डाल दिया है। सरकार द्वारा रोजगार मेलों और नई योजनाओं की घोषणा तो की जाती है, परंतु उनका क्रियान्वयन संतोषजनक नहीं है। केवल घोषणाओं से स्थिति नहीं बदल सकती। आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा और रोजगार के बीच की खाई को पाटा जाए। व्यावसायिक शिक्षा, कौशल विकास और स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देकर ही बेरोजगारी की समस्या का हल संभव है। सरकार को चाहिए कि घोषणाओं से आगे बढ़कर ठोस नीतियाँ बनाए।”

यह उदाहरण दर्शाता है कि संपादकीय न केवल तथ्य प्रस्तुत करता है बल्कि विचार और सुझाव भी देता है।

समाचार पत्र लेखन और संपादकीय लेखन का अंतर

आधार समाचार पत्र लेखन संपादकीय लेखन

उद्देश्य तथ्य प्रस्तुत करना तथ्य का विश्लेषण और मार्गदर्शन देना
शैली संक्षिप्त, स्पष्ट और वस्तुनिष्ठ तर्कपूर्ण, विश्लेषणात्मक और विचारपरक
भाषा सरल और सीधी प्रभावपूर्ण और गंभीर
दायरा समाचार, घटनाएँ, गतिविधियाँ सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मुद्दों का विवेचन
भूमिका जानकारी देना दिशा और दृष्टिकोण प्रदान करना

समाचार पत्र लेखन और संपादकीय लेखन का महत्व

1. लोकतांत्रिक समाज का आधार – दोनों जनता को सूचना और विचार प्रदान कर लोकतंत्र को सशक्त करते हैं।

2. जनजागरण – समाज में व्याप्त समस्याओं पर जनमानस को जागरूक करते हैं।

3. शिक्षण और प्रशिक्षण – समाचार हमें नई जानकारियाँ देते हैं, वहीं संपादकीय हमें सोचने और समझने का अभ्यास कराते हैं।

4. सामाजिक सुधार – सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाने का सबसे प्रभावी माध्यम संपादकीय होता है।

5. राष्ट्रीय एकता – समाचार पत्र विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों के बीच संवाद और एकता स्थापित करते हैं।


चुनौतियाँ और सावधानियाँ

1. पक्षपात से बचाव – समाचार और संपादकीय लेखन में निष्पक्षता बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है।

2. सूचना की सत्यता – झूठी या अपुष्ट खबरें अख़बार की साख को गिरा देती हैं।

3. भाषाई शुद्धता – अशुद्ध या कठिन भाषा से पाठकों का विश्वास डगमगा सकता है।

4. संतुलन – संपादकीय में आलोचना के साथ-साथ रचनात्मक सुझाव देना भी आवश्यक है।

5. व्यावसायिक दबाव – विज्ञापन या राजनीतिक दबाव के कारण निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है।

निष्कर्ष

समाचार पत्र लेखन और संपादकीय लेखन दोनों ही लोकतंत्र और समाज के लिए अनिवार्य हैं। समाचार पत्र लेखन जहाँ हमें घटनाओं और तथ्यों से अवगत कराता है, वहीं संपादकीय लेखन हमें उन तथ्यों का विश्लेषण करने और सही निष्कर्ष तक पहुँचने में मदद करता है। दोनों मिलकर समाज की चेतना को जगाने, दिशा देने और लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने का कार्य करते हैं। अतः पत्रकार और लेखक का दायित्व है कि वे निष्पक्षता, ईमानदारी और तर्कसंगत दृष्टि के साथ लेखन करें ताकि समाज का सही मार्गदर्शन हो सके।


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प्रेमचंद और पत्रकारिता

प्रेमचंद और पत्रकारिता

1. प्रस्तावना

प्रेमचंद (1880–1936) को हिंदी कथा साहित्य का सम्राट कहा जाता है। उनके उपन्यास, कहानियाँ और निबंध समाज के यथार्थ और आदर्श का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत करते हैं। किंतु प्रेमचंद केवल साहित्यकार ही नहीं, बल्कि एक सशक्त पत्रकार और संपादक भी थे। उन्होंने पत्रकारिता को समाज-सुधार और राष्ट्रीय जागरण का प्रभावी माध्यम बनाया। उनकी पत्रकारिता में वही संवेदनशीलता, वैचारिकता और लोक-मंगल की चेतना दिखाई देती है जो उनके साहित्य की आत्मा है।


