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सोमवार, 4 जनवरी 2021

काव्य के मुख्य तत्व

काव्य के मुख्य तत्व
*काव्य के मूल तत्व*
            काव्य को ठीक से समझने के लिए लक्षणों के साथ-साथ उसके प्रमुख तत्वों की पहचान भी आवश्यक है। भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य के स्वरूप के संबंध में उसके तत्वों का भी उल्लेख किया है। काव्य रचना के लिए, उसका अस्तित्व सिद्ध करने के लिए जो तत्व होते हैं; उन्हें ही काव्य के तत्व कहा जाता है। काव्य के यह अनिवार्य तत्व है। अतः इन्हें मूलभूत तत्व भी कहा जाएगा।
              काव्य में एक विशिष्ट प्रकार का भाव होता है; इस भाव को ठीक से परखने वाला, सोचने वाला एक विचार होता है; इसे सजाने वाला भी एक तत्व होता है तथा इसे प्रकट करने वाला भी एक तत्व होता है। इन सभी का मिला हुआ जो रूप तैयार होता है, उसे ही काव्य के तत्व कहा जाएगा। इस आधार पर काव्य के तत्व निम्न अनुसार है -

1. भाव तत्व -
            भाव तत्व काव्य का ही नही, अपितु सम्पूर्ण साहित्य का मूल तत्व है । यह सम्पूर्ण साहित्य का प्राण तत्व है। इसे सृजनात्मक तत्व भी कहते हैं । भाव ही कवि की कल्पना का प्रेरक है। भाव के आधार पर ही कविता आकार ग्रहण करती है। भाव जितना अच्छा होगा, कविता उतनी अच्छी होती है। इसलिए भाव तत्व पर ही कविता का प्रभाव, महत्व निर्भर करता है। संस्कृत आचार्यों ने काव्य में भावों को जीवंत तत्व माना भी है क्योंकि भाव ही काव्य को शक्ति प्रदान करते हैं।
                
भाव तत्व के कारण साहित्य को शास्त्र से पृथक माना जाता है। साहित्य की सरसता का आधार भाव तत्व ही होता है। चित्त की स्थायी और अस्थायी वृत्तियों का नाम भाव है। भावतत्व साहित्य की प्रभावात्मकता और संप्रेषणीयता का आधार है।  भाव कविता का आधार व शक्ति तो है ही लेकिन काव्य को संपूर्ण रूप से प्रभावी बनाने के लिए भावों में विविधता का होना आवश्यक है। विविधता के कारण ही काव्य एकरस होने से बचता है। इतना ही नहीं आदि से अंत तक काव्य को प्रभावी बनाने के लिए भी भावों में विविधता का होना आवश्यक है।
             विविधता के साथ ही काव्य का उदात्त होना आवश्यक है। काव्य के जितने भी भाव होते हैं, वह सस्ते मनोरंजन के लिए नहीं होते। भावों का स्थाई प्रभाव होना चाहिए। इसीलिए भावों का उदात्त होना आवश्यक है। उदात्तता के कारण ही काव्य भव्य-दिव्य बनता है। भावों में निरंतरता का गुण भी होना चाहिए,  काव्य को उत्कृष्ट व श्रेष्ठ बनाने के लिए भावों का मौलिक होना आवश्यक है।
         यदि भावों की अभिव्यक्ति निरंकुश है तो वह साहित्य को असुंदर तथा अहितकर बना देती है।
          भाव तत्व साहित्य का अभिन्न तथा अनिवार्य तत्व जरूर है, लेकिन उसकी स्थिति साहित्य की विभिन्न विधाओं में समान रूप से नहीं है। गीत में यह अत्याधिक प्रखर रूप में अभिव्यक्त होता है। युगीन परिवेश तथा विशेष मताग्रह का असर भी भाव तत्व की स्थिति पर होता है।
         
2. बुद्धि तत्व (विचार तत्व)
              
बुद्धि तत्व का महत्व इसी में है कि भाव, कल्पना आदि का ठीक संयोजन और शब्द का प्रयोग औचित्यपूर्ण हो। औचित्य के बिना विश्वसनीयता और प्रभाव नष्ट हो जाते हैं। भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने इस तत्व को महत्वपूर्ण माना है। विचार तत्व का संबंध अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों से है। बुद्धि तत्व के आधार पर ही काव्य में विचार लाए जाते हैं। बुद्धि तत्व का संबंध विचारों और तत्वों से है। प्रत्येक साहित्य में किसी न किसी मात्रा में तथ्यों, विचारों और सिद्धांतों का समावेश किया जाता है। बुद्धि तत्व के आधार पर काव्य में विशिष्ट विचारों का निर्माण किया जाता है। इन्हीं विचारों के आधार पर व्यक्ति मन तथा समाज मन संस्कारित किए जाते हैं। अतः साहित्य में वस्तुओं और घटनाओं का चित्रण उसके उचित रूप में ही किया जाता है। प्रमुखतया इसका स्वरूप कथा संगठन, चरित्र चित्रण और भाव निरूपण के क्षेत्र में देखा जा सकता है।
              कथावस्तु की सुक्ष्म रेखाओं के निर्माण के लिए अर्थात घटनाओं का चुनाव करना घटनाओं को संग्रहित करना की उसका यथेष्ट प्रभाव पडे और कर्म के अनुरूप फल दिखाने के लिए बुद्धि तत्व का प्रयोग किया जाता है। इस तत्व के कारण भावनाओं पर अंकुश रखा जाता है। बुद्धि तत्व में ऐसे विचारों की अपेक्षा की जाती है, जो दार्शनिक की तरह सत्य का निर्माण करने वाला हो। इसी सत्य के कारण यह विचार काल की मर्यादा के परे होते है। फिर भी इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि साहित्य में विचारों का क्या महत्व है? विचारों का चित्रण उसी सीमा तक ग्राह्य माना जा सकता है, जहां वे रचना के भाव सौंदर्य में बाधक न बने। भावशून्य विचारों का वर्णन साहित्य को उसकी विशिष्ट उपाधि से वंचित करके दर्शन नीतिशास्त्र या उपदेश ग्रंथ का रूप प्रदान कर देता है। जिस तरह विचार तत्व भाव तत्व को निरी भावुकता तथा निरर्थक प्रलाप होने से बचाता है; उसे आधारभूमि प्रदान कर उन्हें व्यवस्थित बनाकर अभिव्यक्तिक्षम एवं संप्रेषणीय बनाता है; उसी प्रकार भाव तत्व विचार तत्व को शुष्क बौद्धिक होने से बचा कर उन्हें सहज ग्राह्य और प्रभावी बनाता है। अतः स्पष्ट है कि निरंकुश भावाभिव्यक्ति मात्र प्रलाप बन जाती है, साहित्य नहीं। वैसे ही मात्र विचारों की अभिव्यक्ति बोझिल पांडित्य प्रदर्शन मात्र बन जाती है, साहित्य नहीं। इसी कारण भाव और विचारों का तादात्म्य साहित्य के लिए अनिवार्य होता है।

3. कल्पना तत्व
                साहित्य में भावनाओं का चित्रण कल्पना के द्वारा ही संभव है। इसी कल्पना के कारण कवि औरों के सुख-दुख और दूसरों की अनुभूतियों का चित्रण इस प्रकार कर देता है कि वह हमारा सुख दुख बन जाता है। वह परोक्ष की घटना को प्रत्यक्ष रूप में, अतीत की घटना को वर्तमान में और सूक्ष्म भावों को स्थूल रूप में प्रस्तुत कर देता है। इसका श्रेय उसकी कल्पना शक्ति को ही है। काव्य में सौंदर्य और चमत्कार की सृष्टि भी कल्पना के द्वारा ही संभव है। वस्तुतः प्रत्येक युग और प्रत्येक भाषा का साहित्य कल्पना शक्ति की अपूर्व क्षमता, उसके द्वारा निर्मित वैभाव और अलौकिक चमत्कार की कहानियों से भरा पड़ा है। साहित्यकार की क्षमता असत्य को सत्य में स्थूल को सूक्ष्म में लौकिक को अलौकिक में परिवर्तित करने की विशेष शक्ति से संपन्न होती है। लेखक की कल्पना विषय की समुचित अवधारणा, तदनुरूप कथानक एवं घटनाएं गढ़ती है, पात्रों का चरित्र गढती है, उसका नामकरण करती है, संवादों के लिए भाषा का चुनाव करती है और अनुरूप वातावरण बनाती है। कलाकार इसकी सहायता से बाह्य जगत को अधिकपूर्ण एवं सुंदर बनाकर प्रस्तुत करता है।
               साहित्य का केंद्रीय तत्व भाव है और कल्पना उसे प्रभावी रूप प्रदान करती है। परंतु कल्पना कभी-कभी भाव से भी अपनी शक्ति को सशक्त बनाकर स्वतंत्र रूप में प्रदर्शन करने लगती है; तब साहित्य का सौंदर्य नष्ट हो जाता है। भावशून्य कल्पना से साहित्य कोरा चमत्कार ही बन कर रह जाता है बिहारी के वियोग श्रृंगार से संबंधित दोहे इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। वास्तव में कल्पना का प्रयोग भावना के सार्थक चित्रण में होना चाहिए अन्यथा उसका अपना कोई स्वतंत्र महत्व नहीं है।

4. शैली तत्व
                काव्य के कला पक्ष से संबंधित इस तत्व को  'शब्द तत्व' भी कहा जाता है। रचनाकार जिस भाषा, जिस रूप और जिस पद्धति से अपनी अनुभूति को अभिव्यंजित करता है, उसे शैली कहा जाता है। इसके अंतर्गत भाषा, शब्द चयन, अलंकारों का प्रयोग, शब्द का उपयोग, साहित्य स्वरूप आदि का समावेश होता है। इस तत्व को अधिकांश भारतीय विद्वान शरीर तत्व के रूप में परिभाषित करते है। इस तत्व का आधार भाषा है। अतः इसे भाषिक संरचना भी कहा गया है। शैली काव्य के बाह्य अंग से संबंधित होती है। जिस प्रकार शरीर के अभाव में प्राण का अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार भाषा के अभाव में साहित्य की कल्पना संभव नहीं है। सर्वोत्कृष्ट साहित्य वह है, जिसमें भाव पक्ष व शैली पक्ष दोनों में अद्भुत समन्वय हो। किंतु जब कविगण मात्र शैली पर ही ध्यान केंद्रित करता है और भाव पक्ष का विस्मरण कर बैठता है, तो काव्यत्व क्षीण हो जाता है।
                 उपर्युक्त साहित्य के तत्वों का सूक्ष्मता से अध्ययन करने के उपरांत स्पष्ट होता है, कि साहित्य के तत्व किसी जड़ वस्तु के अंगों के समान अलग-अलग नहीं होते; बल्कि एक दूसरे के साथ इस तरह मिले हुए होते हैं कि इनको अलग-अलग करना संभव नहीं होता। भाव, विचार, कल्पना, शैली का संगठित रूप  साहित्य होता है। युगीन परिवेश और विशेष मताग्रह के अनुरूप इन तत्वों में से किसी एक तत्व की व्याप्ति बढ़ जाती हुई दिखाई देती है। विधा विशेष के अनुरूप किसी विशेष मत की प्रधानता हो जाती है। फिर भी अन्य तत्व भी कम-अधिक मात्रा में प्रत्येक साहित्य में विद्यमान होते है

