5955758281021487 Hindi sahitya : सितंबर 2025

सोमवार, 1 सितंबर 2025

चंद्रगुप्त नाटक जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित की समीक्षा ,समस्य पात्र योजना, भाषा शैली

जयशंकर प्रसाद के ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक की प्रमुख समस्याएँ, उनके समाधान, इसकी विशेषताएँ, तथा नाटक की प्रस्तावना, भूमिका, पूरा कथानक और समीक्षा – इन चारों तत्वों की व्याख्या कीजिए।

1. प्रस्तावना

हिंदी साहित्य के इतिहास में जयशंकर प्रसाद को छायावाद के जनक कवि, उच्चकोटि के नाटककार और राष्ट्रीय चेतना के प्रखर वाहक के रूप में जाना जाता है। उनके ऐतिहासिक नाटकों ने हिंदी नाट्य-साहित्य को नई दिशा दी। ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक प्रसाद की ऐतिहासिक दृष्टि, कल्पनाशक्ति और राष्ट्रप्रेम का अद्भुत संगम है। यह नाटक न केवल प्राचीन भारत की राजनीतिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण करता है, बल्कि समकालीन राष्ट्रीय चेतना को भी जागृत करता है। इसमें चाणक्य का प्रतिशोध, धनानंद का पतन, सिकंदर का आक्रमण और चन्द्रगुप्त का मौर्य साम्राज्य की स्थापना जैसे प्रसंग भारतीय संस्कृति की महत्ता को सिद्ध करते हैं।

2. भूमिका

‘चन्द्रगुप्त’ नाटक को प्रसाद ने इतिहास और कल्पना के मधुर समन्वय के रूप में प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने प्राचीन भारत की उस राजनीतिक पृष्ठभूमि का चयन किया है जब विदेशी आक्रांताओं से देश संकटग्रस्त था और आंतरिक रूप से भी शासन में भ्रष्टाचार व्याप्त था। इस भूमिका के माध्यम से प्रसाद पाठकों और दर्शकों को यह संदेश देते हैं कि राष्ट्रीय एकता, त्याग और विवेक के बल पर ही किसी भी राष्ट्र का पुनर्निर्माण संभव है।
3. कथानक (Plot)

नाटक का कथानक प्राचीन भारत की ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है। इसमें निम्न प्रमुख प्रसंग आते हैं—

धनानंद का शासन – मगध का राजा धनानंद अहंकारी और प्रजापीडक शासक है।

चाणक्य का अपमान और प्रतिशोध – सभा में चाणक्य का अपमान होता है और वह नंदवंश के विनाश की प्रतिज्ञा करता है।

चन्द्रगुप्त का उदय – चाणक्य उसे मगध के गद्दी पर बिठाने का संकल्प करता है।

सिकंदर का आक्रमण – यूनानी संस्कृति और साम्राज्य विस्तार की चुनौती सामने आती है।

अलका और सुवासिनी का त्याग – स्त्री पात्रों द्वारा राष्ट्रीय हित में त्याग और सहयोग का प्रदर्शन।

मौर्य साम्राज्य की स्थापना – अंततः चन्द्रगुप्त धनानंद को परास्त कर मगध का सम्राट बनता है।

इस प्रकार नाटक का कथानक राष्ट्रीय भावना, प्रतिशोध, षड्यंत्र, त्याग और विजय की गाथा है।

4. पात्र परिचय

नाटक में अनेक प्रभावशाली पात्र हैं—

चन्द्रगुप्त – धीरोदात्त नायक, राष्ट्र के उत्थान के लिए कार्यरत।

चाणक्य – कूटनीति, बुद्धि और राष्ट्रप्रेम का प्रतीक; चन्द्रगुप्त का मार्गदर्शक।

अलका – त्याग और देशभक्ति की आदर्श नारी।

सुवासिनी – चाणक्य की प्राणरक्षा करने वाली।

सिंहरण – चन्द्रगुप्त का साथी और वफादार राजकुमार।

धनानंद – अहंकारी शासक, जिसका पतन सुनिश्चित है।

सिकंदर – विदेशी आक्रांता, जिसकी महत्वाकांक्षा भारतीय संस्कृति के सामने झुक जाती है।

5. नाटक की प्रमुख समस्याएँ

1. ऐतिहासिकता और कल्पना का संतुलन –
प्रसाद ने ऐतिहासिक तथ्यों और अपनी कल्पना का मिश्रण किया है। कहीं-कहीं यह मिश्रण असंतुलित प्रतीत होता है।

2. भाषा की अत्यधिक आलंकारिकता –
प्रसाद कवि थे, इसलिए संवादों में अलंकार और काव्यात्मकता की अधिकता है, जिससे सरल नाटकीय प्रभाव बाधित होता है।