2. प्रेमचंद की पत्रकारिता का आरंभ

प्रेमचंद का जीवन कठिनाइयों और संघर्षों से भरा हुआ था। आरंभ में वे अध्यापक और फिर सरकारी मुलाजिम रहे, परंतु अंग्रेजी शासन की कठोरता और अपनी स्वाभिमानी प्रवृत्ति के कारण नौकरी छोड़कर पूरी तरह साहित्य और पत्रकारिता की ओर प्रवृत्त हुए।

1910 के आसपास उन्होंने साहित्यिक लेखन के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेख लिखने शुरू किए।

स्वाधीनता आंदोलन के दौर में उनके विचार अधिक प्रखर हुए और पत्रकारिता उनका महत्वपूर्ण क्षेत्र बन गई।


3. प्रेमचंद और हंस

प्रेमचंद ने 1929 में ‘हंस’ नामक मासिक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया। यह पत्रिका उनकी पत्रकारिता का सबसे महत्वपूर्ण आयाम है।

‘हंस’ में उन्होंने सामाजिक अन्याय, जातीय विषमता, किसानों और मजदूरों की समस्याओं, स्त्रियों की स्थिति, धार्मिक कुप्रथाओं तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता जैसे मुद्दों पर खुलकर लिखा।

यह पत्रिका जन-जागरण का सशक्त माध्यम बनी और हिंदी समाज में प्रगतिशील चेतना का संचार किया।

‘हंस’ ने न केवल प्रेमचंद के विचारों को मंच दिया, बल्कि नए लेखकों को भी अवसर प्रदान किया।


4. प्रेमचंद और जागरण

1932 में प्रेमचंद ने ‘जागरण’ पत्र का संपादन संभाला।

इसका उद्देश्य ग्रामीण समाज को शिक्षित और जागरूक बनाना था।

‘जागरण’ में किसानों की समस्याएँ, ऋणग्रस्तता, जमींदारों के शोषण, ग्रामीण शिक्षा और स्वराज्य आंदोलन से संबंधित लेख प्रकाशित होते थे।

प्रेमचंद की पत्रकारिता का यह चरण उन्हें जनता के और भी निकट ले आया।


5. पत्रकारिता में प्रमुख विषय

प्रेमचंद की पत्रकारिता का दायरा अत्यंत व्यापक था। उनके लेखों में निम्नलिखित प्रमुख विषय मिलते हैं—

1. सामाजिक सुधार – जाति-भेद, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह और स्त्री शिक्षा जैसे मुद्दों पर उन्होंने जनता को जागरूक किया।

2. आर्थिक प्रश्न – किसानों और मजदूरों की समस्याएँ, सामंती शोषण और ऋण की जकड़न का गहन विश्लेषण किया।

3. राजनीतिक चेतना – उन्होंने स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन और स्वराज्य की आवश्यकता पर लेख लिखे।

4. राष्ट्रीय एकता – सांप्रदायिक सौहार्द, हिंदू-मुस्लिम एकता और मानवतावाद को बल दिया।


5. साहित्य और संस्कृति – उन्होंने साहित्य को समाज के निर्माण का साधन मानते हुए उसकी भूमिका पर भी विचार किया।


6. प्रेमचंद की पत्रकारिता की विशेषताएँ

1. जनपक्षधरता – उनकी पत्रकारिता सदैव आम जनता, विशेषकर किसानों और मजदूरों के पक्ष में खड़ी रही।


2. सरल भाषा – उन्होंने पत्रकारिता में ऐसी भाषा का प्रयोग किया जो सीधे जनमानस से जुड़ सके।


3. निडरता और स्पष्टता – अंग्रेजी शासन और सामाजिक बुराइयों पर वे निर्भीकतापूर्वक लिखते थे।


4. आदर्श और यथार्थ का समन्वय – पत्रकारिता में भी उन्होंने यथार्थवादी दृष्टि के साथ सुधार और आदर्श की राह दिखाई।


