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शनिवार, 26 दिसंबर 2020

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का जीवन परिचय

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
जीवन परिचय
साहित्यिक परिचय
b.a. द्वितीय वर्ष
थर्ड सेमेस्टर
जीवन परिचय 
श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध द्विवेदी युग के प्रख्यात कवि होने के साथ-साथ उपन्यासकार ,आलोचक एवं इतिहासकार भी थे।
भारतीय प्राचीन संस्कृति का वर्णन करना ही इनके काव्य का प्रमुख लक्षण रहा है ।
हरिऔध जी जन्म सन 18 65 ईस्वी में जिला आजमगढ़ के निजामाबाद नामक स्थान पर उत्तर प्रदेश में हुआ था।
 इनके पिता का नाम श्री भोला सिंह उपाध्याय तथा 
माता जी का नाम रुकमणी देवी था।
इनकी प्रारंभिक शिक्षा तहसील स्कूल और बनारस के क्वींस कॉलेज हुई किंतु उर्दू-फारसी एवं संस्कृत का गहन अध्ययन इन्होंने घर पर रहकर ही किया। 
कार्यक्षेत्र-इन्होंने सर्वप्रथम निजामाबाद के मिडिल स्कूल में नौकरी आरंभ की तत्पश्चात यह कानूनगो के पद पर नियुक्त हुए तथा 1923 इसी पद पर बने रहे ।
सेवानिवृत्ति के बाद इन्होंने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया ।
कुछ समय तक हरिऔध जी काशी विश्वविद्यालय में 
‌अवैतनिक प्राध्यापक पद पर कार्य करते रहे ।
उनका साहित्य सृजन निरंतर आजीवन बना रहा 6 मार्च 1947 को उनका देहान्त हुआ।
प्रमुख रचनाएं
हरिऔध जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों प्रकार की साहित्यिक विधाओं में समान रूप से अपनी कलम चलाई ।उनकी साहित्यिक रचनाओं का विवरण इस प्रकार से है।

काव्य संग्रह
प्रबंध काव्य-
प्रियप्रवास, पारिजात ,वैदेही वनवास
 मुक्तक काव्य 
रसिक रहस्य ,प्रेम प्रपंच ,प्रेम पुष्टाहार ,उद्बोधन ,कर्मवीर पदम प्रसून ,चौख चौपदे,चौबे 
 नाटक  - विजय ,रुकमणी परिणय
 उपन्यास -प्रेम कांता, ठेठ हिंदी का ठाठ, अधखिला फूल
इतिहास और आलोचना- हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास ,कबीर वचनावली की भूमिका 
काव्यशास्त्र -रस कलश
अनूदित रचनाएं- कबीर कुंडल ,कृष्ण कांत का दानपात्र वेनिस ,काबा ,विनोद वाटिका 
साहित्यिक और काव्यगत विशेषताएं
 श्री अयोध्या सिंह ने प्रियप्रवास, पारिजात, वैदेही वनवास आदि महाकाव्य की रचना की। उन्होंने भारतीय काव्य परंपरा का महाकाव्य की रचना के रूप में माना जाता है ।प्रियप्रवास हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है इसका विषय राधा और कृष्ण का जीवन चरित्र है इनके इस महाकाव्य का लक्ष्य श्री हरि ओध जी ने रीतिकालीन कवियों की भांति राधा कृष्ण के भौतिक रूप काम में तल्लीन रहने की बजाय समाज सेवा ,मानव सेवा ,देश सेवा जैसे महान कार्यों एवं आदर्शों को प्रतिष्ठित करने की दिशा में समर्पित किया है। इसके नायक श्री कृष्ण रसिक शिरोमणि ,नटनागर और कुंज बिहारी ना होकर ब्रज के लोगों की विपत्तियों का उद्धार करने वाले लोक नायक और लोक रक्षक हैं ।
उनकी नायिका राधा विरह के आंसू बहाने वाले नायिका ने होकर वह जनहित के लिए सदा तत्पर रहने वाली एक लोक नेत्री हैं ।
पारिजात इनका दूसरा महाकाव्य है जिसमें उनके चिंतन की प्रोढता एवं परिपक्वता के दर्शन होते हैं ।इसमें कवि ने आध्यात्मिक एवं धार्मिक विषयों पर गंभीरता से विचार व्यक्त किए हैं ।
इसी प्रकार वैदेही वनवास में हरिऔध जी ने 18 सर्गो में रामकथा की नवीन संदर्भ एवं मौलिक उद भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया है ।इसमें राम और सीता के आदर्श चरित्रों का वर्णन किया गया है।
राष्ट्रभाषा की भावना 
हरिऔध के कर्तव्य में राष्ट्रप्रेम की भावना ,सशक्त रूप से कवि ने परमानंद कविता में कहा है कि हम सब भारतीय भारत वासियों को देश को स्वदेश कहना चाहिए।
 उन्होंने देश प्रेम ,राष्ट्रप्रेम की भावना की मार्मिक अभिव्यक्ति में नए प्रयोग करते हुए कालिदास के मेघदूत के आधार पर पवन को दूत बनाकर पवनदूती नाम की कविता से राधा को श्री कृष्ण के नाम संदेश भेजकर विरह वेदना भुलाकर समाज सेवा और देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत हो समाज कल्याण और लोक कल्याण की भावना में लगी हुई ।राधा नायिका दिखाई है समाज सुधार की भावना जी के काव्य में समाज सुधार की भावना का उच्च स्तर पर उद्घोष हुआ है।
 उन्होंने रस क्लस में नायिका भेद पर विचार करते हुए नवीन नाव नायिकाओं का योगा अनुरूप समावेश किया है समाजसेवी नायिका इन्होंने तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक धार्मिक विकृतियों का विनाश करने की कामना की है और समाज कल्याण का उद्बोधन किया है मानवतावादी भावना-हरि ओम जी के काव्य में उनके मानवतावादी विचारों का सुंदर चित्रण हुआ है वे संपूर्ण विश्व को एक परिवार और एक घर के रूप में मानते हैं ।मानव मात्र के प्रति स्नेह अभाव को प्रोत्साहित करते हैं ।
उनकी कुछ पंक्तियों से स्पष्ट होता है जैसे 
जिससे है सब देशों से प्यार 
सगे हैं जिनके मानव मातृ 
सदन है जिसका सब संसार
 प्रकृति चित्रण 
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध के काव्य में प्रकृति के मनोरम दृश्यों का भी सजीव चित्रण हुआ है ।
उन्होंने प्रकृति के मनोरम दृश्यों के साथ साथ भयंकर दृश्यों का भी वर्णन किया है।
 उनके काव्य में प्रकृति के आलंबन उद्दीपन और उपदेशी का आदि रूपों का वर्णन हुआ है। संध्याकालीन प्राकृतिक दृश्य का एक उदाहरण इस प्रकार से है 
दिवस का अवसान समीप था ।
गगन था कुछ लोहित हो चला ।।
तरु शिखा पर भी अब राज थी 
कमलिनी कुल वल्लभं की प्रभा 
काव्य कला पक्ष 
श्री हरिऔध जी के काव्य का भाव पक्ष जितना विस्तृत और गौरवमई है कला पक्ष भी उतना ही सक्षम है।
 उन्होंने आरंभ में ब्रजभाषा में लिखना आरंभ किया था बाद में खड़ी बोली हिंदी के शुद्ध साहित्यिक रूप का प्रयोग इन्होंने किया है हरि ओध जी की वास्तव में भाषा के महान मर्मज्ञ और कुशल शिल्पी हैं।
 उन्होंने संस्कृत शब्दों का भी अच्छे से प्रयोग किया है छंद और अलंकार हरि ओध जी के काव्य में तत्कालीन सुप्रसिद्ध  सभी छंदों एवं अलंकारों का सफल प्रयोग हुआ है उन्होंने संस्कृत के द्रुत विलंबित , करणी ,मालिनी के साथ-साथ दोहा ,रोला ,चौपाई तक आदि शब्दों का प्रयोग किया है उर्दू में शेर और रूबाइयों का भी नए रूप में प्रयोग दिखाई देता है ।ये उपमा् रूपक ्उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का सफल प्रयोग किया है ।
मुहावरे और लोकोक्तियां के प्रयोग में भी किया ।हरिऔध जी ने अपने काव्य की भाषा को अत्यंत सार्थक और प्रांजल रूप प्रदान किया है ।
उन्होंने वात्सल्य रस का वर्णन किया है  रस का वर्णन करते समय भी उन्होंने कहीं भी अश्लीलता का समावेश अपने काव्य में नहीं होने दिया है इस के रूप में कहा जा सकता है कि हरि ओम जी के काव्य में भाव पक्ष अत्यंत और समृद्ध आधुनिक हिंदी कविता के विकास के दोनों ही स्तरों पर उन्नत बनाने में हरि ओध जी का अहम स्थान है हिंदी साहित्य में वे सदा आदर भाव स्मरण किए जाएंगे।
 धन्यवाद

