5955758281021487 Hindi sahitya

शुक्रवार, 15 मई 2020

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध उत्साह का सार

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध उत्साह का सार
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध
रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय
**आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के प्रमुख निबंधकार और आलोचक थे उनका जन्म सन 18 84 में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगौना नामक गांव में हुआ।
 इनके पिता का नाम श्री चंद्रावली शुक्ल उर्दू फारसी के विद्वानऔर मुसलमानी व अंग्रेजी सभ्यता के समर्थक थे ।

***किंतु उनकी माता गाना उस पवित्र और महान वंश की पुत्री थी जिसमें सदियों पूर्व गोस्वामी तुलसीदास ने जन्म लिया था।
 ***।शुक्ल जी को विरासत में ही महान साहित्यिकता प्राप्त हुई थी। शुक्ल जी की आरंभिक शिक्षा उर्दू फारसी में हुई।
 किंतु हिंदी के प्रति उन्हें सहज ही प्रेम था।
 नौवीं कक्षा में पढ़ते हुए एडिशन के एस्से ऑफ इमैजिनेशन कल्पना का आनंद शीर्षक से अनुवाद किया था। 

***अध्ययन समाप्त होने के पश्चात उन्होंने नायब तहसीलदार ई के लिए नामजद किया गया था। किंतु नौकरी में आत्मसम्मान की रक्षा कठिन हो जाती है। समझ कर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया।
 हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में हिंदी विभाग के अध्यक्ष के रूप में वह सुशोभित हुए ।

***स्वभाव से गंभीर सामाजिक व्यवहार में आते उन्हें भीड़ भाड़ और अधिक लोगों से मिलना जुलना पसंद नहीं था ।
एकांत साधना प्रिय थे ।
हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन करते समय उन्होंने विश्वविद्यालय की उत्तम कक्षाओं के लिए समर्थ प्रयास किए। सन 1941 में उनका देहांत हो गया। 
प्रमुख रचनाएं-

**आचार्य रामचंद्र शुक्ल एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे ।
उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचना की जो निम्नलिखित हैं।
 काव्य में रहस्यवाद
 तुलसी ग्रंथावली
 कल्पना का आनंद अनुवाद।
 भ्रमरगीत सार 
जायसी ग्रंथावली
 आलोचना सूरदास 
अभिमन्यु वध
 रस मीमांसा
 बुद्ध चरित्र
 हिंदी साहित्य का इतिहास 
 चिंतामणि भाग 3 
साहित्यिक विशेषताएं 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी प्राय: सभी निबंध विचारात्मक निबंध गंभीरता पाई जाती है।
 चिंतामणि के प्रथम भाग में मनोविकार एवं साहित्य सिद्धांत संबंधित निबंध लिखें।
 उनमें से कुछ निबंध इस प्रकार है
 करुणा
 श्रद्धा 
श्रद्धा और भक्ति 
ईर्ष्या 
कविता क्या है 
उत्साह 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कीर्तिमान स्थापित किए हैं ।

उन्होंने हिंदी समालोचना को शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया है।
 उनके काव्य संबंधी विचार भारतीय हैं और सैद्धांतिक उपयोग किया है।
 क्रोचे के वक्रोक्ति तक की तुलना करते हुए उन्होंने पाश्चात्य अभिव्यंजनावाद को वक्रोक्ति का विलायती उत्थान माना है ।
जायसी ,तुलसी ,सूर की काव्यगत विशेषताओं का उन्होंने सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
 रस मीमांसा में इन्होंने रस के शास्त्रीय विवेचन की मौलिक व्याख्या प्रस्तुत की है।
 भाषा शैली 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध साहित्य में प्रौढ़ एवं प्रांजल भाषा का प्रयोग किया है।
 शब्द चयन वाक्य रचना आदर्श विधान व्यंजना शक्ति आदि में इनकी भाषा निपुणता का बोध कराती है।
 चिंतन तथा भाषा के उत्कर्ष में उनके निबंध विरल है।
 शुक्ला जी की निबंध शैली उनके प्रखर व्यक्तित्व की परिचायक है
 उनके निबंधों में आवश्यकता अनुसार 
समास शैली 
व्यास शैली
निष्कर्ष 
आगमन शैली
 निगमन शैली आदि का प्रयोग मिलता है।
 लोकोक्तियां, मुहावरे अंग्रेजी ,अरबी ,फारसी, आंचलिक शब्दावली का भी प्रयोग मिलता है।
 निष्कर्ष 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य की की अनुपम निधि है इनमें गंभीर विवेचन के साथ-साथ अन्वेषण चिंतन का भी मणिकांचन सहयोग मिलता है ।
स्पष्ट अनुभूति के साथ-साथ अभिव्यंजना का अपूर्व सा मिश्रण मिलता है ।
आचार्य शुक्ल जी के गंभीर व्यक्तित्व उनके निबंधों में विषय गंभीर  है।
 आचार्य शुक्ल जी के गंभीर व्यक्तित्व के अनुकूल ही उनके निबंधों के विषय भी अत्यंत गंभीर हैं ।
व्यवहारिक समीक्षा की नई पद्धति के साथ-साथ सैद्धांतिक तर्क वितर्क, पूर्ण संविधान की अनुपम योजना का चीर स्तरीय मिलता है ।
विचारात्मक निबंधों की अद्भुत कसावट, पूर्ण विचार संकला के साथ-साथ पाठकों की बुद्धि को उत्तेजित करने वाली ।
भाषा की पूर्णता शक्ति प्रदान करने की प्रमुखता भी मिलती है ।
यही कारण है कि शुक्ला जी के निबंध आज भी निबंध साहित्य में अपना श्रेष्ठ स्थान बनाए हुए हैं। उत्साह निबंध आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का हिंदी साहित्य आजीवन ऋणी रहेगा।
धन्यवाद।
उत्साह निबंध
उत्साह आचार्य शुक्ल प्रत्येक मनोवैज्ञानिक निबंध है ।

**इसमें लेखक ने उत्साह नामक भाव की सरल व्याख्या की है।
 मानव मन में उत्पन्न होने वाली साहसपूर्ण आनंद की उमंग को उत्साह की संज्ञा दी है ।
लेखक के अनुसार   दुःख को सहन करने के साथ-साथ आनंद पूर्वक निष्ठा भाव से मानव को उत्साही बनाती है।