5. प्रगतिशील दृष्टिकोण – उनके लेख सामाजिक परिवर्तन, समानता और न्याय की ओर संकेत करते हैं।


7. प्रेमचंद की पत्रकारिता की चुनौतियाँ

प्रेमचंद की पत्रकारिता आसान नहीं थी।

अंग्रेज सरकार की सेंसरशिप और दमन के कारण कई बार उनके लेख विवादास्पद बने।

आर्थिक कठिनाइयों से ‘हंस’ और ‘जागरण’ जैसी पत्रिकाएँ बार-बार संकट में आईं।

फिर भी उन्होंने समझौता नहीं किया और पत्रकारिता को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी माना।

8. आलोचकों की दृष्टि

रामविलास शर्मा ने लिखा – “प्रेमचंद की पत्रकारिता उनके साहित्य की ही विस्तार है, जिसमें जनपक्षधरता और राष्ट्रीयता का अद्भुत समन्वय है।”

नामवर सिंह के अनुसार – “प्रेमचंद ने पत्रकारिता को लोक-चेतना का औजार बनाया और उसे साहित्य की तरह ही समाज-निर्माण का माध्यम समझा।”



9. पत्रकारिता और साहित्य का संबंध

प्रेमचंद की पत्रकारिता और साहित्य एक-दूसरे के पूरक हैं।

उनकी कहानियाँ और उपन्यास जहाँ समाज की सच्चाइयों को कलात्मक रूप में प्रस्तुत करते हैं, वहीं उनकी पत्रकारिता इन मुद्दों पर प्रत्यक्ष और स्पष्ट टिप्पणी करती है।

दोनों ही माध्यमों का उद्देश्य समाज-सुधार और राष्ट्रीय चेतना का प्रसार था।

10. उपसंहार

प्रेमचंद की पत्रकारिता हिंदी जगत के लिए एक अनमोल धरोहर है। उन्होंने पत्रकारिता को सत्ता की चापलूसी का माध्यम न बनाकर जन-जागरण और समाज-सुधार का हथियार बनाया। उनकी लेखनी ने शोषितों को आवाज दी, अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का संदेश दिया और स्वाधीनता आंदोलन को बल प्रदान किया।

इस प्रकार, प्रेमचंद केवल उपन्यास सम्राट नहीं, बल्कि एक जन-जागरणकारी पत्रकार भी थे। उनकी पत्रकारिता ने यह सिद्ध कर दिया कि कलम केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का शस्त्र भी है।

प्रेमचंद और आर्दशोन्मुख यथार्थवाद

प्रेमचंद और आदर्शोन्मुख   यथार्थवाद
हिंदी साहित्य में प्रेमचंद का नाम यथार्थवादी कथा साहित्य के शिखर पर विराजमान है। उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में न केवल भारतीय समाज के यथार्थ को अभिव्यक्त किया, बल्कि उस यथार्थ में छिपे हुए आदर्शों और मानवीय मूल्यों को भी उभारकर प्रस्तुत किया। यही कारण है कि उनके साहित्य को ‘आदर्श-उन्मुख यथार्थवाद’ की संज्ञा दी जाती है।



1. प्रस्तावना

प्रेमचंद (1880–1936) हिंदी कथा साहित्य के ऐसे अग्रदूत हैं जिन्होंने भारतीय समाज की गहन समस्याओं को अपनी रचनाओं में चित्रित किया। उन्होंने किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों और उपेक्षित वर्गों के जीवन की पीड़ा को सजीव किया। किन्तु उनका यथार्थ केवल नंगी वास्तविकता नहीं है; उसमें एक सकारात्मक दिशा, आदर्श की प्रेरणा और परिवर्तन का संदेश भी मिलता है।

प्रेमचंद के साहित्य का मूल स्वर यही है कि समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण और विषमता को बदलकर समानता, सहयोग और मानवता पर आधारित समाज की स्थापना की जाए। इसलिए उनका यथार्थवादी दृष्टिकोण मात्र सामाजिक यथार्थ का वर्णन न होकर आदर्शोन्मुख है।