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

विप्रलब्धा कविता का सार

विप्रलब्धा कविता
कवि धर्मवीर भारती
सार/उद्देश्य
b.a. तृतीय वर्ष
पांचवा सेमेस्टर
कविता का सार
डॉ धर्मवीर भारती द्वारा रचित इस कविता में राधा कृष्ण के पौराणिक प्रेमाख्यान को एक नवीन दृष्टि प्रदान की गई है ।
इस कविता में राधा का प्रेम एकदम सहजऔर तन्मय है ।
उनकी सहजता में ही उनका विकास होता है ।
प्रस्तुत कविता में कवि ने कनुप्रिया अर्थात राधा की विरह व्यथा का बड़ा ही सजीव और मार्मिक चित्रण किया है ।
प्रिया यानी राधा वियोग की ज्वाला में जल रही है ।

कनु यानी कान्हा अब चले गए हैं।
 राधा अब करे तो क्या करें ।
उसे याद आता है बीता हुआ हर एक क्षण जिस क्षण में वह असीमानंद को अनुभव कर रही थी।
 अब वह आनंद व्यर्थ इतिहास बन गया है ।
अब केवल राधा है ,उसका तन है ,उसका एकाकीपन है और उसकी रीत जाने का भाव है।

 राधा स्वीकार करती है कि उसका यह शरीर एक टूटे हुए खंड के समान बन गया है ।
उसका जो शरीर है वह एक खंडहर के समान है।
 राधा अपने आप को असहज महसूस कर रही है ।
उसका शरीर उसके शरीर का जादू ,
सूर्य के समान तेज ,उस की दिव्य चमक ,उसकी मंत्रमुग्ध करने वाली वाणी सब श्री कृष्ण के साथ ही चले गए हैं ।
राधा स्वीकार करती है कि अब उसका शरीर मात्र शरीर रह गया है ।
राधा स्वयं को एक कटी हुई धनुष की डोरी के समान बताती है जिसका श्री कृष्ण मंत्र पढ़े बाण के समान छूट गया है ।

संपूर्ण कविता में विभिन्न रूपों के माध्यम से राधा की विरह व्यथा का बड़ा मार्मिक और संवेदनशील चित्र अंकित किया गया है ।
भाषा की बात अगर की जाए तो धर्मवीर भारती जी ने काव्य कला की दृष्टि से यह एक सफल प्रयोग कहा जा सकता है इसमें नव प्रतीक ,विधान बिंब योजना ,नवीन उपमान का विधान किया है ।उनकी भाषा में अर्थ की अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता है ।कहीं-कहीं तत्सम शब्दों का देशज और विदेशी शब्दों के साथ-साथ भाषा का व्यवहारिक रूप दिखाई देता है ।
उनकी कविता में कहीं कहीं दूर जाकर तुक कभी मिलते हैं ।उनकी भाषा सहज सरल और विषय अनुसार है।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय

यहां सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ने यज्ञ किए जीवन परिचय तथाकी प्रमुख कविताओं का सार यहां प्रस्तुत किया गया है जो सभी एम ए और बी ए तथा यूजीसी नेट सभी के लिए जरूरी हैं 
अज्ञेय जी आधुनिक भारत के साहित्यकार हैंअज्ञेय का उपनाम है।उनके पिता श्री हीरानंद शास्त्री भारत के पुरातत्व विभाग की सेवा में उच्च अधिकारी थे। वह संस्कृत के विद्वान थे।
वे कठोर अनुशासन के पक्ष के पक्ष में थे किंतु प्रतिभा के स्वतंत्र विस्तार में कभी बाधक नहीं थे।
आज्ञा जी का जन्म 7 मार्च 1911 में कसैया जिला देवरिया बिहार में हुआ ।
उनका बचपन लखनऊ श्रीनगर और जम्मू में बीता ।
सन 1929 में उन्होंने लाहौर के  फॉर मैन से बीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण की ।सैनिक तथा विशाल भारत में पत्रिकाओं का संपादन किया।1961 में वे कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में भारतीय साहित्य और संस्कृति के अध्यापक नियुक्त हुए वहां से लौटने पर उन्होंने नवभारत टाइम्स और दिनमान का संपादन किया।
 आंगन में के पार द्वार पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला ।
कितनी नावों में कितनी बार 1969 में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ ।
4 अप्रैल 1987 को प्रातः ह्रदय गति रुक जाने के कारण अज्ञेय जी का देहांत हो गया।
प्रमुख रचनाएं
अजय जी एक बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे उन्होंने हिंदी साहित्य की लगभग सभी विधाओं पर सफलतापूर्वक अपनी कलम चलाई है उनकी प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित हैं
काव्य संग्रह
हरी घास पर क्षण भर
भग्नदूत,
 चिंता
 बावरा अहेरी 
धनुष रोते हुए यह 
अरे ओ करुणामई प्रभा
आंगन के पार द्वार 
पुरवा 
सुनहरे शैवाल
 कितनी नावों में कितनी बार
 सागर मुद्रा 
पहले मै सन्नाटा बुनता हूं 
महा वृक्ष के नीचे 
नदी के द्वीप
 छाया 
क्योंकि मैं उसे जानता हूं
 ऐसा कोई घर आपने देखा है 
ब्रिस्टल
 नाटक 
उत्तर प्रियदर्शी
 कहानी संग्रह 
विपथगा
 परंपरा
 यह तेरे प्रतिरूप 
लॉटरी की बात 
शरणार्थी 
अमर वलरी 
उपन्यास- शेखर एक जीवनी (प्रथम और द्वितीय खंड )

अपने अपने अजनबी 
नदी के द्वीप 
 छाया में कल और बिनु भगत (अपूर्ण उपन्यास )
यात्रा वृतांत 
अरे यायावर रहेगा याद तथा एक बूंद सहसा उछली 
संस्मरण 
स्मृति लेखा 
स्मृति के गलियारों से
 साक्षात्कार
 अपने अपने बारे में 
अपरोक्ष 
निबंध संग्रह 
त्रिशंकु 
,सबरंग
धार और किनारे
 जोग लिखी 
 ऑल वाल
काव्यगत विशेषताएं 
यह मूलतः प्रयोगवादी कवि थे ।
उनके काव्य का भाव पक्ष कला पक्ष समान रूप से समृद्ध जीवन की गहन अनुभूतियों का चित्रण करना उनके काव्य की प्रमुख विशेषता है ।
आरंभिक काव्य में छायावाद और रहस्यवाद का समन्वित रूप देखने को मिलता है ।
उनके काव्य में पौराणिक और ओजस्विता की भावना के दर्शन होते हैं।
इनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना का भी स्वर दिखाई देता है ।
मानवतावादी भावना की अभिव्यक्ति आज्ञा जी की प्रमुख विशेषता कही जा सकती है ।
व्यक्ति निश्चित सहानुभूति जीवन को पूर्णता से जीने का ग्रह व्यक्ति और समष्टि का परिणाम भूति क्रांति की भावना भाषा शैली की अगर बात की जाए तो विविध प्रयोग के काव्य में दिखाई देते हैं।
 वे सदा पुरानी प्रति को और उनके स्थान पर नए प्रतीक और मानव का प्रयोग करने के पक्षधर रहे हैं।
 दीप उनका प्रिय प्रतीक है।
 निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि अज्ञेय जी आधुनिक युग के सजग कवि हैं।उनकी काव्य रचनाओं में भाव पक्ष एवं कला पक्ष का सुंदर समन्वय हुआ है उन्होंने नए भाव को नवीन काव्य शैलियों में अभिव्यक्त किया है तथा नए नए प्रयोग करके काव्य के शिल्प को नवीनता प्रदान करने की कोशिश की है हिंदी साहित्य सदा इनको स्मरण रखेगा।