 उत्साही वीर को प्राप्त होने वाले उत्साह की मात्रा के आधार पर उत्साह के दो भेद माने जाते हैं।
1. युद्धवीर
2. दया वीर और दानवीरता
 उत्साह 
उत्साह दया दान के प्रति उत्साह किंतु इन सभी प्रकार के उत्सव में कष्ट और हानि के साथ आनंद प्राप्त करने का प्रयत्न अपेक्षित है।

*** बिना बेहोश में फोड़ा चिरना साहस तथा कठिन से कठिन प्रहार सहकर भी अपने स्थान से ना हटना धीरज कहलाएगा और इस साहस तथा धीरज को उत्साह तभी कहा जाएगा ।
जब कर्ता को इन कर्मों में आनंद की अनुभूति हो, उत्साह में धीरज और साहस दोनों का ही योग रहता है।

 परंतु इसकी मूल अनुभूति आनंद की ही रहती है ।

***दान वीरता में धन त्याग का संघर्ष करते हुए शहर से दान देने का साहस अपेक्षित होता है ।
**दानवीर तक यथार्थता इसी में है कि दानी को दान देने के कारण जीवन निर्वाह में कष्ट झेलना पड़े तो वह उसे भी स्वीकार कर ले।
 इसी प्रकार लेखक ने उत्साह के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
उद्धरण

1.सहारा के मरुस्थल की यात्रा 
2.अनुसंधान हेतु दुर्गम पर्वतों की चढ़ाई 
3.भयंकर जातियों के बीच प्रवेश

 आदि की गणना की है ।

***लेखक की धारणा है कि मानसिक कष्ट के साथ-साथ शारीरिक कष्ट भी सहन करना उत्साह माना जाएगा।

***** उत्साह का शुभ या अशुभ भाव होना इसके परिणाम के द्वारा जाना जाता है परिणाम शुरू होने से उसकी गिनती अच्छे भाव में तथा परिणाम अशुभ होने से उसको बुरा समझा जाता है।
 यह आवश्यक नहीं ,उत्साह केवल साहस पूर्ण कार्यों में ही हो ,अपितु किसी भी कार्य में आनंद पूर्ण तत्परता भी उत्साह कहलाएगा।।

** हम अपने मित्रों या बंधुओं के स्वागत में भाग कर खड़े हो जाते हैं तो उत्साही कहलाएंगे ।
उत्साही को कर्मवीर कहा जाता है या बुद्धि भी इसके लिए यह देखा जाना चाहिए कि उत्साह की अभिव्यक्ति बुद्धि व्यापार और अवसर पर होती है या बुद्धि द्वारा निश्चित उद्योग में तत्पर होने की दशा पर परंतु साधारण उत्साह की अभिव्यक्ति उद्योग की तत्परता पर ही होती है।

** इसलिए उत्साही को कर्मवीर कहना ज्यादा उपयुक्त होगा।
 कर्म करने की भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है जिसमें साहस और आनंद का सामंजस्य रहता है ।

वीर रस के आलंबन का स्वरूप इतना स्पष्ट नहीं होता जितना की अन्य रसों का।
*** हनुमान द्वारा समुंदर पार लगने का कारण समुंदर नहीं अपितु समुंदर लाने का करम है।

 उषा की गणना एक अच्छे गुणों से होती है किसी कार्य को अच्छा या बुरा होना उसके करने के ढंग अथवा परिणाम में निहित होता है।
 लेकिन शुभ कार्यों में आत्मरक्षा पर रक्षा, देश रक्षा की गणना की है।
 उत्साह में कुछ योगदान बुद्धि का भी आवश्यक है ।
**बुद्धि और शरीर की तत्परता का संबंध में है  कर्मवीर में देखा जाता है।

*** आचार्य शुक्ल ने यह प्रश्न उठाया है कि उत्साह में ध्यान कर्म पर उसके फल पर या व्यक्ति या वस्तु पर रहता है।

 *** उत्तर देते हुए उन्होंने कहा है कि उत्साही मनुष्य का ध्यान पूर्ण रूप से कर्म परंपरा पर होता हुआ।
 उसकी समाप्ति होने की सीमा तक जाता है।

 देखना है जो श्रद्धा या दया से प्रेरित होकर साहस और आनंद के साथ जैसे दूस्साध्य एवं कठिन कार्य में प्रवृत्त होता है।
लेखक ने कर्म अनुष्ठान में प्राप्त होने वाले आनंद का वर्गीकरण किया है ।

कर्म भावना से उत्पन्न 
फल भावना से उत्पन्न 
और विषय अंतर से उत्पन्न 
इनमें से सच्चे कर्म वीरों का आनंद कर्म भावना से उत्पन्न होता है क्योंकि इसमें साहस का योग अपेक्षाकृत कम ना होकर बहुत अधिक होता है।

 उनकी दृष्टि में कर्म और फल में कोई विशेष अंतर नहीं होता है।

** सफल होने पर भी वे हतोत्साहित नहीं होते फल फल भावना का आनंद फल की प्राप्ति अथवा प्राप्ति के अनुसार कम या ज्यादा रहता है ।

कर्म भावना का उत्साह ही सच्चा उत्साह होता है जो प्राप्त होता है।

कर्म की अपेक्षा फल में अधिकार सकती होने पर मनुष्य के मन में यह विचार उत्पन्न होता है कि कर्म भी ना करना पड़े और फल भी अधिक मिले इस धारणा से कर्म करते हुए जो आनंद मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता ।उत्साही व्यक्ति को कर्म करते हुए भी यदि अंतिम फल की प्राप्ति ना हो तो वह एक रमणी व्यक्ति की अपेक्षा अनेक अवस्थाओं में अच्छा रहता है।
**
 **कर्म काल में उसे संतोष का आनंद तो मिलता ही है।
 इसके बाद फल की प्राप्ति पर उसे यह पछतावा नहीं रहता कि उसने प्रयत्न नहीं किया। साधारणतया देखा जाता है कि व्यक्ति में आनंद का कारण तो कुछ और होता है परंतु उससे व्यक्ति में एक ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि अन्य बहुत सी कर्म भी वह सहर्ष कर लेता है।
 निष्कर्ष 
सच्ची लगन एवं कर्तव्य, बुद्धि द्वारा कर्म करने वाला व्यक्ति आनंद पूर्ण साहस का प्रदर्शन करता है ।वास्तव में वही उत्साह है ।
उसकी परिभाषा के आधार पर युद्धवीर ,दानवीर कर्मवीर, बुद्धि वीर आदि उत्साही व्यक्ति के भेद किए जा सकते हैं ।
धन्यवाद