रविवार, 3 जनवरी 2021

अलंकार व अलंकार भेद

अलंकार:-
अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – अलम + कार ।
यहाँ पर अलम का अर्थ होता है - आभूषण ।
मानव समाज सौन्दर्य का बड़ा उपासक है, उसकी प्रवृत्ति के कारण ही अलंकारों को जन्म दिया गया है । जिस तरह से  एक नारी अपनी सुन्दरता को बढ़ाने के लिए आभूषणों को प्रयोग में लाती हैं उसी प्रकार भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है । जो शब्द काव्य की शोभा को बढ़ाने या उसमे चमत्कार उत्पन्न करने में सहायक तत्व के रूप में होते हैं, उसे अलंकार कहते हैं ।
उदाहरण :-  ‘भूषण बिना न सोहई- कविता, बनिता मित्त’

अलंकार के भेद :- अलंकार के 3 भेद हैं
1. शब्दालंकार 2. अर्थालंकार 3. उभयालंकार

1. शब्दालंकार :-
शब्दालंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – शब्द + अलंकार ।
शब्द के दो रूप होते हैं – ध्वनी और अर्थ । ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टि होती है । 
अर्थात जहां पर शब्दों के माध्यम से काव्य या कविता में चमत्कार उत्पन्न हो जाता है और उन शब्दों की जगह पर समानार्थी शब्द को रखने से वो चमत्कार समाप्त हो जाये वहाँ शब्दालंकार होता है |

शब्दालंकार के भेद :-
अनुप्रास अलंकार
यमक अलंकार
पुनरुक्ति अलंकार
वक्रोक्ति अलंकार
श्लेष अलंकार

* अनुप्रास अलंकार :-
अनुप्रास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – अनु + प्रास । यहाँ पर अनु का अर्थ है- बार -बार  और प्रास का अर्थ होता है – वर्ण । जब किसी वर्ण की बार – बार आवृति हो तब जो चमत्कार होता है उसे अनुप्रास अलंकार कहते है।
जैसे :- 
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए ।

अनुप्रास के भेद :-

छेकानुप्रास अलंकार
वृत्यानुप्रास अलंकार
लाटानुप्रास अलंकार
अन्त्यानुप्रास अलंकार
श्रुत्यानुप्रास अलंकार

* छेकानुप्रास अलंकार :-
जहाँ पर स्वरुप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृति एक बार हो वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है ।

जैसे :- रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।

* वृत्यानुप्रास अलंकार :-
जब एक व्यंजन की आवर्ती अनेक बार हो वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार कहते हैं, जैसे :- “चामर- सी, चन्दन-सी, चांद-सी,
चाँदनी चमेली चारु चंद- सुघर है।”

* लाटानुप्रास अलंकार :-
जहाँ शब्द और वाक्यों की आवर्ती हो तथा प्रत्येक जगह पर अर्थ भी वही पर अन्वय करने पर भिन्नता आ जाये वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है अथार्त जब एक शब्द या वाक्य खंड की आवर्ती उसी अर्थ में हो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है, जैसे :- तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

* अन्त्यानुप्रास अलंकार :-
जहाँ अंत में तुक मिलती हो वहाँ पर अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है, जैसे :- 
”लगा दी किसने आकर आग ।
कहाँ था तू संशय के नाग ?”

* श्रुत्यानुप्रास अलंकार :-
जहाँ पर कानों को मधुर लगने वाले वर्णों की आवर्ती हो उसे श्रुत्यानुप्रास अलंकार कहते है, जैसे :-   
”दिनान्त था , थे दीननाथ डुबते ,
सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे ”

2. यमक अलंकार  :-
यमक शब्द का अर्थ होता है – दो । 
जब एक ही शब्द दो या दो से ज्यादा बार प्रयोग हो पर हर बार उसका अर्थ  अलग-अलग आये वहाँ पर यमक अलंकार होता है ।

जैसे :- कनक कनक ते सौगुनी , मादकता अधिकाय ।
वा खाये बौराए नर , वा पाये बौराये ।

3. पुनरुक्ति अलंकार :-
पुनरुक्ति अलंकार दो शब्दों से  मिलकर  बना है – पुन: +उक्ति ।
 जब कोई शब्द दो बार दोहराया  जाता है वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है ।

4. विप्सा अलंकार  :-
जब आदर, हर्ष, शोक, विस्मयादिबोधक आदि भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति को ही विप्सा अलंकार कहते है ।

जैसे :- मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधामय
राधा मन मोहि-मोहि मोहन मयी-मयी ।

5. वक्रोक्ति अलंकार :-
जहाँ पर वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाले उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है ।

वक्रोक्ति अलंकार के भेद :-

* काकु वक्रोक्ति :-
जब वक्ता के द्वारा बोले गये शब्दों का उसकी कंठ ध्वनी के कारण श्रोता कुछ और अर्थ निकाले वहाँ पर काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है ।

जैसे :- मैं सुकुमारि नाथ  बन जोगू ।

* श्लेष वक्रोक्ति अलंकार :-
जहाँ पर श्लेष की वजह से वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का अलग अर्थ निकाला जाये वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है ।

जैसे :- को तुम हौ इत आये कहाँ घनस्याम हौ तौ कितहूँ बरसो ।
चितचोर कहावत है हम तौ तहां जाहुं जहाँ धन सरसों ।।

6. श्लेष अलंकार :-
जहाँ पर कोई एक शब्द एक ही बार आये पर उसके अर्थ अलग अलग निकलें वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है ।

जैसे :- रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून ।
पानी गए न उबरै मोती मानस चून ।।

2. अर्थालंकार :-
जहाँ पर अर्थ के माध्यम से कविता या काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ पर अर्थालंकार होता है ।

अर्थालंकार के भेद :-
उपमा अलंकार
रूपक अलंकार
उत्प्रेक्षा अलंकार
द्रष्टान्त अलंकार
संदेह अलंकार
अतिश्योक्ति अलंकार
प्रतीप अलंकार
अनन्वय अलंकार
भ्रांतिमान अलंकार
व्यतिरेक अलंकार
विभावना अलंकार
विरोधाभाष अलंकार
असंगति अलंकार
मानवीकरण अलंकार
अन्योक्ति अलंकार

1. उपमा अलंकार :-
उपमा शब्द का अर्थ होता है – तुलना ।
 जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना किसी दूसरे यक्ति या वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमा अलंकार होता है ।

जैसे :- सागर -सा गंभीर ह्रदय हो ,
गिरी -सा ऊँचा हो जिसका मन ।

उपमा अलंकार के अंग :-
उपमेय
उपमान
वाचक शब्द
साधारण धर्म

*  उपमेय क्या होता है :-
उपमेय का अर्थ होता है – उपमा देने के योग्य । अगर जिस वस्तु की समानता किसी दूसरी वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमेय होता है ।

*  उपमान क्या होता है :-
उपमेय की उपमा जिससे दी जाती है उसे उपमान कहते हैं अथार्त उपमेय की जिस के साथ समानता बताई जाती है उसे उपमान कहते हैं ।

*  वाचक शब्द क्या होता है :-
जब उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है तब जिस शब्द का प्रोग किया जाता है उसे वाचक शब्द कहते हैं |

*  साधारण धर्म क्या होता है :-
दो वस्तुओं के बीच समानता दिखाने के लिए जब किसी ऐसे गुण या धर्म की मदद ली जाती है जो दोनों में वर्तमान स्थिति में हो उसी गुण या धर्म को साधारण धर्म कहते हैं ।

उपमा अलंकार के भेद :-
पूर्णोपमा अलंकार
लुप्तोपमा अलंकार

* पूर्णोपमा अलंकार :-
इसमें उपमा के सभी अंग होते हैं – उपमेय , उपमान , वाचक शब्द , साधारण धर्म आदि अंग होते हैं वहाँ पर पूर्णोपमा अलंकार होता है।

जैसे :- सागर -सा गंभीर ह्रदय हो ,
गिरी -सा ऊँचा हो जिसका मन ।

* लुप्तोपमा अलंकार क्या होता है :-

इसमें उपमा के चारों अगों में से यदि एक या दो का या फिर तीन का न होना पाया जाए वहाँ पर लुप्तोपमा अलंकार होता है

जैसे :- कल्पना सी अतिशय कोमल ।
 जैसा हम देख सकते हैं कि इसमें उपमेय नहीं है तो इसलिए यह लुप्तोपमा का उदहारण है ।

2. रूपक अलंकार :-
जहाँ पर उपमेय और उपमान में कोई अंतर न दिखाई दे वहाँ रूपक अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर उपमेय और उपमान के बीच के भेद को समाप्त करके उसे एक कर दिया जाता है वहाँ पर रूपक अलंकार होता है ।

जैसे :- ” उदित उदय गिरी मंच पर, रघुवर बाल पतंग ।
विगसे संत- सरोज सब, हरषे लोचन भ्रंग ।।”

रूपक अलंकार की पहचान :-
* उपमेय को उपमान का रूप देना ।
* वाचक शब्द का लोप होना ।
* उपमेय का भी साथ में वर्णन होना ।

रूपक अलंकार के भेद :-
सम रूपक अलंकार
अधिक रूपक अलंकार
न्यून रूपक अलंकार

* सम रूपक अलंकार :-
इसमें उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है वहाँ पर सम रूपक अलंकार होता है ।

जैसे :- बीती विभावरी जागरी 
अम्बर – पनघट में डुबा रही , ताराघट उषा-नागरी ।

* अधिक रूपक अलंकार :-
जहाँ पर उपमेय में उपमान की तुलना में कुछ न्यूनता का बोध होता है वहाँ पर अधिक रूपक अलंकार होता है ।

* न्यून रूपक अलंकार :-
इसमें उपमान की तुलना में उपमेय को न्यून दिखाया जाता है वहाँ पर न्यून रूपक अलंकार होता है ।

जैसे :- जनम सिन्धु विष बन्धु पुनि, दीन मलिन सकलंक
सिय मुख समता पावकिमि चन्द्र बापुरो रंक ..

3. उत्प्रेक्षा अलंकार :-
जहाँ पर उपमान के न होने पर उपमेय को ही उपमान मान लिया जाए  अथार्त जहाँ पर अप्रस्तुत को प्रस्तुत मान लिया जाए वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है ।
जैसे :- सखि सोहत गोपाल के, 
उर गुंजन की माल
बाहर सोहत मनु पिये, दावानल की ज्वाल ।।

उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद :-

* वस्तुप्रेक्षा अलंकार :-

जहाँ पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना दिखाई जाए वहाँ पर वस्तुप्रेक्षा अलंकार होता है ।

जैसे :- ” सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल.
बाहर लसत मनो पिये, दावानल की ज्वाल .”

* हेतुप्रेक्षा अलंकार :-
जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना देखी जाती है अथार्त वास्तविक कारण को छोडकर अन्य हेतु को मान लिया जाए वहाँ हेतुप्रेक्षा अलंकार होता है ।

* फलोत्प्रेक्षा अलंकार :-
इसमें वास्तविक फल के न होने पर भी उसी को फल मान लिया जाता है वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है । जैसे :- 
खंजरीर नहीं लखि परत कुछ दिन साँची बात.
बाल द्रगन सम हीन को करन मनो तप जात..