3. संवादों की जटिलता –
कई स्थानों पर संवाद इतने गंभीर और गूढ़ हैं कि साधारण पाठक के लिए उनका अर्थ समझना कठिन हो जाता है।

4. चरित्र विकास में बाधा –
चन्द्रगुप्त का चरित्र पूरी तरह स्वतंत्र रूप से नहीं उभर पाता, क्योंकि उस पर चाणक्य का प्रभाव अधिक है।

6. समस्याओं के समाधान

1. कल्पना का उपयोग –
प्रसाद ने कल्पना के सहारे ऐतिहासिक घटनाओं को जीवंत और रोचक बनाया, जिससे पाठक/दर्शक प्रभावित होते हैं।

2. राष्ट्रीय भावना का समावेश –
भले ही ऐतिहासिक तथ्य थोड़े बदले हों, परंतु उद्देश्य राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय एकता को जागृत करना था।

3. पात्रों की विविधता –
स्त्री पात्रों (अलका, सुवासिनी) के माध्यम से नाटक को भावनात्मक और प्रेरक बनाया गया।

4. काव्यात्मक भाषा की कलात्मकता –
यद्यपि भाषा कठिन है, लेकिन इससे नाटक का सौंदर्य और गंभीरता बढ़ती है।

7. नाटक की विशेषताएँ

राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय चेतना – नाटक का मुख्य आधार राष्ट्रहित और राष्ट्रीय एकता है।

धीरोदात्त नायक – चन्द्रगुप्त आदर्श नायक के रूप में प्रस्तुत।

कूटनीति और राजनीति का यथार्थ चित्रण – चाणक्य की नीति और कूटिलता का प्रभावी चित्रण।

स्त्री पात्रों की महत्ता – अलका और सुवासिनी जैसी पात्रियाँ त्याग और समर्पण का संदेश देती हैं।

काव्यात्मकता और गीत – गीतों और संवादों में साहित्यिक सौंदर्य है।

ऐतिहासिकता का आधार – वास्तविक ऐतिहासिक घटनाओं से प्रेरित होकर लिखा गया।

8. समीक्षा

सकारात्मक पक्ष

राष्ट्रीयता की भावना और देशभक्ति का उन्नयन।
चरित्र-चित्रण प्रभावशाली और विविधतापूर्ण।
भाषा में काव्यात्मक सौंदर्य।
ऐतिहासिक घटनाओं का रोचक चित्रण।


नकारात्मक पक्ष

भाषा और संवादों की जटिलता।
ऐतिहासिक तथ्यों और कल्पना का संतुलन पूरी तरह नहीं बैठ पाया।
चन्द्रगुप्त का चरित्र चाणक्य की छाया में दबा प्रतीत होता है।


9. निष्कर्ष

‘चन्द्रगुप्त’ नाटक जयशंकर प्रसाद की ऐतिहासिक चेतना और राष्ट्रप्रेम का अनुपम उदाहरण है। इसमें ऐतिहासिक तथ्यों के साथ कल्पना का मिश्रण, कूटनीति, राजनीति, त्याग और देशभक्ति का अद्भुत समन्वय मिलता है। यद्यपि भाषा की जटिलता और ऐतिहासिकता की समस्या बनी रहती है, फिर भी यह नाटक हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यह न केवल मनोरंजन प्रदान करता है बल्कि राष्ट्रीयता का संदेश भी देता है।

भारतेंदु युग और राष्ट्रवाद/भूमिका/सभी विधाओं में राष्ट्रवाद/महत्व और उद्देश्य/स्वरूप/निष्कर्ष

 भारतेंदु युग में राष्ट्रवाद पर विवेचन कीजिए।
प्रस्तावना

हिंदी साहित्य का इतिहास विभिन्न युगों में विभाजित है। भारतेंदु युग (1868 ई. – 1900 ई.) आधुनिक हिंदी साहित्य का आरंभिक युग माना जाता है। इसे भारतेन्दु हरिश्चंद्र का युग भी कहा जाता है, क्योंकि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व ने संपूर्ण हिंदी साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की। इस युग की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता राष्ट्रवाद की भावना है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पहली बार साहित्य को सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना से जोड़ा। अंग्रेजी शासन की दमनकारी नीतियाँ, गरीबी, अशिक्षा और राष्ट्रीय अपमान ने भारतवासियों को एकजुट होने की प्रेरणा दी। यही कारण है कि इस युग का साहित्य राष्ट्रीयता के भाव से ओतप्रोत दिखाई देता है।


भारतेंदु युग की पृष्ठभूमि

1. अंग्रेजी शासन का दमनकारी स्वरूप – किसानों पर करों का बोझ, भारतीय उद्योगों का पतन, गरीबी और अकाल।

2. 1857 की क्रांति के बाद की निराशा – जनता में असंतोष और स्वतंत्रता की आकांक्षा।

3. पश्चिमी शिक्षा और प्रगति का प्रभाव – अंग्रेजी शिक्षा से नई चेतना, आधुनिक विचारों और स्वतंत्रता की ललक का विकास।