2. यथार्थवाद की अवधारणा

यथार्थवाद का अर्थ है – वस्तु, व्यक्ति और समाज का चित्रण जैसा वह है। इसमें जीवन की सच्चाइयों का बिना किसी अलंकरण या कल्पना के यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया जाता है। साहित्य में यथार्थवादी प्रवृत्ति का विकास उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में हुआ, जब औपनिवेशिक शोषण और सामाजिक अन्याय के प्रति जन-जागरूकता बढ़ी।

किन्तु यदि यथार्थ केवल दुःख, दरिद्रता और कुरूपता का चित्रण करके ही रुक जाए, तो वह निराशावादी हो जाता है। प्रेमचंद ने इसी स्थिति से साहित्य को उबारते हुए यथार्थ को आदर्श की दिशा दी।

3   आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की परिभाषा

आदर्श-उन्मुख यथार्थवाद वह है जिसमें लेखक समाज की सच्चाइयों को ज्यों का त्यों चित्रित करता है, परंतु उसके साथ एक ऊँचे लक्ष्य और सकारात्मक परिवर्तन की आकांक्षा भी जोड़ता है। यह साहित्य केवल स्थिति का दर्पण नहीं है, बल्कि समाज को दिशा देने वाला दीपक भी है।

प्रेमचंद ने स्वयं कहा था—
“साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं, वह पथ-प्रदर्शक भी है।”

4. प्रेमचंद का यथार्थवादी दृष्टिकोण

प्रेमचंद के साहित्य में भारतीय समाज की गरीबी, किसानों का शोषण, सामंती अत्याचार, स्त्रियों की दुर्दशा, जातिगत विषमता, शिक्षा का अभाव और औपनिवेशिक दमन आदि का सजीव चित्रण है। उनकी कहानियाँ और उपन्यास हमें बीसवीं शताब्दी के आरंभिक भारतीय गाँवों और कस्बों का वास्तविक दृश्य प्रस्तुत करते हैं।

उदाहरण:

‘गोदान’ में किसान होरी के माध्यम से किसानों की त्रासदी का यथार्थवादी चित्रण मिलता है।

‘निर्मला’ में दहेज प्रथा और स्त्री-जीवन की पीड़ा दिखाई देती है।

‘कफन’ में गरीबी और असहायता की चरम स्थिति का चित्रण है।


5. प्रेमचंद का आदर्शवादी दृष्टिकोण

प्रेमचंद केवल यथार्थ का उद्घाटन ही नहीं करते, बल्कि उसमें सुधार और परिवर्तन की संभावना भी तलाशते हैं। उनके नायक सामान्य किसान, स्त्रियाँ, मजदूर और आम जन हैं, जो संघर्षशील और नैतिक मूल्यों से प्रेरित होते हैं।

उदाहरण:

‘गोदान’ में होरी शोषण का शिकार होकर भी अपने परिवार और समाज के प्रति कर्तव्य निभाने की कोशिश करता है।

‘सेवासदन’ की नायिका स्त्री-सम्मान और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करती है।

‘पूस की रात’ में हल्कू अपने दुखों के बावजूद हास्य और आशा का सहारा ढूँढता है।

यहाँ यथार्थ के साथ एक आदर्श की झलक भी मिलती है—समानता, सहानुभूति और संघर्षशीलता का आदर्श।



6. सामाजिक यथार्थ और आदर्श का समन्वय

प्रेमचंद का साहित्य इस तथ्य का साक्षी है कि वे केवल यथार्थवादी लेखक नहीं, बल्कि समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपने साहित्य को समाज की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करने और जनचेतना जगाने का माध्यम बनाया।

उनके साहित्य में हमें तीन मुख्य आयाम दिखाई देते हैं—

1. समस्याओं का यथार्थवादी चित्रण

2. संघर्ष और पीड़ा का प्रदर्शन

3. समाधान और आदर्श की ओर संकेत

इस प्रकार उनका साहित्य संतुलित यथार्थवाद है।

7. आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के प्रमुख पहलू

1. किसान जीवन – प्रेमचंद ने किसानों के जीवन की यथार्थ समस्याओं का चित्रण किया और उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाई।