4. दृष्टान्त अलंकार :-
जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होता हो वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है । इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती -जुलती बात उपमान रूप में दुसरे वाक्य में होती है । यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है |

जैसे :- ‘ एक म्यान में दो तलवारें, कभी नहीं रह सकती हैं ।

किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है ll’

5.संदेह अलंकार:-
जब उपमेय और उपमान में समता देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय है या नहीं । जब यह दुविधा बनती है , तब संदेह अलंकार होता है अथार्त  जहाँ पर किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर संशय बना रहे वहाँ संदेह अलंकार होता है।  यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है ।

जैसे :- यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया ।

* संदेह अलंकार की मुख्य बातें :-
विषय का अनिश्चित ज्ञान ।
यह अनिश्चित समानता पर निर्भर हो ।
अनिश्चय का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो ।

6. अतिश्योक्ति अलंकार :-
जब किसी व्यक्ति या वस्तु का वर्णन करने में लोक समाज की सीमा या मर्यादा टूट जाये उसे अतिश्योक्ति अलंकार कहते हैं । जैसे :- 
हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आग ।
सगरी लंका जल गई , गये निसाचर भाग ।

7.प्रतीप अलंकार :-
इसका अर्थ होता है उल्टा | उपमा के अंगों में उल्ट-फेर करने से अथार्त उपमेय को उपमान के समान न कहकर उलट कर उपमान को ही उपमेय कहा जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है । इस अलंकार में दो वाक्य होते हैं एक उपमेय वाक्य और एक उपमान वाक्य । लेकिन इन दोनों वाक्यों में सद्रश्य का साफ कथन नहीं होता , वः व्यंजित रहता है । इन दोनों में साधारण धर्म एक ही होता है परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है । जैसे :- 
” नेत्र के समान कमल है ।”

08. भ्रांतिमान अलंकार  :-
जब उपमेय में उपमान के होने का भ्रम हो जाये वहाँ पर भ्रांतिमान अलंकार होता है अथार्त जहाँ उपमान और उपमेय दोनों को एक साथ देखने पर उपमान का निश्चयात्मक भ्रम हो जाये मतलब जहाँ एक वस्तु को देखने पर दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाए वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है । यह अलंकार उभयालंकार का भी अंग माना जाता है ।

जैसे :- पायें महावर देन को नाईन बैठी आय ।
फिरि-फिरि जानि महावरी, एडी भीड़त जाये ।

09. व्यतिरेक अलंकार:-
व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ होता है आधिक्य । व्यतिरेक में कारण का होना जरुरी है । अत: जहाँ उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहाँ पर व्यतिरेक अलंकार होता है ।

जैसे :- का सरवरि तेहिं देउं मयंकू। चांद कलंकी वह निकलंकू।।
मुख की समानता चन्द्रमा से कैसे दूँ ?

10. विभावना अलंकार :-
जहाँ पर कारण के न होते हुए भी कार्य का हुआ जाना पाया जाए वहाँ पर विभावना अलंकार होता है, जैसे :- 
बिनु पग चलै सुनै बिनु काना ।
कर बिनु कर्म करै विधि नाना ।

11.विशेषोक्ति अलंकार :-
काव्य में जहाँ कार्य सिद्धि के समस्त कारणों के विद्यमान रहते हुए भी कार्य न हो वहाँ पर विशेषोक्ति अलंकार होता है ।

जैसे :- नेह न नैनन को कछु, उपजी बड़ी बलाय ।
नीर भरे नित-प्रति रहें, तऊ न प्यास बुझाई ।।

12. विरोधाभाष अलंकार:-
जब किसी वस्तु का वर्णन करने पर विरोध न होते हुए भी विरोध का आभाष हो वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है । जैसे :- 
‘आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के ।
शून्य हूँ जिसमें बिछे हैं पांवड़े पलकें ।’

13. असंगति अलंकार:-
जहाँ आपतात: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरन्य रणित हो वहाँ पर असंगति अलंकार होता है |

जैसे :- ” ह्रदय घाव मेरे पीर रघुवीरै |”

14. मानवीकरण अलंकार:-
जहाँ पर काव्य में जड़ में चेतन का आरोप होता है वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है अथार्त जहाँ जड़ प्रकृति पर मानवीय भावनाओं और क्रियांओं का आरोप हो वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है |

जैसे :-बीती विभावरी जागरी , अम्बर पनघट में डुबो रही तास घट उषा नगरी ।

15. अन्योक्ति अलंकार :-
जहाँ पर किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य को कोई बात कही जाए  वहाँ पर अन्योक्ति अलंकार होता है । जैसे :-
फूलों के आस- पास रहते हैं , फिर भी काँटे उदास रहते हैं ।

3. उभयालंकार :-
जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित रहकर दोनों को चमत्कारी करते हैं वहाँ उभयालंकार होता है |

जैसे :- ‘ कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय ।’

छंद किसे कहते हैं छंद के विभिन्न प्रकार

छन्द :-
छंद शब्द का शाब्दिक अर्थ है- बन्धन। वर्णों-मात्राओं की विशेष क्रम व्यवस्था, गणना, लय, यति-गति आदि से सम्बन्धित विशिष्ट नियमों से बंधी हुई पद रचना छंद कहलाती है। 
छंद का वर्णन सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के नवम् छन्द में ‘छन्द’ की उत्पत्ति ईश्वर से बताई गई है। लौकिक संस्कृत के छंदों का जन्मदाता वाल्मीकि को माना गया है। आचार्य पिंगल ने ‘छन्दसूत्र’ में छन्द का सुसम्बद्ध वर्णन किया है, अत: इसे छन्दशास्त्र का आदि ग्रन्थ माना जाता है। छन्दशास्त्र को ‘पिंगलशास्त्र’ भी कहा जाता है। हिन्दी साहित्य में छन्दशास्त्र की दृष्टि से प्रथम कृति ‘छन्दमाला’ है।

छंद के अंग या अवयव-
छंद के अंग निम्नलिखित प्रकार हैं-

1- चरण
छंद की प्रत्येक पंक्ति को पद या चरण कहते हैं. प्रत्येक छंद की सामान्यता चार पंक्तियां होती है. छंदों में प्राय: चार चरण होते हैं. प्रत्येक चरण अथवा पद में वर्गों अथवा मात्राओं की संख्या क्रमानुसार रहती है. पाद या चरण तीन प्रकार के होते हैं-

* सम चरण– 
जिस छंद के चारों चरण की मात्राएं या वर्णों का रूप समान हो, बे सम चरण कहलाते हैं. द्वितीय और चतुर्थ चरण को “सम चरण” कहते हैं. जैसे- इंद्रवज्रा, चौपाई आदि.

*अर्धसम चरण– 
जिस छंद के प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ पद की मात्राओं या वर्णों की समानता हो, बे “अर्धसम चरण” कहलाते हैं. जैसे- दोहा सोरठा आदि.

*विषम चरण– 
जिन छंदों में 4 से ज्यादा चरण हो और उन में कोई समानता ना हो. बे “विषम चरण” कहलाते हैं. प्रथम और तृतीय चरण को विषम चरण कहते हैं जैसे- कुंडलिया और छप्पय आदि.

2. वर्ण-
वे चिन्ह जो मुख से निकलने वाली ध्वनि को सूचित करने के लिए निश्चित किए जाते हैं, “वर्ण” कहलाते हैं. वर्ण को अक्षर भी कहा जाता है.वह दो प्रकार के होते हैं- लघु एवं गुरु.

लघु या ह्रस्व– जिन्हें बोलने में कम समय लगता है उसे लघु या ह्रस्व वर्ण कहते हैं। मात्रा के अनुसार इसका चिन्ह (। ) होता है.

गुरु या दीर्घ– जिन्हें बोलने में लघु वर्ण से ज्यादा समय लगता है उन्हें गुरु या दीर्घ वर्ण कहते हैं। मात्रा के अनुसार इसका चिन्ह (S) होता है.

3- मात्रा
किसी ध्वनि या बाढ़ के उच्चारण में जो समय लगता है, उसे ही मात्रा कहते हैं. लघु वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उससे (l) मात्रा होती है एवं गुरु वर्ण में जो समय लगता है उससे (S) मात्रा होती है.

4- यति
साधारण भाषा में इसे विराम कहते हैं. छंदों को पढ़ते समय कई स्थानों पर विराम लेना पड़ता है. उन्हीं विराम स्थलों को “यति” कहते हैं.

5- गति
गति छंद का मुख्य अवयव है. छंद को पढ़ते समय एक प्रकार के प्रवाह की अनुभूति होती है, जिसे गति कहते हैं.

6- तुक
छंद के चरणों के अंत में जो अक्षरों की समानता पाई जाती है, उन्हें तुक कहते हैं यह दो प्रकार के होते हैं- तुकांत एवं अतुकांत।

7. गण-
गण का अर्थ है- समूह ।तीन वर्णों के एक समूह को गण माना जाता है। इसमे वर्णों की संख्या तीन ही होती है न अधिक न कम । गणों की संख्या 8 है-
यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ)
तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ)
जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।)
नगण (।।।) और सगण (।।ऽ)
णों को आसानी से याद करने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा। सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ लघु और गुरू मात्राओं के सूचक हैं। जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।

* छंदों के प्रकार- 
छंद मुख्य रूप से 3 प्रकार के होते हैं-

* वर्णिक छंद- 
वर्णों की गणना पर आधारित “वर्णिक छंद” कहलाते हैं । वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान रहती है और लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है. वर्णिक छंद दो प्रकार के होते हैं- साधारण एवं दंडक.

मात्रिक छंद- मात्रा की गणना पर आधारित छंद “मात्रिक छंद” कहलाते हैं. मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या समान रहती है. लेकिन लघु गुरु के क्रम पर ध्यान दिया नहीं जाता है. कुछ प्रमुख मात्रिक छंद इस प्रकार है जैसे- चौपाई, रोला, दोहा एवं सोरठा आदि मात्रिक छंद है.

मुक्तक छंद- वे छंद जो मात्राओं एवं वर्णों से पूर्णतया मुक्त होते हैं, मुक्तक छंद कहलाते हैं. मुक्तक छंद में मात्राओं एवं वर्णों का कोई प्रतिबंध नहीं होता है. रसखान एवं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी रचनाओं में इसका भरपूर प्रयोग किया है।