गुरुवार, 14 मई 2020

बालमुकुंद गुप्त आशा का अंत निबंध का सार


आशा का अंत निबंध
बालमुकुंद कृत आशा का अंत निबंध का सार

आशा का अंत निबंध का सारांश
***बाबू बालमुकुंद गुप्त द्विवेदी युगीन हिंदी निबंध उन्होंने भाषा ,व्याकरण, समाज ,राजनीति ,देश -दशा आदि विभिन्न विषयों को लेकर अपने निबंधों की रचना की निबंधों में भारतेंदु युगीन राष्ट्रीयता द्विवेदी युगीन भाषा शैली में बड़ी मस्ती भरी आत्मीयता ,निर्भीकता के साथ अभिव्यक्ति हुई है किंतु इनके श्रेष्ठ निबंध राजनीति सामाजिक जन जागरण एवं राष्ट्रीयता की भावना को लेकर लिखे गए हैं। 

****"आशा का अंत इनका एक राजनीति व्यंग्य प्रधान निबंध है ।इस निबंध में गुप्तजी ने देशवासियों को अंग्रेजी कुट नीति एवं भारत दुर्दशा से परिचित करवाने हेतु शिव शंभू जैसे पात्र की कल्पना की है जो भांग झोक में आकर कटु से कटु सत्य को व्यक्त करने और सर्वोच्च शासक को खरी-खरी सुनाने से नहीं कतराते।

*** शिव शंभू लार्ड कर्जन को संबोधित करते हुए कहता है कि रोगी रोग को, कैदी कैद को, ऋणी रख ,कंगाल दर्द को क्लेश क्लेश को आशा से झेलता है क्योंकि उसे लगता है 1 दिन उसका जीवन इन सभी क्लेश और से मुक्त हो जाएगा किंतु यदि उसकी आशा का ही अंत हो जाए तो उसके कष्टों का ठिकाना नहीं रहता।

***भारतीय जनता लॉर्ड कर्जन की की नीतियों से दुखी थी।
लॉर्ड कर्जन निरंकुश प्रवृत्ति का वाला इंसान था वह नहीं चाहता था कि भारतीय जनता किसी प्रकार की सुविधाएं प्रदान की जाए उसने भारत में दूसरी बार वायसराय बनकर आते ही यहां कि मनुष्य पहले टेक ऑपरेशन की सलाह दी इतना ही नहीं अकाल पीड़ितों के प्रति सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करने की अपेक्षा उसने कड़ी मजदूरी लगा दी वह जनता की भलाई के नाम पर अंग्रेजी शासन का भला करता था अवसरवादी था जब भी अवसर मिलता था भारतीयों का वादी कहकर गाली गलौज करता था। धूर्त कहता था। वह भारतीय जनता की भावनाओं को जरा भी तवज्जो नहीं देता था।
*** सदा भारतीयों को नीचा दिखाने का प्रयास करता था उनकी इन्हीं नीतियों के कारण भारतीय जनता उसे दुखी थी।
भारतीयों की दशा

***बालमुकुंद गुप्त जी ने भारतीय जनता की ऐसा हादसा का यथार्थ चित्रण अंकित इस निबंध के माध्यम से किया है भारतीय जनता से देवकरण वार्ड में विश्वास रखती है लेकिन वह अपनी दीनता के लिए सभी शासक को जिम्मेदार नहीं ठहरा थी।
 प्रस्तुत निबंध में लेखक ने इस तथ्य को उजागर किया है कि आपके स्वदेशी यहां बड़ी-बड़ी इमारतों में रहते हैं ।जैसे रुचि हो वैसे पदार्थ सकते हैं भारत अपने लिए योग्य भूमि है किंतु इस देश के लाखो आदमी इस देश में पैदा होकर आवारा कुत्तों की बकबक करते हैं ।
उनके दो हाथ भूमि बैठने को नहीं पेट भर कर खाना खाने को नहीं लेता देते हैं एक दिन चुपचाप कहीं पडकर प्राण दे देते हैं ।
व्यंग्यकार का व्यंग्य और विरोध
लार्ड कर्जन जब दूसरी बार भारत में वायसराय बनकर आया तो उसका घमंड और अहंकार सातवें आसमान पर था वह अंग्रेजी जाति के सामने किसी को कुछ नहीं समझता था लेखक को लॉर्ड कर्जन द्वारा भारतीयों को नीचा वादियों और धूर्त झूठा और मक्कार कहना बहुत खटका लेखक ने इस बात की प्रतिक्रिया स्वरुप की इस निबंध की रचना की तथा इसके विरोध में कहा कि हम भारत देश के निवासी हैं सृष्टि करते हैं सत्य प्रिय हैं देश का ईश्वर सत्य ज्ञान अनंतम ब्रह्मा भला ऐसा देश और उसके निवासी मितावादी कैसे हो सकते हैं।
बालमुकुंद गुप्त की देशभक्ति
देश हित में व्यक्त विचार की देशभक्ति की भावना कहलाती है ।
अपने देश के गौरव और स्वतंत्रता की रक्षा अपने देश के शोषण करता हूं के प्रति घृणा और विरोध और उनके देश की उन्नति हेतु व्यक्ति विचार भी देश प्रेम कहलाता है
 इस दृष्टि से बालमुकुंद गुप्त द्वारा रचित आशा का अंत निबंध है देश प्रेम की भावना से परिपूर्ण है। इसलिए बंद कि जब रचना हुई तो भारत अंग्रेजों के आदमी लार कर्जन दूसरी बार वॉइस राय बन कर भारत लौटा था भारत वासियों को बहुत सारी उम्मीदें उनसे थी लेकिन उन्होंने अपने प्रथम भाषा में ही सभी भारतीयों की आशाओं का अंत कर दिया कोलकाता मुंसिपल कॉरपोरेशन के स्वाधीनता छीन ली अकाल पीड़ितों की उपेक्षा की महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेजों के लिए आरक्षित कर दिया और कहा कि रक्षा करने वाले भाषणों पर रोक लगा दी पत्र-पत्रिकाओं को रोक दिया गया उनकी स्वतंत्रता छीन ली गई। अंग्रेजों का भारतीय ोो को बुरा भला कहना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था निबंध के माध्यम से गुप्तजी ने स्पष्ट किया है कि जो शासक अपनी गरीब प्रजा के प्रति ध्यान नहीं देता उसके दुख दर्द के विषय में विचार नहीं करता ऐसे शासक को प्रजा को गालियां देने का भी अधिकार नहीं है।अंग्रेजों के शासन होते हुए भी उनके विपरीत बातें लिखना एक साहस पूर्ण व हिम्मत भरा कार्य है इस प्रकार उनकी देशभक्ति झलकती है।
आशा के अंत निबंध का उद्देश्य
प्रस्तुति निबंध में बालमुकुंद गुप्त जी ने लॉर्ड कर्जन द्वारा भारत वासियों पर लगाए झूठे आरोपों प्रतिबंधों तथा उनकी गलत नीतियों का कड़े शब्दों में खंडन किया है यही इस निबंध का प्रमुख उद्देश्य है दूसरी ओर लेखक ने यह प्रमाणित किया है कि किसी को झूठा कह देने से उसकी सत्यवादी का सीधे नहीं होती है लॉर्ड कर्जन ने अनेक ऐसी नीतियां बनाए जिससे भारत वासियों की स्वाधीनता छिन जाए अनेक पदों पर भारतीयों की नियुक्तियों की रोक लगा दी गई लेकिन के सभी आरोपों का उत्तर देते हुए कहा है कि जिस देश में ईश्वर सत्य ज्ञान ब्रह्मा अनंत हो भला उसे झूठा मक्कार वनियावादी कैसे कहा जा सकता है अंत में लिखा है कि भारतीय जनता लॉर्ड कर्जन को अपना शिकार करती है तो भला फिर वह यहां शासक बन सकता है।