2. स्त्री विमर्श – दहेज, पराधीनता और उपेक्षा के बावजूद उन्होंने स्त्री की स्वतंत्रता और सम्मान का आदर्श प्रस्तुत किया।


3. जातीय समस्या – दलितों की पीड़ा का यथार्थवादी चित्रण किया और सामाजिक समानता का आदर्श रखा।


4. नैतिकता और मानवता – उनके नायक जीवन में नैतिक आदर्श और मानवीय संवेदना को महत्त्व देते हैं।


5. राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता चेतना – उनके साहित्य में स्वदेश-प्रेम और स्वतंत्रता का आदर्श भी प्रकट होता है।


8. आलोचकों की दृष्टि

साहित्यकार और आलोचक प्रेमचंद को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवादी’ मानते हैं।

नामवर सिंह के अनुसार – “प्रेमचंद ने यथार्थ को आदर्श की ओर मोड़कर साहित्य को जन-संघर्ष का साधन बनाया।”

रामविलास शर्मा ने लिखा – “प्रेमचंद का यथार्थ किसानों और मजदूरों का यथार्थ है, जो समाज में परिवर्तन की प्रेरणा देता है।”

 उपसंहार

प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को जीवन और समाज की सच्चाइयों से जोड़ा। उन्होंने न तो जीवन की कुरूपताओं से मुँह मोड़ा, न ही केवल आदर्शवादी कल्पना में खोए। बल्कि उन्होंने दोनों का अद्भुत समन्वय करके यथार्थ को आदर्श की दिशा दी।

इस प्रकार, प्रेमचंद का साहित्य हमें यह सिखाता है कि साहित्यकार का दायित्व केवल वास्तविकता का चित्रण करना नहीं, बल्कि उस वास्तविकता को बेहतर बनाने की राह दिखाना भी है। यही कारण है कि उनके साहित्य को आदर्श-उन्मुख यथार्थवाद की संज्ञा दी जाती है।

राष्ट्रीय परिदृश्य और प्रेमचंद

राष्ट्रीय परिदृश्य और प्रेमचंद

प्रस्तावना

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम केवल राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जागरण का युग भी था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत अंग्रेज़ी दासता की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। पराधीनता, गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, जातिवाद, धार्मिक कट्टरता, किसान और मजदूरों का शोषण समाज में व्याप्त था। इसी दौर में प्रेमचंद का साहित्य सामने आया, जिसने इस राष्ट्रीय परिदृश्य को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया और परिवर्तन की चेतना को स्वर दिया।

राष्ट्रीय परिदृश्य : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

प्रेमचंद का जन्म 1880 में हुआ और 1936 में उनका निधन हुआ। यह वही काल था जब भारत में—

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की स्मृति ताज़ा थी।

कांग्रेस की स्थापना (1885) के बाद स्वाधीनता आंदोलन संगठित रूप ले रहा था।

बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल जैसे नेता उग्र राष्ट्रवाद का स्वर बुलंद कर रहे थे।

महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग, सत्याग्रह और स्वदेशी आंदोलन तेज़ हो रहे थे।

किसान, मजदूर और आम जनता ब्रिटिश शासन और पूँजीवादी ताक़तों से पीड़ित थी।


ऐसे सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में प्रेमचंद ने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानकर राष्ट्रीय चेतना का वाहक बनाया।

प्रेमचंद और राष्ट्रीय चेतना

प्रेमचंद का लेखन राष्ट्रीय परिदृश्य को सीधे छूता है। उनके साहित्य में—

औपनिवेशिक शोषण का चित्रण है।

किसानों और मजदूरों की दयनीय दशा का यथार्थ रूप मिलता है।

सामाजिक सुधार (स्त्री शिक्षा, छुआछूत, साम्प्रदायिकता विरोध) का संदेश है।

गांधीवादी विचारधारा (सत्य, अहिंसा, स्वदेशी) की छाप स्पष्ट है।


राष्ट्रीय परिदृश्य का प्रतिबिंब उपन्यासों में

1. गोदान (1936) – किसानों के शोषण, जमींदारों और महाजनों की कुटिलता और औपनिवेशिक आर्थिक ढाँचे का यथार्थ चित्रण। यह स्वतंत्र भारत की आवश्यकता की ओर संकेत करता है।