शनिवार, 2 जनवरी 2021

नरेश मेहता का संक्षिप्त परिचय/ साहित्यिक परिचय/नरेश मेहता

नरेश मेहता का साहित्यिक परिचय
b.a. फाइनल ईयर
सेमेस्टर 5
नरेश मेहता का जन्म 15 फरवरी 1922 को मालवा के शाहजहांपुर गांव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ ।
उनके पिता बिहारी लाल शुक्ल थे ।
मेहता पदवी इन्हें इनके पूर्वजों से मिली थी।
 नरेश जी ढाई साल के ही थे उनकी माता का निधन हो गया उनके  चाचा पंडित शंकर लाल शुक्ला ने इनका पालन पोषण किया।
शैक्षणिक उपलब्धियां
 नरेश मेहता नी इंटर की परीक्षा उज्जैन से पास की।
 इसके बाद वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।
 सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की एक प्रमुख नेता रहे।
 इन्होंने अपनी उच्च शिक्षा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से प्राप्त की।
 इसके पश्चात देहरादून में सेकंड लेफ्टिनेंट का परीक्षण प्राप्त किया ।
इन्होंने शिक्षा समाप्ति के बाद आकाशवाणी लखनऊ में अपना काम आरंभ किया और फिर अनेक आकाशवाणी केंद्रों पर कार्यरत रहे ।
सन् 1953 में आकाशवाणी से त्यागपत्र देकर पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हो गई।
 इन्होंने साहित्यकार भारतीय श्रमिक और कृति आदि पत्रिकाओं का संपादन किया।
 22 नवंबर 2000 में मेहता जी का निधन हो गया नरेश मेहता कई बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे ।
नई कविता के प्रमुख हस्ताक्षर थे ।
इन्होंने उपन्यास ,कहानी ,नाटक तथा समीक्षा आदि में अच्छा कार्य किया है ।कवि के साथ-साथ वे अध्ययन शील प्रवृत्ति वाले भाव और गंभीर चिंतक भी रहे हैं ।
डॉक्टर जगदीश गुप्त ने  अनुसार
"नरेश मेहता छायावादी काव्य की अत्यंत प्रतिभावान तथा बांग्ला संस्कार से प्रभावित संवेदनशील रचनाकार के रूप में विख्यात है परंपरा एवंलालित्य काला लिखता पूर्ण किंतु वैचारिक समन्वयक है। "
नरेश मेहता साहित्य में नवीनता तथा प्रयोग की दृष्टि के पक्षपाती रहे हैं।
 वह एक प्रगतिशील लेखक है उनकी रचनाओं पर मार्क्सवादी विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा है कतिपय आलोचकों ने उन्हें अहंकारी एवं एवं वादी होने का आरोप भी लगाया है ।
पुरस्कार व सम्मान
सन 1974 में मध्यप्रदेश का राजकीय सम्मान 
1983 में सारस्वत सम्मान 
1984 में मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग का शिखर सम्मान 1988 में साहित्य अकादमी पुरस्कार 
1990 में उत्तर भारती के उत्तर प्रदेश के भारत भारती सम्मान 1992 में ज्ञानपीठ पुरस्कार
रचनाएं
 काव्यगत विशेषताएं
1.सनातन समस्याओं  का उल्लेख
 श्री नरेश मेहता जी ने समाज में चली आ रही सनातन एवं शाश्वत समस्याओं तथा संदर्भों क कियाा है। उन्होंंने अपनी कविताओं में बौद्धिकता वैैैैैष्णव तथा पर्यावरण एवं सांस्कृतिक विचारों का वर्णणन बड़ी संजीदगीी से किया है।
साधारण मानव के कवि साधारण मानव के कवि नरेश मेहता जी ने मिट्टी से जुड़े मिट्टी के अनेक रूपों को पहचानने वाले कभी माने जाते हैं उन्हें मनुष्य के पुरुषार्थ पर पूरा विश्वास था वे लिखते हैं विश्वास करो यह सबसे बड़ा देवता व है कि तुम पुरुषार्थ करते मनुष्य हो और मैं स्वरूप पाती मृतिका 
मानवीय पीड़ा की अनुभूति 
नरेश मेहता जी की कविताओं में सर्वत्र जनसाधारण की समस्याओं मन के विविध रूपों का उनकी पीड़ा का आमजन की समस्याओं का उल्लेख किया गया है पौराणिक विषयों का उद्घाटन नरेश मेहता जी ने अपनी काव्य रचनाओं में पौराणिक विषयों को आधुनिक संदर्भ से जोड़कर व्यक्त किया है उन्होंने रामायण महाभारत के प्रसिद्ध प्रसंग को लेकर काव्य रचना की है ।
रामायण पर आधारित उनके प्रमुख काव्य 
संशय की एक रात में राम रावण के युद्ध का वर्णन है ।
प्रसाद पर्व में सीता वनवास की घटना का वर्णन है ।महाप्रस्थान में पांडवों के हिमालय में जलने की कथा है इस प्रकार नरेश मेहता जी ने पौराणिक प्रसंगों के माध्यम से आज के आधुनिक जीवन की समस्याओं को चित्रित किया है ।

नरेश मेहता जी की कविताओं में प्रकृति का उदास रूप का चित्रण हुआ है ।
जो उनकी समूची संस्कृति को नई क्रांति और संस्कार प्रदान करता है ।
 उसमें उल्लास है, सृजन है ,याद है , निरंतरता जीवंतता है ।उसमें संकोच, तिरस्कार और अस्वीकृत ि नहीं है ।
वह मनुष्य को एक नए मानवीय संस्कार देती हैं ।मनुष्य के भीतर की आसुरी वृत्तियों बदलकर  में बदलती है ।
भाषा शैली 
नरेश मेहता की भाषा सरल सहज और भावानुकूल है ।
उन्होंने नए प्रतीकों , बिम्ब ,उपमाओ का सुंदर समन्वय हुआ है।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

कुरुक्षेत्र काव्यम रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित के आधार पर भीष्म पितामह के चरित्र पर प्रकाश डालिए

भीष्म पितामह का चरित्र चित्रण
भारतीय संस्कृति के इतिहास में नहीं अपितु विश्व की संस्कृति के इतिहास में भीष्म पितामह जैसा महान चरित्रवान शायद ही कोई हो उनकी वीरता पराक्रम दृढ़ प्रतिज्ञा कर्म योगी की भावना से कोई व्यक्ति भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता कुरुक्षेत्र कविता में रामधारी सिंह दिनकर जी ने भीष्म पितामह का चरित्र बौद्धिक एवं मनोवैज्ञानिक सांचे में डाला है उनके चरित्र की विशेषताओं का अध्ययन निम्नलिखित सिरको के आधार पर किया जा सकता है परम शक्तिशाली विश्व पितामह परम शक्तिशाली ब्रह्मचारी थे वह बल के आधार होते हुए भी परम वैरागी थे उन्होंने धर्म के लिए राज सिंहासन को त्याग और स्नेह के लिए प्राण विसर्जन कर दी विश्व भर में उनके समान कोई दूसरा पराक्रमी नहीं हुआ काल तथा मृत्यु भी उनके वश में ही थी उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था कर्म के उपासक कुरुक्षेत्र में भीष्म पितामह को कर्म का महान उपासक दिखाया गया है उनका मत है कि भाग्य के सहारे बैठकर कायर पुरुष की कार्य करते हैं व्यक्ति अपने सुखों को ब्रह्मा से लिखवा कर नहीं आया है अपितु उसने अपना सुख अपने कठोर कर्म से प्राप्त किया है यह प्रकृति भी मानव के लिए

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

शब्द शक्ति किसे कहते हैं शब्द शक्ति के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए?

बी ए प्रथम वर्ष 
सेमेस्टर फर्स्ट
शब्द शक्ति किसे कहते हैं शब्द शक्ति के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए
शब्द शक्ति शब्दों में विद्यमान अर्थ का ज्ञान कराने वाले बौद्धिक व्यापार को सब शक्ति कहते हैं अर्थात जिस साधन या शक्ति के द्वारा शब्द के अर्थ का बोध होता है उसे शब्द शक्ति कहते हैं
शब्द शक्ति के प्रकार
शब्द शक्ति के तीन प्रकार होते हैं तथा जो शक्ति उन तीनों शब्दों के तीन अलग-अलग अर्थ प्रकट करती हैं सब शक्ति कहलाती हैं तीन अलग-अलग अर्थ प्रकट करने के कारण सब शक्तियां भी तीन प्रकार की होती हैं जो इस प्रकार से हैं
अभिधा शब्द शक्ति
लक्षणा शब्द शक्ति
व्यंजना शब्द शक्ति
अभिधा शब्द शक्ति-जिस प्रकार के शब्द से मुख्य अर्थ तथा कोष का अर्थ का बोध होता है उसे अभिधा शब्द शक्ति कहती हैं कहा जाता है कि यह आसान शब्दों में समझी जा सकती है अभिधा शब्द शक्ति के तीन भेद होते हैं

रूढि अभिधा शब्द शक्ति-जिन शब्दों की स्वतंत्रता होती है वे किसी अन्य शब्द से मेल नहीं खाते हैं जिनके खंड करने पर कोई अन्य अर्थ नहीं निकलता है उन्हें रूढ़ि अभिधा शब्द शक्ति कहते हैं।
जैसे -पेड़, घोड़ा, आंख ,कान इत्यादि
योगिक अभिधा शब्द शक्ति जो शब्द किसी उपसर्ग तथा प्रत्यय लगाकर योगिक शब्द बनते हैं बताइए योग शब्द अर्थ प्रकट करते हैं उन्हें योगिक अभिधा शब्द शक्ति कहते हैं जैसे भूपति, पाठशाला ,राजकुमार, इत्यादि
योगरूढ़ अभिधा शब्द शक्ति जो शब्द व्यापार किसी ऐसे अर्थ का बोध कराएं जो योगिक शब्दों से बना हो परंतु किसी विशेष अर्थ रूढ़ हो, उसे योगरूढ़ अभिधा शब्द शक्ति कहते हैं जैसे दशानन, पंकज ,नीलांबर इत्यादि
लक्षणा शब्द शक्ति
मुख्य अर्थ में बाधित होने पर जब किसी अन्य अर्थ की सिद्धि होती है तो उसे लक्षणा शब्द शक्ति कहा जाता है लक्षणा शब्द शक्ति के तीन प्रमुख लक्षण होते हैं
मुख्य अर्थ में बाधा
मुख्य अर्थ से संबंधित दूसरा अर्थ
इसका अर्थ किसी रूढ़ि व  प्रयोजन के आधार पर लगाना
व्यंजना शब्द शक्ति
जहां शब्द का अर्थ आबिदा तथा लक्षणा शब्द शक्ति के द्वारा नहीं निकलता है यहां शब्द की गहराई में छिपे हुए अर्थ को प्रकट करने वाली शब्द शक्ति को व्यंजना शब्द शक्ति कहा जाता है इसकी उत्पत्ति वी प्लस अंजना से हुई है यानी विशेष दृष्टि विशेष दृष्टि से देखकर अर्थ निकालना की व्यंजना शब्द शक्ति कहलाता है ।
व्यंजना शब्द शक्ति के दो भेद होते हैं।
 शब्द ी व्यंजना और अर्थी व्यंजना ।
शब्द व्यंजना में विशेष शब्द का अर्थ शब्द में से ही मिल जाता है ।
अार्थी व्यंजना का अर्थ शब्द के अर्थ से ही निकलता है।