बुधवार, 13 मई 2020

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कृत निबंध देवदारु का सार

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कृत निबंध देवदारू का सार
देवदारु निबंध का प्रतिपाद्य
देवदारु निबंध का उद्देश्य
देवदारु निबंध का सार
देवदारु निबंध आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कृत एक भावात्मक निबंध है।

**द्विवेदी जी के निबंध संग्रह कुटज में संकलित निबंध में लेखक ने   देवदारू वृक्ष की महिमा का परिचय दिया है ।

**देवदारू वृक्ष होते हुए भी पर्वतीय पर्यावरण संरक्षक है।

*** यह महादेव का प्रियतम है यही कारण है देवदारू वृक्ष कहा जाता है।
 **यह वृक्ष नाम और अस्तित्व से महाभारत से भी प्राचीन है ।

**ललित निबंधकार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस वृक्ष की प्रशंसा की है और संदेश देने का प्रयास किया है कि एक सिद्धांत वादी वृक्ष श्रम को समाज से जोड़कर किस प्रकार आम आदमी का पथ प्रदर्शक बन सकता है।

**देवदारू वृक्ष वास्तव में सुंदर है ।
**वह एक आकर्षक वृक्ष भी है ।
**वह धरती से रसाग्रहण करके आकाश को छू लेना चाहता है ।
**हवा के झोंके में जब मिलता है तो वह मस्त होकर झूम उठता है। उसके झूमने में एक अजीब तरह की अनुभूति है जो युग युगांतर की संचित अनुभूति सी प्रतीत होती है। युगों के परिवर्तन को उसने देखा है।

 वहां खूब फल-फूल सके इसलिए देवदारू पर्वतों के नीचे नहीं उतरता है।
 समझौते के रास्ते पर ही नहीं और ना ही उसने अपनी खानदानी चाल से झूमता हुआ ।वह ऐसा मुस्कुराता है मानो कह रहा हो कि मैं सब समझ सकता हूं ।
देवदारू समय के उतार-चढ़ाव का दुर्लभ है निर्मल साथी है ऐसा साथ ही मिलना दुर्लभ है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि यह भगवान शिव काा भी प्रिय वृक्ष हैै किि देवदारू वृक्ष कालिदास और महाभारत से भी पुराना है यह निरंतर आकाश कीी ओर उड़ता चला जाताा है। इसकीी शाखाएं इस मृत्यु लोगों कोो अभयदान देेेेेेने के लिए फैलती चलीी जाती है।

**ऐसा कहा जाता है कि शिव ने प्रसन्न होकर उधम नर्तन किया था ।उस समय उनके शिष्य तांडू मुनि ने उन्हें याद किया उन्होंने जिस नृत्य का प्रवर्तन किया उसी को तांडव नृत्य कहा गया ।
तांडव नृत्य कार तांडू मुनि द्वारा प्रवर्तित भाव नृत्य रस का अर्थ है, और भाव का भी अर्थ है परंतु तांडव ऐसा नाच है जिसमें कोई अभाव नहीं होता लेखक स्वीकार करता है कि तांडव एक प्रकार की समाधि है जिसमें ध्यान धारणा और समाधि तीनों का योग है।
 देवदारू भी क्लासिक तथा उल्लास का सूचक है उसे देवदारू कहना अधिक उचित है देव होकर भी पसंद है तथा तरु होकर भी उसका अर्थ है जिस प्रकार कविता में छंद और अलंकार होते हैं तथा उसका अर्थ होता है और दोनों के कारण ही कविता बनती है इसी प्रकार देव देवता भी और तरू भी।

**उसे देवताओं का कार्ड भी कहा गया है तो उसे पता चलता है कि उसमें मैं तो दया है ,ना माया और ना मोहन ऐसे लगता है कि देवतरू हमेशा सावधान और जागृत रहता है, देवताओं की आंखें हमेशा खुली रहती है कभी बंद नहीं होती।
देवदारु का चमत्कारिक महत्व भी है।