मेरा देश कविता का सार
मेरा देश कविता अज्ञेय जी की सुप्रसिद्ध लघु कविता है उसमें उन्होंने ग्रामीण जीवन का अत्यंत सजीव चित्र अंकित किया है ।भारत की वास्तविक संस्कृति ग्रामीण जीवन में ही देखी जा सकती है किंतु आज उसे भी नगरीय संस्कृति का ग्रहण लगता जा रहा है ।कवि ने भारत देश का वर्णन करते हुए कहा है कि घास फूस के झोंपड़ों से ढके हुए ,टूटे-फूटे गंवारू आम जनता में ही हमारा देश बसता है ।देशवासियों के पास रहने के लिए अच्छे मकानों का अभाव है इन्हीं लोगों के ढोल मांदल बांसुरी के उठते सुर में ही हमारी साधना का रस बरसता है ।
इन्हीं भोले भाले लोगों के मर्म को  नगरों की डकैती, और लोभयुक्त जहरीली वासना का सांप डस लेता है।
 अनेक भोले-भाले ग्रामीण शहरों में आकर वही के होकर रह जाते हैं ।
उनकी भोली और अनजान संस्कृति पर नगरीय सभ्यता का भूत आता है ।ग्रामीण संस्कृति भी आज नगरीय भौतिकता वादी संस्कृति से प्रभावित होती जा रही है।
नदी के द्वीप कविता का सार/ प्रतिपाद्य

नदी के द्वीप आज्ञा जी की सुप्रसिद्ध प्रतीकात्मक कविता है इसमें कवि ने नदी की धार द्वीप भूखंडों के प्रतीकों के माध्यम से व्यक्ति समाज और जीवन प्रभा प्रवाह के पारंपरिक संबंधों को उजागर किया है ।

द्वीप व्यक्ति का प्रतीक है ।
नदी परंपरा और प्रवाह का
भूखंड
 समाज का प्रतीक है 
परंपरा
 समाज और व्यक्ति को जोड़ने वाली कड़ी है।
 जैसे द्वीप भूखंड का अभिनय भाग है किंतु उसका अपना अस्तित्व भी है।
 वैसे ही व्यक्ति समाज का ही एक अंग है किंतु उसका अपना भी अस्तित्व हो सकता है ।
उसके अपने गुण और विशेषताएं ,उसकी अलग पहचान करवाते हैं ।
व्यक्ति परंपरा तथा काल प्रवाह के कारण समाज का अंग होते हुए भी स्वतंत्र व्यक्तित्व को बनाए रख पाता है ।
यद्यपि द्वीप नदी से कुछ न कुछ ग्रहण करता रहता है फिर भी वह नदी नहीं बन पाता नदी द्वीप में मिलता नहीं है।
 नदी में मिलने से द्वीप का अस्तित्व मिट जाएगा इसी प्रकार व्यक्ति भी समाज और परंपरा से संस्कार संस्कार प्राप्त करके अपने अस्तित्व को बनाता है ।परंतु उसने मिलता नहीं है समाज का सदस्य होते हुए भी वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखता है ।
अतः यहां कवि स्पष्ट कर देना चाहता है कि व्यक्ति समाज एवं परंपराओं के आपस में संबंध हैं लेकिन व्यक्ति को अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व कभी खत्म नहीं करना चाहिए और इसी से उसकी समाज में पहचान बनती है।
कितनी नावों में कितनी बार कविता का सार/ प्रतिपाद्य /उद्देश्य
यह कविता  अज्ञेय जी की एक श्रेष्ठ कविता मान मानी जाती है ।
इस कविता में कवि ने स्पष्ट किया है कि विदेशी चकाचौंध की अपेक्षा हमारे अपने देश की संस्कृति और जीवन मूल्य संसार में सर्वश्रेष्ठ है।
 कवि अनेक बार विदेशों की यात्रा पर गया है उसकी इच्छा थी कि वह विदेशों में जाकर सत्य की ज्योति की खोज करें ।
परंतु से निराश होकर ही वापस लौटना पड़ा। विदेशों की रुपहेली झिलमिलाती संस्कृति में कवि खुद को असहाय महसूस करता रहा ।
 वह बार-बार विदेशों में जाता रहा लेकिन वहां उसे सत्य की प्राप्ति नहीं हुई आखिर में निराश होकर वापस लौट आया ।
विदेशों की चकाचौंध के वातावरण को देखकर उसे अनुभव हुआ कि वहां पर सत्य की खोज करना व्यर्थ है कारण यह है कि पराए देशों की बेदर्द हवाओं में ,वहां के निर्मम प्रकाश में व्यक्ति की आंखें चुंधिया  जाती हैं वहां का निर्मम प्रकाश मानव की आत्मा को रोशनी प्रदान नहीं कर सकता है ।फल स्वरुप विदेश जाने वाला व्यक्ति सफलता के बोझ के साथ वापस लौट आता है ।उसका मन विकल, दुखी ,संत्रास रहता है ।
विदेशों में जाना है वहां तक तो सही है परंतु सत्य को वहां प्राप्त  नहीं  किया जा सकता है। पाठक वर्ग को कवि यही समझाने की कोशिश कर रहा है कि अपना जो भारत है वह सर्वश्रेष्ठ है , इस के जैसा पूरे विश्व में कहीं  ओर नहीं है।


गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

मंगलेश डबराल

समकालीन हिन्दी साहित्य में मूर्धन्य कवि मंगलेश डबराल जी 9 दिसंबर, 2020 को कोविड संक्रमण व हृदयाघात से नहीं रहे।

हिंदी साहित्याकाश के दैदीप्यमान नक्षत्र श्री डबराल जी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि
जन्म