शनिवार, 26 दिसंबर 2020

संधि व उसके प्रकार

#सन्धि
#संधि का #अर्थ है– #मिलना। दो वर्णो या अक्षरो के परस्पर मेल से उत्पन्न विकार को 'संधि' कहते हैँ। जैसे– विद्या+आलय = विद्यालय। यहाँ विद्या शब्द का ‘आ’ वर्ण और आलय शब्द के ‘आ’ वर्ण मेँ संधि होकर ‘आ’ बना है।
संधि–विच्छेद: संधि शब्दोँ को अलग–अलग करके संधि से पहले की स्थिति मेँ लाना ही संधि विच्छेद कहलाता है। संधि का विच्छेद करने पर उन वर्णोँ का वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है। जैसे– हिमालय = हिम+आलय।
परस्पर मिलने वाले वर्ण स्वर, व्यंजन और विसर्ग होते हैँ, अतः इनके आधार पर ही संधि तीन प्रकार की होती है– (1) स्वर संधि, (2) व्यंजन संधि, (3) विसर्ग संधि।
1. स्वर संधि
जहाँ दो स्वरोँ का परस्पर मेल हो, उसे स्वर संधि कहते हैँ। दो स्वरोँ का परस्पर मेल संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्रायः पाँच प्रकार से होता है–
(1) अ वर्ग = अ, आ
(2) इ वर्ग = इ, ई
(3) उ वर्ग = उ, ऊ
(4) ए वर्ग = ए, ऐ
(5) ओ वर्ग = ओ, औ।
इन्हीँ स्वर–वर्गोँ के आधार पर स्वर–संधि के पाँच प्रकार होते हैँ–
1.दीर्घ संधि– जब दो समान स्वर या सवर्ण मिल जाते हैँ, चाहे वे ह्रस्व होँ या दीर्घ, या एक ह्रस्व हो और दूसरा दीर्घ, तो उनके स्थान पर एक दीर्घ स्वर हो जाता है, इसी को सवर्ण दीर्घ स्वर संधि कहते हैँ। जैसे–
अ/आ+अ/आ = आ
दैत्य+अरि = दैत्यारि
राम+अवतार = रामावतार
देह+अंत = देहांत
अद्य+अवधि = अद्यावधि
उत्तम+अंग = उत्तमांग
सूर्य+अस्त = सूर्यास्त
कुश+आसन = कुशासन
धर्म+आत्मा = धर्मात्मा
परम+आत्मा = परमात्मा
कदा+अपि = कदापि
दीक्षा+अंत = दीक्षांत
वर्षा+अंत = वर्षाँत
गदा+आघात = गदाघात
आत्मा+ आनंद = आत्मानंद
जन्म+अन्ध = जन्मान्ध
श्रद्धा+आलु = श्रद्धालु
सभा+अध्याक्ष = सभाध्यक्ष
पुरुष+अर्थ = पुरुषार्थ
हिम+आलय = हिमालय
परम+अर्थ = परमार्थ
स्व+अर्थ = स्वार्थ
स्व+अधीन = स्वाधीन
पर+अधीन = पराधीन
शस्त्र+अस्त्र = शस्त्रास्त्र
परम+अणु = परमाणु
वेद+अन्त = वेदान्त
अधिक+अंश = अधिकांश
गव+गवाक्ष = गवाक्ष
सुषुप्त+अवस्था = सुषुप्तावस्था
अभय+अरण्य = अभयारण्य
विद्या+आलय = विद्यालय
दया+आनन्द = दयानन्द
श्रदा+आनन्द = श्रद्धानन्द
महा+आशय = महाशय
वार्ता+आलाप = वार्तालाप
माया+ आचरण = मायाचरण
महा+अमात्य = महामात्य
द्राक्षा+अरिष्ट = द्राक्षारिष्ट
मूल्य+अंकन = मूल्यांकन
भय+आनक = भयानक
मुक्त+अवली = मुक्तावली
दीप+अवली = दीपावली
प्रश्न+अवली = प्रश्नावली
कृपा+आकांक्षी = कृपाकांक्षी
विस्मय+आदि = विस्मयादि
सत्य+आग्रह = सत्याग्रह
प्राण+आयाम = प्राणायाम
शुभ+आरंभ = शुभारंभ
मरण+आसन्न = मरणासन्न
शरण+आगत = शरणागत
नील+आकाश = नीलाकाश
भाव+आविष्ट = भावाविष्ट
सर्व+अंगीण = सर्वांगीण
अंत्य+अक्षरी = अंत्याक्षरी
रेखा+अंश = रेखांश
विद्या+अर्थी = विद्यार्थी
रेखा+अंकित = रेखांकित
परीक्षा+अर्थी = परीक्षार्थी
सीमा+अंकित = सीमांकित
माया+अधीन = मायाधीन
परा+अस्त = परास्त
निशा+अंत = निशांत
गीत+अंजलि = गीतांजलि
प्र+अर्थी = प्रार्थी
प्र+अंगन = प्रांगण
काम+अयनी = कामायनी
प्रधान+अध्यापक = प्रधानाध्यापक
विभाग+अध्यक्ष = विभागाध्यक्ष
शिव+आलय = शिवालय
पुस्तक+आलय = पुस्तकालय
चर+अचर = चराचर
इ/ई+इ/ई = ई
रवि+इन्द्र = रवीन्द्र
मुनि+इन्द्र = मुनीन्द्र
कवि+इन्द्र = कवीन्द्र
गिरि+इन्द्र = गिरीन्द्र
अभि+इष्ट = अभीष्ट
शचि+इन्द्र = शचीन्द्र
यति+इन्द्र = यतीन्द्र
पृथ्वी+ईश्वर = पृथ्वीश्वर
श्री+ईश = श्रीश
नदी+ईश = नदीश
रजनी+ईश = रजनीश
मही+ईश = महीश
नारी+ईश्वर = नारीश्वर
गिरि+ईश = गिरीश
हरि+ईश = हरीश
कवि+ईश = कवीश
कपि+ईश = कपीश
मुनि+ईश्वर = मुनीश्वर
प्रति+ईक्षा = प्रतीक्षा
अभि+ईप्सा = अभीप्सा
मही+इन्द्र = महीन्द्र
नारी+इच्छा = नारीच्छा
नारी+इन्द्र = नारीन्द्र
नदी+इन्द्र = नदीन्द्र
सती+ईश = सतीश
परि+ईक्षा = परीक्षा
अधि+ईक्षक = अधीक्षक
वि+ईक्षण = वीक्षण
फण+इन्द्र = फणीन्द्र
प्रति+इत = प्रतीत
परि+ईक्षित = परीक्षित
परि+ईक्षक = परीक्षक
उ/ऊ+उ/ऊ = ऊ
भानु+उदय = भानूदय
लघु+ऊर्मि = लघूर्मि
गुरु+उपदेश = गुरूपदेश
सिँधु+ऊर्मि = सिँधूर्मि
सु+उक्ति = सूक्ति
लघु+उत्तर = लघूत्तर
मंजु+उषा = मंजूषा
साधु+उपदेश = साधूपदेश
लघु+उत्तम = लघूत्तम
भू+ऊर्ध्व = भूर्ध्व
वधू+उर्मि = वधूर्मि
वधू+उत्सव = वधूत्सव
भू+उपरि = भूपरि
वधू+उक्ति = वधूक्ति
अनु+उदित = अनूदित
सरयू+ऊर्मि = सरयूर्मि
ऋ/ॠ+ऋ/ॠ = ॠ
मातृ+ऋण = मात्ॠण
पितृ+ऋण = पित्ॠण
भ्रातृ+ऋण = भ्रात्ॠण
2. गुण संधि–अ या आ के बाद यदि ह्रस्व इ, उ, ऋ अथवा दीर्घ ई, ऊ, ॠ स्वर होँ, तो उनमेँ संधि होकर क्रमशः ए, ओ, अर् हो जाता है, इसे गुण संधि कहते हैँ। जैसे–
अ/आ+इ/ई = ए
भारत+इन्द्र = भारतेन्द्र
देव+इन्द्र = देवेन्द्र
नर+इन्द्र = नरेन्द्र
सुर+इन्द्र = सुरेन्द्र
वीर+इन्द्र = वीरेन्द्र
स्व+इच्छा = स्वेच्छा
न+इति = नेति
अंत्य+इष्टि = अंत्येष्टि
महा+इन्द्र = महेन्द्र
रमा+इन्द्र = रमेन्द्र
राजा+इन्द्र = राजेन्द्र
यथा+इष्ट = यथेष्ट
रसना+इन्द्रिय = रसनेन्द्रिय
सुधा+इन्दु = सुधेन्दु
सोम+ईश = सोमेश
महा+ईश = महेश
नर+ईश = नरेश
रमा+ईश = रमेश
परम+ईश्वर = परमेश्वर
राजा+ईश = राजेश
गण+ईश = गणेश
राका+ईश = राकेश
अंक+ईक्षण = अंकेक्षण
लंका+ईश = लंकेश
महा+ईश्वर = महेश्वर
प्र+ईक्षक = प्रेक्षक
उप+ईक्षा = उपेक्षा
अ/आ+उ/ऊ = ओ
सूर्य+उदय = सूर्योदय
पूर्व+उदय = पूर्वोदय
पर+उपकार = परोपकार
लोक+उक्ति = लोकोक्ति
वीर+उचित = वीरोचित
आद्य+उपान्त = आद्योपान्त
नव+ऊढ़ा = नवोढ़ा
समुद्र+ऊर्मि = समुद्रोर्मि
जल+ऊर्मि = जलोर्मि
महा+उत्सव = महोत्सव
महा+उदधि = महोदधि
गंगा+उदक = गंगोदक
यथा+उचित = यथोचित
कथा+उपकथन = कथोपकथन
स्वातंत्र्य+उत्तर = स्वातंत्र्योत्तर
गंगा+ऊर्मि = गंगोर्मि
महा+ऊर्मि = महोर्मि
आत्म+उत्सर्ग = आत्मोत्सर्ग
महा+उदय = महोदय
करुणा+उत्पादक = करुणोत्पादक
विद्या+उपार्जन = विद्योपार्जन
प्र+ऊढ़ = प्रौढ़
अक्ष+हिनी = अक्षौहिनी
अ/आ+ऋ = अर्
ब्रह्म+ऋषि = ब्रह्मर्षि
देव+ऋषि = देवर्षि
महा+ऋषि = महर्षि
महा+ऋद्धि = महर्द्धि
राज+ऋषि = राजर्षि
सप्त+ऋषि = सप्तर्षि
सदा+ऋतु = सदर्तु
शिशिर+ऋतु = शिशिरर्तु
महा+ऋण = महर्ण
3. वृद्धि संधि–
अ या आ के बाद यदि ए, ऐ होँ तो इनके स्थान पर ‘ऐ’ तथा अ, आ के बाद ओ, औ होँ तो इनके स्थान पर ‘औ’ हो जाता है। ‘ऐ’ तथा ‘औ’ स्वर ‘वृद्धि स्वर’ कहलाते हैँ अतः इस संधि को वृद्धि संधि कहते हैँ। जैसे–
अ/आ+ए/ऐ = ऐ
एक+एक = एकैक
मत+ऐक्य = मतैक्य
सदा+एव = सदैव
स्व+ऐच्छिक = स्वैच्छिक
लोक+एषणा = लोकैषणा
महा+ऐश्वर्य = महैश्वर्य
पुत्र+ऐषणा = पुत्रैषणा
वसुधा+ऐव = वसुधैव
तथा+एव = तथैव
महा+ऐन्द्रजालिक = महैन्द्रजालिक
हित+एषी = हितैषी
वित्त+एषणा = वित्तैषणा
अ/आ+ओ/औ = औ
वन+ओषध = वनौषध
परम+ओज = परमौज
महा+औघ = महौघ
महा+औदार्य = महौदार्य
परम+औदार्य = परमौदार्य
जल+ओध = जलौध
महा+औषधि = महौषधि
प्र+औद्योगिकी = प्रौद्योगिकी
दंत+ओष्ठ = दंतोष्ठ (अपवाद)