2. रंगभूमि (1924) – सूरदास नामक अंधे पात्र के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता और पूँजीवाद के खिलाफ संघर्ष। यहाँ भारतीय जनता के अस्मिता-बोध और संघर्षशीलता का परिचय मिलता है।


3. कर्मभूमि (1932) – गांधीवाद से प्रभावित उपन्यास, जिसमें असहयोग आंदोलन और सत्याग्रह की गूँज है। यह राष्ट्रीय आंदोलन का प्रत्यक्ष चित्रण करता है।


4. सेवासदन (1919) – स्त्री शिक्षा, वेश्यावृत्ति और सामाजिक सुधार के प्रश्न को उठाकर राष्ट्रीय परिदृश्य में सामाजिक जागृति का चित्रण।


कहानियों में राष्ट्रीय परिदृश्य

प्रेमचंद की कहानियाँ भी राष्ट्रीय चेतना की वाहक बनीं।

नमक का दरोगा – अंग्रेज़ी शासन के भ्रष्टाचार और नैतिक पतन पर प्रहार।

शतरंज के खिलाड़ी – लखनऊ के नवाबों की विलासिता और अंग्रेजों की राजनीतिक चालों का यथार्थ चित्रण।

पंच परमेश्वर – न्याय और निष्पक्षता की भावना, जो राष्ट्रीय आदर्शों का अंग है।

कफन – किसानों और गरीबों की विवशता, जो राष्ट्रीय परिदृश्य में सामाजिक यथार्थ की सच्चाई है।

प्रेमचंद और गांधीवादी विचारधारा

महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलनों का गहरा प्रभाव प्रेमचंद पर पड़ा। उनके साहित्य में सत्य, अहिंसा, स्वदेशी और त्याग के मूल्य बार-बार दिखाई देते हैं। कर्मभूमि इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहाँ गांधीवादी आंदोलनों का प्रभावशाली रूप मिलता है।


सामाजिक परिदृश्य और प्रेमचंद

राष्ट्रीय परिदृश्य केवल राजनीतिक ही नहीं था, उसमें सामाजिक विषमताएँ भी थीं। जातिवाद, अस्पृश्यता, स्त्री-असमानता और धार्मिक कट्टरता समाज को खोखला कर रही थी। प्रेमचंद ने अपने साहित्य में—

स्त्री शिक्षा और स्वतंत्रता का समर्थन किया।

साम्प्रदायिक सौहार्द्र की आवश्यकता बताई।

जातिवादी संकीर्णताओं पर चोट की।

समानता, सहयोग और मानवता को राष्ट्रीय उन्नति का आधार माना।

प्रेमचंद का साहित्य : राष्ट्रीय प्रदर्शन का मंच

प्रेमचंद का साहित्य राष्ट्रीय परिदृश्य में निम्न प्रकार से योगदान देता है—

जनता को अपनी दुर्दशा का बोध कराया।

शोषण और अन्याय के खिलाफ़ स्वर उठाया।

स्वाधीनता आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया।

साहित्य को समाज और राष्ट्र की सेवा का साधन बनाया।


उपसंहार

प्रेमचंद केवल कथाकार या उपन्यासकार नहीं थे, वे अपने समय के राष्ट्रकवि और समाज-द्रष्टा भी थे। उन्होंने साहित्य को राष्ट्रीय परिदृश्य का दर्पण बनाया। उनके लेखन ने दिखाया कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक परिवर्तन नहीं है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्रांति भी है। राष्ट्रीय परिदृश्य को समझने और बदलने में प्रेमचंद का योगदान अमूल्य है।

यथार्थपरक चित्रण, किसानों और मजदूरों की आवाज़, स्त्रियों की पीड़ा, जातिगत विषमता और औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ़ संघर्ष – इन सबको प्रेमचंद ने अपने साहित्य में समेटकर राष्ट्रीय चेतना का सशक्त मंच प्रदान किया।

इसलिए कहा जा सकता है—
“प्रेमचंद का साहित्य राष्ट्रीय परिदृश्य का सबसे जीवंत और यथार्थवादी दस्तावेज़ है।”