4. प्रेस और समाचार पत्रों का योगदान – भारतेंदु ने कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगज़ीन जैसे पत्रों द्वारा राष्ट्रवादी विचारों का प्रसार किया।


भारतेन्दु युग में राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति

1. कविता में राष्ट्रवाद

भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रसिद्ध कविता – “भारत दुर्दशा” – देश की दीन दशा का करुण चित्रण करती है।

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल” में भाषा और राष्ट्र की एकता का स्पष्ट संदेश है।

कवियों ने पराधीनता, गरीबी और शोषण के विरुद्ध स्वर बुलंद किए।


2. नाटक और निबंध में राष्ट्रवाद

भारतेंदु के नाटकों में अंधेर नगरी सामाजिक-राजनीतिक भ्रष्टाचार पर करारी चोट करता है।

नीलदेवी जैसे नाटकों में विदेशी आक्रमण के विरोध और राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा का संदेश है।

उनके निबंध और लेखों में अंग्रेजी शासन की नीतियों पर सीधी आलोचना की गई।


3. पत्र-पत्रिकाओं द्वारा राष्ट्रवाद

कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र चंद्रिका और हरिश्चंद्र मैगज़ीन ने राष्ट्रवादी चेतना का प्रचार किया।

सामाजिक सुधार, स्वदेशी उद्योग, शिक्षा और भाषा के माध्यम से राष्ट्रीय एकता पर बल दिया गया।

4. भाषा और राष्ट्रवाद

भारतेंदु ने हिंदी भाषा को राष्ट्र की पहचान माना।

हिंदी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए निरंतर संघर्ष किया।

राष्ट्रवाद का मूल आधार भाषा को माना गया, क्योंकि भाषा जनता को जोड़ने का सबसे सशक्त साधन है।


5. सामाजिक सुधार और राष्ट्रवाद

समाज में व्याप्त कुरीतियों – बाल विवाह, दहेज प्रथा, अशिक्षा  पर प्रहार।

उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तक समाज जागृत नहीं होगा, तब तक राष्ट्र स्वतंत्र नहीं हो सकता।

राष्ट्रवाद को केवल राजनीतिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान से भी जोड़ा गया।

भारतेंदु युगीन अन्य साहित्यकार और राष्ट्रवाद।

भारतेंदु अकेले राष्ट्रवाद के वाहक नहीं थे। इस युग के अन्य साहित्यकारों ने भी राष्ट्रवादी चेतना का प्रसार किया :

प्रताप नारायण मिश्र – कविताओं और व्यंग्य रचनाओं में विदेशी शासन की नीतियों की आलोचना।

बालकृष्ण भट्ट – हिंदी प्रदीप पत्र के माध्यम से स्वदेशी और राष्ट्रीय एकता का प्रचार।

राधाचरण गोस्वामी – ऐतिहासिक नाटकों में राष्ट्रीय गौरव का चित्रण।

जयशंकर प्रसाद के पूर्ववर्ती कवि – भारत की ऐतिहासिक स्मृतियों और गौरवपूर्ण परंपराओं की याद दिलाते रहे।

भारतेंदु युगीन राष्ट्रवाद के प्रमुख बिंदु

1. विदेशी शासन की आलोचना।

2. स्वदेशी भाषा और उद्योगों का समर्थन।

3. हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने का प्रयास।

4. सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार और समाज सुधार।

5. साहित्य को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जागरण का साधन बनाना।

6. ऐतिहासिक गौरव और सांस्कृतिक धरोहर की पुनर्स्मृति।

प्रभाव

भारतेंदु युग ने आने वाले द्विवेदी युग और छायावाद युग को राष्ट्रवादी आधार प्रदान किया।

गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी साहित्य ने जो भूमिका निभाई, उसकी नींव भारतेंदु युग में ही पड़ी।

इस युग ने हिंदी साहित्य को केवल भावुकता से निकालकर सामाजिक यथार्थ और राष्ट्र सेवा से जोड़ दिया।

निष्कर्ष

भारतेंदु युग हिंदी साहित्य का राष्ट्रवादी युग कहा जा सकता है। इस युग में साहित्य ने जन-जागरण का कार्य किया और राष्ट्र को स्वतंत्रता की ओर प्रेरित किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके समकालीन साहित्यकारों ने समाज को यह संदेश दिया कि –

जब तक भाषा, समाज और संस्कृति मजबूत नहीं होगी, तब तक राष्ट्र स्वतंत्र नहीं हो सकता।

साहित्यकार केवल कवि या लेखक नहीं, बल्कि राष्ट्र के मार्गदर्शक होते हैं।

अतः यह युग केवल साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने सही कहा है –

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय के सूल॥”