*** लेखक ने अपने गांव के एक महान भूत भगवान ओझा को देवदारू की लकड़ी से भूत भगाते भी देखा है। इसी वजह न लेकर को चमत्कारी कहानी भी सुनाई।
पंडित जी ने जूता उतारा और मुंह से गायत्री मंत्र का उच्चारण कर देवदारू की लकड़ी से भूत को भगा दिया देवदारू की भंय कर
 मार से पराजित होकर भूत ने माफी मांगी और उसकी गुलामी स्वीकार कर ली।
 देवदारू के माध्यम से लेखक हमें बताना चाह रहा है कि भूत का माथा ही नहीं होता ,मस्तिष्क कहां से होगा।।
** भूत प्रेत कोई चीज नहीं होती यह सिर्फ काल्पनिक ता होती है सिर्फ हमारे दिमाग की उपज होती है।

** लेखक समझाना चाहता है कि सब विवेक का प्रयोग करके कल्पनिक बातों से दूर रहना चाहिए।

*"**लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी का देवदारु निबंध के माध्यम से पाठक वर्ग को कुछ उपदेश या संदेश दिए हैं।

1 देवदारू कोई वृक्ष ही नहीं देव और तरु दोनों की विशेषताएं इसकी हैं।
2.देवदारू के माध्यम से लेखक संदेश देता है कि विभिन्न परिस्थितियों आएगी, हर परिस्थिति में समान बने रहना जरूरी है ।देवदारु की तरह अटल और स्थिर रहना ही जीवन का उद्देश्य है।

3.देवदारु निबंध के माध्यम से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बताना चाहते हैं कि परिस्थितियों से समझौता ना करके उनमें समन्वय करने का भाव होना चाहिए।

4.मानव की जाति के आधार पर नहीं उसकी पहचान उसके गुणों के आधार पर होनी चाहिए ।उदाहरण स्वरूप इंदिरा गांधी अपनी राजनीति और कूटनीति के बल से जानी जाती हैं ,ना कि नेहरु की पुत्री के रूप में।


5. स्व विवेक का प्रयोग करने की प्रेरणा दी है।

6, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दी है और भूत-प्रेत जैसी भ्रांतियां  ना फैलाने के लिए कहा है कि भूत कुछ नहीं होते। लेखक का विचार है कि देवदारू मन की भ्रांति को दूर करने वाला वृक्ष है इसे देखकर मन में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है वह भूत भगा वन है, वह विपत्ति मिटा वन है और भ्रांति नाशावन है ।
देवदारु देवता के दुलारे और महादेव के प्यारे वृक्ष है।

7. लेखक ने बताया है कि देवदारु का जैसे अपना अस्तित्व है उसी प्रकार हर एक व्यक्ति का अपना अलग अस्तित्व है उसमें अलग गुण हैं।

 स्व को पहचानने की बात कही है तथा अहम को ठुकराने की बात भी उन्होंने कही है।

देवदारू की भाषा शैली

भले ही दिवेदी जी संस्कृत भाषा के विद्वान थे परंतु वे हिंदी के भी अच्छे ज्ञाता थे।

 उन्होंने देवदारू में तत्सम प्रधान 
शब्दावली का प्रयोग किया है।
भाषा को सहज और सरल बना दिया है।
 इस निबंध में उन्होंने विचारात्मक ,आलोचनात्मक तथा भावात्मक तीनों का सुंदर प्रयोग किया है।

मुख्य बिंदु
हजारी प्रसाद द्विवेदी
कुटज निबंध
ललित निबंधकार
कालिदास और महाभारत से भी प्राचीन
तांडव नृत्य
ध्यान धारणा और समाधि
अचल ,स्थिर

मंगलवार, 12 मई 2020

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद
तुलसीदास
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद नामक यह कविता तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य रामचरितमानस में संकलित है ।
सीता स्वयंवर के अवसर पर धनुष भंग होने के कारण क्रोधित परशुराम और राम लक्ष्मण के बीच हुए संवाद ओं का वर्णन है ।
शिवजी का धनुष मिलता है तो वे क्रोध से भर उठते हैं और स्वयंवर स्थल पर पहुंचकर धनुष भंग करने वाले वाले को ललकार ने लगती हैं।
 परशुराम का क्रोध शांत करने के उद्दश्य से राम ने उनसे कहा कि शिवजी का धनुष तोड़ने वाला आपका ही कोई सेवक होगा यह सुनकर परशुराम ने कहा कि सेवक वह होता है जो सेवा कार्य करें शिव धनुष तोड़ने वाले ने तो दुश्मन का कार्य किया है।
 जिसने भी इस धनुष को तोड़ा है वह इस सभा से अलग हो जाए नहीं तो सभी राजा मारे जाएंगे परशुराम का यह बड़बोला पर सुन लक्ष्मण निभाएंगे ।
पूर्ण ढंग से कहा बचपन में मैंने बहुत सारी दुनिया थोड़ी हैं तब तो किसी ने किया यह धनुष तो बहुत पुराना है यह तो छूते ही टूट गया इसमें तो श्रीराम का कोई दोष नहीं।

 यह सुनकर परशुराम का क्रोध और बालक समझकर मैं तेरा नहीं कर रहा हूं तू मुझे समझ रहा है मैं धरती पर आने वाला बाल ब्रह्मचारी और है इससे निराश किया है सहस्त्रबाहु की काट डाला है ।
अब तू यह सुन लक्ष्मण ने परशुराम को अपमानित करते हुए कहा आप मुझे कमजोर समझने की भूल ना करें हाथ नहीं उठा पा रहा हूं।वैसे भी हमारे कुल में देवता ईश्वर भक्त ब्राह्मण और गाय पर वीरता नहीं दिखाई जाती ।
स्वयं को अपमानित होता देखकर परशुराम ने विश्वामित्र से कहा मंदबुद्धि और सूर्य वंश कलंकी है बालक वध करने योग्य है यह देखकर विश्वामित्र ने उससे कहा ऋषि-मुनियों बच्चों के दोषों को की गणना नहीं करते हैं ।
यह सुनकर परशुराम ने कहा इस बालक को मैं केवल आपके सील के कारण छोड़ दे रहा हूं अन्यथा इस का वध कर मैं गुरु रण से मुक्त हो जाता लक्ष्मण भी कहां चुप रहने वाला था ।
उन्होंने परशुराम से कहा माता-पिता कारण आपने अच्छी तरह से चुका दिया गुरु ऋण से जिसके लिए आप बहुत चिंतित हैं इतने समय में तो ब्याज भी बहुत बढ़ गया हुआ आप गणना करने वाले वालों को बुला लीजिए ।
मै थैली खोलकर सारा ऋण चुका देता हूं।
 ऐसे कटु वचन सुनकर परशुराम ने लक्ष्मण को मारने के लिए अपना फर्ज था लिया जिससे सभा में हाहाकार मच गई ।
यह देखकर श्रीराम ने क्रोध की प्रज्वलित अग्नि शांत करने के लिए शीतल जल के समान शांत करने वाले वचन कहे जिससे परशुराम का क्रोध शांत हो गया।राम लक्ष्ममण परशुराम संवाद से संबंधित प्रश्नोत्तरी

