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प्रश्न : छायावाद क्या है? इसके अर्थ, परिभाषा, अवधारणा, पृष्ठभूमि, स्वरूप एवं प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
1. छायावाद का अर्थ
“छायावाद” आधुनिक हिंदी साहित्य की एक प्रमुख काव्यधारा है। शब्द की दृष्टि से ‘छाया’ का अर्थ है – आभा, प्रतिबिंब, कल्पना या रहस्य, और ‘वाद’ का अर्थ है – धारा या प्रवृत्ति।
अतः छायावाद वह काव्यधारा है जिसमें कवि ने अपनी आत्मा की छाया, कल्पनाएँ और भावनाएँ प्रकृति एवं जीवन के सौंदर्य से जोड़कर अभिव्यक्त कीं। इसे हिंदी कविता का स्वर्णिम युग कहा जाता है।
2. छायावाद की परिभाषाएँ
1. डॉ. नगेंद्र –
“छायावाद वह काव्यधारा है जिसमें कवि ने आत्मानुभूतियों, प्रकृति-सौंदर्य और रहस्यात्मकता को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाया।”
2. डॉ. रामचंद्र शुक्ल –
“छायावाद वस्तुतः कवि की आत्मा और प्रकृति का आत्मीय संबंध है।”
3. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी –
“हिंदी कविता में आत्मविभोर लयात्मक काव्यधारा को छायावाद कहा जाता है।”
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि छायावाद भावप्रधान, आत्मानुभूति और सौंदर्य की अभिव्यक्ति करने वाली काव्यधारा है।
3. छायावाद की अवधारणा
छायावाद की मूल अवधारणा यह है कि कविता का केंद्र कवि की आत्मा और उसकी निजी अनुभूतियाँ हैं। इसमें –
व्यक्तिवादी चेतना का प्रबल स्वर मिलता है।
प्रकृति-सौंदर्य केवल दृश्य रूप में नहीं, बल्कि भावनाओं का प्रतिबिंब बनकर आता है।
प्रेम और सौंदर्य के आत्मिक रूप को स्थान दिया गया।
रहस्यवाद और आध्यात्मिकता का भाव प्रकट हुआ।
मानव-मूल्य और सांस्कृतिक चेतना की रक्षा की गई।
4. छायावाद की पृष्ठभूमि
छायावाद का उदय एक ऐतिहासिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि से हुआ –
1. भारतेन्दु युग – राष्ट्रीयता और समाज सुधार की प्रधानता।
2. द्विवेदी युग – नीतिपरक, गद्यात्मक और उपदेशात्मक काव्य।
द्विवेदी युग की कठोर नीतिपरकता और गद्यात्मकता से हटकर कवियों ने भावुकता, कल्पना और कला की ओर लौटने का प्रयास किया, जो आगे चलकर छायावाद बना।
प्रभावकारी कारक :
पश्चिमी रोमांटिक काव्य (Wordsworth, Keats, Shelley आदि)।
भारतीय संस्कृति और वेदांत दर्शन।
स्वतंत्रता आंदोलन और राष्ट्रीय पुनर्जागरण।
कवियों की व्यक्तिगत संवेदनशीलता।
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5. छायावाद का स्वरूप
छायावाद का स्वरूप भावप्रधान और कलाप्रधान है। इसके मुख्य बिंदु –
1. व्यक्तिवाद – कवि की आत्मा और अनुभूतियों का प्रतिपादन।
2. प्रकृति-सौंदर्य – प्रकृति को आत्मीय साथी के रूप में चित्रित करना।
3. प्रेम और करुणा – आत्मिक और आदर्शवादी प्रेम का चित्रण।
4. रहस्यवाद – आत्मा और परमात्मा का मिलन, ईश्वर की खोज।
5. सौंदर्यवाद – कला और सौंदर्य को जीवन का आधार मानना।
6. छायावाद की प्रवृत्तियाँ
1. प्रकृति-चित्रण – कवियों ने प्रकृति को आत्मीय और मानवीय रूप में प्रस्तुत किया।
प्रसाद : “अरुण यह मधुमय देश हमारा।”
2. व्यक्तिवाद – कवि की निजता और अनुभव प्रमुख रहे।
महादेवी : “मैं नीर भरी दुख की बदली।”
3. रहस्यवाद – अनंत से मिलन की तड़प।
निराला : “तुम मेरे पास नहीं हो, पर मैं खोकर भी तुमको पाया।”
4. प्रेम और सौंदर्य – आत्मा का मिलन और आदर्शवादी दृष्टि।
5. सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रीयता – भारतीय गौरव का भाव।
7. छायावाद के चार प्रमुख स्तंभ
(क) जयशंकर प्रसाद (1889–1937)
प्रकृति और प्रेम के अद्वितीय गायक।
कामायनी में दर्शन और जीवन-दृष्टि का गहन विवेचन।
राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक गौरव का चित्रण।
प्रेम को आत्मिक रूप में देखा।
(ख) सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ (1896–1961)
छायावाद के विद्रोही कवि।
व्यक्तिवादी चेतना और स्वतंत्रता का प्रबल स्वर।
शोषित-वंचित जनता की पीड़ा का चित्रण।
भाषा और छंद में नूतन प्रयोग।
सामाजिक और मानवीय चेतना से समृद्ध काव्य।
(ग) सुमित्रानंदन पंत (1900–1977)
प्रकृति और सौंदर्य के कवि।
कोमल भावनाओं और सौंदर्य की अनुपम अभिव्यक्ति।
प्रेम और आदर्शवाद का स्वर।
दर्शन और विचारधारा की ओर भी प्रवृत्ति।
(घ) महादेवी वर्मा (1907–1987)
आधुनिक मीरा कहलाती हैं।
विरह, वेदना और करुणा की कवयित्री।
स्त्री-संवेदना और आत्मिक पीड़ा का चित्रण।
आध्यात्मिकता और संगीतात्मकता उनकी काव्य-विशेषता।
8. छायावाद की सीमाएँ
अत्यधिक भावुकता और आत्मकेंद्रितता।
सामाजिक यथार्थ का अपेक्षाकृत अभाव।
प्रतीकवाद और रहस्यात्मकता के कारण सामान्य पाठक के लिए कठिन।
9. छायावाद का महत्व
1. हिंदी कविता में सौंदर्य और भावुकता की पुनर्स्थापना।
2. गद्यात्मकता से हटकर लयात्मकता और संगीतात्मकता।
3. आत्मानुभूति और व्यक्तित्व को महत्व।
4. कला और सौंदर्य की प्रतिष्ठा।
5. आगे आने वाले काव्य-आंदोलनों (प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता) की नींव।
निष्कर्ष
छायावाद हिंदी साहित्य का वह आंदोलन है जिसने कविता को भावनात्मक गहराई, सौंदर्य की अनुभूति और आत्मिक रहस्यवाद से भर दिया।
चारों स्तंभ – प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी – ने इसे अपनी-अपनी विशेषताओं से समृद्ध किया।
इसीलिए छायावाद को हिंदी काव्य का स्वर्णिम युग कहा जाता है।
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