16 मई, 1948 को टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) में ।

पत्रकारिता

 श्री डबराल जी कई पत्रिकाओं जैसे - हिंदी पैट्रियट, प्रतिपक्ष, आसपास, पूर्वाग्रह (मध्यप्रदेश कला परिषद्, भोपाल से संपादित त्रैमासिक पत्रिका), अमृत प्रभात, जनसत्ता और सहारा समय आदि के कुशल संपादक भी रहे।
साहित्यिक विशेषताएं
1.कविता के अतिरिक्त वे साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के विषयों पर नियमित लेखन भी करते रहे। 
2.मंगलेश जी की कविताओं में सामंती बोध एवं पूँजीवादी छल-छद्म दोनों का प्रतिकार है। वे यह प्रतिकार किसी शोर-शराबे के साथ नहीं अपितु प्रतिपक्ष में एक सुन्दर स्वप्न रचकर करते थे। 
3.उनका सौंदर्यबोध सूक्ष्म है और भाषा पारदर्शी है।
काव्य संग्रह --
1. पहाड़ पर लालटेन (नक्सल आंदोलन से प्रेरित)
2. घर का रास्ता 
3. हम जो देखते हैं,
4. आवाज भी एक जगह है
5. नये युग में शत्रु (बाजारवाद के मायावी रूप की तीव्र आलोचना)

(फरवरी, 2020 प्रकाशित 'स्मृति एक दूसरा समय है' उनके जीवन का अंतिम संग्रह रहा।)
 गद्य संग्रह --
1. लेखक की रोटी
2. कवि का अकेलापन

 यात्रावृत्त --
1. एक बार आयोवा

 संस्मरण --
1. एक सड़क, एक जगह

मंगलेश डबराल जी असंदिग्ध तौर पर राजनीतिक कवि थे, बाज़ारवाद, पूंजीवाद और सांप्रदायिकता के विरुद्ध थे, लेकिन उनमें एक अजब-सी मानवीय ऊष्मा भी थी।

 सम्मान व पुरस्कार --
ओमप्रकाश स्मृति सम्मान (1982)
श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार (1989)
साहित्य अकादमी पुरस्कार (2000) ['हम जो देखते हैं' के लिए]

"एकाएक आसमान में
एक तारा दिखाई देता है।
हम दोनों साथ-साथ
जा रहे हैं अंधेरे में
वह तारा और मैं।"
 ('रेल में' कविता से)

आज वो तारा एकाएक असीम आसमान के अँधेरे में विलीन हो गया। ईश्वर उन्हें अपने श्री-चरणों में स्थान दे व परिजनों को इस दु:ख की घड़ी में धैर्य प्रदान करे।

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

रघुवीर सहाय का जीवन परिचय

रघुवीर सहाय का जीवन परिचय
रघुवीर सहाय 
रघुवीर सहाय समकालीन हिंदी कविता का नागर चेहरा है।यह पेशे से पत्रकार होते हुए भी समकालीन हिंदी कविता के एक सशक्त कवि हैं इन्होंने लघु की महत्ता को स्वीकार करते हुए घर मोहल्ले के चारित्रिक विशेषताओं पर कविता अधिक आम जनता की चेतना में स्थाई स्थान बनाया है।
 परिचय
जन्म -9 दिसंबर, 1929
जन्म भूमि- लखनऊ, उत्तर प्रदेश
मृत्यु -30 दिसंबर, 1990
मृत्यु स्थान -दिल्ली
पत्नी- विमलेश्वरी सहाय
कर्म-क्षेत्र -लेखक, कवि, पत्रकार, सम्पादक, अनुवादक
भाषा- हिन्दी, अंग्रेज़ी
विद्यालय- लखनऊ विश्वविद्यालय
शिक्षा -एम. ए. (अंग्रेज़ी साहित्य)
#काल- आधुनिक काल
#युग- प्रयोगवाद युग (दुसरा सप्तक-1951 के कवि)
#पुरस्कार-उपाधि -साहित्य अकादमी पुरस्कार,1984 (लोग भूल गए हैं)
#रचनाएं:-
#कविता संग्रह:-
दूसरा सप्तक
सीढ़ियों पर धूप में (प्रथम)
आत्महत्या के विरुद्ध,1967
लोग भूल गये हैं,1982
मेरा प्रतिनिधि
हँसो हँसो जल्दी हँसो (आपातकाल सें संबंधित कविताओं का संग्रह)
कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, 1989
एक समय था
#कहानी संग्रह:-
रास्ता इधर से है,
जो आदमी हम बना रहे है 
#नाटक:-
बरनन वन (शेक्सपियर द्वारा रचित'मैकबेथ' नाटक का अनुवाद)
#निबंध संग्रह:-
दिल्ली मेरा परदेस
लिखने का कारण
ऊबे हुए सुखी
वे और नहीं होंगे जो मारे जाएँगे
भँवर लहरें और तरंग
#पत्र_पत्रिका-
रघुवीर सहाय 'नवभारत टाइम्स', दिल्ली में विशेष संवाददाता रहे। 'दिनमान' पत्रिका के 1969 से 1982 तक प्रधान संपादक रहे। उन्होंने 1982 से 1990 तक स्वतंत्र लेखन किया।
#प्रसिद्ध_पंक्तियां:-
-" तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये पत्‍थर ये चट्टानें
ये झूठे बंधन टूटें
तो धरती का हम जानें
सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है
अपने मन के मैदानों पर व्‍यापी कैसी ऊब है
आधे आधे गाने"
-" राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है."
-" पतझर के बिखरे पत्तों पर चल आया मधुमास,
बहुत दूर से आया साजन दौड़ा-दौड़ा
थकी हुई छोटी-छोटी साँसों की कम्पित
पास चली आती हैं ध्वनियाँ
आती उड़कर गन्ध बोझ से थकती हुई सुवास"
-" निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हँसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कह कर आप हँसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कह कर आप हँसे
कितने आप सुरक्षित होंगे
मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पा कर
फिर से आप हँसे"
-" मनुष्य के कल्याण के लिए
पहले उसे इतना भूखा रखो कि वह औऱ कुछ
सोच न पाए
फिर उसे कहो कि तुम्हारी पहली ज़रूरत रोटी है
जिसके लिए वह गुलाम होना भी मंज़ूर करेगा"
-" बच्चा गोद में लिए
चलती बस में
चढ़ती स्त्री
और मुझमें कुछ दूर घिसटता जाता हुआ।"
निष्कर्ष