4. यण संधि–जब हृस्व इ, उ, ऋ या दीर्घ ई, ऊ, ॠ के बाद कोई असमान स्वर आये, तो इ, ई के स्थान पर ‘य्’ तथा उ, ऊ के स्थान पर ‘व्’ और ऋ, ॠ के स्थान पर ‘र्’ हो जाता है। इसे यण् संधि कहते हैँ।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि इ/ई या उ/ऊ स्वर तो 'य्' या 'व्' मेँ बदल जाते हैँ किँतु जिस व्यंजन के ये स्वर लगे होते हैँ, वह संधि होने पर स्वर–रहित हो जाता है। जैसे– अभि+अर्थी = अभ्यार्थी, तनु+अंगी = तन्वंगी। यहाँ अभ्यर्थी मेँ ‘य्’ के पहले 'भ्' तथा तन्वंगी मेँ ‘व्’ के पहले 'न्' स्वर–रहित हैँ। प्रायः य्, व्, र् से पहले स्वर–रहित व्यंजन का होना यण् संधि की पहचान है। जैसे–
इ/ई+अ = य
यदि+अपि = यद्यपि
परि+अटन = पर्यटन
नि+अस्त = न्यस्त
वि+अस्त = व्यस्त
वि+अय = व्यय
वि+अग्र = व्यग्र
परि+अंक = पर्यँक
परि+अवेक्षक = पर्यवेक्षक
वि+अष्टि = व्यष्टि
वि+अंजन = व्यंजन
वि+अवहार = व्यवहार
वि+अभिचार = व्यभिचार
वि+अक्ति = व्यक्ति
वि+अवस्था = व्यवस्था
वि+अवसाय = व्यवसाय
प्रति+अय = प्रत्यय
नदी+अर्पण = नद्यर्पण
अभि+अर्थी = अभ्यर्थी
परि+अंत = पर्यँत
अभि+उदय = अभ्युदय
देवी+अर्पण = देव्यर्पण
प्रति+अर्पण = प्रत्यर्पण
प्रति+अक्ष = प्रत्यक्ष
वि+अंग्य = व्यंग्य
इ/ई+आ = या
वि+आप्त = व्याप्त
अधि+आय = अध्याय
इति+आदि = इत्यादि
परि+आवरण = पर्यावरण
अभि+आगत = अभ्यागत
वि+आस = व्यास
वि+आयाम = व्यायाम
अधि+आदेश = अध्यादेश
वि+आख्यान = व्याख्यान
प्रति+आशी = प्रत्याशी
अधि+आपक = अध्यापक
वि+आकुल = व्याकुल
अधि+आत्म = अध्यात्म
प्रति+आवर्तन = प्रत्यावर्तन
प्रति+आशित = प्रत्याशित
प्रति+आभूति = प्रत्याभूति
प्रति+आरोपण = प्रत्यारोपण
वि+आवृत्त = व्यावृत्त
वि+आधि = व्याधि
वि+आहत = व्याहत
प्रति+आहार = प्रत्याहार
अभि+आस = अभ्यास
सखी+आगमन = सख्यागमन
मही+आधार = मह्याधार
इ/ई+उ/ऊ = यु/यू
परि+उषण = पर्युषण
नारी+उचित = नार्युचित
उपरि+उक्त = उपर्युक्त
स्त्री+उपयोगी = स्त्र्युपयोगी
अभि+उदय = अभ्युदय
अति+उक्ति = अत्युक्ति
प्रति+उत्तर = प्रत्युत्तर
अभि+उत्थान = अभ्युत्थान
आदि+उपांत = आद्युपांत
अति+उत्तम = अत्युत्तम
स्त्री+उचित = स्त्र्युचित
प्रति+उत्पन्न = प्रत्युत्पन्न
प्रति+उपकार = प्रत्युपकार
वि+उत्पत्ति = व्युत्पत्ति
वि+उपदेश = व्युपदेश
नि+ऊन = न्यून
प्रति+ऊह = प्रत्यूह
वि+ऊह = व्यूह
अभि+ऊह = अभ्यूह
इ/ई+ए/ओ/औ = ये/यो/यौ
प्रति+एक = प्रत्येक
वि+ओम = व्योम
वाणी+औचित्य = वाण्यौचित्य
उ/ऊ+अ/आ = व/वा
तनु+अंगी = तन्वंगी
अनु+अय = अन्वय
मधु+अरि = मध्वरि
सु+अल्प = स्वल्प
समनु+अय = समन्वय
सु+अस्ति = स्वस्ति
परमाणु+अस्त्र = परमाण्वस्त्र
सु+आगत = स्वागत
साधु+आचार = साध्वाचार
गुरु+आदेश = गुर्वादेश
मधु+आचार्य = मध्वाचार्य
वधू+आगमन = वध्वागमन
ऋतु+आगमन = ऋत्वागमन
सु+आभास = स्वाभास
सु+आगम = स्वागम
उ/ऊ+इ/ई/ए = वि/वी/वे
अनु+इति = अन्विति
धातु+इक = धात्विक
अनु+इष्ट = अन्विष्ट
पू+इत्र = पवित्र
अनु+ईक्षा = अन्वीक्षा
अनु+ईक्षण = अन्वीक्षण
तनु+ई = तन्वी
धातु+ईय = धात्वीय
अनु+एषण = अन्वेषण
अनु+एषक = अन्वेषक
अनु+एक्षक = अन्वेक्षक
ऋ+अ/आ/इ/उ = र/रा/रि/रु
मातृ+अर्थ = मात्रर्थ
पितृ+अनुमति = पित्रनुमति
मातृ+आनन्द = मात्रानन्द
पितृ+आज्ञा = पित्राज्ञा
मातृ+आज्ञा = मात्राज्ञा
पितृ+आदेश = पित्रादेश
मातृ+आदेश = मात्रादेश
मातृ+इच्छा = मात्रिच्छा
पितृ+इच्छा = पित्रिच्छा
मातृ+उपदेश = मात्रुपदेश
पितृ+उपदेश = पित्रुपदेश
5. अयादि संधि–ए, ऐ, ओ, औ के बाद यदि कोई असमान स्वर हो, तो ‘ए’ का ‘अय्’, ‘ऐ’ का ‘आय्’, ‘ओ’ का ‘अव्’ तथा ‘औ’ का ‘आव्’ हो जाता है। इसे अयादि संधि कहते हैँ। जैसे–
ए/ऐ+अ/इ = अय/आय/आयि
ने+अन = नयन
शे+अन = शयन
चे+अन = चयन
संचे+अ = संचय
चै+अ = चाय
गै+अक = गायक
गै+अन् = गायन
नै+अक = नायक
दै+अक = दायक
शै+अर = शायर
विधै+अक = विधायक
विनै+अक = विनायक
नै+इका = नायिका
गै+इका = गायिका
दै+इनी = दायिनी
विधै+इका = विधायिका
ओ/औ+अ = अव/आव
भो+अन् = भवन
पो+अन् = पवन
भो+अति = भवति
हो+अन् = हवन
पौ+अन् = पावन
धौ+अक = धावक
पौ+अक = पावक
शौ+अक = शावक
भौ+अ = भाव
श्रौ+अन = श्रावण
रौ+अन = रावण
स्रौ+अ = स्राव
प्रस्तौ+अ = प्रस्ताव
गव+अक्ष = गवाक्ष (अपवाद)
ओ/औ+इ/ई/उ = अवि/अवी/आवु
रो+इ = रवि
भो+इष्य = भविष्य
गौ+ईश = गवीश
नौ+इक = नाविक
प्रभौ+इति = प्रभावित
प्रस्तौ+इत = प्रस्तावित
भौ+उक = भावुक
2. व्यंजन संधि
व्यंजन के साथ स्वर या व्यंजन के मेल को व्यंजन संधि कहते हैँ। व्यंजन संधि मेँ एक स्वर और एक व्यंजन या दोनोँ वर्ण व्यंजन होते हैँ। इसके अनेक भेद होते हैँ। व्यंजन संधि के प्रमुख नियम इस प्रकार हैँ–
1. यदि किसी वर्ग के प्रथम वर्ण के बाद कोई स्वर, किसी भी वर्ग का तीसरा या चौथा वर्ण या य, र, ल, व, ह मेँ से कोई वर्ण आये तो प्रथम वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है। जैसे–
'क्' का 'ग्' होना
दिक्+अम्बर = दिगम्बर
दिक्+दर्शन = दिग्दर्शन
वाक्+जाल = वाग्जाल
वाक्+ईश = वागीश
दिक्+अंत = दिगंत
दिक्+गज = दिग्गज
ऋक्+वेद = ऋग्वेद
दृक्+अंचल = दृगंचल
वाक्+ईश्वरी = वागीश्वरी
प्राक्+ऐतिहासिक = प्रागैतिहासिक
दिक्+गयंद = दिग्गयंद
वाक्+जड़ता = वाग्जड़ता
सम्यक्+ज्ञान = सम्यग्ज्ञान
वाक्+दान = वाग्दान
दिक्+भ्रम = दिग्भ्रम
वाक्+दत्ता = वाग्दत्ता
दिक्+वधू = दिग्वधू
दिक्+हस्ती = दिग्हस्ती
वाक्+व्यापार = वाग्व्यापार
वाक्+हरि = वाग्हरि
‘च्’ का ‘ज्’
अच्+अन्त = अजन्त
अच्+आदि = अजादि
णिच्+अंत = णिजंत
‘ट्’ का ‘ड्’
षट्+आनन = षडानन
षट्+दर्शन = षड्दर्शन
षट्+रिपु = षड्रिपु
षट्+अक्षर = षडक्षर
षट्+अभिज्ञ = षडभिज्ञ
षट्+गुण = षड्गुण
षट्+भुजा = षड्भुजा
षट्+यंत्र = षड्यंत्र
षट्+रस = षड्रस
षट्+राग = षड्राग
‘त्’ का ‘द्’
सत्+विचार = सद्विचार
जगत्+अम्बा = जगदम्बा
सत्+धर्म = सद्धर्म
तत्+भव = तद्भव
उत्+घाटन = उद्घाटन
सत्+आशय = सदाशय
जगत्+आत्मा = जगदात्मा
सत्+आचार = सदाचार
जगत्+ईश = जगदीश
तत्+अनुसार = तदनुसार
तत्+रूप = तद्रूप
सत्+उपयोग = सदुपयोग
भगवत्+गीता = भगवद्गीता
सत्+गति = सद्गति
उत्+गम = उद्गम
उत्+आहरण = उदाहरण
इस नियम का अपवाद भी है जो इस प्रकार है–
त्+ड/ढ = त् के स्थान पर ड्
त्+ज/झ = त् के स्थान पर ज्
त्+ल् = त् के स्थान पर ल्
जैसे–
उत्+डयन = उड्डयन
सत्+जन = सज्जन
उत्+लंघन = उल्लंघन
उत्+लेख = उल्लेख
तत्+जन्य = तज्जन्य
उत्+ज्वल = उज्ज्वल
विपत्+जाल = विपत्जाल
उत्+लास = उल्लास
तत्+लीन = तल्लीन
जगत्+जननी = जगज्जननी2.यदि किसी वर्ग के प्रथम या तृतीय वर्ण के बाद किसी वर्ग का पंचम वर्ण (ङ, ञ, ण, न, म) हो तो पहला या तीसरा वर्ण भी पाँचवाँ वर्ण हो जाता है। जैसे–
प्रथम/तृतीय वर्ण+पंचम वर्ण = पंचम वर्ण
वाक्+मय = वाङ्मय
दिक्+नाग = दिङ्नाग
सत्+नारी = सन्नारी
जगत्+नाथ = जगन्नाथ
सत्+मार्ग = सन्मार्ग
चित्+मय = चिन्मय
सत्+मति = सन्मति
उत्+नायक = उन्नायक
उत्+मूलन = उन्मूलन
अप्+मय = अम्मय
सत्+मान = सन्मान
उत्+माद = उन्माद
उत्+नत = उन्नत
वाक्+निपुण = वाङ्निपुण
जगत्+माता = जगन्माता
उत्+मत्त = उन्मत्त
उत्+मेष = उन्मेष
तत्+नाम = तन्नाम
उत्+नयन = उन्नयन
षट्+मुख = षण्मुख
उत्+मुख = उन्मुख
श्रीमत्+नारायण = श्रीमन्नारायण
षट्+मूर्ति = षण्मूर्ति
उत्+मोचन = उन्मोचन
भवत्+निष्ठ = भवन्निष्ठ
तत्+मय = तन्मय
षट्+मास = षण्मास
सत्+नियम = सन्नियम
दिक्+नाथ = दिङ्नाथ
वृहत्+माला = वृहन्माला
वृहत्+नला = वृहन्नला
3. ‘त्’ या ‘द्’ के बाद च या छ हो तो ‘त्/द्’ के स्थान पर ‘च्’, ‘ज्’ या ‘झ’ हो तो ‘ज्’, ‘ट्’ या ‘ठ्’ हो तो ‘ट्’, ‘ड्’ या ‘ढ’ हो तो ‘ड्’ और ‘ल’ हो तो ‘ल्’ हो जाता है। जैसे–