सोमवार, 11 मई 2020

बालमुकुंद गुप्त का साहित्यिक परिचय

बालमुकुंद गुप्त का जीवन परिचय
बालमुकुंद गुप्त का साहित्यिक परिचय
बालमुकुंद गुप्त के निबंध साहित्य की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
जीवन परिचय- बालमुकुंद गुप्त द्विवेदी युगीन साहित्यकारों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं ।
वे भारतेंदु युग और दिवेदी युग को जोड़ने वाली कड़ी थे।
 वे अच्छे कवि, अनुवादक ,निबंधकार और कुशल संपादक थे ।
उनका जन्म 14 नवंबर 1865 में हरियाणा राज्य के रेवाड़ी जिले के गुड़ियानी गांव में लाला पूर्णमल के यहां हुआ ‌।
शिक्षा- गुप्त जी की आरंभिक शिक्षा गांव से आरंभ हुुई।

**छात्रावास में वे बड़े ही अध्ययन शील एवं सहनशीलता रहे। परंतु दादाजी तथा पिताजी के देहांत के बाद उनको अपनी शिक्षा अधूरी छोड़नी पड़ी ।
बाद में जब अध्ययन आरंभ किया तो 21 वर्ष की आयु में मिडिल परीक्षा पास कर सकें ।

गुप्तजी ने उर्दू भाषा और पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया।

कार्यक्षेत्र -गुप्तजी ने अखबार चुनार उर्दू अखबार के संपादक नियुक्त हो गए ।
साथ-साथ वे कोहिनूर तथा जमाना जैसे अखबारों के संपादकीय विभाग से जुड़े रहे ।
इसके बाद उनका रुझान हिंदी भाषा की ओर हुआ भारत प्रताप पत्र के साथ जुड़ने के बाद उनके हिंदी लेखन में काफी सुधार हुआ कालांतर में वे हिंदुस्तान ,हिंद बंगवासी व भारत मित्र के संपादक भी रहे।

मृत्यु -गुप्त जी की मृत्यु 18 सितंबर 1907
में 42 वर्ष की अल्पायु में ही हो गई लेकिन उनका नाम हिंदी साहित्य में हमेशा बना रहेगा।

प्रमुख रचनाएं -श्री बालमुकुंद गुप्त के जैस सिंधु -संधि बिंदु पर खड़े थे ।वहां इन्हें भारत का अतीत और वर्तमान परिदृश्य के समान साफ साफ दिखाई देता था और भारत का भविष्य अपने निर्णय की प्रतीक्षा में था इसलिए उनके विपुल साहित्य में भारत के स्वर्णिम भविष्य और संभावनाओं का ध्वनि -संकेत, शब्द शब्द में मुखरित हुआ हैै

*** शिव शंभू के चिट्ठे तथा चित्र सर्वाधिक लोकप्रिय व्यंग्यात्मक ,सामाजिक और राजनीतिक निबंधों के संग्रह हैं ।
सन उन्नीस सौ पांच में बालमुकुंद गुप्त निबंधावली शीर्षक से उनके निबंधों का संग्रह भी प्रकाशित हुआ इसमें 50 निबंध संकलित है निबंधों के साथ उनके कुछ काव्य संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं।
साहित्यिक विशेषताएं -श्री बालमुकुंद गुप्त मूल्य संपादक से धार्मिक प्रवृत्ति के थे।
 विदेश की पराधीनता के प्रति सदैव चिंतित रहते थे।
 उन्होंने अपने साहित्यिक निबंध ,संपादकीय लेखों और काव्या के विरुद्ध आवाज उठाई।

उनके निबंधों में कुछ विशेषताएं महत्वपूर्ण थी जो विशेषताएं निम्नलिखित हैं।
राष्ट्रीय भावना -श्री बालमुकुंद गुप्त ने अल्प मात्रा में ही काव्य की रचना की है लेकिन उनका समूचा काव्य राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत है गुप्तजी भारत की पराधीनता को लेकर बहुत ही व्याकुल रहते थे ।
डॉ नगेंद्र ने उनके साहित्य के बारे में स्पष्ट लिखा है राष्ट्रीयता और हिंदी प्रेम उनके साहित्य का मुख्य विषय है ।
यदि गहराई से उनके साहित्य का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि राष्ट्रीयता उनके साहित्य का मुख्य स्वर है।
गांधीवादी विचारधारा -गांधीवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है ।
यद्यपि सिद्धांतों में विश्वास रखते हैं। फिर भी कहीं कहींींींींींींींीं उनके तेवर बड़े तेज तर्रार प्रतीत बड़े़ आशीर्वाद उन्होंने कहा है कि हमें विदेशी माल को नकार कर चरखा कातना चाहिए और लघु तथा कुटीर उद्योगोंं को प्रधानता देनी चाहिए ।
**लोक जागरण -द्विवेदी युगीन कभी होने के कारण  गुप्त जी के साहित्य मैं लोक जागरण का स्वर सुनाई देता है। उन्होंने देश की प्रथम तथा सामाजिक कुरीतियों था 
धर्मिक आडंबर ओं ‌‌का भी चित्रण किया है ।
गुप्तजी ने विदेशी वस्तुओं के त्याग और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर भी बल दिया है भले ही वे धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत थे लेकिन समाज सुधार की भावना भी उनमें प्रबल थी ।
उन्होंने अपने विभिन्न लेखों तथा कविताओं द्वारा इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए हैं ।
व्यंग्य का प्रबल प्रयोग -गुप्तकालीन परिस्थितियां भारतेंदु युग इन परिस्थितियों से भी नहीं थी ।
वह लगभग भारतेंदु के समकालीन थे। वैसे तो उनको शिव शंभू के चिट्ठे से साहित्य ख्याति प्राप्त हुई ।लेकिन उनके व्यंग्य -लेख काफी तीखा और तेल मिला देने वाला है ।उन्होंने के गवर्नर भजन के माध्यम से अंग्रेजी साम्राज्य पर करारा व्यंग्य किए हैं।
 उस समय के हालात को देखते हुए यह कार्य सहज नहीं था।