हत्या ,लूटपाट ,आगजनी ,राष्ट्रीय भ्रष्टाचार  इनकी कविताओं में उतरकर खोजी पत्रकारिता की सनसनीखेज रिपोर्ट नहीं रह जाती बल्कि आत्मान्वेषण का माध्यम बन जाती हैं।
 इनके पास जातीय है या व्यक्तिगत स्मृतिया नहीं के बराबर हैं। इसलिए इनके दोनों पांव वर्तमान पर ही खड़े हैं।
 उनकी कविता मार्मिक उल्लास और व्यंग्य बुझी खुरदरी मुस्कान से फटी पड़ी है। कविता को इन्होंने एक कहानीपन तथा नाटकीय वैभव प्रदान किया है ।इनकी प्रमुख साहित्यिक विशेषताएं रही हैं। समय की अवधारणा, वैचारिक आयाम, विरोध का स्वर, मोह भंग की अनुभूति ,यथार्थ चित्रण ,जनपक्ष धरता, नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण अकेलेपन का संात्र, राष्ट्र की ।
भाषा शैली में आम बोलचाल की के सरल सहज और धाराप्रवाह खड़ी बोली का प्रयोग है ।सड़क, चौराहा ,दफ्तर अखबार ,संसद ,बस ,रेल और बाजार जैसी बेलौस भाषा में लिखा है ।यथासंभव अलंकारों का प्रयोग ।इनकी भाषा को भावात्मक, प्रतीकात्मक, आत्मकथात्मक ,वर्णनात्मक चित्रात्मक शैलियों का भी प्रयोग इसमें मिलता है।  भाषा का सहज गुण है ।दृश्य बिंब प्रिय  है ।इस प्रकार हिंदी साहित्य के महान कवियों में इनका नाम गिना जाता है।


मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

नागार्जुन का साहित्यिक परिचय/जीवन परिचय

नागार्जुन का साहित्यिक परिचय
जीवन परिचय 
बीए फाइनल ईयर सेमेस्टर 5 
अन्य कक्षाओं के लिए जरूरी
नागार्जुनहिंदी के जनवादी कवियों में प्रमुख स्थान रखते हैं नागार्जुन का उपनाम है उनका पूरा नाम वैद्यनाथ मिश्र यात्री है।

मूल (वास्तविक) नाम-  वैद्यनाथ मिश्र
अन्य नाम - नागार्जुन, यात्री
नोट:- 1936 ईस्वी में श्रीलंका में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने एवं बौद्ध भिक्षु बन जाने पर इनका नाम नागार्जुन पड़ा | ये श्रीलंका में बौद्ध धर्म के 'विद्यालंकार परिवेण' में तीन वर्ष तक रहे थे|
जन्म- 30 जून, 1911
जन्म भूमि- मधुबनी ज़िला, बिहार
मृत्यु -5 नवंबर, 1998
मृत्यु स्थान- दरभंगा ज़िला, बिहार
 पिता- गोकुल मिश्र
पत्नी - अपराजिता देवी