त्+च/छ = च्च/च्छ
सत्+छात्र = सच्छात्र
सत्+चरित्र = सच्चरित्र
समुत्+चय = समुच्चय
उत्+चरित = उच्चरित
सत्+चित = सच्चित
जगत्+छाया = जगच्छाया
उत्+छेद = उच्छेद
उत्+चाटन = उच्चाटन
उत्+चारण = उच्चारण
शरत्+चन्द्र = शरच्चन्द्र
उत्+छिन = उच्छिन
सत्+चिदानन्द = सच्चिदानन्द
उत्+छादन = उच्छादन
त्/द्+ज्/झ् = ज्ज/ज्झ
सत्+जन = सज्जन
तत्+जन्य = तज्जन्य
उत्+ज्वल = उज्ज्वल
जगत्+जननी = जगज्जननी
त्+ट/ठ = ट्ट/ट्ठ
तत्+टीका = तट्टीका
वृहत्+टीका = वृहट्टीका
त्+ड/ढ = ड्ड/ड्ढ
उत्+डयन = उड्डयन
जलत्+डमरु = जलड्डमरु
भवत्+डमरु = भवड्डमरु
महत्+ढाल = महड्ढाल
त्+ल = ल्ल
उत्+लेख = उल्लेख
उत्+लास = उल्लास
तत्+लीन = तल्लीन
उत्+लंघन = उल्लंघन
4. यदि ‘त्’ या ‘द्’ के बाद ‘ह’ आये तो उनके स्थान पर ‘द्ध’ हो जाता है। जैसे–
उत्+हार = उद्धार
तत्+हित = तद्धित
उत्+हरण = उद्धरण
उत्+हत = उद्धत
पत्+हति = पद्धति
पत्+हरि = पद्धरि
उपर्युक्त संधियाँ का दूसरा रूप इस प्रकार प्रचलित है–
उद्+हार = उद्धार
तद्+हित = तद्धित
उद्+हरण = उद्धरण
उद्+हत = उद्धत
पद्+हति = पद्धति
ये संधियाँ दोनोँ प्रकार से मान्य हैँ।
5. यदि ‘त्’ या ‘द्’ के बाद ‘श्’ हो तो ‘त् या द्’ का ‘च्’ और ‘श्’ का ‘छ्’ हो जाता है। जैसे–
त्/द्+श् = च्छ
उत्+श्वास = उच्छ्वास
तत्+शिव = तच्छिव
उत्+शिष्ट = उच्छिष्ट
मृद्+शकटिक = मृच्छकटिक
सत्+शास्त्र = सच्छास्त्र
तत्+शंकर = तच्छंकर
उत्+शृंखल = उच्छृंखल
6. यदि किसी भी स्वर वर्ण के बाद ‘छ’ हो तो वह ‘च्छ’ हो जाता है। जैसे–
कोई स्वर+छ = च्छ
अनु+छेद = अनुच्छेद
परि+छेद = परिच्छेद
वि+छेद = विच्छेद
तरु+छाया = तरुच्छाया
स्व+छन्द = स्वच्छन्द
आ+छादन = आच्छादन
वृक्ष+छाया = वृक्षच्छाया
7. यदि ‘त्’ के बाद ‘स्’ (हलन्त) हो तो ‘स्’ का लोप हो जाता है। जैसे–
उत्+स्थान = उत्थान
उत्+स्थित = उत्थित
8. यदि ‘म्’ के बाद ‘क्’ से ‘भ्’ तक का कोई भी स्पर्श व्यंजन हो तो ‘म्’ का अनुस्वार हो जाता है, या उसी वर्ग का पाँचवाँ अनुनासिक वर्ण बन जाता है। जैसे–
म्+कोई व्यंजन = म् के स्थान पर अनुस्वार (ं ) या उसी वर्ग का पंचम वर्ण
सम्+चार = संचार/सञ्चार
सम्+कल्प = संकल्प/सङ्कल्प
सम्+ध्या = संध्या/सन्ध्या
सम्+भव = संभव/सम्भव
सम्+पूर्ण = संपूर्ण/सम्पूर्ण
सम्+जीवनी = संजीवनी
सम्+तोष = संतोष/सन्तोष
किम्+कर = किँकर/किङ्कर
सम्+बन्ध = संबन्ध/सम्बन्ध
सम्+धि = संधि/सन्धि
सम्+गति = संगति/सङ्गति
सम्+चय = संचय/सञ्चय
परम्+तु = परन्तु/परंतु
दम्+ड = दण्ड/दंड
दिवम्+गत = दिवंगत
अलम्+कार = अलंकार
शुभम्+कर = शुभंकर
सम्+कलन = संकलन
सम्+घनन = संघनन
पम्+चम् = पंचम
सम्+तुष्ट = संतुष्ट/सन्तुष्ट
सम्+दिग्ध = संदिग्ध/सन्दिग्ध
अम्+ड = अण्ड/अंड
सम्+तति = संतति
सम्+क्षेप = संक्षेप
अम्+क = अंक/अङ्क
हृदयम्+गम = हृदयंगम
सम्+गठन = संगठन/सङ्गठन
सम्+जय = संजय
सम्+ज्ञा = संज्ञा
सम्+क्रांति = संक्रान्ति
सम्+देश = संदेश/सन्देश
सम्+चित = संचित/सञ्चित
किम्+तु = किँतु/किन्तु
वसुम्+धर = वसुन्धरा/वसुंधरा
सम्+भाषण = संभाषण
तीर्थँम्+कर = तीर्थँकर
सम्+कर = संकर
सम्+घटन = संघटन
किम्+चित = किँचित
धनम्+जय = धनंजय/धनञ्जय
सम्+देह = सन्देह/संदेह
सम्+न्यासी = संन्यासी
सम्+निकट = सन्निकट
9. यदि ‘म्’ के बाद ‘म’ आये तो ‘म्’ अपरिवर्तित रहता है। जैसे–
म्+म = म्म
सम्+मति = सम्मति
सम्+मिश्रण = सम्मिश्रण
सम्+मिलित = सम्मिलित
सम्+मान = सम्मान
सम्+मोहन = सम्मोहन
सम्+मानित = सम्मानित
सम्+मुख = सम्मुख
10. यदि ‘म्’ के बाद य, र, ल, व, श, ष, स, ह मेँ से कोई वर्ण आये तो ‘म्’ के स्थान पर अनुस्वार (ं ) हो जाता है। जैसे–
म्+य, र, ल, व, श, ष, स, ह = अनुस्वार (ं )
सम्+योग == संयोग
सम्+वाद = संवाद
सम्+हार = संहार
सम्+लग्न = संलग्न
सम्+रक्षण = संरक्षण
सम्+शय = संशय
किम्+वा = किँवा
सम्+विधान = संविधान
सम्+शोधन = संशोधन
सम्+रक्षा = संरक्षा
सम्+सार = संसार
सम्+रक्षक = संरक्षक
सम्+युक्त = संयुक्त
सम्+स्मरण = संस्मरण
स्वयम्+वर = स्वयंवर
सम्+हित = संहिता
11. यदि ‘स’ से पहले अ या आ से भिन्न कोई स्वर हो तो स का ‘ष’ हो जाता है। जैसे–
अ, आ से भिन्न स्वर+स = स के स्थान पर ष
वि+सम = विषम
नि+सेध = निषेध
नि+सिद्ध = निषिद्ध
अभि+सेक = अभिषेक
परि+सद् = परिषद्
नि+स्नात = निष्णात
अभि+सिक्त = अभिषिक्त
सु+सुप्ति = सुषुप्ति
उपनि+सद = उपनिषद
अपवाद–
अनु+सरण = अनुसरण
अनु+स्वार = अनुस्वार
वि+स्मरण = विस्मरण
वि+सर्ग = विसर्ग
12. यदि ‘ष्’ के बाद ‘त’ या ‘थ’ हो तो ‘ष्’ आधा वर्ण तथा ‘त’ के स्थान पर ‘ट’ और ‘थ’ के स्थान पर ‘ठ’ हो जाता है। जैसे–
ष्+त/थ = ष्ट/ष्ठ
आकृष्+त = आकृष्ट
उत्कृष्+त = उत्कृष्ट
तुष्+त = तुष्ट
सृष्+ति = सृष्टि
षष्+थ = षष्ठ
पृष्+थ = पृष्ठ
13. यदि ‘द्’ के बाद क, त, थ, प या स आये तो ‘द्’ का ‘त्’ हो जाता है। जैसे–
द्+क, त, थ, प, स = द् की जगह त्
उद्+कोच = उत्कोच
मृद्+तिका = मृत्तिका
विपद्+ति = विपत्ति
आपद्+ति = आपत्ति
तद्+पर = तत्पर
संसद्+सत्र = संसत्सत्र
संसद्+सदस्य = संसत्सदस्य
उपनिषद्+काल = उपनिषत्काल
उद्+तर = उत्तर
तद्+क्षण = तत्क्षण
विपद्+काल = विपत्काल
शरद्+काल = शरत्काल
मृद्+पात्र = मृत्पात्र
14. यदि ‘ऋ’ और ‘द्’ के बाद ‘म’ आये तो ‘द्’ का ‘ण्’ बन जाता है। जैसे–
ऋद्+म = ण्म
मृद्+मय = मृण्मय
मृद्+मूर्ति = मृण्मूर्ति
15. यदि इ, ऋ, र, ष के बाद स्वर, कवर्ग, पवर्ग, अनुस्वार, य, व, ह मेँ से किसी वर्ण के बाद ‘न’ आ जाये तो ‘न’ का ‘ण’ हो जाता है। जैसे–
(i) इ/ऋ/र/ष+ न= न के स्थान पर ण
(ii) इ/ऋ/र/ष+स्वर/क वर्ग/प वर्ग/अनुस्वार/य, व, ह+न = न के स्थान पर ण
प्र+मान = प्रमाण
भर+न = भरण
नार+अयन = नारायण
परि+मान = परिमाण
परि+नाम = परिणाम
प्र+यान = प्रयाण
तर+न = तरण
शोष्+अन् = शोषण
परि+नत = परिणत
पोष्+अन् = पोषण
विष्+नु = विष्णु
राम+अयन = रामायण
भूष्+अन = भूषण
ऋ+न = ऋण
मर+न = मरण
पुरा+न = पुराण
हर+न = हरण
तृष्+ना = तृष्णा
तृ+न = तृण
प्र+न = प्रण
16. यदि सम् के बाद कृत, कृति, करण, कार आदि मेँ से कोई शब्द आये तो म् का अनुस्वार बन जाता है एवं स् का आगमन हो जाता है। जैसे–
सम्+कृत = संस्कृत
सम्+कृति = संस्कृति
सम्+करण = संस्करण
सम्+कार = संस्कार
17. यदि परि के बाद कृत, कार, कृति, करण आदि मेँ से कोई शब्द आये तो संधि मेँ ‘परि’ के बाद ‘ष्’ का आगम हो जाता है। जैसे–
परि+कार = परिष्कार
परि+कृत = परिष्कृत
परि+करण = परिष्करण
परि+कृति = परिष्कृति
3. विसर्ग संधि
जहाँ विसर्ग (:) के बाद स्वर या व्यंजन आने पर विसर्ग का लोप हो जाता है या विसर्ग के स्थान पर कोई नया वर्ण आ जाता है, वहाँ विसर्ग संधि होती है।
विसर्ग संधि के नियम निम्न प्रकार हैँ–
1. यदि ‘अ’ के बाद विसर्ग हो और उसके बाद वर्ग का तीसरा, चौथा, पांचवाँ वर्ण या अन्तःस्थ वर्ण (य, र, ल, व) हो, तो ‘अः’ का ‘ओ’ हो जाता है। जैसे–
अः+किसी वर्ग का तीसरा, चौथा, पाँचवाँ वर्ण, य, र, ल, व = अः का ओमनः+वेग = मनोवेग
मनः+अभिलाषा = मनोभिलाषा
मनः+अनुभूति = मनोभूति
पयः+निधि = पयोनिधि
यशः+अभिलाषा = यशोभिलाषा
मनः+बल = मनोबल
मनः+रंजन = मनोरंजन
तपः+बल = तपोबल
तपः+भूमि = तपोभूमि
मनः+हर = मनोहर
वयः+वृद्ध = वयोवृद्ध
सरः+ज = सरोज
मनः+नयन = मनोनयन
पयः+द = पयोद
तपः+धन = तपोधन
उरः+ज = उरोज
शिरः+भाग = शिरोभाग
मनः+व्यथा = मनोव्यथा