 अनुवाद कार्य गुप्तजी ने अपने समय मेंेंेंें दूसरी भाषाओं के उत्तम कोटि के साहित्य को हिंदी में अनुवाद करने का कार्य किया ताकि हिंदी का प्रचार-प्रसार हो सके।

** श्री बालमुकुंद गुप्त एक अच्छे अनुवादक थे।
 उन्होंने संस्कृत के रत्नावली नाटक और बांग्ला की बड़ेल भगिनी का सुंदर अनुवाद किया ।
इस प्रकार उन्हें उच्च स्तरीय रचनाओं का अनुवाद करके हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने में अपना भरपूर योगदान दिया है।


 समाज सुधार की भावना श्री बालमुकुंद गुप्त के साहित्य में समाज सुधार की भावना भी यथोचित स्थान मिला हैै
। उन्होंने अपने युग के समाज को जीवन को अत्यंत समीप देखा था। उसमें जो कमजोरियां ,अवगुण ,कुरीतियां स्वार्थी पन आदि व्याप्त्त्त्त था ।
उनको सावधान रहने की प्रेरणा दी ।
उन्होंने नारी सुधार पर भी खूब कार्य किया।
 उन्होंनेेे सामाजिक कुरीतियोंोंोंोंंो।
करारा व्यंग्य कसे ।
भाषा शैली
श्री बालमुकुंद गुप्त ने अपने साहित्य में सहज, सरल सामान्य बोलचाल की खड़ी बोली का प्रयोग किया।
 उनकी भाषा पर कुछ-कुछ ब्रज भाषा का भी प्रयोग है।
 इसका कारण है यह है कि भारतेंदु युग और दिवेदी युग को मिलाने वाली कड़ी के रूप में देखा जाता है।
फिर भी खड़ी बोली का सरल और सहज प्रयोग दिखाई पड़ता है ।
उनकी भाषा में उर्दू अंग्रेजी तद्भव शब्दों का अधिकाधिक मिश्रण भी दिखाई देता है।
 उनको अलंकारों से अधिक नहीं था ।
सफल निबंधकार और संपादक थे व्यंग्यात्मक शैली के लिए वे अपने समय में प्रख्यात साहित्यकार थे 
फिर भी उनका शब्द चयन सर्वथा उचित और भाव अभिव्यक्ति में समर्थ है एवं दो के समान कविता भी उनकी भाषा शैली की एक और विशेषता है।
शिव शंभू के चिट्ठे
शिव शंभू के चिट्ठे गुप्त जी का सुप्रसिद्ध निबंध संग्रह है इसमें कुल 11 निबंध संकलित है ।
इन सब में लार्ड कर्जन का जीवन तथा उनकी भारत के प्रति नकारात्मक सोच का उल्लेख है निबंध ओं का वर्णन इस प्रकार से है।
1. बनाम लार्ड कर्जन
2. श्रीमान का स्वागत
3. वेश राय का कर्तव्य
4. पीछे मत फैंकिए
5. आशा का अंत
6. एक दुर्दशा
7. विदाई संभाषण
8. बंग विच्छेद
9. आशीर्वाद 
10.लार्ड मिंटो का स्वागत
 11.माली साहब के नाम
निष्कर्ष
गुप्त जी के निबंधों में निबंधकार की संवेदनशीलता मनुष्य मात्र के प्रति उसकी आत्मीयता सहानुभूति और राष्ट्र के प्रति प्रेम भावना का कहीं लोग नहीं होता ।
उनके द्वारा की गई निबंध कला को आगे चला कर खूब विकास हुआ ।
गुप्तजी के निबंध निबंध साहित्य की नमक का काम किया है। इसलिए निबंध साहित्य के विकास में बालमुकुंद गुप्त का श्रेष्ठ स्थान है ।निबंध कला के विकास के योगदान के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।


शुक्रवार, 8 मई 2020

रसखान से संबंधित प्रश्नों के उत्तर

रसखान से संबंधित प्रश्नों के उत्तर
रसखान का जन्म 1548 में हुआ माना जाता है।
 उनका मूल नाम सैयद इब्राहिम था।
 दिल्ली के आसपास के रहने वाले थे।
 कृष्ण भगत ने उन्हें ऐसा मुक्त कर दिया की गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जब से सन1628 के लगभग उनकी मृत्यु हुई।

 सुजान रसखान और प्रेम वाटिका इनकी उपलब्ध कृतियां हैं ।
रसखान रत्नावली के नाम से इनकी रचनाओं का संग्रह मिलता है ।
प्रमुख कृष्ण भगत कवि रसखान की वृत्ति ने केवल कृष्ण के प्रति यह प्रकट हुई है।
 बल्कि कृष्ण भूमि के प्रति भी उनका आनंद न अनुराग व्यक्त हुआ है।
काव्य में कृष्ण के रूप माधुरी।
 ब्रज महिमा 
राधा कृष्ण की प्रेम लीला ओं का मनोहर वर्णन मिलता है।

 वे अपनी प्रेम की तन में था भव्य लता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही अपनी भाषा की मार्मिक ता शब्द चयन शैली के लिए उनके यहां ब्रजभाषा का अत्यंत मनोरम और सरल व साहस प्रयोग मिलता है जिस में जरा भी शब्द आडंबर नहीं है।
सवैये