कर्म-क्षेत्र -कवि, लेखक, उपन्यासकार
युग- प्रगतिवादी युग

#रचनाएं:-
युगधारा 1953 
सतरंगे पंखों वाली 1959 
प्यासी पथराई आंखे 1962
तालाब की मछलियां 
तुमने कहा था 1980 
खिचड़ी विप्लव देखा हमने 1980 
हजार-हजार बाहों वाली 1981 
भस्मांकुर (खंडकाव्य) 
एसे भी हम क्या-ऐसी भी तुम क्या
पुरानी जूतियों का कोरस 1983 
रत्नगर्भ
काली माई 
रवींद्र के प्रति 
बादल को घिरते देखा है (कविता)
प्रेत का बयान 
आओ रानी हम ढोएं पालकी 
वे और तुम 
आकाल और उसके बाद 
सिंदूर तिलांकित भाल (कविता)
आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने 
मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा 
तुम्हारी दंतुरित मुस्कान (कविता)
इस गुब्बारे की छाया में-1989
ओम मंत्र
भुल जाओ पुराने सपनें
#उपन्यास:-
'रतिनाथ की चाची' (1948 ई.)
'बलचनमा' (1952 ई.)
'नयी पौध' (1953 ई.)
'बाबा बटेसरनाथ' (1954 ई.)
'दुखमोचन' (1957 ई.)
'वरुण के बेटे' (1957 ई.)
उग्रतारा
कुंभीपाक
पारो
आसमान में चाँद तारे
#मैथिली रचनाएं:-
हीरक जयंती (उपन्यास)
पत्रहीन नग्न गाछ (कविता-संग्रह)
#बाल साहित्य
कथा मंजरी भाग-1
कथा मंजरी भाग-2
मर्यादा पुरुषोत्तम
विद्यापति की कहानियाँ
#व्यंग्य
अभिनंदन
#निबंध संग्रह
अन्न हीनम क्रियानाम
#बांग्ला रचनाएँ
मैं मिलिट्री का पुराना घोड़ा (हिन्दी अनुवाद)
#सम्मान और पुरस्कार
-नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार से, उनकी ऐतिहासिक मैथिली रचना 'पत्रहीन नग्न गाछ' के लिए 1969 में सम्मानित गया था। 
उन्हें साहित्य अकादमी ने 1994 में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में भी नामांकित कर सम्मानित किया था।
#विशेष_तथ्य:-
-नागार्जुन मैथिली भाषा में 'यात्री' के नाम से कविता लिखते थे|
- किसी अंधविश्वास के कारण बचपन में इनका नाम 'ढ़क्कन' रखा गया था|
- लोग इन्हें प्यार से 'बाबा' भी कहते थे|
- उन्होंने इंदिरा गांधी की राजनीति को केंद्र बनाकर एवम् उन पर अनेक आरोप लगाकर कविताएं लिखी थी|
- यह व्यंग्य में माहिर है इसलिए इन्हें 'आधुनिक कबीर' भी कहा जाता है|
- इन्होंने प्रगतिवादी काव्यधारा को जन-जन के अभाव व आकांक्षाओं से जोड़कर उसे जन जागरण की कविता बना दिया था|
- इनके द्वारा 'दीपक' नामक पत्रिका का संपादन कार्य किया गया था
- यह जन्म से कवि, प्रकृति से घुमक्कड़ एवं विचारों से मूलतः मार्कसवादी माने जाते हैं|
- नागार्जुन ने अपनी भाषा में 'ठेठ ग्रामीण शैली के मुहावरो' का प्रयोग किया है|
- इनकी मृत्यु के बाद 'सोमदेव' तथा 'शोभाकांत' के संपादन में इनकी एक लंबी कविता 'भूमिजा' प्रकाशित हुई थी|
- इनका संपूर्ण कृतित्व 'नागार्जुन रचनावली' के 'सात' खंडों में प्रकाशित है|
- कवि आलोक धन्‍वा ने नागार्जुन की रचनाओं को संदर्भित करते हुए कहा कि उनकी कविताओं में आज़ादी की लड़ाई की अंतर्वस्‍तु शामिल है। नागार्जुन ने कविताओं के जरिए कई लड़ाईयाँ लडीं। वे एक कवि के रूप में ही महत्‍वपूर्ण नहीं है अपितु नए भारत के निर्माता के रूप में दिखाई देते हैं।
- "नागार्जुन जैसा प्रयोगधर्मा कवि कम ही देखने को मिलता है, चाहे वे प्रयोग लय के हों, छंद के हों, विषयवस्तु के हों। " - नामवर सिंह
#प्रसिद्ध_पंक्तियां:-
-"खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी खत्म नहीं होगा क्या
पूर्णक्रांति का भ्रांति विलास।"
-" काम नहीं है, दाम नहीं है
तरुणों को उठाने दो बंदूक
फिर करवा लेना आत्मसमर्पण"
-" पांच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूंखार
गोली खाकर एक मर गया, बाकी बच गए चार
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश निकाला मिला एक को, बाकी बच गए तीन
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच गए दो
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया एक गद्दी से, बाकी बच गया एक
एक पूत भारतमाता का, कंधे पर था झंडा
पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा !"
- "कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक काली कुत्तिया, सोई उसके पास ||"
-" बदला सत्य, अहिंसा बदली, लाठी-गोली डंडे है कानूनों की सड़ी लाश पर प्रजातंत्र के झंडे हैं|"
निष्कर्ष
नागार्जुन जी लोक जीवन से गहरा सरोकार रखते हैं यह अपने साहित्य में भ्रष्टाचार राजनीतिक स्वार्थ और समाज की पतन सिर्फ तिथियों के प्रति विशेष तौर पर सजग हैं जिन्होंने धरती जनता तथा श्रम के गीत गाए हैं इनकी रचनाओं में पूंजी वादियों के प्रति घृणा तथा श्रमिकों के प्रति सहानुभूति की भावना देखी जा सकती हैं। भाषा सरल सहज खड़ी बोली तत्सम शब्दों का ज्यादातर प्रयोग शब्द चयन सर्वथा सार्थक और भवानीपुर शैली का चयन अपने विषय को ध्यान में रखते हुए किया गया है उनके काव्य में वीर ,वात्सल्य ,हास्य अद्भुत रसों का खुलकर प्रयोग हुआ है।

धर्मवीर धर्मवीर भारती का साहित्यिक परिचय और जीवन परिचय

धर्मवीर भारती का जीवन परिचय
धर्मवीर भारती का साहित्यिक परिचय
b.a. फाइनल ईयर सेमेस्टर 5
m.a. कक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण
अंधा युग की थी नाटक से लोकप्रिय धर्मवीर भारती स्वतंत्रता के बाद के साहित्यकारों में विशिष्ट स्थान रखते हैं।
 धर्मवीर भारती 