मनः+नीत = मनोनीत
तमः+गुण = तमोगुण
पुरः+गामी = पुरोगामी
रजः+गुण = रजोगुण
मनः+विकार = मनोविकार
अधः+गति = अधोगति
पुरः+हित = पुरोहित
यशः+दा = यशोदा
यशः+गान = यशोगान
मनः+ज = मनोज
मनः+विज्ञान = मनोविज्ञान
मनः+दशा = मनोदशा
2. यदि विसर्ग से पहले और बाद मेँ ‘अ’ हो, तो पहला ‘अ’ और विसर्ग मिलकर ‘ओऽ’ या ‘ओ’ हो जाता है तथा बाद के ‘अ’ का लोप हो जाता है। जैसे–
अः+अ = ओऽ/ओ
यशः+अर्थी = यशोऽर्थी/यशोर्थी
मनः+अनुकूल = मनोऽनुकूल/मनोनुकूल
प्रथमः+अध्याय = प्रथमोऽध्याय/प्रथमोध्याय
मनः+अभिराम = मनोऽभिराम/मनोभिराम
परः+अक्ष = परोक्ष
3. यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ या ‘आ’ से भिन्न कोई स्वर तथा बाद मेँ कोई स्वर, किसी वर्ग का तीसरा, चौथा, पाँचवाँ वर्ण या य, र, ल, व मेँ से कोई वर्ण हो तो विसर्ग का ‘र्’ हो जाता है। जैसे–
अ, आ से भिन्न स्वर+वर्ग का तीसरा, चौथा, पाँचवाँ वर्ण/य, र, ल, व, ह = (:) का ‘र्’
दुः+बल = दुर्बल
पुनः+आगमन = पुनरागमन
आशीः+वाद = आशीर्वाद
निः+मल = निर्मल
दुः+गुण = दुर्गुण
आयुः+वेद = आयुर्वेद
बहिः+रंग = बहिरंग
दुः+उपयोग = दुरुपयोग
निः+बल = निर्बल
बहिः+मुख = बहिर्मुख
दुः+ग = दुर्ग
प्रादुः+भाव = प्रादुर्भाव
निः+आशा = निराशा
निः+अर्थक = निरर्थक
निः+यात = निर्यात
दुः+आशा = दुराशा
निः+उत्साह = निरुत्साह
आविः+भाव = आविर्भाव
आशीः+वचन = आशीर्वचन
निः+आहार = निराहार
निः+आधार = निराधार
निः+भय = निर्भय
निः+आमिष = निरामिष
निः+विघ्न = निर्विघ्न
धनुः+धर = धनुर्धर4. यदि विसर्ग के बाद ‘र’ हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है और विसर्ग से पहले का स्वर दीर्घ हो जाता है। जैसे–
हृस्व स्वर(:)+र = (:) का लोप व पूर्व का स्वर दीर्घ
निः+रोग = नीरोग
निः+रज = नीरज
निः+रस = नीरस
निः+रव = नीरव
5. यदि विसर्ग के बाद ‘च’ या ‘छ’ हो तो विसर्ग का ‘श्’, ‘ट’ या ‘ठ’ हो तो ‘ष्’ तथा ‘त’, ‘थ’, ‘क’, ‘स्’ हो तो ‘स्’ हो जाता है। जैसे–
विसर्ग (:)+च/छ = श्
निः+चय = निश्चय
निः+चिन्त = निश्चिन्त
दुः+चरित्र = दुश्चरित्र
हयिः+चन्द्र = हरिश्चन्द्र
पुरः+चरण = पुरश्चरण
तपः+चर्या = तपश्चर्या
कः+चित् = कश्चित्
मनः+चिकित्सा = मनश्चिकित्सा
निः+चल = निश्चल
निः+छल = निश्छल
दुः+चक्र = दुश्चक्र
पुनः+चर्या = पुनश्चर्या
अः+चर्य = आश्चर्य
विसर्ग(:)+ट/ठ = ष्
धनुः+टंकार = धनुष्टंकार
निः+ठुर = निष्ठुर
विसर्ग(:)+त/थ = स्
मनः+ताप = मनस्ताप
दुः+तर = दुस्तर
निः+तेज = निस्तेज
निः+तार = निस्तार
नमः+ते = नमस्ते
अः/आः+क = स्
भाः+कर = भास्कर
पुरः+कृत = पुरस्कृत
नमः+कार = नमस्कार
तिरः+कार = तिरस्कार
6. यदि विसर्ग से पहले ‘इ’ या ‘उ’ हो और बाद मेँ क, ख, प, फ हो तो विसर्ग का ‘ष्’ हो जाता है। जैसे–
इः/उः+क/ख/प/फ = ष्
निः+कपट = निष्कपट
दुः+कर्म = दुष्कर्म
निः+काम = निष्काम
दुः+कर = दुष्कर
बहिः+कृत = बहिष्कृत
चतुः+कोण = चतुष्कोण
निः+प्रभ = निष्प्रभ
निः+फल = निष्फल
निः+पाप = निष्पाप
दुः+प्रकृति = दुष्प्रकृति
दुः+परिणाम = दुष्परिणाम
चतुः+पद = चतुष्पद
7. यदि विसर्ग के बाद श, ष, स हो तो विसर्ग ज्योँ के त्योँ रह जाते हैँ या विसर्ग का स्वरूप बाद वाले वर्ण जैसा हो जाता है। जैसे–
विसर्ग+श/ष/स = (:) या श्श/ष्ष/स्स
निः+शुल्क = निःशुल्क/निश्शुल्क
दुः+शासन = दुःशासन/दुश्शासन
यशः+शरीर = यशःशरीर/यश्शरीर
निः+सन्देह = निःसन्देह/निस्सन्देह
निः+सन्तान = निःसन्तान/निस्सन्तान
निः+संकोच = निःसंकोच/निस्संकोच
दुः+साहस = दुःसाहस/दुस्साहस
दुः+सह = दुःसह/दुस्सह
8. यदि विसर्ग के बाद क, ख, प, फ हो तो विसर्ग मेँ कोई परिवर्तन नहीँ होता है। जैसे–
अः+क/ख/प/फ = (:) का लोप नहीँ
अन्तः+करण = अन्तःकरण
प्रातः+काल = प्रातःकाल
पयः+पान = पयःपान
अधः+पतन = अधःपतन
मनः+कामना = मनःकामना
9. यदि ‘अ’ के बाद विसर्ग हो और उसके बाद ‘अ’ से भिन्न कोई स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है और पास आये स्वरोँ मेँ संधि नहीँ होती है। जैसे–
अः+अ से भिन्न स्वर = विसर्ग का लोप
अतः+एव = अत एव
पयः+ओदन = पय ओदन
रजः+उद्गम = रज उद्गम
यशः+इच्छा = यश इच्छा
हिन्दी भाषा की अन्य संधियाँ
हिन्दी की कुछ विशेष सन्धियाँ भी हैँ। इनमेँ स्वरोँ का दीर्घ का हृस्व होना और हृस्व का दीर्घ हो जाना, स्वर का आगम या लोप हो जाना आदि मुख्य हैँ। इसमेँ व्यंजनोँ का परिवर्तन प्रायः अत्यल्प होता है। उपसर्ग या प्रत्ययोँ से भी इस तरह की संधियाँ हो जाती हैँ। ये अन्य संधियाँ निम्न प्रकार हैँ–
1. हृस्वीकरण–
(क) आदि हृस्व– इसमेँ संधि के कारण पहला दीर्घ स्वर हृस्व हो जाता है। जैसे –
घोड़ा+सवार = घुड़सवार
घोड़ा+चढ़ी = घुड़चढ़ी
दूध+मुँहा = दुधमुँहा
कान+कटा = कनकटा
काठ+फोड़ा = कठफोड़ा
काठ+पुतली = कठपुतली
मोटा+पा = मुटापा
छोटा+भैया = छुटभैया
लोटा+इया = लुटिया
मूँछ+कटा = मुँछकटा
आधा+खिला = अधखिला
काला+मुँहा = कलमुँहा
ठाकुर+आइन = ठकुराइन
लकड़ी+हारा = लकड़हारा
(ख) उभयपद हृस्व– दोनोँ पदोँ के दीर्घ स्वर हृस्व हो जाता है। जैसे –
एक+साठ = इकसठ
काट+खाना = कटखाना
पानी+घाट = पनघट
ऊँचा+नीचा = ऊँचनीच
लेना+देना = लेनदेन2. दीर्घीकरण–
इसमेँ संधि के कारण हृस्व स्वर दीर्घ हो जाता है और पद का कोई अंश लुप्त भी हो जाता है। जैसे–
दीन+नाथ = दीनानाथ
ताल+मिलाना = तालमेल
मूसल+धार = मूसलाधार
आना+जाना = आवाजाही
व्यवहार+इक = व्यावहारिक
उत्तर+खंड = उत्तराखंड
लिखना+पढ़ना = लिखापढ़ी
हिलना+मिलना = हेलमेल
मिलना+जुलना = मेलजोल
प्रयोग+इक = प्रायोगिक
स्वस्थ+य = स्वास्थ्य
वेद+इक = वैदिक
नीति+इक = नैतिक
योग+इक = यौगिक
भूत+इक = भौतिक
कुंती+एय = कौँतेय
वसुदेव+अ = वासुदेव
दिति+य = दैत्य
देव+इक = दैविक
सुंदर+य = सौँदर्य
पृथक+य = पार्थक्य
3. स्वरलोप–
इसमेँ संधि के कारण कोई स्वर लुप्त हो जाता है। जैसे–
बकरा+ईद = बकरीद।
4. व्यंजन लोप–
इसमेँ कोई व्यंजन सन्धि के कारण लुप्त हो जाता है।
(क) ‘स’ या ‘ह’ के बाद ‘ह्’ होने पर ‘ह्’ का लोप हो जाता है। जैसे–
इस+ही = इसी
उस+ही = उसी
यह+ही = यही
वह+ही = वही
(ख) ‘हाँ’ के बाद ‘ह’ होने पर ‘हाँ’ का लोप हो जाता है तथा बने हुए शब्द के अन्त मेँ अनुस्वार लगता है। जैसे–
यहाँ+ही = यहीँ
वहाँ+ही = वहीँ
कहाँ+ही = कहीँ
(ग) ‘ब’ के बाद ‘ह्’ होने पर ‘ब’ का ‘भ’ हो जाता है और ‘ह्’ का लोप हो जाता है। जैसे–
अब+ही = अभी
तब+ही = तभी
कब+ही = कभी
सब+ही = सभी
5. आगम संधि–
इसमेँ सन्धि के कारण कोई नया वर्ण बीच मेँ आ जुड़ता है। जैसे–
खा+आ = खाया
रो+आ = रोया
ले+आ = लिया
पी+ए = पीजिए
ले+ए = लीजिए
आ+ए = आइए।
कुछ विशिष्ट संधियोँ के उदाहरण:
नव+रात्रि = नवरात्र
प्राणिन्+विज्ञान = प्राणिविज्ञान
शशिन्+प्रभा = शशिप्रभा
अक्ष+ऊहिनी = अक्षौहिणी
सुहृद+अ = सौहार्द
अहन्+निश = अहर्निश
प्र+भू = प्रभु
अप+अंग = अपंग/अपांग
अधि+स्थान = अधिष्ठान
मनस्+ईष = मनीष
प्र+ऊढ़ = प्रौढ़
उपनिषद्+मीमांसा = उपनिषन्मीमांसा
गंगा+एय = गांगेय
राजन्+तिलक = राजतिलक
दायिन्+त्व = दायित्व
विश्व+मित्र = विश्वामित्र
मार्त+अण्ड = मार्तण्ड
दिवा+रात्रि = दिवारात्र
कुल+अटा = कुलटा
पतत्+अंजलि = पतंजलि
योगिन्+ईश्वर = योगीश्वर
अहन्+मुख = अहर्मुख
सीम+अंत = सीमंत/सीमांत

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#चन्द्रा #इंस्टीट्यूट #प्रयागराज