मानुष हौं तो वही रसखान बसों बृज गोकुल गांव के गवारन
जोै पशु होैं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मंझारन।।
पाहन तो वही गिरि को जो क्यों हरि छत्र पुरंदर धारन
जोैं खग हौं तो बसेरो करौं मिली कालिंदी कूल कदंब की डारन

प्रथम सवैये के माध्यम से कवि रसखान बताना चाहते हैं कि अगर मेरा जन्म मनुष्य के रूप में हो तो गोकुल के गांव के वालों के बीच में हो अगर जय श्री कृष्ण आप मुझे पशु के रूप में जन्म देना चाहते हैं तो मैं नंदबाबा की गायों के बीच में गाय बनकर चलूं श्री कृष्ण अगर मेरा जन्म पत्थर के रूप में हो तो मैं उसे गिरी का पत्थर बनो जो श्री कृष्ण ने अपनी उंगली पर उठाई थी अर्थात गोवर्धन पर्वत का ही पत्थर बनो इसमें रसखान की अनन्य भक्ति झलकती है उन्होंने कहा है कि अगर मेरा जन्म रूप में हो तो मेरा बसेरा हमेशा कालिंदी यानी यमुना पुल पर ही हो यहां संकलित पहले समय में कृष्ण और कृष्ण भूमि के प्रति कवि का अनन्य समर्पण भाव व्यक्त हुआ है।
रसखान से संबंधित प्रश्नों के उत्तर
प्रश्न रसखान की रचना के तथा उनकी एक एक प्रसिद्ध कविता का नाम लिखिए।
उत्तर रसखान की रचना सुजान ,रसखान, प्रेम वाटिका

प्रश्न नंबर दो- रसखान के आराध्य कौन हैं?
उत्तर- रसखान के आराध्य भगवान श्री कृष्ण हैं।

प्रश्न3.निम्न में से कौन रीतिकालीन कवि नहीं है
1 धनानंद
2 देव
3 मतिराम
4 रसखान

उत्तर-इनमें से रसखान जी रीतिकालीन कवि नहीं है इन्हें भक्तिकालीन कवि कहा जाता है भक्ति काल में भी कृष्ण कवि मुसलमान होते हुए भी इन्होंने हिंदी में कृष्ण काव्य धारा कृष्ण प्रेम को अपनाया।

प्रश्न -रसखान को रस की खान क्यों कहा जाता है?
रसखान की भक्ति श्री कृष्ण के प्रति अनन्य है उनकी भक्ति से जो भावपूर्ण रचनाएं निकली हैं उसमें एक अद्भुत रस उत्पन्न होता है इसीलिए उनको रस की खान यानी रसखान कहा जाता है।

प्रश्न -राजस्थानी ने अपनी किस रचना में स्वयं को शाही खानदान का कहा है?
उत्तर -रसखान ने अपनी रचना सुजान में अपने आपको शाही खानदान का कहा है।

प्रश्न- रसखान प्रत्येक रूप में ब्रज में ही क्यों रहना चाहते हैं?
रसखान जी श्री कृष्ण से अनन्य प्रेम करते हैं उनकी प्रेम में तन्मयता भाव भी हल्का और आसक्ति का उल्लास है ।

इसीलिए वे मनुष्य रूप में ब्रज के ग्वाले पशु रूप में नंद बाबा के गाने पानी पत्थर के रूप में वह गोवर्धन पर्वत का पत्थर तथा खा के रूप में वे यमुना के किनारे कालंदी कुंज की डाल पर रहना चाहते हैं क्योंकि वे हमेशा कृष्ण के के बाल लीलाओं का आनंद लेना चाहते हैं चक्र से संबंधित चीजों के साथ निवास करके अपने आपको उनकी भक्ति में लीन बनाना चाहते हैं।

प्रश्न*रसखान ने प्रेमानंद किसे कहा है?
उत्तर-सुजान को उन्होंने प्रेमी तथा कृष्ण भक्ति को भी अपने प्रेम अयनी कहा है।
रसखान जी की उपलब्धियां कौन-कौन सी हैं?
उत्तर रसखान
सुजान
प्रेम वाटिका
रसखान रचनावली
इनकी प्रमुख रचनाएं हैं।
इसके अलावा इनके काव्य में कृष्ण की रूप माधुरी ब्रिज महिमा राधा कृष्ण की प्रेम लीला ओं का मनोहर वर्णन मिलता है।
इनकी भाषा शैली
भाषा की आसक्ति मैं मार्मिक था शब्द चयन व्यंजक सैलरी बहुत महत्वपूर्ण है ब्रजभाषा का अत्यंत सरल सहज और मनोरम प्रयोग किया है आडंबर से यह बिल्कुल दूर रहे हैं इनकी रचनाओं में रस की अजीब धारा, अद्भुत धारा है।

स्कूल छोड़ने का प्रमाण पत्र देने के लिए स्कूल के प्रिंसिपल को प्रार्थना पत्र लिखिए

स्कूल छोड़ने का प्रमाण पत्र देने के लिए स्कूल के प्रिंसिपल को प्रार्थना पत्र लिखिए।
school leaving certificate
S .L.C certificate
SLC लेने हेतु स्कूल के प्रधानाचार्य को प्रार्थना पत्र लिखिए।
सेवा में
प्रधानाचार्य जी
---------------विद्यालय
---------_--------नगर
विषय-स्कूल छोड़ने का प्रमाण पत्र लेने हेतु प्रार्थना पत्र
श्रीमान जी
सविनय निवेदन यह है कि मैं आपके स्कूल में-------कक्षा का छात्र हूं। पिछले सप्ताह मेरे पिताजी का स्थानांतरण ---------से -----------हो गया है हमारा पूरा परिवार यहां से जा रहा है तथा मुझे भी उन्हीं के साथ है जाना पड़ेगा यहां मेरे रहने का कोई अन्य विकल्प नहीं है इसलिए मेरा आपसे अनुरोध है कि आप मुझे विद्यालय छोड़ने का प्रमाण पत्र देने की कृपा करें ताकि मैं सही समय पर दूसरे विद्यालय में प्रवेश ले सकूं आपकी इस कृपा के मैं आपका सदा आभारी रहूंगा।
धन्यवाद
आपका आज्ञाकारी शिष्य
नाम-----------------
कक्षा---------------
अनुक्रमांक--------------
दिनांक---------