जन्म- 25 दिसंबर 1926
जन्म भूमि- इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु -4 सितंबर, 1997
मृत्यु स्थान- मुम्बई, महाराष्ट्र
अभिभावक - चिरंजीवलाल वर्मा, चंदादेवी
पति/पत्नी- कांता कोहली, पुष्पलता शर्मा (पुष्पा भारती)
संतान- परमीता, प्रज्ञा भारती (पुत्री), किन्शुक भारती (पुत्र)
कर्म भूमि- इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
कर्म-क्षेत्र - लेखक, कवि, नाटककार
काल- आधुनिक काल (प्रयोगवाद काल)
नोट- भारती दुसरा-सप्तक में शामिल कवि थे|
#रचनाएं:-
#कविता:-
ठंडा लोहा (1952)
सात गीत वर्ष (1959)
कनुप्रिया (1959)
सपना अभी भी (1993)
आद्यन्त (1999)
#पद्यनाटक :-
अंधायुग (1954)
#कहानी संग्रह:-
मुर्दों का गाँव (1946)
स्वर्ग और पृथ्वी (1949)
चाँद और टूटे हुए लोग (1955)
बंद गली का आख़िरी मकान (1969)
साँस की क़लम से (पुष्पा भारती द्वारा संपादित सम्पूर्ण कहानियाँ ) (2000)
#रेखाचित्र:-
कुछ चेहरे कुछ चिंतन (1997)
#संस्मरण:-
शब्दिता (1997)
#उपन्यास:-
गुनाहों का देवता(1949)
सूरज का सातवाँ घोडा (1952)
ग्यारह सपनों का देश (प्रारंभ और समापन) 1960
#निबंध:-
ठेले पर हिमालय (1958)
कहनी अनकहनी (1970)
पश्यंती (1969)
साहित्य विचार और स्मृति (2003)
#रिपोर्ताज:-
मुक्त क्षेत्रे : युद्ध क्षेत्रे (1973)
युद्ध यात्रा (1972)
#आलोचना:-
प्रगतिवाद: एक समीक्षा (1949)
मानव मूल्य और साहित्य (1960)
#एकांकी नाटक :-
नदी प्यासी थी (1954)
#अनुवाद :-
ऑस्कर वाइल्ड की कहानियाँ (1946)
देशांतर (21 देशों की आधुनिक कवितायें ) 1960
#यात्रा विवरण :-
यात्रा चक्र (1994)
#मृत्यु के बाद प्रकाशित रचनाएं:-
धर्मवीर भारती की साहित्य साधना (संपादन पुष्पा भारती) 2001
धर्मवीर भारती से साक्षात्कार (संपादन पुष्पा भारती) (1998)
अक्षर अक्षर यज्ञ (पत्र : संपादन पुष्पा भारती 1998)
#पत्र/पत्रिकाओं का संपादन :-
अभ्युदय
संगम
हिन्दी साहित्य कोष (कुछ अंश)
आलोचना
निकष
धर्मयुग

#सम्मान एवं पुरस्कार:-
डॉ. धर्मवीर भारती को मिले सम्मान एवं पुरस्कार :-
1967 संगीत नाटक अकादमी सदस्यता - दिल्ली
1984 हल्दीघाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार - राजस्थान
1985 साहित्य अकादमी रत्न सदस्यता - दिल्ली
1986 संस्था सम्मान - उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान
1988 सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरस्कार - संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली
1988 सर्वश्रेष्ठ लेखक सम्मान - महाराणा मेवाड़ फ़ाउंडेशन - राजस्थान
1989 गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार - केंद्रीय हिन्दी संस्थान - आगरा
1989 राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान - बिहार सरकार
1990 भारत भारती सम्मान - उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान
1990 महाराष्ट्र गौरव - महाराष्ट्र सरकार
1991 साधना सम्मान - केडिया हिन्दी साहित्य न्यास - मध्यप्रदेश
1992 महाराष्ट्राच्या सुपुत्रांचे अभिनंदन - वसंतराव नाईक प्रतिष्ठान- महाराष्ट्र
1994 व्यास सम्मान - के. के. बिड़ला फ़ाउंडेशन - दिल्ली
1996 शासन सम्मान - उत्तर प्रदेश सरकार - लखनऊ
1997 उत्तर प्रदेश गौरव - अभियान संस्थान - बम्बई
#विशेष_तथ्य:-
- ये प्रारंभ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे|
- ये 1987 ईस्वी तक धर्मयुग पत्रिका के संपादक रहे|
- उनकी कविताओं के प्रमुख विषय रूपा शक्ति, उद्दाम कामवासना एवं सबच्छंद विलास है|
- कनुप्रिया रचना में राधा की परंपरागत चरित्र को नए रुप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है|
- साहित्यकारों की सहायतार्थ आप ने 1943 ईस्वी में 'परिमल' नामक संस्था की स्थापना की थी|
- आपने सिद्ध साहित्य पर शोध उपाधि प्राप्त की थी |
- आपके द्वारा रचित सूरज का सातवां घोड़ा रचना पर एक टीवी धारावाहिक सात कड़ियों में भी प्रसारित हुआ था|
धर्मवीर भारती चेतना के प्रतिनिधि कवि हैं यह जीवन की सच्ची अनुभूतियों के शहद शिल्पी हैं उनके काव्य में न तो किसी प्रकार का सैद्धांतिक दुराग्रह है नहीं शिल्पगत दुराव इनकी कविताओं में प्रयोगवाद तथा नई कविता के संदर्भ के बारे में महत्वपूर्ण उपलब्धि समझी जाती हैं। इनके काव्य की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं रूमानियत की भावना प्राकृतिक चित्रण अनाज था निराशा और पराजय की भावना आस्था और निर्माण का स्वर उनकी जो भाषा शैली है वह चित्रात्मक वर्णनात्मक तथा आत्मकथात्मक भी रही है प्रेम वासना निराशा नाश्ता के स्वरों के अतिरिक्त भारती के काव्य में आस्था विश्वास पर निर्माण की गूंज भी दिखाई दी है।
निष्कर्ष 
डॉ भारती का साहित्य कई मोड़ो से गुजर कर आज का एक विशिष्ट मुकाम हासिल कर चुका है अपनी कावर यात्रा के प्रारंभिक मोड पर डॉ भारती छायावादी गीतकार के रूप में अवतरित हुए परंतु अगले ही मोड़ पर उनके साहित्य में मांस लता प्रेम रूप यौवन और आनंद के दर्शन होते हैं डॉ भारती ने अपने ग्रंथ साथ गीत वर्ष में अपनी वास्तविक राह पाकर पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं इनकी रचनाओं में सिद्धू का रिवाज वैष्णव का महा भाव अस्तित्व वादियों का संवाद छायावाद का रोमांच संभ्रांत वर्ग का परिष्कृत रुचि पहनी पर्यवेक्षण शक्ति और अभी रामसन संश्लिष्ट शैली के दर्शन होते हैं उनके काव्य में प्रेमा अनुभूति से लेकर विद्रोहात्मक आत्मक स्वर तक सबकुछ उपलब्ध है।